Thursday 7 January 2016

हिंदी ग़ज़ल

मेरी उम्र के पाठकों को शायद याद हो कि एक दौर में हम आकाशवाणी से समाचार सुना करते थे। समाचार बुलेटिन का आरंभ इस तरह से होता था- ''अब आप देवकीनंदन पांडेय (या विनोद कश्यप, इंदु वाही, अशोक बाजपेयी या कोई अन्य) से हिन्दी में समाचार सुनिए।"  इस पर हम चुटकियां लेते थे कि हिन्दी में समाचार कहने में क्या तुक है। क्या ''अब आप समाचार सुनिए'' कहने मात्र से काम नहीं चलता।  यह पुराना किस्सा इसलिए याद आ गया कि मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि हिन्दी गज़ल कहने से क्या साबित होता है। अगर अरबी-फारसी में लिखी गज़ल को देवनागरी में लिखा गया हो तब तो यह स्पष्ट करने की आवश्यकता पड़ सकती है कि यह रचना किस  भाषा में की गई है। अगर उर्दू से भेद दिखाने के लिए हिन्दी पर जोर दिया जा रहा है तब बात समझ में नहीं आती क्योंकि दोनों के बीच कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। 

इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं और मैं भी गाहे-बगाहे उल्लेख कर चुका हूं कि हमारी कविता में गज़ल अपना स्थान बना चुकी है। यह संभव है कि चालीस-पैंतालीस साल पहले जब हिन्दी कवियों ने गज़ल का चलन प्रारंभ किया तब एक नए फॉर्म को अलग से रेखांकित करने के लिए हिन्दी गज़ल संज्ञा का प्रयोग किया गया हो, लेकिन अब यह बात पुरानी हो चुकी है। जैसे कविता की अन्य उप-विधाएं हैं, वैसे ही गज़ल भी हैं। इस नाते हिन्दी के सारे गज़लकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अब गज़ल के साथ हिन्दी लिखना बंद कर दें। इसमें मुझे अत्युक्ति दोष नजर आता है। पाठक जानते हैं कि त्रिलोचन तथा कुछ अन्य कवियों ने सॉनेट लिखे, लेकिन उन्होंने कभी उसे हिन्दी सॉनेट नहीं कहा। अभी गजल के बाद हाईकू लिखने का चलन प्रारंभ हो चुका है, लेकिन ध्यान नहीं पड़ता कि किसी कवि ने उसे हिन्दी हाईकू की संज्ञा दी हो। मुझे लगता है कि अगर हिंदी गज़लकार सिर्फ गज़ल संज्ञा का प्रयोग करें तो उर्दू अदब में भी वे साथ-साथ स्वीकृति हासिल कर पाएंगे। 
'अलाव' पत्रिका  का समकालीन हिन्दी गज़ल पर एक पुस्तकाकार विशेषांक हाल-हाल में प्रकाशित हुआ है। इसमें केवल गोस्वामी का जो संक्षिप्त लेख है उससे मेरी उपरोक्त टिप्पणी का समर्थन होता है। पत्रिका के संपादक और सुपरिचित रचनाकार रामकुमार कृषक ने यह अंक प्रकाशित कर सही मायने में एक महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने एक ऐसी रिक्ति को भरने की कोशिश की है जिसके बारे में जानते तो सब थे, लेकिन जिसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता अभी तक हिन्दी जगत में समझी नहीं गई थी। श्री कृषक स्वयं गज़लें लिखते हैं। उन्होंने यह अंक प्रकाशित कर अपनी प्रिय विधा की ओर हो रहे दुर्लक्ष्य को दूर करने की दिशा में सार्थक परिश्रम किया है। इस हेतु वे बधाई के पात्र हैं। जब बाकी लोग जानबूझकर मुंह फेरे हुए हैं तो हम खुद अपनी बात क्यों न उठाएं, यह भाव इस अंक के लेखों में है और मैं उसे सही मानता हूं। 
