Thursday, 30 June 2016

तकनीकी प्रगति और तीन बच्चे



दिल्ली हवाई अड्डा। प्रस्थान द्वार से विमान तक ले जाने वाली बस में मेरे साथ-साथ कोई बीस जनों का एक समूह भी चढ़ा। कुछ स्त्री, कुछ पुरुष, कुछ बच्चे। वेशभूषा से समझ आ रहा था कि छत्तीसगढ़ के हैं। मैंने बातचीत शुरु की तो पता चला कि रायपुर के नजदीक किसी गांव के एक परिवार के ही सारे सदस्य थे। बच्चों की छुट्टियों में उन्हें लेकर वैष्णोदेवी, हरिद्वार आदि गए थे।  किसान परिवार था, लेकिन सब भाई रायपुर में अपने-अपने निजी काम भी करते हैं। मेरे नजदीक जो बच्चा खड़ा था वह रायपुर के एक प्रसिद्ध कॉन्वेंट स्कूल का विद्यार्थी है। जानकर अच्छा लगा कि एक पिता जिसके पांव अभी गांव की धरती और अपने खेत पर टिके हैं, वह अपनी संतति के भविष्य के बारे में वर्तमान सोच के साथ कदम मिलाकर चल रहा है। इसके थोड़ी देर पहले विमानतल के लाउंज में दो नन्ही लड़कियों को मैंने देखा। दसेक साल की एक लडक़ी। माता-पिता के साथ थी। वह पूरे समय अपने मोबाइल पर सहेलियों के साथ बात करने में मशगूल थी। दूसरी लडक़ी उससे शायद छोटी ही रही होगी, अकेली यात्रा कर रही थी। एयर लाइंस का स्टॉफ उसका ख्याल रख रहा था और वह बीच-बीच में मोबाइल पर अपनी मां से बात करती थी।

इस तरह तीन कहानियां सामने आईं। पहली में एक किसान परिवार की चिंता कि बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ेंगे तभी वर्तमान परिस्थिति में उनका भविष्य सुखद हो पाएगा। दूसरी एक सम्पन्न परिवार की कहानी जिसमें अपने बच्चों की सुख-सुविधा का ख्याल और उनकी इच्छा या फरमाइशें पूरी करने में कोई कंजूसी नहीं। तीसरी कथा में आज के माता-पिता का आत्मविश्वास और अपने बच्चों को प्रारंभ से ही निर्भय बनने की सीख। इन तीनों दृश्यों का घटनास्थल नई दिल्ली का टर्मिनल-1 याने वह पुराना विमानतल था जिसने अब भारत के किसी भी भीड़ भरे रेलवे स्टेशन अथवा बस स्टैण्ड की तस्वीर अख्तियार कर ली है। आप जब जहाज से उतर कर आगमन कक्ष में प्रवेश करते हैं तो पोर्टर सामने आकर पूछते हैं कि क्या आपको सेवा की दरकार है? प्रस्थान खंड में तो भीड़ मानो उमड़ी पड़ती है। बस, महंगे सामानों की दुकानें और एक सौ तीस रुपए कप की चाय ही अहसास कराती है कि आप बस अड्डे पर नहीं हवाई अड्डे पर हैं।

कोई चार-पांच साल हुए एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी, जिसका शीर्षक था - 
 AEROTROPOLIS (एयरोट्रोपोलिस)। इस पुस्तक की केन्द्रीय अवधारणा यह थी कि अगर प्राचीन समय में सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ था तो आज उनका स्थान उन विशाल हवाई अड्डों ने ले लिया है जहां यात्रियों के अलावा माल ढुलाई के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। लेखक जॉन कसार्डा ने अमेरिका के कुछ ऐसे विमानतलों का जिक्र किया था जहां पहले बड़े विमानतल बने और फिर उनके आसपास शहर आबाद होना शुरु हुए। भारत में हैदराबाद का राजीव गांधी विमानतल शायद ऐसा एकमात्र उदाहरण बन सकता है। कहने का मतलब यह कि तकनीकी प्रगति ने हमारी जीवनचर्या और सामाजिक संबंधों को जिस तरह से बदला है उसके बहुत से पहलू हैं। यातायात के साधनों को भी इनमें गिना जा सकता है।

मैं यहां फिर छत्तीसगढ़ के उपरोक्त किसान परिवार का उल्लेख करना चाहूंगा। मेरे पूछने पर उनमें से एक ने बताया था कि यात्रा कुल छह-सात दिन की थी। बच्चों के स्कूल खुलने से पहले लौटकर आना था, इसलिए ज्यादा दिन नहीं। याद करिए उन दिनों को जब गांव के किसान तो दूर, शहर के मध्यवित्त परिवार भी किसी ट्रैवल एजेंसी के भरोसे पन्द्रह-बीस दिन की तीर्थ यात्रा पर जाया करते थे। आज सस्ते किराए के कारण हवाई यात्रा का एक तरह से लोकतंत्रीकरण हो रहा है। विमान सेवा सिर्फ उच्च वर्ग का साधन नहीं रह गई है। इसके अलावा जो देश काल की अनंतता में विश्वास रखता था, जहां समय की कोई कीमत नहीं थी, आज वहां भी लोग छुट्टियों का हिसाब रखने लगे हैं और अपने अवकाश से ज्यादा उन्हें बच्चों की पढ़ाई की चिंता सताने लगी है। मैं समझता हूं कि कॉन्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ा रहे किसान परिवार में उदित एक नए आत्मविश्वास का परिचय भी इससे मिलता है।

एक तरह से देखें तो इस तकनीकी प्रगति में हमारे मन में वर्तमान और भविष्य दोनों के प्रति एक आश्वस्ति का भाव ही जागृत होता है। वह नौ-दस साल की बच्ची जो अकेले यात्रा कर रही थी, उसके माता-पिता उसे शायद रेल या बस में इस तरह अकेले नहीं जाने देते। अभी जो तेज रफ्तार रेलों की योजनाएं देश में बन रही हैं उनके लागू हो जाने के बाद क्या रेल यात्रा निरापद हो पाएगी? क्या रेलवे का स्टॉफ यात्रियों की देखभाल करने में सक्षम होगा? क्या गति बढऩे के साथ-साथ हमारी सामाजिक सोच में कोई अनुकूल परिवर्तन आएगा? नई तकनालॉजी के बारे में विचार करते हुए कई प्रश्न मन में उठते हैं। मिसाल के लिए चिकित्सा विज्ञान में जो नए उपकरण आविष्कृत और उपलब्ध हुए हैं वे निश्चित रूप से उपयोगी होंगे, लेकिन क्या उनका इस्तेमाल उन्हीं प्रयोजनों में हो रहा है जिनके लिए उनका आविष्कार हुआ? क्या वे निरपेक्ष यंत्र मात्र हैं अथवा उनका कोई सामाजिक संदर्भ भी है?

एक समय भ्रूण के लिंग परीक्षण का कोई साधन नहीं था। लडक़ा होगा या लडक़ी इसका अनुमान ही लगाया जाता था। फिर अल्ट्रा सोनोग्राफी मशीन आ गई। उसका इस्तेमाल अनेक बीमारियों की पड़ताल में होता है, लेकिन इससे यह भी पता चल जाता है कि भ्रूणस्थ शिशु का लिंग क्या है। ऐसे किस्से बहुत सुनने में आए, यहां तक कि फिल्में भी बनीं कि नवजात कन्या को अफीम देकर या गला दबाकर या ईंट से दबाकर मार डाला गया।  इस नए दौर में सोनोग्राफी मशीन आने से सुविधा हो गई कि प्रसव से पहले ही कन्या भ्रूण को नष्ट कर दिया जाए। इसे रोकने के लिए कानून भी बन गया। क्लीनिक के बाहर बोर्ड लग गया कि यहां लिंग परीक्षण नहीं होता, लेकिन फिर पता चला कि मोबाइल सोनोग्राफी मशीन आ गई; यह भी सुनने में आया कि सम्पन्न लोग जांच करवाने थाइलैंड चले जाते हैं। कुल मिलाकर यह क्रूर सच्चाई सामने आती है कि एक तरफ जहां सामाजिक संबंधों में अनेक तरह के बदलाव आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी अपनी रूढि़वादी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं है।

हमारे सामने यहां दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है। मशीन तो निर्जीव है इसलिए निरपेक्ष भी। लेकिन मशीन जिसके नियंत्रण में है क्या वह भी उसी रूढि़वादी सोच से जकड़ा हुआ है जिस तरह कि इसका उपयोग करने आने वाले लोग? याने यहां नूतन आविष्कार और आधुनिक सोच दोनों विरुद्धार्थी हो गए। रूढि़वादिता ने समाज को किस तरह जकड़ रखा है उसके अन्य उदाहरण भी देखने में आते हैं। आईआईटी या आईआईएम से पढ़े और बहुराष्ट्रीय कंपनियों अर्थात् एमएनसी में कार्यरत ऐसे युवकों के बारे में सुनने में आता है कि अगर होने वाली पत्नी का वेतन उनसे ज्यादा हो तो वे इसमें असहजता महसूस करते हैं।

