Wednesday, 24 August 2016

संशयग्रस्त भारत और ओलंपिक


 डोपिंग के आरोप में प्रतिबंधित पहलवान नरसिंह यादव ने कहा कि उनका जीवन बर्बाद हो गया। उधर जिमनास्ट दीपा कर्माकर ने भारत लौटने के बाद रियो में अपने प्रदर्शन पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि यह उनका पहला ओलंपिक था, कि वे तो सातवें-आठवें स्थान पर आने की आस लगाए हुए थी और चौथे स्थान पर आने की स्वयं उन्होंने कल्पना नहीं की थी। किसी समय विश्व नंबर एक रह चुकी बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल पूरी तरह फिट न होने के बावजूद कोर्ट पर उतरीं तथा हार के बाद देश लौटते साथ उन्हें घुटने का ऑपरेशन तत्काल करवाने की आवश्यकता आन पड़ी। गोल्फ में अदिति अशोक ने साठ खिलाडिय़ों में सातवां स्थान प्राप्त कर फाइनल में प्रवेश कर लिया, किन्तु उस आखिरी बाजी में वे एकाएक फिसल कर चालीस से भी निचले स्थान पर आ गईं। ये कुछ तस्वीरें ओलंपिक-2016 में भारत के प्रदर्शन की हैं जिनको मैंने चलते-फिरते टीवी पर देख लिया। इनके बरक्स दो और चित्र हैं-साक्षी मलिक और पी.वी. सिंधु के।

ये तमाम तस्वीरें क्या कहती हैं? इस बार भारत ने अब तक का अपना सबसे बड़ा दल किसी ओलंपिक में भेजा था। 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत ने कुछ छह पदक जीते थे जो कि उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। उम्मीद जताई गई थी कि रियो में हम लंदन से बेहतर प्रदर्शन करेंगे। वर्तमान प्रधानमंत्री ने तीन साल पहले ही तो तत्कालीन सरकार का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि वह ओलंपिक जीतने वाले खिलाड़ी तैयार करने में नाकाम सिद्ध हुई है। इसके साथ उन्होंने अपनी तरफ से एक फार्मूला भी दिया था कि अगर वे प्रधानमंत्री बन गए तो खेल क्षेत्र में किस तरह के सुधार लाए जाएंगे जिससे ओलंपिक में भारत का माथा ऊंचा हो सकेगा। उनकी बातों पर विश्वास करने वाले इस समय बहुमत के साथ सत्ता में हैं। यह भी शायद एक वजह रही कि रियो को लेकर भारत एक अजीब से और अपूर्व  आत्मविश्वास में डूबा हुआ था। अब जाकर पता चल रहा है कि यह वास्तव में आत्मप्रवंचना थी।

हमारे देश में खेलों को लेकर निरंतर कुछ न कुछ बहस चलती रहती है। एक समय हम अफसोस के साथ आश्चर्य करते थे कि जो देश लगातार हॉकी में सिरमौर रहा और जिसे राष्ट्रीय खेल का दर्जा प्राप्त था उसके स्तर में इतनी गिरावट कैसे आ गई? उसमें जनता की रुचि एकदम से क्यों घट गई और हॉकी का स्थान क्रिकेट ने क्यों ले लिया? उन दिनों हॉकी में आई गिरावट के लिए बहुत से बहाने खोजे गए। मसलन हमारे खिलाड़ी नंगे पैर खेलने के आदी हैं, उन्हें एस्ट्रो टर्फ पर खेलने का अभ्यास नहीं है; यहां तक कहा गया कि भारतीय हॉकी को नीचा गिराने के लिए पश्चिम देशों ने भारत के विरुद्ध षडय़ंत्र रचा है। हमारा दूसरा प्रिय खेल फुटबॉल था। बंगाल की जनता तो फुटबॉल की दीवानी ही है। मोहन बागान, ईस्ट बंगाल व मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब जैसे फुटबॉल क्लबों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा चलती थी। फुटबॉल पर बंगला भाषा में उपन्यास भी लिखे गए, फिर भी इस खेल में आगे हम कभी नहीं बढ़ पाए।