पांच सौ पृष्ठ के इस विशेषांक में बहुत सारे समीक्षात्मक लेख हैं। अनेक गज़लकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का एक संक्षिप्त चयन भी इसमें है। अपने लेखों से अंक को प्रतिष्ठा देने वालों में विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय बहादुर सिंह, असगर वजाहत और राजेश जोशी इत्यादि अनेक नाम हैं। यह निश्चित ही एक संग्रहणीय और उपयोगी अंक है। यह संभावना बनती है कि रामकुमार कृषक इसे कुछ समय बाद पुस्तक के रूप में प्रकाशित करें। तब यह हिन्दी काव्य शास्त्र के अध्येताओं के लिए लंबे समय तक काम आने वाली संदर्भ पुस्तक बन जाएगी। संपादक ने पत्रिका को नौ खंडों में बांटा है। पहले खंड में हिन्दी गज़ल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उद्घाटित करते लेख हैं और आखिरी खंड में तेईस गज़लकारों की सपरिचय तीन-तीन प्रतिनिधि रचनाएं दी गई हैं। इनके बीच बाकी खंडों में अनेक लेखकों, समीक्षकों व संपादकों के विचार संकलित किए गए हैं, कुछ संक्षिप्त, कुछ विस्तारपूर्वक। इनमें गज़ल की भाषा, व्याकरण, छंद अनुशासन, गेयता आदि पहलुओं पर विवेचन हुआ है।
इस विशेषांक की सामग्री का अनुशीलन करने से अनेक बिन्दु स्पष्ट होते हैं। सबसे पहले तो यही पता चलता है कि हिन्दी के लिए गज़ल कोई नई विधा नहीं है। आज हम अधिकतर जिस खड़ी बोली हिन्दी को व्यवहार में लाते हैं उसके प्रणेता अमीर खुसरो ने भी गज़लें कही थी। नित्यानंद श्रीवास्तव के लेख में तो यह दावा तक किया गया है कि जयदेव कृत गीत गोविन्द में गज़ल का शिल्प-विधान है। गोस्वामी तुलसीदास की पद ''श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" को भी वे गज़ल की श्रेणी में रखते हैं। उनकी इस स्थापना को विद्वान समालोचक कितना स्वीकार करेंगे, यह कहना कठिन है। बहरहाल, इतना तो तय है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक उपनाम से गज़लें लिखी थीं, जिसका उल्लेख इस अंक के अनेक लेखकों ने किया है। नित्यानंद जी ने उनके समकालीन, आध्यात्मिक गुरु स्वामी रामतीर्थ की गज़लों के उद्धरण दिए हैं और इस तरह एक नई जानकारी जोड़ी है। भारतेन्दु के बाद जिन कवियों ने गज़ल को साधने की कोशिश की उनमें निराला, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन के नाम मुख्य रूप से आते हैं। विकास क्रम में इन नामों का उल्लेख किया जाना उचित है, किन्तु साथ-साथ यह कहना भी आवश्यक है कि इन्होंने अपनी रचना सामर्थ्य सिद्ध करने के लिए भले ही गजलें लिखी हो, लेकिन वह इनमें से किसी की भी मुख्य विधा नहीं थी। दरअसल, हिन्दी में गज़ल को लोकप्रिय करने का काम दुष्यंत कुमार के साथ प्रारंभ होता है। इसे सभी निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं तथा इस विशेषांक में शायद ही कोई ऐसा लेखक है जिसने दुष्यंत का उल्लेख न किया हो। हां मुझे यह देखकर थोड़ी निराशा भी हुई कि किसी भी लेखक ने कमलेश्वर और उनके द्वारा संपादित 'सारिका' का जिक्र नहीं किया जबकि मेरी याददाश्त के अनुसार दुष्यंत कुमार को सारिका के मंच से ही सर्वप्रथम ख्याति मिली थी। 