एक तरफ ये युवक सॉफ्टवेयर डेवलप करने में लगे हैं, दूसरी तरफ आज भी पुरातनपंथी पुरुषवादी मानसिकता में बंधे हैं। अगर खुदा न खास्ता अपने से अधिक वेतन पाने वाली या अपने से बड़े ओहदे पर काम कर रही लडक़ी से शादी हो गई तो घर में कलह शुरु होने में अधिक समय नहीं लगता। इनमें ऐसे उदाहरण हैं जो सर्वगुण सम्पन्न ऐसी पत्नी चाहते हैं जो घर पर रहकर इनके लिए खाना पकाए और कोई काम न करें। इस मानसिकता का परिचय अखबार में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में भी देखने मिलता है। इन विज्ञापनों में जाति, उपजाति और धर्म का अनिवार्य उल्लेख होता है। यह भी कि लडक़ी सुंदर, सुशील, गृहकार्य में निपुण होना चाहिए और लडक़ा ग्रीन कार्ड होल्डर हो तो उसका बखान अवश्य होता है।

कुल मिलाकर बात यहां रुकती है कि तकनालॉजी के विकास और वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जीवन पहले से सुविधापूर्ण करने में महती भूमिका निभाई है किन्तु यदि इसके साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया, यदि पुरातन मान्यताओं में जो बहुत कुछ सड़ा-गला है उसका निषेध नहीं किया तो ऐसी आधुनिकता किसी काम की नहीं।

देशबन्धु में 30 जून 2016 को प्रकाशित 
 

Wednesday, 22 June 2016

साथ-साथ चुनाव करवाने का विचार



 मोदी सरकार और भाजपा दोनों की मंशा है कि लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए जाएं। मंत्रियों और नेताओं से इस आशय के बयान लगातार आ रहे हैं। सरकार का बस चलता तो इस बारे में अभी तक निर्णय ले लिया गया होता। लेकिन उसके पहले कुछ व्यवहारिक और कुछ तकनीकी अड़चनों का हल निकालना जरूरी है। इसमें पहली कठिनाई तो इस बात को लेकर होगी कि हर पांच साल में एक साथ चुनाव कराने का निर्णय जम्मू-कश्मीर प्रांत पर कैसे लागू किया जाए। वहां देश की एकमात्र ऐसी विधानसभा है जिसकी अवधि छह साल की होती है। जब तक यह  नियम न बदला जाए कम से कम एक प्रांत तो बचा ही रहेगा जहां लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव नहीं हो सकेंगे। देखना होगा कि मोदीजी इस संबंध में अपनी नई सहयोगी महबूबा मुफ्ती को और सुश्री महबूबा प्रदेश की जनता को किस प्रकार से राजी करा पाती हैं।

भाजपा के इस प्रस्ताव के गुण-दोषों पर विचार करने के पूर्व हम सरकार को सलाह देना चाहेंगे कि अगर इस विचार को वास्तविकता में परिणित करना है तो इस दिशा में पहला कदम अगले साल याने 2017 में उठाया जा सकता है। अगले वर्ष देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव होना है। उसके अलावा गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल व गोवा  में भी चुनाव होंगे। केन्द्र सरकार के तीन साल भी अगली मई में पूरे हो जाएंगे। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश ने दो वर्षों में जो प्रगति की है उसे विकासपर्व के रूप में अभी मनाया जा रहा है। संभव है कि अगले वर्ष उत्सव मनाने के लिए विकास के कुछ अतिरिक्त दृष्टांत भी उपस्थित हो जाएं। यही वर्ष होगा जब भाजपा शासित तीन प्रमुख प्रदेशों में विधानसभा चुनावों के लिए मात्र एक वर्ष का समय बचा रहेगा। ये प्रदेश हैं- राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़। पार्टी अगर चाहेगी तो इन तीनों में एक वर्ष पहले विधानसभा भंग कर नए चुनाव करवाना कोई मुश्किल बात नहीं होगी।

लोकसभा में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है। वह अगले आम चुनाव में भी अपनी दुबारा विजय के प्रति खासी आश्वस्त है। अपनी तीन साल की उपलब्धि के बल पर वह मध्यावधि चुनाव में जाने का फैसला करे तो पार्टी के अपने आकलन के अनुसार उसकी जीत में कोई संदेह नहीं है। ऐसे में यदि उत्तरप्रदेश, पंजाब व गुजरात के साथ तीन अन्य बड़े प्रदेशों में तथा गोवा, उत्तराखंड व हिमाचल इन तीन लघु प्रदेशों में विधानसभा चुनाव करवाए जाएं तो पूरे न सही आधे प्रदेशों में तो चुनाव हो ही जाएंगे। इसमें भारतीय जनता पार्टी झारखंड, हरियाणा, आंध्र, असम, अरुणाचल व नगालैण्ड को भी शायद शामिल कर सकती है जहां भाजपा या उसके समर्थक दल की सरकार है। उसके बाद सिर्फ वे प्रदेश बच जाते हैं जहां कांग्रेस या अन्य विरोधी दलों की सरकारें हैं। उन्हें समय पूर्व चुनाव कराने के लिए सहमत कर पाना शायद कठिन होगा।

हमारे सामने संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण है। वहां पर हर दो साल में एक तिहाई राज्यों में गवर्नर, विधानमंडल व सीनेट के लिए चुनाव होते हैं। इस वर्ष भी राष्ट्रपति चुनाव के साथ सोलह या सत्रह राज्यों में राज्य के गवर्नर, विधानमंडल व अमेरिकी सीनेट के लिए चुनाव होंगे। हमने ऊपर जो प्रस्ताव दिया है उसमें भी लगभग ऐसी स्थिति बनती है कि लोकसभा के साथ आधे राज्यों में चुनाव हो जाएं तथा बचे आधे राज्यों में बाद में। उनको भी शायद एक साल में साथ-साथ चुनाव कराने के लिए राजी करने की कोशिश की जा सकती है। निश्चित रूप से केन्द्र सरकार एक साथ सारे चुनाव कराने की युक्ति ढूंढ़ रही होगी, किन्तु जिन राज्यों में भाजपा-विरोधी सरकारें हैं वहां समय पूर्व चुनाव करवाना टेढ़ी खीर साबित होगा, उससे देश के संघीय ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तथा संवैधानिक प्रश्न भी उठ खड़े होंगे।

सन् 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे हैं। यह व्यवस्था तब बदली जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा की अवधि पूरी होने के एक साल पहले मध्यावधि चुनावों में जाने का फैसला कर लिया। यूं उसके पहले विधानसभाओं के समय पूर्व भंग होने के प्रसंग भी घटित हुए थे। इंदिराजी ने जो फैसला लिया वह अनोखा नहीं था। अमेरिका अवश्य एक ऐसा देश है जहां चार वर्ष की निर्धारित अवधि में निर्धारित दिन, वार और माह के मुताबिक चुनावी प्रक्रिया सम्पन्न होती है, किन्तु अन्य जनतांत्रिक देशों में ऐसी पूर्व निर्धारित व ढांचे में बंधी व्यवस्था नहीं है। इंग्लैण्ड, जापान, इटली तथा यूरोप के अन्य देशों की मिसालें इस बारे में है। इंग्लैण्ड में 1951 से 1974 के बीच पांच बार प्रधानमंत्री द्वारा संसद भंग करने की सिफारिश कर मध्यावधि चुनाव करवाने के अवसर आ चुके हैं।

इंग्लैण्ड में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्रधानमंत्री या कि सदन के नेता ने संसदीय दल का बहुमत खो दिया, या उसे समय पूर्व चुनाव करवाने में दुबारा विजय मिलने का विश्वास हुआ, या फिर किसी अन्य कारण से उसने त्यागपत्र देकर संसद भंग करने की सिफारिश कर ली। जापान और इटली में तो भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण बार-बार प्रधानमंत्रियों ने इस्तीफे देकर नए चुनाव करवाने की सिफारिश कर दी। परिणामस्वरूप इन देशों में पचास साल में पचास नहीं तो चालीस बार चुनाव हो गए। इंदिरा गांधी ने एक वर्ष पूर्व संसद भंग करने की सिफारिश दो कारणों से की।  एक तो कांग्रेस का विभाजन हो जाने के कारण उनके पास सदन में क्षीण बहुमत था तथा महत्वपूर्ण अवसरों पर उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। दूसरे- उन्हें विश्वास हो गया था कि नए चुनाव करवाने से अपनी दम पर स्पष्ट बहुमत लेकर आ जाएंगी और वैसा ही हुआ।

देश की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी,  उसके अध्यक्ष व उसके प्रधानमंत्री को समझना चाहिए कि ऐसी स्थिति दुबारा कभी निर्मित हो सकती है। किसी भी दल में सत्ता में आ जाने के बाद सदस्यों की लालसाएं बढ़ जाती हैं। हर व्यक्ति अपने को योग्य समझकर कोई न कोई पद चाहता है और प्रधानमंत्री के लिए संभव नहीं होता कि वह सबकी इच्छाएं पूरी कर सके। ऐसे में आंतरिक असंतोष बढ़ता है, कलह की ओर भीतरघात की आशंका बलवती होती है। यह असंतोष कब क्या स्वरूप ले ले समय आने पर ही पता चलता है। आशय यह कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने से अगर भाजपा को विजय मिल भी जाए तो वह कितनी स्थायी होगी कहना असंभव है। मान लीजिए केन्द्र में असंतोष को आपने दबा भी लिया लेकिन क्या प्रदेशों में भी ऐसा करना संभव होगा?

