Thursday, 9 June 2016

तकनालॉजी और बदलते रिश्ते



बिल क्लिंटन ने जनवरी 1993 में अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभाला था। यह संयोग था कि उसके दो माह बाद मार्च के महीने में मैंने अमेरिका की अपनी पहली और एकमात्र यात्रा की। युवा क्लिंटन सेहत के प्रति काफी सजग थे, उस तरह से जिसे अंग्रेजी में फिटनेस फ्रीक कहा जाता है। तो मैंने सबसे पहले उस सुदूर देश में फुटपाथों पर, पार्कों में, मैदानों में, शहर-गांव में सुबह-शाम हजारों की संख्या में जागिंग करते बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुषों को देखा। फिर यह भी गौर किया कि अमेरिकी नागरिक एक-दूसरे से मिलना-जुलना भले ही कम करते हों, फोन पर वे खूब बतियाते थे। आधा-आधा घंटे फोन पर बात करना सामान्य बात थी। यह भी पता चला कि फोन की दरें हमारे देश के मुकाबले बेहद सस्ती थीं। उस समय तक अमेरिका में आईटी का प्रचलन हो गया था और फोन करने से ही यात्रा का आरक्षण वगैरह करना संभव हो चुका था। फिर एक दिन न्यूयार्क में यूएन प्लाजा के पास एक जापानी व्यक्ति को सडक़ चलते मोबाईल पर बात करते हुए देखा। मेरे लिए मोबाईल फोन देखने का यह पहला अवसर था।

आज जब भारत में मोबाईल फोनों की संख्या एक अरब से अधिक हो गई है, चालीस करोड़ लोगों के पास इंटरनेट सुविधा है, डेस्कटॉप का स्थान तेजी के साथ स्मार्ट फोन लेते जा रहा है, स्कूल, कॉलेज में ई-लर्निंग की इकाईयां स्थापित हो रही हैं और विभिन्न प्रयोजनों के लिए वीडियो कांफ्रेसिंग करना आम हो गया है तब मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रही हैं। मैंने लगभग दस वर्ष की आयु में दो विज्ञान कथाएं पढ़ी थीं। एक में वर्णन था कि आने वाले समय में फोन पर बात करने वाले एक-दूसरे का चेहरा देख सकेंगे। यह कल्पना आज साकार हो चुकी है। दूसरी कहानी में रोबो या रोबोट याने यंत्र मानव के बारे में थी कि किसी दिन ये मशीनें घर की सफाई करने से लेकर कारखाने में उत्पादन कर क्या-क्या सेवा करेंगी। यह विज्ञान कथा भी आज कल्पना से निकल कर यथार्थ के धरातल पर आ चुकी है।

मैंने आगे चलकर एल्डुअस हक्सले का उपन्यास ‘द ब्रेव न्यू वर्ल्ड' पढ़ा जिसमें मनुष्य का क्लोन तैयार कर अतिमानव उत्पन्न करने की कल्पना तथा उसके भयानक दुष्परिणामों का चित्रण किया गया था। आज डीएनए, स्टेम सेल आदि में शोध के द्वारा मनुष्य का प्रतिरूप याने क्लोन खड़ा करने के काफी नजदीक हम पहुंच चुके हैं। इससे परे मेरे ध्यान में आता है कि राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में अनेक सेवाओं के कम्प्यूटरीकरण की पहल की थी। उस समय देश के श्रमिक संगठनों ने रोजगार के अवसर कम हो जाने के डर से इसका विरोध किया था। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी को आना था और वह आ गई। राजीव अमेरिका से सैम पित्रोदा को लेकर आए थे जिन्होंने सी-डॉट के माध्यम से देश में टेलीफोन क्रांति ला दी थी। हर घर में न सही हर गांव तक टेलीफोन पहुंच गया था और पीसीओ याने सार्वजनिक टेलीफोन बूथ रोजगार का नया जरिया बन गया था। बीस साल के भीतर यह दृश्य भी बदल गया।

मैं कहना यह चाहता हूं कि तकनालॉजी  में तीव्र गति के साथ विकास हो रहा है और उसने हमारे जीवन शैली पर ऐसा कल्पनातीत आघात किया है कि हम भीतर तक हिल गए हैं। वैसे तो पीढिय़ों का अंतर हमेशा से विद्यमान रहा है, लेकिन नए और पुराने के बीच इस समय जैसा द्वंद्व चल रहा है वैसा संभवत: पहले कभी नहीं था। अब सामाजिक संबंध बदल गए हैं, पारिवारिक रिश्तों में भी बदलाव की झलकियां दिख रही हैं, रहन-सहन बदल गया है, गांवों और शहरों का भूगोल बदल चुका है और निजी जीवन की प्राथमिकताएं भी उलट-पुलट गई हैं। सवाल यह है कि इस युगांतरकारी परिवर्तन से किसे मुनाफा और किसे घाटा हुआ। यहां मैं रुपए-पैसे की लाभ-हानि की नहीं बल्कि मनोलोक की बात कर रहा हूं।

