इस तरह तीन कहानियां सामने आईं। पहली में एक किसान परिवार की चिंता कि बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ेंगे तभी वर्तमान परिस्थिति में उनका भविष्य सुखद हो पाएगा। दूसरी एक सम्पन्न परिवार की कहानी जिसमें अपने बच्चों की सुख-सुविधा का ख्याल और उनकी इच्छा या फरमाइशें पूरी करने में कोई कंजूसी नहीं। तीसरी कथा में आज के माता-पिता का आत्मविश्वास और अपने बच्चों को प्रारंभ से ही निर्भय बनने की सीख। इन तीनों दृश्यों का घटनास्थल नई दिल्ली का टर्मिनल-1 याने वह पुराना विमानतल था जिसने अब भारत के किसी भी भीड़ भरे रेलवे स्टेशन अथवा बस स्टैण्ड की तस्वीर अख्तियार कर ली है। आप जब जहाज से उतर कर आगमन कक्ष में प्रवेश करते हैं तो पोर्टर सामने आकर पूछते हैं कि क्या आपको सेवा की दरकार है? प्रस्थान खंड में तो भीड़ मानो उमड़ी पड़ती है। बस, महंगे सामानों की दुकानें और एक सौ तीस रुपए कप की चाय ही अहसास कराती है कि आप बस अड्डे पर नहीं हवाई अड्डे पर हैं।
कोई चार-पांच साल हुए एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी, जिसका शीर्षक था - AEROTROPOLIS (एयरोट्रोपोलिस)। इस पुस्तक की केन्द्रीय अवधारणा यह थी कि अगर प्राचीन समय में सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ था तो आज उनका स्थान उन विशाल हवाई अड्डों ने ले लिया है जहां यात्रियों के अलावा माल ढुलाई के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। लेखक जॉन कसार्डा ने अमेरिका के कुछ ऐसे विमानतलों का जिक्र किया था जहां पहले बड़े विमानतल बने और फिर उनके आसपास शहर आबाद होना शुरु हुए। भारत में हैदराबाद का राजीव गांधी विमानतल शायद ऐसा एकमात्र उदाहरण बन सकता है। कहने का मतलब यह कि तकनीकी प्रगति ने हमारी जीवनचर्या और सामाजिक संबंधों को जिस तरह से बदला है उसके बहुत से पहलू हैं। यातायात के साधनों को भी इनमें गिना जा सकता है।
मैं यहां फिर छत्तीसगढ़ के उपरोक्त किसान परिवार का उल्लेख करना चाहूंगा। मेरे पूछने पर उनमें से एक ने बताया था कि यात्रा कुल छह-सात दिन की थी। बच्चों के स्कूल खुलने से पहले लौटकर आना था, इसलिए ज्यादा दिन नहीं। याद करिए उन दिनों को जब गांव के किसान तो दूर, शहर के मध्यवित्त परिवार भी किसी ट्रैवल एजेंसी के भरोसे पन्द्रह-बीस दिन की तीर्थ यात्रा पर जाया करते थे। आज सस्ते किराए के कारण हवाई यात्रा का एक तरह से लोकतंत्रीकरण हो रहा है। विमान सेवा सिर्फ उच्च वर्ग का साधन नहीं रह गई है। इसके अलावा जो देश काल की अनंतता में विश्वास रखता था, जहां समय की कोई कीमत नहीं थी, आज वहां भी लोग छुट्टियों का हिसाब रखने लगे हैं और अपने अवकाश से ज्यादा उन्हें बच्चों की पढ़ाई की चिंता सताने लगी है। मैं समझता हूं कि कॉन्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ा रहे किसान परिवार में उदित एक नए आत्मविश्वास का परिचय भी इससे मिलता है।
एक तरह से देखें तो इस तकनीकी प्रगति में हमारे मन में वर्तमान और भविष्य दोनों के प्रति एक आश्वस्ति का भाव ही जागृत होता है। वह नौ-दस साल की बच्ची जो अकेले यात्रा कर रही थी, उसके माता-पिता उसे शायद रेल या बस में इस तरह अकेले नहीं जाने देते। अभी जो तेज रफ्तार रेलों की योजनाएं देश में बन रही हैं उनके लागू हो जाने के बाद क्या रेल यात्रा निरापद हो पाएगी? क्या रेलवे का स्टॉफ यात्रियों की देखभाल करने में सक्षम होगा? क्या गति बढऩे के साथ-साथ हमारी सामाजिक सोच में कोई अनुकूल परिवर्तन आएगा? नई तकनालॉजी के बारे में विचार करते हुए कई प्रश्न मन में उठते हैं। मिसाल के लिए चिकित्सा विज्ञान में जो नए उपकरण आविष्कृत और उपलब्ध हुए हैं वे निश्चित रूप से उपयोगी होंगे, लेकिन क्या उनका इस्तेमाल उन्हीं प्रयोजनों में हो रहा है जिनके लिए उनका आविष्कार हुआ? क्या वे निरपेक्ष यंत्र मात्र हैं अथवा उनका कोई सामाजिक संदर्भ भी है?