अब बात उठती है चुनाव संबंधी व्यवस्था की। पहले एक सदस्यीय चुनाव आयोग था वह तीन सदस्यीय हो गया। चुनाव का जो उत्सवी माहौल था उस पर अनेक तरह के बंधन लगा दिए गए। चुनाव की प्रक्रिया अनावश्यक रूप से बहुत लंबी कर दी गई। मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। चुनावों में कोई धांधली न हो तथा कानून व्यवस्था की स्थिति न बिगड़े इसके लिए पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। जब एक साथ चुनाव होंगे तो एक के बजाय दो वोट डालने में पहले से दोगुना समय तो लगेगा ही इसके लिए अमला भी दोगुना लगाना पड़ेगा। इसकी पूर्ति कहां से होगी तथा वोट डालने के लिए दोगुना समय कहां से लाया जाएगा? अगर आज की तरह दो-दो माह तक चुनाव चले तो क्या पूरे देश में सारे सरकारी काम स्थगित कर दिए जाएंगे? इन सारी बातों पर विचार कर सरकार ने अगर कोई रूपरेखा बनाई हो तो वह आम जनता के सामने आना चाहिए। उस पर जनता में खुलकर बहस होना चाहिए उसके बाद ही कोई निर्णय लेना उचित होगा।

 देशबन्धु में 23 जून 2016 को प्रकाशित 

Sunday, 19 June 2016

राजनीति विहीन समाज असंभव कल्पना


 देशबन्धु के एक गंभीर पाठक तथा समाज सक्रिय नागरिक दीपक चौधरी ने दो सप्ताह पूर्व लिखे मेरे कॉलम पर जो प्रतिक्रिया भेजी है उसे मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूं। दीपक जी से परिचय हुए काफी समय बीत चुका है। उनसे टेलीफोन पर ही सही देश दुनिया के तमाम मुद्दों पर यदा-कदा मेरा वार्तालाप होता है। श्री चौधरी गांधी के सपनों को साकार होते देखना चाहते हैं। अपने निजी जीवन में भी उन्होंने इसे उतारा है। राष्ट्रीयकृत बैंक की सुविधाजनक सेवा छोड़कर वे छत्तीसगढ़ में बालोद जिले के एक गांव में जैविक खेती तथा अन्य प्रयोगों में जुटे हुए हैं। ऐसा साहस कम लोग ही कर पाते हैं। बहरहाल उनका पत्र और तदनंतर उस पर मेरा उत्तर यहां प्रस्तुत है-

''2 जून। 'अध्यक्ष राहुल : कांग्रेस की जरूरत' पढ़ा। माना कि आपके कई पूर्वानुमान कालांतर में सही साबित हुए। यह भी मानता हूं कि गांधी-नेहरू परिवार का आज़ादी में योगदान अतुलनीय है। यह भी याद है जब पूरा देश अन्ना आंदोलन की आग में जल रहा था आपकी असहमति और आशंकाएं सही साबित हुईं। लेकिन राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष या भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखना, नेहरू परिवार के प्रति आपका अतिरिक्त अनुराग साफ दिखाई देता है। कारण? आपसे कौन बेहतर जान सकता है।
तारीख तो याद नहीं है पर एक बार आपने देशबन्धु में मनमोहन सिंह की भी खूब तारीफ की थी और तीखी प्रतिक्रियाओं का आपको सामना करना पड़ा था। वही मनमोहन जो कभी इस निष्कर्ष पर थे कि कभी भी विकसित देशों से गरीब या विकासशील देशों में पूंजी नहीं आती बल्कि इन देशों से विकसित देशों में पूंजी चली जाती है। वही व्यक्ति विदेशी पूंजी के लिए लालायित रहा और राष्ट्र के साथ आज व्यक्ति के निजी जीवन में भी विदेशी पूंजी का दुष्प्रभाव देखा जा सकता है। मोदी में भी मनमोहन साफ दिखाई पड़ रहे हैं। यही मनमोहन कभी मार्क्सवादियों के मुख पर भी थे।
बदलाव के नाम पर पार्टी परिवर्तन का ही सोच क्यूं आता है? जबकि आज़ादी के बाद से ही निरंतर गिरावट आती जा रही है। सार्वजनिक जीवन के साथ व्यक्तिगत जीवन में भी राज्य का हस्तक्षेप इतना ज्यादा है कि सोचना पड़ता है, क्या हम सचमुच आज़ाद हैं? व्यवस्थाओं के अन्य विकल्प हैं। पूंजीवाद और साम्यवाद की व्यवस्थाओं के दोष और उनकी असफलताओं को हमने देखा ही है। पूंजीवाद तो जाहिर तौर पर गलत है। सारी दुनिया की दौलत राथशील्ड-राकफैलर या अडानी-अम्बानी जैसे मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में कैद है। साम्यवादी देशों में राज्य का अत्यधिक हस्तक्षेप होने के कारण या पूंजी पर राज्य का आधिपत्य होने के कारण असंतोष वहां भी है। रूस का बिखराव, चीन का थियानआनमैन चौक और राईटर्स बिल्डिंग पर ममता का होना, ये असफलता के कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं। बकौल अमरनाथ, गांधी के ग्राम स्वराज्य का प्रयोग अभी बाकी है।"
आशा है अन्यथा नहीं लेंगे।
दीपक चौधरी,
झलमला, बालोद

प्रिय दीपक जी,
इस बार आपने फोन के बजाय पत्र लिखकर मेरे कॉलम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा इस बहाने कुछ ऐसे जरूरी सवाल उठाए जिन्होंने हर चिंतनशील व्यक्ति को परेशान कर रखा है। मैं व्यापक मुद्दों की चर्चा करूं इसके पहले उचित होगा कि मेरे लेखन पर आपकी जो राय है उस पर अपना उत्तर सामने रख दूं।
सबसे पहले तो यह कि लेख में राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने जैसी कोई बात मैंने नहीं की है। इसके बाद मुझे अपने पाठकों को यह बताने की शायद आवश्यकता नहीं है कि मैं पंडित नेहरू की नीतियों का अनन्य समर्थक हूं।मेरा मानना है कि आज यदि हम एक जनतांत्रिक देश होने का दावा कर पाते हैं तो यह नेहरू और सिर्फ नेहरू की देन है। इसके लिए उन्हें अपने जीवनकाल में कांग्रेस के रूढ़िवादी तबके का कितना विरोध झेलना पड़ा यह सब इतिहास में दर्ज है।बहुत से लोग यह मान लेते हैं कि नेहरू की नीतियों पर बात करना उनके वंशजों की राजनीति का समर्थन करना है। यह भ्रम बहुत सोच-समझ कर फैलाया गया है।आप यदि मेरे लिखे को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के पक्ष में जब मैंने लिखा है तो वह तर्कों और तथ्यों के आधार पर। उनकी आलोचना करने का मौका भी जब आया है, तो मैंने उसमें कोताही नहीं की है।
जहां तक डॉ. मनमोहन सिंह की बात है मैं उनकी आलोचना उनके वित्तमंत्री बनने से लेकर प्रधानमंत्री पद से निवृत्त होने तक लगातार करता रहा हूं। आपने देशबन्धु में प्रकाशित किसी लेख का जिक्र किया है। आप यदि तारीख लिखते तो लेख को सामने रखकर मैं उस पर बात कर सकता था। हो सकता है कि कभी कोई ऐसा अवसर आया हो जब उनके किसी बड़े निर्णय से मुझे समर्थन या प्रशंसा करने का भाव उदित हुआ हो।मैं आपसे सहमत हूं कि मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीतियों में बहुत अधिक फर्क नहीं है, लेकिन यह आप गलत कहते हैं कि डॉ. सिंह कभी मार्क्सवादियों को प्रिय थे।मैं मनमोहन सिंह को इतना संदेह का लाभ अवश्य देता हूं कि उन्होंने जो नीतियां अपनाईं वे उनके राजनैतिक विश्वासों के अनुकूल थीं। उन्हें शायद लगता था कि देश की भलाई उन नीतियों में निहित थी। दूसरे शब्दों में डॉसिंह ने संभवतबौद्धिक बेईमानी नहीं की। यह अलग बात है कि हमें ये नीतियां मंजूर नहीं थीं।
मेरा आज भी मानना है कि मनमोहन सिंह गलती पर थे। इसके अलावा मैंने उनकी आलोचना पूर्व में इसलिए भी की है कि वे प्रधानमंत्री बने रहने का मोह नहीं छोड़ सके। इससे उनकी निजी प्रतिष्ठा की भी हानि हुई तथा कांग्रेस पार्टी को भी दुर्दिन देखना पड़े। यदि 2011 में वे पद त्याग कर देते तो यह नौबत न आती। उनके पूर्व 1975 में इंदिराजी व 1987 में राजीवजी ने भी ऐसी ही गलती की थी। शायद आज वही क्षण सोनिया गांधी को चुनौती दे रहा है!
आप पूछते हैं कि बदलाव के नाम पर पार्टी परिवर्तन की ही बात क्यों सोची जाती है। ऐसा पूछकर आप राजनैतिक वास्तविकता को जानने से इंकार करते हैं। कोई भी समाज राजनीतिविहीन हो यह कल्पना ही नहीं की जा सकती। विश्व इतिहास में हमने राजनैतिक सत्ता के विभिन्न रूप देखे हैं। राजतंत्र, सैन्यतंत्र, कुलीनतंत्र, अधिनायकवाद, फासिज्म, सर्वहारा का समाजवाद, एकदलीय जनतंत्र आदि।मेरी समझ कहती है कि बहुदलीय संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था सर्वोत्तम है। हमारा संविधान इसी की पुष्टि करता है।
दरअसल जनतंत्र संज्ञा में ही उन सारी बातों का समावेश है जो हम एक न्यायपूर्ण समाज रचना के लिए चाहते हैं। यह कल्पना संयुक्त राज्य अमेरिका में तथा यूरोप के अनेक देशों में जड़ जमा चुकी उस व्यवस्था से भिन्न है जिसे पूंजीवादी जनतंत्र के नाम से जाना जाता है और विश्व की पूंजीवादी ताकतें जिसे राजनैतिक प्रणाली का चरमोत्कर्ष मानती हैं।
आज हम जिस समय में जी रहे हैं वह पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल है। इसके ताने-बाने को समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है। विगत कुछ सदियों में खासकर यूरोप में पुनर्जागरण के बाद की अवधि में जो वैज्ञानिक आविष्कार और तकनीकी विकास हुआ है उसने विज्ञान को पूंजीवाद का गुलाम बना दिया है। इस प्रगति के कारण मनुष्य के उपभोग के लिए जो नए-नए साधन जुटे हैं उसने सामान्य व्यक्ति के मन में उपभोग और संग्रह के लिए ऐसी भूख जगा दी है जिसका कोई अंत नहीं। इस तरह पूंजीवाद दो तरह से फायदे में है। इसकी काट एक सच्चे जनतंत्र में ही संभव है याने ऐसा जनतंत्र जिसमें राजनीति में पूंजीतंत्र की दासी बनने से इंकार करने का साहस हो। ऐसे अनेक राजनेता हुए हैं जिन्हें साहस की कीमत अपने बलिदान से चुकाना पड़ी है। लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है। मैं फिर कहता हूं कि राजनीतिविहीन समाज एक असंभव कल्पना है
आप ध्यान करके सोचिए कि महात्मा गांधी ने एक ओर जहां पूरी ताकत के साथ राजनीति की, वहीं उसके समानांतर उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम के सूत्र दिए। और जब देश स्वाधीन होने का अवसर आया तो उन्होंने किसी अन्य को नहीं, बल्कि जवाहर लाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।मेरा मानना है कि देश को जे.सी. कुमारप्पा, धीरेन्द्र मजूमदार, ठाकुरदास बंग आदि से लेकर बाबा आमटे जैसे आदर्शवादी रचनात्मक कार्यकर्ताओं की जितनी आवश्यकता है उतनी ही नेहरू सरीखे राजनेताओं की, जो राजनीति और सत्ता को साध्य नहीं, साधन मानते हैं।
देशबन्धु में 16 जून 2016 को प्रकाशित 