इसे अगर सरल करके कहूं तो वे लोग घाटे में हैं जो कहते हैं कि टीवी ने बच्चों को बिगाड़ दिया है। याने वे तमाम लोग जो जीवन में तकनालॉजी  के कारण आए परिवर्तनों को नहीं समझ पा रहे हैं या स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी ओर मुनाफे में वे हैं जो समय के सच को पहचान कर उसके साथ तादात्म्य बैठाने की कोशिश कर रहे हैं और बदलते जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की इच्छा रखते हैं। यहां फिर एक उदाहरण से बात स्पष्ट करूं। हमें इस बात की बहुत शिकायत रहती है कि आजकल लोग पुस्तकें नहीं पढ़ते। बात तो अपनी जगह सच है लेकिन फिर यह कैसे भूल जाते हैं कि हम अपने मॉनीटर पर ‘किंडल’ के माध्यम से हजारों पुस्तकें पढ़ सकते हैं। इसी तरह गूगल तथा अन्य सर्च इंजनों से ढेर सारी जानकारियां पलक झपकते मिल जाती हैं। अगर नई तकनालॉजी  में बुराईयां हैं तो क्या पुरानी तकनालॉजी  में नहीं थीं? आखिर छपी हुई पुस्तकें भी तो अपने समय की प्रौद्योगिकी की ही देन हैं!

मैं एक अन्य आयाम की चर्चा करना चाहता हूं।  प्रेमचंद की ‘बेटों वाली विधवा’, उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ से लेकर रमेश याज्ञिक की ‘दादाजी तुम कब जाओगे’ तक बल्कि उसके भी आगे आज तक ऐसी अनेक कहानियां लिखी गई हैं जिनमें वृद्धजनों के एकाकीपन और असहायता को चित्रित किया गया है। राजेश खन्ना की ‘अवतार’ और अमिताभ बच्चन की ‘बागवान’ जैसी फिल्में भी हमें भावुक बना देती हैं। लेकिन प्रौद्योगिकी ने अनजाने में ही एक बदलाव हमारे जीवन में ला दिया है। बच्चे पढ़-लिखकर विदेश जाने की सोचते हैं और वहां नहीं तो हैदराबाद, पुणे, बंगलुरू अथवा गुडग़ांव में जाकर बस जाते हैं। आज शहरी मध्य वर्ग में तो कम से कम यह अभिव्यक्ति आम हो गई है कि भाई हम तो अकेले रह गए हैं। मैं इसमें एक मनोरंजक स्थिति देखता हूं जब अमेरिका जाकर बसी युवा दंपति के यहां प्रसव का समय आता है तब प्रसूति के पहले के तीन माह लडक़ी की मां जाकर सेवा सुश्रुषा करती है और संतान जन्म के बाद तीन-चार माह के लिए लडक़े की मां वहां पहुंच जाती है। अगर बूढ़े पतिदेव साथ में गए तो वे नजदीक की लाइब्रेरी में या पार्क की बेंच पर अपना समय बिताते हैं। 

इस समय जो नई पीढ़ी है उसके सपने और सोच अपनी पुरानी पीढ़ी से एकदम अलग है। पहले बच्चों का काफी समय संयुक्त परिवार में बीतता था जहां माता-पिता के अलावा चाचा-चाची, भाभी, बुआ, मौसी की सलाह मान्य रहती थी। अब बच्चों का संसार घर की दहलीज तक सीमित नहीं है। आईटी ने उनको एक विस्तृत नभ दे दिया है। इसके अलावा उन पर पीयर ग्रुप याने कि संगी-साथियों का प्रभाव काफी पड़ता है। पुरानी पीढ़ी को तरुणाई की इस नई आकांक्षा को समझने की आवश्यकता है। हमारे यहां तो कहावत थी कि पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए तो उसे मित्र मानकर व्यवहार करना चाहिए। यह सलाह श्लोक तक ही सीमित रही, लेकिन अब इस पर सच्चे मन के साथ अमल करने का समय आ गया है।

हमारे समय जो खेल-खिलौने थे वे काफी सरल किस्म के थे, लेकिन आज की पीढ़ी तो नाखून बराबर की सिलीकॉन चिप के भरोसे तरह-तरह के जटिल यंत्रों से खेल लेती है। यह कितना दिलचस्प दृश्य है कि बूढ़े दादा-दादी या नाना-नानी को उनकी पोती या नवासी स्मार्टफोन पर एप्प डाउनलोड करना सिखा रही है, कंप्यू-निष्णात पुत्र अपने पिता को नई तकनालॉजी का उपयोग करने की सलाह दे रहा है, या फिर रायपुर में बैठी मां शारजाह या कतर में जा बसी बेटी से स्काईप पर बातें कर रही है। कुल मिलाकर बात यहां ठहरती है कि प्रकाश-गति से रूपांतरित हो रहे वर्तमान परिवेश में यदि पुरानी और नई पीढ़ी के बीच सुखद संवाद कायम रखना है तो उसकी पहिली शर्त शायद यही है कि पुरानी पीढ़ी नए ज़माने के नए उपकरणों के प्रति नाक-भौंह न सिकोड़े, बल्कि उनका इस्तेमाल करने के प्रति रुचि दिखाए। इस विषय के अनेक अन्य पहलू भी हैं और उनका क्या अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव जीवन पर पड़ रहा है, इस बारे में बात आने वाले दिनों में करेंगे।

देशबन्धु में 9 जून 2016 को प्रकाशित 
 

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