ऐसी स्थितियों को देखते हुए ही किसी प्रमुख व्यक्ति (शायद प्रीतीश नंदी) ने टिप्पणी की है कि जब तक ओलंपिक में कबड्डी और क्रिकेट को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक भारत के पदक पाने की कोई खास उम्मीद नहीं है। आज की निराशाजनक स्थिति में यह वक्रोक्ति लोगों को पसंद आ सकती है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। भारत ने विभिन्न खेलों में विगत सत्तर वर्षों में चोटी के खिलाड़ी दिए हैं। उन्हें विश्वस्तर पर सम्मान मिला है। यह बात अलग है कि वे ओलंपिक खेलों में पदक न जीत पाए अथवा  वह खेल ही ओलंपिक के दायरे से बाहर रहा हो। बैडमिंटन में नंदू नाटेकर, प्रकाश पादुकोण व पुलेला गोपीचंद, टेनिस में रामनाथन कृष्णन, विजय अमृतराज व रमेश कृष्णन, बिलियर्ड में विल्सन जोन्स, माइकल फरेरा, गीत सेठी, पंकज अडवानी जैसे नाम हैं। एथेलेटिक्स में मिल्खा सिंह व पी.टी. उषा सर्वकालिक आदर्श की तरह उपस्थित हैं। शतरंज में विश्वनाथन आनंद भारत से पहले ग्रैंड मास्टर बने। उसके बाद से महिला व पुरुष दोनों वर्गों में कितने तो ग्रैंड मास्टर बन चुके हैं तथा इंटरनेशनल मास्टर की गिनती करना ही शायद मुश्किल हो।

इस सूची में हो सकता है कि मुझसे बहुत से नाम छूटे हों, लेकिन इनकी चर्चा करने का अभीष्ट यही है कि विश्व के खेल परिदृश्य में भारत प्रतिष्ठापूर्ण हैसियत हासिल न कर सके, ऐसा कोई अभिशाप देश पर नहीं है। यहां आकर यह सोचना होगा कि वे ऐसी कौन सी परिस्थितियां रहीं जिसमें हमारे खिलाडिय़ों ने अच्छा प्रदर्शन किया और वे क्या कारण थे जिनके चलते वे आशाओं पर खरे नहीं उतर सके। एक तरह से सिक्के के दोनों पहलुओं को देखने की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि देश में खेलों का जो व्यवसायीकरण हुआ है वही दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है। इस पर गौर कीजिए कि क्रिकेट की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि क्यों हुई? शायद इसका उत्तर यही है कि क्रिकेट में विज्ञापन और विपणन की जितनी संभावना है वह अन्य किसी खेल में नहीं है। आज जब क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो वह टेलीफोन या बिजली के खंभे की तरह नज़र आता है जिस पर दर्जनों पोस्टर चिपके रहते हैं। यह गुंजाइश किसी दूसरे खेल में कहां हैं?

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमें खिलाडिय़ों के साथ मैदान को भी विज्ञापनों से पाटा जा सकता है। अन्य खेलों में यह गुंजाइश कम इसलिए है क्योंकि उनमें अधिक गति होती है और सवा डेढ़ घंटे में खेल खत्म हो जाता है। बेशक फुटबॉल और टेनिस में सट्टेबाजी होती है, खासकर विदेशों में, लेेेेकिन क्रिकेट की सट्टेबाजी के सामने वह कुछ भी नहीं। इस व्यवसायिकता का दूसरा पहलू है कि कोई भी खिलाड़ी जिसने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर ली हो, उसे अपने कब्जे में लेने के लिए विज्ञापनदाता टूट पड़ते हैं। इसमें शायद युवा खिलाडिय़ों के माता-पिता के लालच का भी दोष होता है! एक खिलाड़ी को पर्याप्त आर्थिक प्रोत्साहन मिले यह तो ठीक है, लेकिन अगर वह विज्ञापन से मिलने वाले करोड़ों रुपए की चकाचौंध में खो जाएं तो फिर उसका एकाग्रचित्त होकर खेल पाना मुश्किल हो जाता है। हाल के वर्षों में कुछ नए खिलाडिय़ों ने जो बेहतरीन उपलब्धियां हासिल कीं उनकी चमक कम पड़ जाने का कारण शायद यही है।