Thursday, 9 June 2016

तकनालॉजी और बदलते रिश्ते



बिल क्लिंटन ने जनवरी 1993 में अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभाला था। यह संयोग था कि उसके दो माह बाद मार्च के महीने में मैंने अमेरिका की अपनी पहली और एकमात्र यात्रा की। युवा क्लिंटन सेहत के प्रति काफी सजग थे, उस तरह से जिसे अंग्रेजी में फिटनेस फ्रीक कहा जाता है। तो मैंने सबसे पहले उस सुदूर देश में फुटपाथों पर, पार्कों में, मैदानों में, शहर-गांव में सुबह-शाम हजारों की संख्या में जागिंग करते बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुषों को देखा। फिर यह भी गौर किया कि अमेरिकी नागरिक एक-दूसरे से मिलना-जुलना भले ही कम करते हों, फोन पर वे खूब बतियाते थे। आधा-आधा घंटे फोन पर बात करना सामान्य बात थी। यह भी पता चला कि फोन की दरें हमारे देश के मुकाबले बेहद सस्ती थीं। उस समय तक अमेरिका में आईटी का प्रचलन हो गया था और फोन करने से ही यात्रा का आरक्षण वगैरह करना संभव हो चुका था। फिर एक दिन न्यूयार्क में यूएन प्लाजा के पास एक जापानी व्यक्ति को सडक़ चलते मोबाईल पर बात करते हुए देखा। मेरे लिए मोबाईल फोन देखने का यह पहला अवसर था।

आज जब भारत में मोबाईल फोनों की संख्या एक अरब से अधिक हो गई है, चालीस करोड़ लोगों के पास इंटरनेट सुविधा है, डेस्कटॉप का स्थान तेजी के साथ स्मार्ट फोन लेते जा रहा है, स्कूल, कॉलेज में ई-लर्निंग की इकाईयां स्थापित हो रही हैं और विभिन्न प्रयोजनों के लिए वीडियो कांफ्रेसिंग करना आम हो गया है तब मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रही हैं। मैंने लगभग दस वर्ष की आयु में दो विज्ञान कथाएं पढ़ी थीं। एक में वर्णन था कि आने वाले समय में फोन पर बात करने वाले एक-दूसरे का चेहरा देख सकेंगे। यह कल्पना आज साकार हो चुकी है। दूसरी कहानी में रोबो या रोबोट याने यंत्र मानव के बारे में थी कि किसी दिन ये मशीनें घर की सफाई करने से लेकर कारखाने में उत्पादन कर क्या-क्या सेवा करेंगी। यह विज्ञान कथा भी आज कल्पना से निकल कर यथार्थ के धरातल पर आ चुकी है।

मैंने आगे चलकर एल्डुअस हक्सले का उपन्यास ‘द ब्रेव न्यू वर्ल्ड' पढ़ा जिसमें मनुष्य का क्लोन तैयार कर अतिमानव उत्पन्न करने की कल्पना तथा उसके भयानक दुष्परिणामों का चित्रण किया गया था। आज डीएनए, स्टेम सेल आदि में शोध के द्वारा मनुष्य का प्रतिरूप याने क्लोन खड़ा करने के काफी नजदीक हम पहुंच चुके हैं। इससे परे मेरे ध्यान में आता है कि राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में अनेक सेवाओं के कम्प्यूटरीकरण की पहल की थी। उस समय देश के श्रमिक संगठनों ने रोजगार के अवसर कम हो जाने के डर से इसका विरोध किया था। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी को आना था और वह आ गई। राजीव अमेरिका से सैम पित्रोदा को लेकर आए थे जिन्होंने सी-डॉट के माध्यम से देश में टेलीफोन क्रांति ला दी थी। हर घर में न सही हर गांव तक टेलीफोन पहुंच गया था और पीसीओ याने सार्वजनिक टेलीफोन बूथ रोजगार का नया जरिया बन गया था। बीस साल के भीतर यह दृश्य भी बदल गया।

मैं कहना यह चाहता हूं कि तकनालॉजी  में तीव्र गति के साथ विकास हो रहा है और उसने हमारे जीवन शैली पर ऐसा कल्पनातीत आघात किया है कि हम भीतर तक हिल गए हैं। वैसे तो पीढिय़ों का अंतर हमेशा से विद्यमान रहा है, लेकिन नए और पुराने के बीच इस समय जैसा द्वंद्व चल रहा है वैसा संभवत: पहले कभी नहीं था। अब सामाजिक संबंध बदल गए हैं, पारिवारिक रिश्तों में भी बदलाव की झलकियां दिख रही हैं, रहन-सहन बदल गया है, गांवों और शहरों का भूगोल बदल चुका है और निजी जीवन की प्राथमिकताएं भी उलट-पुलट गई हैं। सवाल यह है कि इस युगांतरकारी परिवर्तन से किसे मुनाफा और किसे घाटा हुआ। यहां मैं रुपए-पैसे की लाभ-हानि की नहीं बल्कि मनोलोक की बात कर रहा हूं।

इसे अगर सरल करके कहूं तो वे लोग घाटे में हैं जो कहते हैं कि टीवी ने बच्चों को बिगाड़ दिया है। याने वे तमाम लोग जो जीवन में तकनालॉजी  के कारण आए परिवर्तनों को नहीं समझ पा रहे हैं या स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी ओर मुनाफे में वे हैं जो समय के सच को पहचान कर उसके साथ तादात्म्य बैठाने की कोशिश कर रहे हैं और बदलते जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की इच्छा रखते हैं। यहां फिर एक उदाहरण से बात स्पष्ट करूं। हमें इस बात की बहुत शिकायत रहती है कि आजकल लोग पुस्तकें नहीं पढ़ते। बात तो अपनी जगह सच है लेकिन फिर यह कैसे भूल जाते हैं कि हम अपने मॉनीटर पर ‘किंडल’ के माध्यम से हजारों पुस्तकें पढ़ सकते हैं। इसी तरह गूगल तथा अन्य सर्च इंजनों से ढेर सारी जानकारियां पलक झपकते मिल जाती हैं। अगर नई तकनालॉजी  में बुराईयां हैं तो क्या पुरानी तकनालॉजी  में नहीं थीं? आखिर छपी हुई पुस्तकें भी तो अपने समय की प्रौद्योगिकी की ही देन हैं!

