मेरा मानना है कि जनतांत्रिक राजनीति में दलबदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। अगर विचारों में परिवर्तन को प्रारंभ से ही बुराई मान लिया जाए तो यह उस व्यक्ति के अधिकार का हनन या उसमें हस्तक्षेप करना होगा। स्वतंत्र भारत की राजनीति में दलबदल के दर्जनों उदाहरण हमारे सामने हैं, जो इस अधिकार की पुष्टि करते हैं। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी याने राजाजी भारत के शीर्ष राजनेता थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। कांग्रेस ने ही उन्हें देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी। ऐसे उद्भट विद्वान व विचारशील नेता ने भी एक दिन अपनी मातृसंस्था छोड़कर स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर ली। एक अन्य विद्वान राजनेता तथा पुराने कांग्रेसी मीनू मसानी उनके सबसे विश्वस्त एवं प्रमुख सहयोगी के रूप में इस पार्टी में आए।
हमने चूंकि ब्रिटेन संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को काफी हद तक अपनाया है, इसलिए अपने राजनैतिक क्रियाकलापों में हमारे अध्येता अक्सर ब्रिटिश संसद की नजीरें पेश करते हैं। इनमें से एक है कि कोई निर्वाचित सदस्य सदन में पार्टी के रुख से अपनी स्पष्ट असहमति व्यक्त कर सकता है, वह पार्टी के खिलाफ जाकर वोट भी दे सकता है; लेकिन दो मौकों पर उसे पार्टी व्हिप का पालन करना अनिवार्य होता है, पहिला अविश्वास प्रस्ताव के समय और दूसरा- वित्तीय विधेयक (मनी बिल) के दौरान। इसमें अगर सदस्य ने पार्टी अनुशासन का पालन नहीं किया तो उसकी सदस्यता खारिज हो जाएगी। कारण यह है कि उपरोक्त दो मौके ही हैं जब शक्ति परीक्षण में हारने पर सरकार गिर जाती है अन्यथा नहीं। आज भी ब्रिटिश संसद में गाहे-बगाहे सदस्य अपनी पार्टी के खिलाफ वोट देते हैं, पार्टी बदल भी लेते हैं, लेकिन उनकी सदस्यता बरकरार रहती है।
भारत में इसी तर्ज पर स्वस्थ परंपराएं विकसित होने की उम्मीद की जाती थी। किंतु 1967 में जो राजनैतिक पाखंड घटित हुआ उसने निर्वाचित सदनों की पवित्रता नष्ट कर उन्हें सदस्यों के नीलामीघर में बदलने में कोई कसर बाकी न रखी। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कांग्रेस आलाकमान से अनुमति मांगी थी कि 37 विधायकों द्वारा थोक में दलबदल करने के कारण वे राज्यपाल से विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश कर सकें। अगर श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें यह अनुमति दे दी होती तो मध्यप्रदेश के बाद बाकी प्रदेशों में भी इसका अनुकरण होता तथा अपनी महत्वाकांक्षा के चलते दलबदल कर सत्तासुख चाहने वालों के मंसूबों पर एक सिरे से पानी फिर जाता। किंतु तब इंदिराजी को यशवंतराव चव्हाण ने यह भरोसा दिला दिया था कि इसी तरह दलबदल करवाकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन सकती है और इस धोखे में उन्होंने मिश्रजी की बात नहीं मानी। देश में तब से गयाराम-आयाराम का जो खेल चल रहा है, उसे सब देख रहे हैं।
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया, तब संसदीय जनतंत्र में जड़ें जमा चुके दलबदल के रोग को समाप्त करने के लिए दलबदल विरोधी कानून संसद से पारित हुआ। इस कानून में सबसे बड़ी कमजोरी या विसंगति यह थी कि व्यक्तिगत दलबदल पर तो रोक लगाई गई किंतु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई। प्रारंभ में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक दल बदलते हैं तो यह कानून के दायरे में नहीं आएगा। आगे चलकर इसे पचास प्रतिशत और अब दो तिहाई कर दिया गया। लेकिन मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की वाला शेर यहां मौजूं सिद्ध हुआ। उस समय समाजवादी नेता मधु लिमये एकमात्र सांसद थे जिन्होंने राजीव सरकार के विधेयक का विरोध किया था कि इससे दलबदल नहीं रुकेगा। तब कम से कम हिंदी में देशबन्धु ही एकमात्र अखबार था जिसने मधुजी के तर्कों से सहमति रखते हुए बिल के विरोध में टिप्पणी की थी। हमारा आज भी मानना है कि अच्छे इरादे से पेश विधेयक में नाहक कानूनी दांव-पेंच फंसा दिए गए, जिसकी तोड़ भी वैसे ही दांव-पेंचों के द्वारा ढूंढ ली गई।
विगत तीस वर्षों में अनेक प्रदेशों में दल-बदल के अनेक कुत्सित प्रयास जनता ने देखे हैं। जो बड़े प्रदेश हैं, वहां स्थिति बेहतर है, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे प्रदेशों में जहां विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम है, हालात चिंताजनक ही कहे जाएंगे। वर्तमान कानून का सबसे ज्यादा मखौल तो शायद गोवा प्रदेश में किया गया है, जहां मात्र चालीस सदस्यों की विधानसभा है। अभी हाल तक वहां कब कौन सदस्य दल बदल कर किस पार्टी में चला जाए कुछ समझ ही नहीं आता था। एक उदाहरण तो मेरे गृह प्रदेश छत्तीसगढ़ का है, जहां कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने सदन में स्पष्ट बहुमत होते हुए भी भाजपा के बारह विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में शामिल कर लिया। इस राजनैतिक चातुरी का खामियाजा आज भी प्रदेश में कांग्रेस पार्टी भुगत रही है। अविभाजित मध्यप्रदेश में भी हमने दर्शक दीर्घा में बैठकर वह तमाशा देखा था जब गुजरात के बागी भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला अपने साथ कितने अन्य बागियों को लेकर खजुराहो में म.प्र. की दिग्विजय सरकार के मेहमान हुए थे।
इधर केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने भी मानो तय कर लिया है कि कल तक कांग्रेस ने जो किया, वह हम भी करेंगे। इसमें इतना संशोधन कर देना उचित होगा कि जो रास्ता पहले-पहल भाजपा ने दिखाया, मसलन म.प्र. में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के संरक्षण में, वही रास्ता कांग्रेस ने अपनाया और आगे बढ़ते हुए भाजपा पुन: अपने पुराने मार्ग पर आ गई है। अरुणाचल, मणिपुर, उत्तराखंड में हाल के दिनों में जो राजनैतिक हलचलें देखने मिलीं, वे इसका सबूत हैं। भाजपा कांग्रेस को कहती है कि अगर तुम्हारे भीतर कलह है तो हमें दोष क्यों देते हो। लेकिन तटस्थ पर्यवेक्षक तो यही कहेगा कि भाजपा को कांग्रेस के भीतरी विग्रह में दखल क्यों देना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा उनके नियंत्रक सरसंघचालक सब किस कदर जल्दबाजी में नज़र आते हैं कि आसेतु हिमालय भाजपा का परचम व संघ का ध्वज अखंड फहराने लगे, पर इसके लिए नैतिकता व जनमत की परवाह न की जाय, इसे कैसे उचित माना जाए?
मेरा दलबदल के संबंध में मानना है कि अंतत: ब्रिटिश संसदीय परंपरा का पालन करने से ही हम इस बुराई से छुटकारा पा सकेंगे। फिलहाल दलबदल कानून में एक अंतिम संशोधन की तजवीज मैं करना चाहूंगा कि जो भी विधायक/ सांसद दलबदल करे वह अपनी सीट से तुरंत इस्तीफा देकर नई पार्टी के चिन्ह पर चुनाव लड़ कर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करे। इसके सिवाय कानून में वर्तमान में जो भी प्रावधान हैं, वे सारे के सारे निरस्त कर दिए जाएं। जिस जनता ने आपको एक बार चुनकर भेजा है, उसी के सामने दुबारा जाइए और अपनी सफाई पेश कीजिए। वह मान जाए तो जीत, न माने तो हार।
देशबन्धु में 28 अप्रैल 2016 को प्रकाशित
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