कांग्रेस पार्टी ने हाल में सम्पन्न विधानसभा चुनावों मेंं दो राज्य खोए और एक राज्य वापिस पाया। उसका प्रदर्शन इतना खराब नहीं रहा जैसा कि कारपोरेट मीडिया में प्रचारित किया गया। मत प्रतिशत और सीटों की संख्या के हिसाब से कांग्रेस अपना मन बहला सकती है। फिर भी उसे इस सच्चाई का सामना तो करना ही पड़ेगा कि लोकसभा चुनावों में हार के बाद से पार्टी में विश्वास का संकट बना हुआ है और अपनी भावी दिशा को लेकर वह संभ्रम में पड़ी नजर आती है। विगत सप्ताह पार्टी के दो निर्णयों से यह स्थिति और स्पष्ट हुई जब उसने पुड्डुचेरी में वी. नारायण सामी को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना तथा राज्यसभा के आसन्न चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा की। अगर कांग्रेस श्री नारायण सामी को मुख्यमंत्री बनाना ही चाहती थी तो चुनाव उनके नेतृत्व में क्यों नहीं लड़ा गया? फिर चुनाव परिणाम आने के बाद मुख्यमंत्री चुनने में उसने नौ दिन का लंंबा वक्त क्यों लिया? देश की सबसे बड़ी पार्टी में ऐसा अनिश्चय किस ओर संकेत करता है?
कांग्रेस आज जिस स्थिति में है उसका स्वयं पार्टी के बड़े नेताओं को विश्लेषण कर कुछ ठोस निर्णय लेना चाहिए। अव्वल तो हम देख रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की राजनीतिक सक्रियता पहले के मुकाबले काफी कम हो गई है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि वे दिशानिर्देश पार्टी अध्यक्ष से लें या उपाध्यक्ष राहुल गांधी से। कांग्रेस में युवा सदस्यों की एक बड़ी संख्या है जो मार्गदर्शन के लिए राहुल गांधी की ओर देखती है। राहुल विभिन्न इलाकों में जो ताबड़तोड़ पदयात्राएं करते हैं और स्थानीय कार्यकर्ताओं से मिलते हैं उसके कारण भी पार्टी के युवा सदस्य उनके नेतृत्व में ही काम करने की इच्छा रखें यह स्वाभाविक है। लेकिन जब वरिष्ठ नेताओं से कुछ अलग तरह के संकेत मिलते हैं तो स्थिति गड़बड़ा जाती है। इसका खुलासा जितनी जल्दी हो सके उतना अच्छा।
मेरा मानना है कि वक्त आ गया है जब पार्टी की कमान पूरी तरह से राहुल गांधी के हाथों सौंप दी जाए। इसका परिणाम क्या होगा यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्व. राजीव गांधी को मात्र चालीस वर्ष की आयु में देश का प्रधानमंत्री पद और उसके साथ पार्टी चलाने की भी जिम्मेदारी मिल गई थी। उस समय उनका राजनीतिक अनुभव भी महज दो साल का ही था, जबकि राहुल गांधी लोकसभा सदस्य के रूप में इस समय तीसरी पारी खेल रहे हैं। हमारा सोचना है कि यदि राहुल अभी अध्यक्ष बन जाते हैं तो उससे पार्टी कार्यकर्ताओं के भीतर व्याप्त भ्रम का निवारण होगा, पार्टी में राजनीतिक चालबाजियों के अवसर समाप्त होंगे और इसके साथ-साथ कांग्रेस में विश्वास रखने वाले युवा वर्ग में एक नए उत्साह का संचार होगा। हमारी समझ में उन्हें लंबे समय तक प्रिंस ऑफ वेल्स बनाए रखना ठीक नहीं।
राजनीति के अध्येता देख रहे हैं कि कांग्रेस के ऊपर लंबे समय से उचित-अनुचित वार हो रहे हैं। नेहरू-गांधी परिवार पर वंशवाद का आरोप बार-बार लगाया जाता है। इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि पंडित नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री थे न कि इंदिरा गांधी। वे शास्त्रीजी के बाद अपने राजनैतिक कौशल से प्रधानमंत्री बनीं। उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का था। फिर राजीव गांधी चुनाव हार गए और वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने। जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो राजीव गांधी की भी हत्या हो चुकी थी तथा नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने। इस दौरान सोनिया गांधी सात वर्ष राजनीति से बिल्कुल दूर रहीं। गौर कीजिए कि 1989 से अभी तक याने पिछले सत्ताइस सालों से गांधी परिवार का कोई सदस्य न तो मंत्री है न प्रधानमंत्री।
मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी को अपने ऊपर लगे ऐसे निराधार आरोपों का प्रखरता के साथ जवाब देना चाहिए। वह आज विपक्ष में हैं यह भूमिका भी उसे पूरी मजबूती के साथ निभाने की आवश्यकता है। यह काम पुरानी पीढ़ी के नेता नहीं कर सकते जो थक चुके हैं और जिन्होंने राजनीति के भरोसे अपने बहुत सारे अन्य स्वार्थ विकसित कर लिए हैं। यहां पर कांग्रेस को राजीव गांधी के उदाहरण से ही प्रेरणा लेने की आवश्यकता है जो निजी जीवन में एक गहरी त्रासदी के बावजूद राजनीति में एक नई ताजगी और नया विश्वास लेकर आए। ये ठीक है कि अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने कुछ गल्तियां कीं, लेकिन उन्हें इसकी कीमत भी चुनावी हार के रूप में चुकानी पड़ी। इसके बरक्स राहुल गांधी के पास खोने के लिए फिलहाल कुछ नहीं है। वे समझदारी से काम करेंगे तो पार्टी को ऊपर ही ले जाएंगे।
समय की मांग है कि सोनिया गांधी अब पार्टी अध्यक्ष पद छोडक़र मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएं। उनके साथ-साथ उन सारे नेताओं को जिनकी आयु सत्तर के आसपास हो गई है पार्टी के महत्वपूर्ण पदों से स्वयं होकर हट जाना चाहिए। यह सच्चाई प्रकट है कि पुराने नेता अपना जनाधार खो चुके हैं। हर पांच साल में मतदाताओं की एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है, जिसे प्रभावित करने की क्षमता इनमें बाकी नहीं है। इनका अधिकांश समय अपने ही गुणा-भाग में बीतता है। एक तरफ दिग्विजय सिंह पार्टी में सर्जरी की बात करते हैं तो दूसरी तरफ कमलनाथ और तीसरी तरफ सत्यव्रत चतुर्वेदी उनकी बात काटने के लिए खड़े हो जाते हैं।
यह मध्यप्रदेश का एक उदाहरण था। अन्य प्रदेशों में भी ऐसी ही स्थितियां हैं। पुड्डुचेरी जैसे छोटे से प्रदेश में भी तीन खेमे हैं। पंजाब में अमरिंदर सिंह और प्रताप सिंह बाजवा के बीच नहीं पटती। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा अचानक थोप दिए जाते हैं और फिर एक दिन भीतरघात करने के बाद भाजपा में शामिल हो जाते हैं। पश्चिम बंगाल में विधायकों से शपथ पत्र भरवाने की मूर्खतापूर्ण कार्रवाई होती है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सी.पी. जोशी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। केरल में अगर ओमन चांडी की जगह रमेश चेन्नीथला के नेतृत्व में चुनाव लड़े जाते, तो क्या नतीजे बदलते? छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के निष्कासन की सिफारिश है, अमित जोगी निष्कासित हो चुके हैं और रेणु जोगी पार्टी में है। उत्तर प्रदेश में निर्मल खत्री क्या कमाल कर पाएंगे? ऐसे तमाम प्रश्न पार्टी के सामने मुंह बाए खड़े हैं।
कांग्रेस में युवा नेताओं की कमी नहीं है। सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन, आर.पी.एन. सिंह, जितेन्द्र प्रसाद, प्रिया दत्त, रणदीप सुरजेवाला, भूपेश बघेल इत्यादि अनेक नाम हैं जिनकी जनता के बीच बेहतर छवि और स्वीकार्यता है। राहुल गांधी को ऐसे साथियों को लेकर अपनी टीम बनाना चाहिए। अगर ऐसा हो सका तो कांग्रेस के लिए बेहतर समय वापिस आ सकता है।
देशबन्धु में 02 जून 2016 को प्रकाशित
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