मैं एक अन्य आयाम की चर्चा करना चाहता हूं।  प्रेमचंद की ‘बेटों वाली विधवा’, उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ से लेकर रमेश याज्ञिक की ‘दादाजी तुम कब जाओगे’ तक बल्कि उसके भी आगे आज तक ऐसी अनेक कहानियां लिखी गई हैं जिनमें वृद्धजनों के एकाकीपन और असहायता को चित्रित किया गया है। राजेश खन्ना की ‘अवतार’ और अमिताभ बच्चन की ‘बागवान’ जैसी फिल्में भी हमें भावुक बना देती हैं। लेकिन प्रौद्योगिकी ने अनजाने में ही एक बदलाव हमारे जीवन में ला दिया है। बच्चे पढ़-लिखकर विदेश जाने की सोचते हैं और वहां नहीं तो हैदराबाद, पुणे, बंगलुरू अथवा गुडग़ांव में जाकर बस जाते हैं। आज शहरी मध्य वर्ग में तो कम से कम यह अभिव्यक्ति आम हो गई है कि भाई हम तो अकेले रह गए हैं। मैं इसमें एक मनोरंजक स्थिति देखता हूं जब अमेरिका जाकर बसी युवा दंपति के यहां प्रसव का समय आता है तब प्रसूति के पहले के तीन माह लडक़ी की मां जाकर सेवा सुश्रुषा करती है और संतान जन्म के बाद तीन-चार माह के लिए लडक़े की मां वहां पहुंच जाती है। अगर बूढ़े पतिदेव साथ में गए तो वे नजदीक की लाइब्रेरी में या पार्क की बेंच पर अपना समय बिताते हैं। 

इस समय जो नई पीढ़ी है उसके सपने और सोच अपनी पुरानी पीढ़ी से एकदम अलग है। पहले बच्चों का काफी समय संयुक्त परिवार में बीतता था जहां माता-पिता के अलावा चाचा-चाची, भाभी, बुआ, मौसी की सलाह मान्य रहती थी। अब बच्चों का संसार घर की दहलीज तक सीमित नहीं है। आईटी ने उनको एक विस्तृत नभ दे दिया है। इसके अलावा उन पर पीयर ग्रुप याने कि संगी-साथियों का प्रभाव काफी पड़ता है। पुरानी पीढ़ी को तरुणाई की इस नई आकांक्षा को समझने की आवश्यकता है। हमारे यहां तो कहावत थी कि पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए तो उसे मित्र मानकर व्यवहार करना चाहिए। यह सलाह श्लोक तक ही सीमित रही, लेकिन अब इस पर सच्चे मन के साथ अमल करने का समय आ गया है।

हमारे समय जो खेल-खिलौने थे वे काफी सरल किस्म के थे, लेकिन आज की पीढ़ी तो नाखून बराबर की सिलीकॉन चिप के भरोसे तरह-तरह के जटिल यंत्रों से खेल लेती है। यह कितना दिलचस्प दृश्य है कि बूढ़े दादा-दादी या नाना-नानी को उनकी पोती या नवासी स्मार्टफोन पर एप्प डाउनलोड करना सिखा रही है, कंप्यू-निष्णात पुत्र अपने पिता को नई तकनालॉजी का उपयोग करने की सलाह दे रहा है, या फिर रायपुर में बैठी मां शारजाह या कतर में जा बसी बेटी से स्काईप पर बातें कर रही है। कुल मिलाकर बात यहां ठहरती है कि प्रकाश-गति से रूपांतरित हो रहे वर्तमान परिवेश में यदि पुरानी और नई पीढ़ी के बीच सुखद संवाद कायम रखना है तो उसकी पहिली शर्त शायद यही है कि पुरानी पीढ़ी नए ज़माने के नए उपकरणों के प्रति नाक-भौंह न सिकोड़े, बल्कि उनका इस्तेमाल करने के प्रति रुचि दिखाए। इस विषय के अनेक अन्य पहलू भी हैं और उनका क्या अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव जीवन पर पड़ रहा है, इस बारे में बात आने वाले दिनों में करेंगे।

देशबन्धु में 9 जून 2016 को प्रकाशित 
 

Saturday, 4 June 2016

धर्म बनाम आतंकवाद


 अक्षर पर्व की इस रचनावार्षिकी में धर्म को केन्द्र में रखकर कट्टरता, आतंकवाद, असहिष्णुता, वैचारिक स्वतंत्रता और बुद्धिजीवियों की भूमिका इत्यादि बिन्दुओं पर चर्चा करने का उपक्रम किया गया है। इस हेतु संपादक ने अनेक जाने-माने बुद्धिजीवियों को प्रश्नावली भेजकर उनसे उत्तर चाहे थे। जिन्होंने जवाब भेजे हैं वे इस अंक में प्रकाशित है। उन पर टिप्पणी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है बल्कि दिसंबर-2015 की प्रस्तावना में पेरिस पर आतंकी हमले की पृष्ठभूमि में मैंने जो विचार रखे थे उन्हीं पर कुछ और तफसील के साथ यहां चर्चा करने की इच्छा है। वर्तमान समय में धर्म, धार्मिक कट्टरता, धार्मिक उन्माद और आतंकवाद की चर्चा जब भी होती है हमारा ध्यान कहीं और न जाकर सीधे इस्लाम पर जाता है। यह बात हमारे मन में बैठ गई है कि इस्लाम है तो हिंसा और आतंक होना ही होना है। एक समय पाकिस्तान की मांग, फिर पाकिस्तान का निर्माण; तदनंतर अफगानिस्तान में पहले मुजाहिदीन, फिर तालिबान के किस्से; इसके आगे बढ़े तो 9/11, उसके उपरांत अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिका के सैन्य आक्रमण-इन सबने मिलकर इस्लाम की एक ऐसी छवि निर्मित कर दी है जो एक जटिल व गंभीर मसले के अन्य आयामों को देखने व उनकी समीक्षा करने से रोकती है; दूसरी ओर इनका सरलीकरण करने की तरफ प्रेरित करती है।

हमने जिस छवि को अंतिम सच मान लिया है उसमें भारतीय उपमहाद्वीप के वर्तमान इतिहास को भी हम ध्यान में नहीं ला पाते कि बंगलादेश का निर्माण या दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान के दो टुकड़े किन कारणों से हुए। तानाशाही के विरुद्व जनतांत्रिक आकांक्षाएं और एक पराई भाषा थोपे जाने के विरुद्ध देशज भाषा याने बांग्ला की मान्यता- ये दो प्रमुख कारण थे जो पाकिस्तान के विभाजन की बुनियाद में थे। इसी तरह इंडोनेशिया में सनातनी परंपरा के देवी-देवताओं की आराधना तथा वहां की रंगपरपंरा में रामायण की लोकप्रियता का गुणगान जब होता है तब यह तथ्य सुविधापूर्वक भुला दिया जाता है कि इंडोनेशिया न सिर्फ एक मुस्लिम बहुल राष्ट्र है बल्कि वह विश्व में मुस्लिम आबादी वाला सबसे बड़ा देश भी है। इसके बरक्स श्रीलंका का उदाहरण लिया जा सकता है, जहां बौद्ध धर्म मानने वाले सिंहलियों ने बहुमतवाद चलाते हुए अल्पसंख्यक हिन्दू तमिलों के साथ लगातार दोयम दर्जे का बर्ताव किया क्योंकि वे मुख्यत: चाय बागानों में काम करने के लिए लाए गए मजदूर थे। श्रीलंका का गृहयुद्ध कितना लंबा चला और उसने कितनी बलियां लीं यह बताना शायद आवश्यक नहीं है, लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि सहिष्णु हिन्दू और करुणामय बौद्ध अपने वास्तविक या कल्पित अधिकारों तथा अस्मिता के लिए कितने बेरहम और हिंसक हो सकते हैं। 

नेपाल की स्थिति श्रीलंका से कुछ अलग है, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि राजनीतिक विचारधारा की लड़ाई के चलते इस देश ने एक लंबा गृहयुद्ध झेला जिसमें हजारों लोग मारे गए। आज भी सत्तारूढ़ पहाड़ी नेपाली तराई इलाके के मधेशियों को अपने बराबर मानने को तैयार नहीं हैं, जबकि दोनों हिन्दू धर्म के मानने वाले ही हैं। जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विश्व के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल से बहुत ही आशाएं बांध रखी थीं क्या वह यह बता पाएगा कि राष्ट्रपति विद्या भंडारी की भारत यात्रा क्यों रद्द हुई? तथा नेपाल ने भारत से अपने राजपूत को वापिस बुलवाकर दोनों देशों के बीच बढ़ते अविश्वास को अधिक गहरा करने का काम क्यों किया? यही सवाल इराक और ईरान के संबंधों पर उठाया जा सकता है। दोनों इस्लामी देश हैं और पड़ोसी हैं, फिर भी दोनों के बीच दस साल लंबी लड़ाई चली सो क्यों? अगर जवाब यह है कि तब इराक में सुन्नी राष्ट्रपति था तो फिर एक नई बात पैदा होती है कि धर्म स्वयं में एक पूर्ण इकाई है या अपने विभिन्न सम्प्रदायों से बनी कोई बहुरंगी तस्वीर। तब तो उसमें अन्य भेद-उपभेद उभरने की गुंजाइश भी बनती है। मसलन वैष्णव भले ही एक माने जाएं, लेकिन उनमें राम और कृष्ण को मानने वाले अपनी अलग छाप-तिलक-माला लेकर चलते हैं और उनमें भी कितनी ही शाखाएं-प्रशाखाएं  हैं। 