दुष्यंत कुमार के गज़लगजल संकलन 'साए में धूप' की चर्चा अनेक लेखकों ने की है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दुष्यंत को अपनी इन रचनाओं के माध्यम से जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह उनके समकालीनों के लिए दुर्लभ थी। आज भी चाहे स्कूल कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिता हो, चाहे राजनैतिक मंच से नेताओं के भाषण या फिर आंदोलनकारियों की सभा, दुष्यंत कुमार के शेर मुहावरों की तरह प्रयुक्त किए जाते हैं। मसलन ''कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।" या फिर ''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।" पाठकों को स्मरण होगा कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी चुनावी सभाओं में इन शेरों का काफी उपयोग किया। किसी भी रचनाकार के लिए यह देखना संतोष का विषय हो सकता है कि कवि के शब्दों में समाज को प्रभावित करने की कितनी क्षमता है। 
दुष्यंत कुमार को मिली लोकप्रियता का विश्लेषण इस अंक के लेखकों ने अपनी-अपनी तरह से किया है। इसमें मिथक भी जुड़ गए हैं। यहां तक दावा किया गया कि दुष्यंत कुमार की ये गज़लें आपातकाल के विरोध में लिखी गई थी। ऐसा कहने वाले उनकी एक नई छवि गढऩे की कोशिश कर रहे हैं। जीवन सिंह ने लिखा कि दुष्यंत ने गज़ल का उपयोग तानाशाही के विरुद्ध लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के पक्ष में एक हथियार के रूप में किया। इस पर श्री सिंह ने कुछ विस्तार से बात की है। वे दुष्यंत की तुलना नागार्जुन से करते हुए कहते हैं- ''दुष्यंत कुमार की खासियत और हिम्मत दोनों रही कि वे उसे तानाशाही और आतंक की राजनीति के विरुद्ध एक ऐसे मोर्चे पर ले गए जो जिंदगी का अग्रिम मोर्चा होता है।" इसका खंडन इसी अंक में जानकी प्रसाद शर्मा के साक्षात्कार से होता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि आपातकाल लगने के कुछ माह बाद ही दुष्यंत का निधन हो गया था तथा 'साए में धूप' की अनेक गज़लें उनके पहले के संग्रहों में आ चुकी थीं। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी का जिक्र मुख्य रूप से हुआ है। इनके अलावा विशेषांक के संपादक रामकुमार कृषक, सहयोगी संपादक विनय मिश्र तथा बल्ली सिंह चीमा, ज्ञानप्रकाश विवेक, रामनारायण स्वामी, राम मेश्राम इत्यादि अनेक कवियों की चर्चा इस अंक के लेखों में की गई है। इनमें ऐसे अनेक लेख हैं जो स्वतंत्र रूप से प्रकाशित होने पर शायद अधिक प्रभाव छोड़ते, लेकिन कुछेक नामों की बार-बार चर्चा और उनके योगदान की प्रशंसा के चलते अंक में एक तरह की बोझिलता आ गई है। इस ओर शायद संपादक का ध्यान नहीं गया या उनके सामने यह समस्या शायद रही हो कि जिनसे लेख आमंत्रित किए हैं उन्हें अप्रसन्न कैसे किया जाए। लेख आ गया, तो उसे प्रकाशित करना शायद मजबूरी हो गई। दूसरी ओर चंद्रसेन विराट, ओम प्रभाकर जैसे नामों का जिक्र ही नहीं हुआ। सूर्यभानु गुप्त की चर्चा भी जैसे चलते-चलते हुई।
एक बढिय़ा बात यह देखने मिली कि हिन्दी साहित्य में गज़ल के आगमन और अपना विशिष्ट स्थान बना लेने का लगभग सबने स्वागत किया है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने माना है कि बोधगम्य और लोकप्रिय होने के लिए गज़ल की विधा कारगर है। डॉ. मैनेजर पाठक ने जो साक्षात्कार दिया है उसमें वे गज़लगजल के प्रति अपनी पूर्व धारणा बदलने की बात स्वीकार करते हैं। राजेश जोशी का मानना है कि हिन्दी की गज़ल सामाजिक और राजनीतिक गज़ल है। विजय बहादुर सिंह हिन्दी गज़ल की कमियों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन वे इस माध्यम से हिन्दी और उर्दू के पास आने व घुलमिल जाने की संभावना देखते हैं। इसी तगज़लरह असगर वजाहत का कहना है कि हिन्दी गज़ल एक तरह से उर्दू गज़ल परंपरा का विकास है। वे कमियों की तरफ इशारा करते हैं और उम्मीद करते हैं कि गज़ल के फार्म की जो चुनौतियां हैं वह उसका सामना करेगी। 