एक बार-बार कही गई बात मुझे भी दोहराना चाहिए। हमारे खेल संगठनों पर अधिकतर राजनेता व अधिकारी कब्जा करके बैठे हैं। तर्क दिया जाता है कि यह उनका जनतांत्रिक अधिकार है। यह भी कहा जाता है कि उनके रहने से सुविधाएं हासिल हो जाती हैं। ये दोनों तर्क गलत हैं। राजनेता और अधिकारी दोनों के पास बहुत काम है। उनका प्रमुख काम न्यायसंगत नीति बनाना और उसे ईमानदारी से लागू करना है। अगर वे खेल संगठन में हैं तो उनसे अपने पद का दुरुपयोग करने की आशंका हमेशा बनी रहेगी। दूसरे प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? ये प्रभावशाली लोग खेल संगठनों का उपयोग निजी लाभ के लिए करते हैं। इन्हें खिलाडिय़ों से वास्तव में कोई लेना-देना नहीं होता।

सच तो यह है कि अपने देश में खेल संस्कृति का विकास ही नहीं हुआ है। मैं कोई चालीस बरस से अपने शहर रायपुर में देख रहा हूं कि खेल के मैदान एक-एक कर नष्ट कर दिए गए। कहने को तो जगह-जगह स्टेडियम बन गए हैं, लेकिन उनमें खेल कम और बाकी तमाशे ज्यादा होते हैं। स्टेडियम आदि बनाने में करोड़ों की राशि खर्च होती है उसका हिस्सा किस-किस को और कहां तक पहुंचता है यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। एक शोचनीय उदाहरण रायपुर का ही है। एक सौ पच्चीस साल पुराने गवर्मेंट हाईस्कूल का मैदान रायपुर नगर निगम ने स्टेडियम बनाने के लिए ले लिया। अंतिम परिणाम यह हुआ कि बच्चों से मैदान छिन गया, स्टेडियम में अधिकतर समय खेलेतर गतिविधियां होती रहीं, अब उसे भी तोडक़र नए सिरे से स्टेडियम बनाने की जद्दोजहद चल रही है। सीधी सी बात है, अगर  बचपन से सही वातावरण और सुविधाएं न मिलेंगी तो खेल की संस्कृति कैसे विकसित होगी? जो कुछ हो पा रहा है वह सिर्फ व्यक्तिगत लगन और ज़िद के कारण।

मेरा यह भी मानना है कि खेल हो या और भी बहुत सी बातें, हम हमेशा संशय में पड़े रहते हैं। शायद यह भारत का राष्ट्रीय चरित्र भी है कि हम क्षणिक उपलब्धियों पर जश्न मनाने लगते हैं और क्षणिक पराजय हमें निराशा के गर्त में ढकेल देती है। अगर हम इस क्षेत्र में सचमुच प्रगति करना चाहते हैं तो हमें खेल को खिलवाड़ समझने की मनोभावना का परित्याग करना होगा।

देशबंधु में 25 अगस्त 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 17 August 2016

आशीष अवस्थी की आत्महत्या


 स्वाधीनता दिवस से यही कोई सात-आठ दिन पहले इंदौर में आशीष अवस्थी नामक एक सत्ताईस वर्षीय दवा कंपनी प्रतिनिधि ने रेल के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली। यह खबर जितनी दर्दनाक है, उतनी ही खौफनाक भी। एक युवक जिसके सामने पूरा जीवन पड़ा हुआ है, वह जानबूझ कर मौत को गले लगा ले तो पीड़ा होना स्वाभाविक है। किंतु जिन परिस्थितियों में, जिस कारण से वह खुदकुशी करने के लिए प्रेरित हुआ, उसने एक बड़ा सवाल भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के सामने खड़ा कर दिया है। इस सवाल का उत्तर देश के राजनैतिक तंत्र को ढूंढना है, उसके पास दिशा संकेत भी हैं, लेकिन क्या स्वार्थलिप्त, आत्ममुग्ध तंत्र इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार है?

आशीष अवस्थी अमेरिका की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी एबट में विक्रय प्रतिनिधि था। विगत बीस-पच्चीस वर्षों में दुनिया में दवा कंपनियों के विक्रय और विलय का खेल खूब हुआ है। बड़ी-बड़ी कंपनियां अपना मुनाफा बढ़ाने तथा अपने अंशधारकों को बेहतर लाभांश देने के नाम पर परस्पर विलय करती हैं। जाहिर है कि जो ज्यादा बड़ी कंपनियां हैं पहिले वे छोटी या कमजोर कंपनियों को खरीदती हैं। एबट ने भी भारत की कुछेक छोटी दवा कंपनियों को क्रय कर अपना आकार बढ़ा लिया है। देखना कठिन नहीं है कि इस प्रक्रिया में एकाधिकार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है जिसका अंतत: असर दवा की बढ़ी कीमतों और जनता की जेब पर डाका डालने में होता है।