ईसा को मानने वाले सारे लोग ईसाई कहलाते हैं, लेकिन वेटिकन के पोप का एकछत्र साम्राज्य कभी स्थापित नहीं हो सका। उसे लगातार चुनौतियां मिलती गई तथा आज ईसाईयों के कितने सम्प्रदाय हैं कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता। मैं याद करने की कोशिश करूं तो पन्द्रह-बीस पर आकर गाड़ी अटक जाएगी। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि ईसाई राजाओं ने जहां अन्य धर्मों के साथ लड़ाइयां लड़ीं व अपने साम्राज्य का विस्तार करने की कोशिश की वहीं इसी वजह से अपने समधर्मा ईसाई राजाओं अथवा सामंतों के साथ युद्ध छेडऩे में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अगर तटस्थ दृष्टि से, नीर-क्षीर विवेक के साथ विचार किया जाए तो इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि धर्म अपने संगठित रूप में कट्टरता व उन्माद को जन्म देता है, और यह बात विश्व के सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होती है। ऐसे में जब इस्लाम को निशाने पर लाया जाता है तब यह समझना आवश्यक है कि इसके पीछे कौन सी शक्तियां व कारण रहे हैं।
 पॉल कैनेडी ने 1985 में प्रकाशित अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘द राइज एंड फॉल ऑफ द ग्रेट एम्पायर्स’ में स्पष्ट तौर पर व्याख्या की है कि विश्व में अधिकतर लड़ाइयों के पीछे साम्राज्य विस्तार के मंसूबे और आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ ही सर्वप्रमुख कारण रहे हैं। अपनी पुस्तक में उन्होंने सिलसिलेवार उदाहरण दिए हैं। इस्लाम की कहानी की बुनियाद भी यही है। अरब के रेगिस्तान में तेल की खोज के साथ औद्योगिक राष्ट्रों याने यूरोप और अमेरिका की इन तेल भंडारों पर कब्जा करने की नीयत से एक दुरभिसंधि प्रारंभ होती है। ईरान तो एक स्वतंत्र देश और सभ्यता थी, किन्तु अरब जगत मोटे तौर पर कबीलों के बीच बंटा हुआ था। वहां के छोटे-मोटे सरदारों को लालच देकर उन्हें अमीर, सुल्तान और शाह बनाकर तेल भंडारों पर कब्जा किया गया तथा दो हजार साल पहले फिलिस्तीन छोडक़र जा चुके यहूदियों को होमलैण्ड के नाम पर वापिस लाकर बसाना, इजराइल की स्थापना करना तथा उसके माध्यम से अरब जगत में दादागिरी करना, ये सब आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने की सोची-समझी चालें थीं। यही तो इसके पहले उन्होंने अफ्रीका में किया तथा रत्नगर्भा भूमि को अंधकार के महाद्वीप में तब्दील कर दिया। हम भारतवासियों से बेहतर इस बात को भला और कौन जान सकता था, लेकिन बंदर हमारे हिस्से की रोटी हजम किए जा रहा था और हम हिन्दू और मुसलमान बनकर बिल्लियों की तरह लड़ रहे थे और लड़ रहे हैं। 

मैंने अपने दिसम्बर-15 के लेख में अयान हिरसी अली का जिक्र किया था। अयान सोमाली मूल की महिला हैं। अपने घर, परिवार और समाज के कट्टरपंथी माहौल के चलते साहस का परिचय देते हुए वे एक दिन मौका मिलते ही वहां से बाहर निकल आईं और हॉलैंड या द नीदरलैंड्स में आकर राजनीतिक शरण ले ली। फिलहाल वे अधिकतर समय अमेरिका में रहती हैं। उन्होंने 'इनफिडेल : माई लाइफ' शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी है। इस पुस्तक की काफी चर्चा हुई है तथा इसे मानो एक अकाट्य प्रमाण के रूप में पेश किया जाता है कि देखो इस्लाम में कितनी कट्टरता है। मैंने लगभग साल भर पहले इस आत्मकथा को पूरी गंभीरता और गहरी सहानुभूति के साथ पढ़ा था।  एक बार फिर मैंने इस आत्मवृत्तांत को सरसरी तौर पर हाल में पढ़ा। यह सच है कि युवा लेखिका ने अपने प्रारंभिक जीवन में बहुत से कष्ट उठाए तथा भांति-भांति के दुखदायी अनुभवों का सामना किया, किन्तु मैं जितना समझ सका उसके अनुसार अयान हिरसी अली के जीवन की त्रासदियों के लिए इस्लाम कम बल्कि सोमालिया की सामाजिक परंपराएं और उससे भी अधिक लेखिका के अपने परिवार का अस्थिर और अनिश्चित माहौल जिम्मेदार रहा है। लेखिका की मां अयान के पिता से विवाह होने के पूर्व पन्द्रह-सोलह साल की उम्र में अकेले यमन जाकर रहने लगी थीं जहां उसकी बड़ी सौतेली बहन पहले से रहती थी। बाद में हम देखते हैं कि सोमालिया की राजनीतिक अस्थिरता के चलते अयान के पिता स्वयं यहां-वहां भटकते रहे और स्वतंत्र निर्णय लेने वाली मां बच्चों के साथ कभी सऊदी अरब, तो कभी इथोपिया, कभी वापस सोमालिया और कभी केन्या इस तरह भटकती रही। इस पारिवारिक माहौल में पिता की छाया से दूर अयान ने खुद भी स्वतंत्र बुद्धि से निर्णय लिए और कई बार संयुक्त परिवार के बड़े-बूढ़ों की इच्छा के सामने सिर झुकाना पड़ा। मेरा अनुमान है कि लेखिका को यूरोप, अमेरिका में खुलेपन का माहौल मिलने के साथ जो मार्गदर्शक मिले, उनकी प्रेरणा से वह अपने जीवन की हर परिस्थिति के लिए इस्लाम पर दोषारोपण करने के लिए प्रस्तुत हुई।

मैं पाठकों का ध्यान तत्वचिंतन की गंभीर अध्येता करेन आर्मस्ट्रांग की पुस्तक 'फील्ड्स ऑफ ब्लड : रिलीजिन एण्ड द हिस्ट्री ऑफ वायलेंस' की ओर आकर्षित करना चाहता हूं। करेन ने यूं तो विश्व के तमाम धर्मों का अध्ययन कर उन पर विस्तारपूर्वक लिखा है; किन्तु यह उनकी नवीनतम पुस्तक है, इस नाते मैं इसी को आधार बनाकर उनके विचारों से पाठकों को परिचित कराना चाहता हूं। लेखिका विश्व इतिहास से अनेक प्रमाण संकलित कर बतलाती हैं कि- धर्म के नाम पर जितनी हिंसा हुई है उससे कई गुना हिंसा अन्य कारणों से हुई है। मसलन फ्रांस की राज्य क्रांति जो समता, स्वतंत्रता और बंधुता के मूल्यों को स्थापित करने के लिए हुई थी, उसमें आज से दो सौ साल पहले ढाई लाख से अधिक फ्रांसीसी लोग मारे गए थे। करेन अपनी पुस्तक में भारत का उल्लेख करते हुए एक जगह कहती हैं कि- यह विडबंना है कि जिन अंग्रेजों ने अपने सामाजिक जीवन से धर्म को पृथक कर दिया था वे जब राज करने आए तो भारतीयों को उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ऐसे मजबूत खांचों में जकड़ दिया। वे एक अन्य स्थान पर इतिहासकार लॉर्ड एक्टन की दूरंदेशी का उल्लेख करती हैं कि उन्होंने राष्ट्रीयता की अवधारणा की भर्त्सना यह कहते हुए की थी कि ऐसा होने से जनसामान्य की स्वाभाविक इच्छाओं तथा उसे प्राप्त स्थापित अधिकारों का हनन करने का अवसर सत्ताधीशों को मिल जाएगा। 

हम जिस विषय पर बात कर रहे हैं उसमें बहस का कोई अंत नहीं है। लेकिन इस सवाल का जवाब तो हमें देना ही होगा कि हम बुद्धिजीवियों की इस बारे में क्या भूमिका है। अभी कोई दो दशक पहले तक हमें भारतीय समाज में समरसता होने का गर्व था तथा बड़े निश्चिंत भाव से हम दावा करते थे कि भारत में आतंकवाद के लिए कोई जगह नहीं है। फिर ऐसा क्या हुआ कि एकाएक हम एक-दूसरे पर अविश्वास करने लगे। ऐसा क्या हुआ कि इस्लामी आतंकवाद के साथ-साथ हिन्दू आतंकवाद की बात भी उठने लगी। इस बीच हमने बहुत सी गोष्ठियां कीं, बहुत सी परिचर्चाएं व परिसंवाद किए और जब से फेसबुक का मंच मिला है तब से तो हमारी सक्रियता का कहना ही क्या है। लेकिन क्या यह वक्त हमारे लिए अपने घर में बैठे रहने का है या समाज के बीच जाकर अपने विचारों को फैलाने का है, क्या यह तय करने का समय नहीं आ गया है? 
अक्षर पर्व जून 2016 अंक की प्रस्तावना 