महेन्द्र नेह ने अपने लेख में फैज अहमद 'फैज' के हवाले से कहा है कि अब गज़ल को हिन्दी वाले ही बचाकर ले जाएंगे। यह बात सुनने में अविश्वसनीय लगती है। फैज ने कब, कहां ऐसा कहा, इसका विवरण उपलब्ध होता तो बेहतर था। इसी लेख में श्री नेह कहते हैं कि अब समीक्षकों द्वारा उसकी उपेक्षा का सवाल लगभग बेमानी हो गया है। कुछ अन्य लेखकों ने भी इस तरह की बातें की है। यह थोड़ी अजीब स्थिति है। आज जिस विधा में लिख रहे हैं उसे लोकप्रियता मिली है, उसका स्थान बन चुका है, लेकिन इसमें इतराने की कोई बात नहीं है। अगर गजलकार अपनी कमजोरियों को स्वीकार नहीं करेंगे तो इसमें उनका ही नुकसान है। यह ठीक है कि गज़ल के शेर सुनने में अच्छे लगते हैं। छंद और गेयता के कारण वे स्मृतिकोष में सुरक्षित भी हो जाते हैं, लेकिन हर रचनाकार की सामर्थ्य,अपनी सीमा होती है। जिस तरह कवियों की संख्या अनंत है, लेकिन सबकी मान्यता एक जैसी नहीं है, वही स्थिति गज़ल के साथ भी है। जो रचना अच्छी होगी वह याद रही आएगी।
मैं यहां एक-दो बिंदुओं पर गज़लकारों व गज़ल के पैरोकारों का ध्यान खासकर आकृष्ट करना चाहता हूं। यह स्पष्ट है कि गीत की ही भांति गज़ल में गेयता एक प्रमुख तत्व है, किंतु आए दिन जो गज़लें पढऩे मिलती हैं, उनमें से अधिकतर मंच के योग्य नहीं हैं। समाज में साहित्य की लोकप्रियता बढ़ाने में गज़ल महती योगदान कर सकती है, पर इसके लिए कवियों को पत्रिकाओं के बजाय मंच सिद्ध करने पर ध्यान देने चाहिए। उनके सजग प्रयत्नों से मंच भी स्वास्थ्य लाभ कर पाएगा। दूसरे, गज़लकारों को इस मिथ्या अभिमान से बचने की आवश्यकता है कि उन्होंने आकर छंदमुक्त कविता का युग समाप्त कर दिया है। वर्तमान समय की जटिलताओं को उद्घाटित करने में नई कविता या छंदमुक्त कविता ही उपयुक्त माध्यम है; गीत या गजल में उसकी आंशिक पूर्ति ही संभव है। 
कुल मिलाकर अलाव के इस विशेषांक से गज़ल या कि हिन्दी गज़ल के बारे में हमारी जानकारी व समझ में वृद्धि होती है। हिन्दी गज़ल को लेकर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन उनमें इतने विस्तारपूर्वक विमर्श की गुंजाइश नहीं थी। अधिकतर पुस्तकें गज़लकारों द्वारा अपने समर्थन में लिखी गई थी जबकि अलाव के लेख विविध विचारों को प्रतिबिंबित करते हैं। इससे एक सम्यक सोच विकसित होने का अवसर मिलता है। रामकुमार कृषक व विनय मिश्र को पुन: बधाई और सभी पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं।
आलोच्य पत्रिका - अलाव
अंक- 45
संपादक-प्रकाशक- रामकुमार कृषक द्वारा सी-3/59, 
नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्तार, दिल्ल्ली-110090
पृष्ठ- 496
मूल्य- 150 रुपए 

अक्षरपर्व जनवरी 2016 अंक की प्रस्तावना 

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