Sunday 19 June 2016

राजनीति विहीन समाज असंभव कल्पना


 देशबन्धु के एक गंभीर पाठक तथा समाज सक्रिय नागरिक दीपक चौधरी ने दो सप्ताह पूर्व लिखे मेरे कॉलम पर जो प्रतिक्रिया भेजी है उसे मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूं। दीपक जी से परिचय हुए काफी समय बीत चुका है। उनसे टेलीफोन पर ही सही देश दुनिया के तमाम मुद्दों पर यदा-कदा मेरा वार्तालाप होता है। श्री चौधरी गांधी के सपनों को साकार होते देखना चाहते हैं। अपने निजी जीवन में भी उन्होंने इसे उतारा है। राष्ट्रीयकृत बैंक की सुविधाजनक सेवा छोड़कर वे छत्तीसगढ़ में बालोद जिले के एक गांव में जैविक खेती तथा अन्य प्रयोगों में जुटे हुए हैं। ऐसा साहस कम लोग ही कर पाते हैं। बहरहाल उनका पत्र और तदनंतर उस पर मेरा उत्तर यहां प्रस्तुत है-

''2 जून। 'अध्यक्ष राहुल : कांग्रेस की जरूरत' पढ़ा। माना कि आपके कई पूर्वानुमान कालांतर में सही साबित हुए। यह भी मानता हूं कि गांधी-नेहरू परिवार का आज़ादी में योगदान अतुलनीय है। यह भी याद है जब पूरा देश अन्ना आंदोलन की आग में जल रहा था आपकी असहमति और आशंकाएं सही साबित हुईं। लेकिन राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष या भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखना, नेहरू परिवार के प्रति आपका अतिरिक्त अनुराग साफ दिखाई देता है। कारण? आपसे कौन बेहतर जान सकता है।
तारीख तो याद नहीं है पर एक बार आपने देशबन्धु में मनमोहन सिंह की भी खूब तारीफ की थी और तीखी प्रतिक्रियाओं का आपको सामना करना पड़ा था। वही मनमोहन जो कभी इस निष्कर्ष पर थे कि कभी भी विकसित देशों से गरीब या विकासशील देशों में पूंजी नहीं आती बल्कि इन देशों से विकसित देशों में पूंजी चली जाती है। वही व्यक्ति विदेशी पूंजी के लिए लालायित रहा और राष्ट्र के साथ आज व्यक्ति के निजी जीवन में भी विदेशी पूंजी का दुष्प्रभाव देखा जा सकता है। मोदी में भी मनमोहन साफ दिखाई पड़ रहे हैं। यही मनमोहन कभी मार्क्सवादियों के मुख पर भी थे।
बदलाव के नाम पर पार्टी परिवर्तन का ही सोच क्यूं आता है? जबकि आज़ादी के बाद से ही निरंतर गिरावट आती जा रही है। सार्वजनिक जीवन के साथ व्यक्तिगत जीवन में भी राज्य का हस्तक्षेप इतना ज्यादा है कि सोचना पड़ता है, क्या हम सचमुच आज़ाद हैं? व्यवस्थाओं के अन्य विकल्प हैं। पूंजीवाद और साम्यवाद की व्यवस्थाओं के दोष और उनकी असफलताओं को हमने देखा ही है। पूंजीवाद तो जाहिर तौर पर गलत है। सारी दुनिया की दौलत राथशील्ड-राकफैलर या अडानी-अम्बानी जैसे मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में कैद है। साम्यवादी देशों में राज्य का अत्यधिक हस्तक्षेप होने के कारण या पूंजी पर राज्य का आधिपत्य होने के कारण असंतोष वहां भी है। रूस का बिखराव, चीन का थियानआनमैन चौक और राईटर्स बिल्डिंग पर ममता का होना, ये असफलता के कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं। बकौल अमरनाथ, गांधी के ग्राम स्वराज्य का प्रयोग अभी बाकी है।"
आशा है अन्यथा नहीं लेंगे।
दीपक चौधरी,
झलमला, बालोद