Thursday, 2 June 2016

नई राह पर जोगी


 छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी आज से ठीक तीस वर्ष पूर्व इसी जून माह में मध्यप्रदेश से राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। कांग्रेस में अपनी राजनीतिक यात्रा के तीन दशक पूरे करने के अवसर पर श्री जोगी ने पार्टी हाईकमान को संदेश भेजा है कि वे पृथक क्षेत्रीय दल बनाने की राह पर हैं। वे जितने जल्दी अपनी इस धमकी पर अमल करें, उतना ही बेहतर। उनके लिए भी व मातृसंस्था के लिए भी। उनके लिए इसलिए कि ढाई साल बाद होने वाले चुनावों में यदि किसी दल को बहुमत न मिला तो किंगमेकर की भूमिका निभाने का मौका उन्हें मिल जाएगा। कौन कहे कि वे किंग ही न बन जाएं! कांग्रेस के लिए श्री जोगी का अलग हो जाना इस लिहाज से मुआफिक होगा कि पार्टी को रोज-रोज की अन्तर्कलह तथा भीतरघात से छुटकारा मिल जाएगा।

छत्तीसगढ़ राज्य का गठन होने पर पार्टी में भारी विरोध के बावजूद हाईकमान की सदिच्छा से अजीत जोगी को मुख्यमंत्री का पद मिला था। विडंबना देखिए कि तब म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को न सिर्फ मन मसोस कर यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा, बल्कि दिग्गज विद्याचरण शुक्ल के आक्रामक तेवरों का भी सामना करना पड़ा। पाठकों को याद हो कि सिंह-जोगी के बीच का द्वंद्व नया नहीं था। श्री जोगी ने एक समय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पाल ली थी। उन्होंने भोपाल में तथा अन्यत्र दिग्विजय सिंह के खिलाफ सडक़ों पर उतर प्रदर्शन भी किए थे।ज़ाहिर है कि दोनों नेताओं के बीच इससे कटुता उत्पन्न होना ही थी। ऐसे में सोनिया जी ने जब छ.ग. की पतवार श्री जोगी के हाथों सौंपी, तो उसे दिग्विजय सिंह ने किस रूप में लिया, वे किस हद तक आहत हुए और उसका क्या परिणाम हुआ, यह सब अलग विवेचन का विषय है। हमें यह भी ध्यान आता है कि श्री सिंह व श्री जोगी दोनों वरिष्ठ राजनेता अर्जुन सिंह के विश्वासभाजन थे, किंतु समय आने पर उनका साथ किसी ने न दिया। यह भी एक अलग कहानी है।

अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी की शुरुआत धमाकेदार की थी। उन्होंने तत्काल म.प्र. विद्युत मंडल का विखंडन कर एक झटके में छत्तीसगढ़ को पावर सरप्लस राज्य बना दिया था। अपने कार्यकाल में उन्होंने शराब ठेकेदारों को प्रशासन पर हावी नहीं होने दिया, लालबत्ती निकालने व अन्य तरह से सादगी की मिसाल पेश की, सुबह 7 बजे भी फोन करो तो मुख्यमंत्री स्वयं कई बार फोन उठाकर आश्चर्य में डाल देते थे, और ऐसी ही कई बातें। लेकिन साल-डेढ़ साल बीतते न बीतते स्थितियां बदलने लगीं। भारतीय बल्कि एशियाई राजनीति में वंश परंपरा कोई बुरी बात नहीं समझी जाती। इस समय- सिद्ध परिपाटी का अनुसरण करने में जोगीजी ने भी देर नहीं की। इससे अनुमान हुआ कि श्री जोगी अपने भविष्य के प्रति निश्चिन्त हैं। शायद इसी कारण से इस बीच दो-तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिनका आकलन करने में वे चूक गए!

डॉ. रमन सिंह केंद्र में मंत्री पद छोडक़र प्रदेश भाजपा की कमान संभालने छत्तीसगढ़ आ गए और उसी तरह से प्रदेश में अथक यात्राएं करने लगे जिनसे अब प्रदेशवासी भलीभांति परिचित हो चुके हैं। कहना होगा कि उन्होंने प्रदेश भाजपा में नई जान फूंक दी थी। दूसरे- कांग्रेस में अपने विरोधी खेमे को पस्त करने के लिए जोगी जी ने भाजपा के बारह विधायकों का अनावश्यक और अवांछित दलबदल करवाया जिसका अच्छा संदेश प्रदेश की जनता के बीच नहीं गया। तीसरे- विद्याचरण शुक्ल के समीपी रामावतार जग्गी की हत्या के दुखद प्रकरण की आंच जोगी परिवार तक पहुंची और उसकी स्मृति आज भी जनता के मन से पूरी तरह मिटी नहीं है। चौथे- 2003 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस में ही दबी जुबान में चर्चाएं हुईं कि श्री जोगी ने आत्मविश्वास की अति में पार्टी के चुनिंदा उम्मीदवारों को हराने में प्रच्छन्न सहयोग किया। कुल मिलाकर जो हुआ वह सबके सामने है।

यह मानना होगा कि अजीत जोगी जीवट के धनी हैं। वे कभी हार कबूल नहीं करते। 2003 के विधानसभा चुनावों में हार को जीत में तब्दील करने के लिए एक बार फिर भाजपा विधायकों के दलबदल का प्रयत्न नतीजे घोषित होने के तुरंत बाद किया गया। यद्यपि वह फ्लॉप शो ही साबित हुआ। इसके बाद 2004 के आम चुनावों में श्री जोगी दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए। चुनाव के दौरान ही वे भीषण रूप से दुर्घटनाग्रस्त हुए। इस दुर्घटना के कारण वे विगत बारह वर्ष से व्हील चेयर पर हैं। लेकिन इससे उनके जुझारूपन में कोई कमी नहीं आई है। मैं अगर अंग्रेजी संज्ञा का प्रयोग करूं तो जोगी जी का आई क्यू बहुत ऊंचा है और इसके भरोसे वे अपनी पार्टी के भीतर छकने-छकाने का खेल खेलते रहते हैं। पिछले कई सालों से ऐसा लग रहा है कि अजीत जोगी कांग्रेस पार्टी में विपक्ष के नेता हैं।  यह दिलचस्प बात है कि एक समय (स्व.) महेन्द्र कर्मा पर रमन केबिनेट के चौदहवें मंत्री होने का विशेषण चस्पा होता था, तो आज स्वयं जोगी जी के बारे में कहा जाने लगा है कि उन्होंने डॉ. रमन सिंह से कोई पैक्ट कर लिया है। अफवाहें तो अफवाहें हैं, लेकिन ऐसी बात उठती क्यों है इस पर शायद जोगी जी ध्यान नहीं देते।

बहरहाल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। यद्यपि ऐसी चर्चाएं पहले भी उठती रही हैं पर इस बार शायद यह चर्चा सत्य सिद्ध हो जाए। ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अजीत जोगी से रुष्ट हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल तथा विपक्ष के नेता टी.एस. सिंहदेव जिस आत्मविश्वास के साथ श्री जोगी पर आक्रमण करते हैं उसके पीछे यही कारण बताया जाता है। यह बात भी ध्यान में आती है कि भूपेश बघेल के पिता किसान नेता नंदकुमार बघेल को जोगी जी ने जेल में डाला था, दूसरी ओर टी.एस. सिंहदेव के घर अंबिकापुर में ही भरी सभा में उन्हें अपमानित करने की कोशिश भी की थी। यह भी उल्लेखनीय है कि भूपेश दिग्विजय सिंह के प्रिय पात्र रहे हैं तथा दिग्विजय और सिंहदेव के बीच पारिवारिक तौर पर मधुर रिश्ते रहे हैं। यह सबको पता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने महासचिव दिग्विजय सिंह पर काफी एतबार करते हैं। इस विषम परिस्थिति में अगर अजीत जोगी नई राह का अन्वेषण करना चाहते हैं तो उनकी व्यथा और महत्वाकांक्षा दोनों के चलते इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा।

यह संभव है कि अपनी धमकी पर अमल करने के बाद जोगीजी कांग्रेस विधायक दल को तोडऩे की कोशिश करें। इससे विधानसभा के भीतर कांग्रेस की स्थिति में बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। जोगीजी के साथ शायद आधा दर्जन विधायक ही जाएंगे। उन पर निष्कासन का खतरा होगा। ऐसे मेें विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय महत्वपूर्ण होगा। संगठन में अवश्य जोगीजी के समर्थकों की संख्या अच्छी-खासी है लेकिन वे अगर पार्टी में जाते हैं तो कांग्रेस को कितना नुकसान होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। मेरा अपना ख्याल है कि पार्टी छोडऩे वालों को सामान्यत: जनता का विश्वास प्राप्त नहीं होता। शरद पवार व ममता बनर्जी दो हाल के अपवाद हैं, लेकिन जहां वीसी शुक्ल हार गए हों, क्या वहां जोगी सफल हो सकेंगे?