एक समय भ्रूण के लिंग परीक्षण का कोई साधन नहीं था। लडक़ा होगा या लडक़ी इसका अनुमान ही लगाया जाता था। फिर अल्ट्रा सोनोग्राफी मशीन आ गई। उसका इस्तेमाल अनेक बीमारियों की पड़ताल में होता है, लेकिन इससे यह भी पता चल जाता है कि भ्रूणस्थ शिशु का लिंग क्या है। ऐसे किस्से बहुत सुनने में आए, यहां तक कि फिल्में भी बनीं कि नवजात कन्या को अफीम देकर या गला दबाकर या ईंट से दबाकर मार डाला गया। इस नए दौर में सोनोग्राफी मशीन आने से सुविधा हो गई कि प्रसव से पहले ही कन्या भ्रूण को नष्ट कर दिया जाए। इसे रोकने के लिए कानून भी बन गया। क्लीनिक के बाहर बोर्ड लग गया कि यहां लिंग परीक्षण नहीं होता, लेकिन फिर पता चला कि मोबाइल सोनोग्राफी मशीन आ गई; यह भी सुनने में आया कि सम्पन्न लोग जांच करवाने थाइलैंड चले जाते हैं। कुल मिलाकर यह क्रूर सच्चाई सामने आती है कि एक तरफ जहां सामाजिक संबंधों में अनेक तरह के बदलाव आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी अपनी रूढि़वादी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं है।
हमारे सामने यहां दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है। मशीन तो निर्जीव है इसलिए निरपेक्ष भी। लेकिन मशीन जिसके नियंत्रण में है क्या वह भी उसी रूढि़वादी सोच से जकड़ा हुआ है जिस तरह कि इसका उपयोग करने आने वाले लोग? याने यहां नूतन आविष्कार और आधुनिक सोच दोनों विरुद्धार्थी हो गए। रूढि़वादिता ने समाज को किस तरह जकड़ रखा है उसके अन्य उदाहरण भी देखने में आते हैं। आईआईटी या आईआईएम से पढ़े और बहुराष्ट्रीय कंपनियों अर्थात् एमएनसी में कार्यरत ऐसे युवकों के बारे में सुनने में आता है कि अगर होने वाली पत्नी का वेतन उनसे ज्यादा हो तो वे इसमें असहजता महसूस करते हैं।
एक तरफ ये युवक सॉफ्टवेयर डेवलप करने में लगे हैं, दूसरी तरफ आज भी पुरातनपंथी पुरुषवादी मानसिकता में बंधे हैं। अगर खुदा न खास्ता अपने से अधिक वेतन पाने वाली या अपने से बड़े ओहदे पर काम कर रही लडक़ी से शादी हो गई तो घर में कलह शुरु होने में अधिक समय नहीं लगता। इनमें ऐसे उदाहरण हैं जो सर्वगुण सम्पन्न ऐसी पत्नी चाहते हैं जो घर पर रहकर इनके लिए खाना पकाए और कोई काम न करें। इस मानसिकता का परिचय अखबार में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में भी देखने मिलता है। इन विज्ञापनों में जाति, उपजाति और धर्म का अनिवार्य उल्लेख होता है। यह भी कि लडक़ी सुंदर, सुशील, गृहकार्य में निपुण होना चाहिए और लडक़ा ग्रीन कार्ड होल्डर हो तो उसका बखान अवश्य होता है।
कुल मिलाकर बात यहां रुकती है कि तकनालॉजी के विकास और वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जीवन पहले से सुविधापूर्ण करने में महती भूमिका निभाई है किन्तु यदि इसके साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया, यदि पुरातन मान्यताओं में जो बहुत कुछ सड़ा-गला है उसका निषेध नहीं किया तो ऐसी आधुनिकता किसी काम की नहीं।
देशबन्धु में 30 जून 2016 को प्रकाशित