प्रिय दीपक जी,
इस बार आपने फोन के बजाय पत्र लिखकर मेरे कॉलम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा इस बहाने कुछ ऐसे जरूरी सवाल उठाए जिन्होंने हर चिंतनशील व्यक्ति को परेशान कर रखा है। मैं व्यापक मुद्दों की चर्चा करूं इसके पहले उचित होगा कि मेरे लेखन पर आपकी जो राय है उस पर अपना उत्तर सामने रख दूं।
सबसे पहले तो यह कि लेख में राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने जैसी कोई बात मैंने नहीं की है। इसके बाद मुझे अपने पाठकों को यह बताने की शायद आवश्यकता नहीं है कि मैं पंडित नेहरू की नीतियों का अनन्य समर्थक हूं।मेरा मानना है कि आज यदि हम एक जनतांत्रिक देश होने का दावा कर पाते हैं तो यह नेहरू और सिर्फ नेहरू की देन है। इसके लिए उन्हें अपने जीवनकाल में कांग्रेस के रूढ़िवादी तबके का कितना विरोध झेलना पड़ा यह सब इतिहास में दर्ज है।बहुत से लोग यह मान लेते हैं कि नेहरू की नीतियों पर बात करना उनके वंशजों की राजनीति का समर्थन करना है। यह भ्रम बहुत सोच-समझ कर फैलाया गया है।आप यदि मेरे लिखे को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के पक्ष में जब मैंने लिखा है तो वह तर्कों और तथ्यों के आधार पर। उनकी आलोचना करने का मौका भी जब आया है, तो मैंने उसमें कोताही नहीं की है।
जहां तक डॉ. मनमोहन सिंह की बात है मैं उनकी आलोचना उनके वित्तमंत्री बनने से लेकर प्रधानमंत्री पद से निवृत्त होने तक लगातार करता रहा हूं। आपने देशबन्धु में प्रकाशित किसी लेख का जिक्र किया है। आप यदि तारीख लिखते तो लेख को सामने रखकर मैं उस पर बात कर सकता था। हो सकता है कि कभी कोई ऐसा अवसर आया हो जब उनके किसी बड़े निर्णय से मुझे समर्थन या प्रशंसा करने का भाव उदित हुआ हो।मैं आपसे सहमत हूं कि मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीतियों में बहुत अधिक फर्क नहीं है, लेकिन यह आप गलत कहते हैं कि डॉ. सिंह कभी मार्क्सवादियों को प्रिय थे।मैं मनमोहन सिंह को इतना संदेह का लाभ अवश्य देता हूं कि उन्होंने जो नीतियां अपनाईं वे उनके राजनैतिक विश्वासों के अनुकूल थीं। उन्हें शायद लगता था कि देश की भलाई उन नीतियों में निहित थी। दूसरे शब्दों में डॉसिंह ने संभवतबौद्धिक बेईमानी नहीं की। यह अलग बात है कि हमें ये नीतियां मंजूर नहीं थीं।
मेरा आज भी मानना है कि मनमोहन सिंह गलती पर थे। इसके अलावा मैंने उनकी आलोचना पूर्व में इसलिए भी की है कि वे प्रधानमंत्री बने रहने का मोह नहीं छोड़ सके। इससे उनकी निजी प्रतिष्ठा की भी हानि हुई तथा कांग्रेस पार्टी को भी दुर्दिन देखना पड़े। यदि 2011 में वे पद त्याग कर देते तो यह नौबत न आती। उनके पूर्व 1975 में इंदिराजी व 1987 में राजीवजी ने भी ऐसी ही गलती की थी। शायद आज वही क्षण सोनिया गांधी को चुनौती दे रहा है!
आप पूछते हैं कि बदलाव के नाम पर पार्टी परिवर्तन की ही बात क्यों सोची जाती है। ऐसा पूछकर आप राजनैतिक वास्तविकता को जानने से इंकार करते हैं। कोई भी समाज राजनीतिविहीन हो यह कल्पना ही नहीं की जा सकती। विश्व इतिहास में हमने राजनैतिक सत्ता के विभिन्न रूप देखे हैं। राजतंत्र, सैन्यतंत्र, कुलीनतंत्र, अधिनायकवाद, फासिज्म, सर्वहारा का समाजवाद, एकदलीय जनतंत्र आदि।मेरी समझ कहती है कि बहुदलीय संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था सर्वोत्तम है। हमारा संविधान इसी की पुष्टि करता है।
दरअसल जनतंत्र संज्ञा में ही उन सारी बातों का समावेश है जो हम एक न्यायपूर्ण समाज रचना के लिए चाहते हैं। यह कल्पना संयुक्त राज्य अमेरिका में तथा यूरोप के अनेक देशों में जड़ जमा चुकी उस व्यवस्था से भिन्न है जिसे पूंजीवादी जनतंत्र के नाम से जाना जाता है और विश्व की पूंजीवादी ताकतें जिसे राजनैतिक प्रणाली का चरमोत्कर्ष मानती हैं।
आज हम जिस समय में जी रहे हैं वह पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल है। इसके ताने-बाने को समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है। विगत कुछ सदियों में खासकर यूरोप में पुनर्जागरण के बाद की अवधि में जो वैज्ञानिक आविष्कार और तकनीकी विकास हुआ है उसने विज्ञान को पूंजीवाद का गुलाम बना दिया है। इस प्रगति के कारण मनुष्य के उपभोग के लिए जो नए-नए साधन जुटे हैं उसने सामान्य व्यक्ति के मन में उपभोग और संग्रह के लिए ऐसी भूख जगा दी है जिसका कोई अंत नहीं। इस तरह पूंजीवाद दो तरह से फायदे में है। इसकी काट एक सच्चे जनतंत्र में ही संभव है याने ऐसा जनतंत्र जिसमें राजनीति में पूंजीतंत्र की दासी बनने से इंकार करने का साहस हो। ऐसे अनेक राजनेता हुए हैं जिन्हें साहस की कीमत अपने बलिदान से चुकाना पड़ी है। लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है। मैं फिर कहता हूं कि राजनीतिविहीन समाज एक असंभव कल्पना है
आप ध्यान करके सोचिए कि महात्मा गांधी ने एक ओर जहां पूरी ताकत के साथ राजनीति की, वहीं उसके समानांतर उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम के सूत्र दिए। और जब देश स्वाधीन होने का अवसर आया तो उन्होंने किसी अन्य को नहीं, बल्कि जवाहर लाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।मेरा मानना है कि देश को जे.सी. कुमारप्पा, धीरेन्द्र मजूमदार, ठाकुरदास बंग आदि से लेकर बाबा आमटे जैसे आदर्शवादी रचनात्मक कार्यकर्ताओं की जितनी आवश्यकता है उतनी ही नेहरू सरीखे राजनेताओं की, जो राजनीति और सत्ता को साध्य नहीं, साधन मानते हैं।
देशबन्धु में 16 जून 2016 को प्रकाशित 

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