देशबन्धु में 03 जून 2016 को प्रकाशित 
 

अध्यक्ष राहुल : कांग्रेस की ज़रूरत


 
कांग्रेस पार्टी ने हाल में सम्पन्न विधानसभा चुनावों मेंं दो राज्य खोए और एक राज्य वापिस पाया। उसका प्रदर्शन इतना खराब नहीं रहा जैसा कि कारपोरेट मीडिया में प्रचारित किया गया। मत प्रतिशत और सीटों की संख्या के हिसाब से कांग्रेस अपना मन बहला सकती है। फिर भी उसे इस सच्चाई का सामना तो करना ही पड़ेगा कि लोकसभा चुनावों में हार के बाद से पार्टी में विश्वास का संकट बना हुआ है और अपनी भावी दिशा को लेकर वह संभ्रम में पड़ी नर आती है। विगत सप्ताह पार्टी के दो निर्णयों से यह स्थिति और स्पष्ट हुई जब उसने पुड्डुचेरी में वी. नारायण सामी को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना तथा राज्यसभा के आसन्न चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा की। अगर कांग्रेस श्री नारायण सामी को मुख्यमंत्री बनाना ही चाहती थी तो चुनाव उनके नेतृत्व में क्यों नहीं लड़ा गया? फिर चुनाव परिणाम आने के बाद मुख्यमंत्री चुनने में उसने नौ दिन का लंंबा वक्त क्यों लिया? देश की सबसे बड़ी पार्टी में ऐसा अनिश्चय किस ओर संकेत करता है?

हमें राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए उम्मीदवारों की सूची देखकर भी हैरत हुई। इस सूची को देखकर लगता है कि पार्टी के पास नेताओं का अकाल हो गया है। इससे दूसरा अनुमान यह होता है कि पार्टी हाईकमान का युवा पीढ़ी पर विश्वास नहीं है। तीसरी बात यह भी समझ आती है कि हाईकमान के आसपास एक गिरोह का कब्जा हो गया है, जो उसकी निर्णय क्षमता को बाधित करता है। हमारा शुरु से मानना रहा है कि राज्यसभा में स्थानीय नेताओं को ही स्थान मिलना चाहिए न कि अन्य प्रदेशों से आए व्यक्तियों को। दुर्भाग्य से यह चलन हर पार्टी में हो गया है (और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी किसी हद तक जिम्मेदार है।) करेला पर नीम चढऩे की कहावत तब चरितार्थ हो जाती है जब हारे हुए लोगों को उनकी बहादुरी के लिए मानो पुरस्कार देकर राज्यसभा में भेज दिया जाता है।

कांग्रेस आज जिस स्थिति में है उसका स्वयं पार्टी के बड़े नेताओं को विश्लेषण कर कुछ ठोस निर्णय लेना चाहिए। अव्वल तो हम देख रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की राजनीतिक सक्रियता पहले के मुकाबले काफी कम हो गई है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि वे दिशानिर्देश पार्टी अध्यक्ष से लें या उपाध्यक्ष राहुल गांधी से। कांग्रेस में युवा सदस्यों की एक बड़ी संख्या है जो मार्गदर्शन के लिए राहुल गांधी की ओर देखती है। राहुल विभिन्न इलाकों में जो ताबड़तोड़ पदयात्राएं करते हैं और स्थानीय कार्यकर्ताओं से मिलते हैं उसके कारण भी पार्टी के युवा सदस्य उनके नेतृत्व में ही काम करने की इच्छा रखें यह स्वाभाविक है। लेकिन जब वरिष्ठ नेताओं से कुछ अलग तरह के संकेत मिलते हैं तो स्थिति गड़बड़ा जाती है। इसका खुलासा जितनी जल्दी हो सके उतना अच्छा।

मेरा मानना है कि वक्त आ गया है जब पार्टी की कमान पूरी तरह से राहुल गांधी के हाथों सौंप दी जाए। इसका परिणाम क्या होगा यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्व. राजीव गांधी को मात्र चालीस वर्ष की आयु में देश का प्रधानमंत्री पद और उसके साथ पार्टी चलाने की भी जिम्मेदारी मिल गई थी। उस समय उनका राजनीतिक अनुभव भी महज दो साल का ही था, जबकि राहुल गांधी लोकसभा सदस्य के रूप में इस समय तीसरी पारी खेल रहे हैं। हमारा सोचना है कि यदि राहुल अभी अध्यक्ष बन जाते हैं तो उससे पार्टी कार्यकर्ताओं के भीतर व्याप्त भ्रम का निवारण होगा, पार्टी में राजनीतिक चालबाजियों के अवसर समाप्त होंगे और इसके साथ-साथ कांग्रेस में विश्वास रखने वाले युवा वर्ग में एक नए उत्साह का संचार होगा। हमारी समझ में उन्हें लंबे समय तक प्रिंस ऑफ वेल्स बनाए रखना ठीक नहीं।

राजनीति के अध्येता देख रहे हैं कि कांग्रेस के ऊपर लंबे समय से उचित-अनुचित वार हो रहे हैं। नेहरू-गांधी परिवार पर वंशवाद का आरोप बार-बार लगाया जाता है। इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि पंडित नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री थे न कि इंदिरा गांधी। वे शास्त्रीजी के बाद अपने राजनैतिक कौशल से प्रधानमंत्री बनीं। उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का था। फिर राजीव गांधी चुनाव हार गए और वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने। जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो राजीव गांधी की भी हत्या हो चुकी थी तथा नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री  बने। इस दौरान सोनिया गांधी सात वर्ष राजनीति से बिल्कुल दूर रहीं। गौर कीजिए कि 1989 से अभी तक याने पिछले सत्ताइस सालों से गांधी परिवार का कोई सदस्य न तो मंत्री है न प्रधानमंत्री।

मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी को अपने ऊपर लगे ऐसे निराधार आरोपों का प्रखरता के साथ जवाब देना चाहिए। वह आज विपक्ष में हैं यह भूमिका भी उसे पूरी मजबूती के साथ निभाने की आवश्यकता है। यह काम पुरानी पीढ़ी के नेता नहीं कर सकते जो थक चुके हैं और जिन्होंने राजनीति के भरोसे अपने बहुत सारे अन्य स्वार्थ विकसित कर लिए हैं। यहां पर कांग्रेस को राजीव गांधी के उदाहरण से ही प्रेरणा लेने की आवश्यकता है जो निजी जीवन में एक गहरी त्रासदी के बावजूद राजनीति में एक नई ताजगी और नया विश्वास लेकर आए। ये ठीक है कि अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने कुछ गल्तियां कीं, लेकिन उन्हें इसकी कीमत भी चुनावी हार के रूप में चुकानी पड़ी। इसके बरक्स राहुल गांधी के पास खोने के लिए फिलहाल कुछ नहीं है। वे समझदारी से काम करेंगे तो पार्टी को ऊपर ही ले जाएंगे।

समय की मांग है कि सोनिया गांधी अब पार्टी अध्यक्ष पद छोडक़र मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएं। उनके साथ-साथ उन सारे नेताओं को जिनकी आयु सत्तर के आसपास हो गई है पार्टी के महत्वपूर्ण पदों से स्वयं होकर हट जाना चाहिए। यह सच्चाई प्रकट है कि पुराने नेता अपना जनाधार खो चुके हैं। हर पांच साल में मतदाताओं की एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है, जिसे प्रभावित करने की क्षमता इनमें बाकी नहीं है। इनका अधिकांश समय अपने ही गुणा-भाग में बीतता है। एक तरफ दिग्विजय सिंह पार्टी में सर्जरी की बात करते हैं तो दूसरी तरफ कमलनाथ और  तीसरी तरफ सत्यव्रत चतुर्वेदी उनकी बात काटने के लिए खड़े हो जाते हैं।

यह मध्यप्रदेश का एक उदाहरण था। अन्य प्रदेशों में भी ऐसी ही स्थितियां हैं। पुड्डुचेरी जैसे छोटे से प्रदेश में भी तीन खेमे हैं। पंजाब में अमरिंदर सिंह और प्रताप सिंह बाजवा के बीच नहीं पटती। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा अचानक थोप दिए जाते हैं और फिर एक दिन भीतरघात करने के बाद भाजपा में शामिल हो जाते हैं। पश्चिम बंगाल में विधायकों से शपथ पत्र भरवाने की मूर्खतापूर्ण कार्रवाई होती है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सी.पी. जोशी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। केरल में अगर ओमन चांडी की जगह रमेश चेन्नीथला के नेतृत्व में चुनाव लड़े जाते, तो क्या नतीजे बदलते? छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के निष्कासन की सिफारिश है, अमित जोगी निष्कासित हो चुके हैं और रेणु जोगी पार्टी में है। उत्तर प्रदेश में निर्मल खत्री क्या कमाल कर पाएंगे? ऐसे तमाम प्रश्न पार्टी के सामने मुंह बाए खड़े हैं।

कांग्रेस में युवा नेताओं की कमी नहीं है। सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन, आर.पी.एन. सिंह, जितेन्द्र प्रसाद, प्रिया दत्त, रणदीप सुरजेवाला, भूपेश बघेल इत्यादि अनेक नाम हैं जिनकी जनता के बीच बेहतर छवि और स्वीकार्यता है। राहुल गांधी को ऐसे साथियों को लेकर अपनी टीम बनाना चाहिए। अगर ऐसा हो सका तो कांग्रेस के लिए बेहतर समय वापिस आ सकता है।

देशबन्धु में 02 जून 2016 को प्रकाशित