भारत में यह खेल प्रारंभ होने के पहिले भी दवा कंपनियों में विक्रय व विपणन प्रतिनिधियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। उन्हें गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले जाकर डॉक्टरों से मिलता पड़ता है। रहने के लिए ठीक से होटल भी छोटे स्थान में नहीं होता। खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं। सैंपल से भरा भारी-भरकम बैग उठाए इस क्लीनिक से उस क्लीनिक घूमते रहो। डॉक्टर के चैंबर के बाहर घंटों बैठे रहो। उसे जब फुर्सत हो, तब बुलाएगा। 2-3 मिनिट में उसके सामने अपनी दवा की तारीफ करो, सैंपल दो और आगे बढ़ो। यूं हर पेशे में विक्रय प्रतिनिधि को बहुत अधिक शारीरिक-मानसिक श्रम करना पड़ता है, लेकिन डॉक्टर व प्रतिनिधि के बीच हैसियत का बड़ा अंतर होता है। दवा प्रतिनिधियों को बेहतर वातावरण मिले इसके लिए अखिल भारतीय दवा विक्रय प्रतिनिधि संघ बना। उसके आंदोलनों के कारण स्थितियों में कुछ सुधार हुआ, तथापि हर प्रतिनिधि को कंपनी द्वारा दिए गए लक्ष्य याने टारगेट तो पूरा करना ही पड़ता है।

आशीष अवस्थी की आत्महत्या का कारण बना यही टारगेट पूरा न कर पाना। इतनी सारी कंपनियों, इतनी सारी ब्रांडेड दवाईयां, उनमें भी न जाने कितनी आवश्यक और कितनी सिर्फ मरीजों की जेब काटने के लिए। आशीष के ऊपर दबाव बहुत था। लक्ष्य पूरा हो जाए तो बोनस में कुछ अतिरिक्त राशि मिल जाती है। उसका भी लोभ रहता ही है। लक्ष्य पूरा न हो तो नौकरी चली जाने का खतरा। एम.एस.सी. पास किया युवक अगर पहली नौकरी में ही नाकारा सिद्ध हो गया तो आगे काम कहां मिल पाएगा, यह बड़ा डर मन में। असफलता की शर्मिंदगी, परिवार में नालायक घोषित किए जाने की आशंका, पत्नी-बच्चों का भरण-पोषण करने का यक्ष प्रश्न, ये सारे प्रश्न इस परिस्थिति में नागफनी की तरह दंश मार सकते हैं।

लोकप्रिय लेखक आर्थर हैली ने लगभग चालीस वर्ष पूर्व उपन्यास लिखा था-द स्ट्राँग मेडिसिन। इसमें वर्णन था कि दवा कंपनियां अपने मुनाफे का मात्र 5-10 प्रतिशत शोध व अनुसंधान पर व्यय करती हैं, जबकि विक्रय-विपणन-विज्ञापन पर 30 प्रतिशत के आसपास। इसमें डॉक्टरों को कीमती सौगातें, उनकी विदेश यात्रा का भार उठाना जैसी अनैतिक गतिविधियां भी शामिल हैं। इनके दम पर ही वे भारी-भरकम मुनाफा कमाती हैं। भारत ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार दवाओं के दाम नियंत्रित करने के प्रयत्न किए, लेकिन आधे-अधूरे। ब्रांडेड के स्थान पर जैनेरिक दवाओं को प्रोत्साहन देने का कदम भी आधे मन से उठाया गया। अगर दवा फार्मूले के तहत मूल नाम से बिके तो ब्रांड का बाजार खत्म हो जाएगा, प्रतिस्पद्र्धा कम हो जाएगी, दवाएं सस्ती हो जाएंगी और विक्रय प्रतिनिधि को जिस मानसिक दबाव में काम करना पड़ता है, वह भी कम हो जाएगा। चूंकि सरकार ने इस बारे में गंभीरता और ईमानदारी नहीं दिखाई, इसलिए आज एक युवा दवा प्रतिनिधि की आत्महत्या करने की नौबत आई, ऐसा सोचूं तो गलत नहीं होगा।

यह खबर खौफनाक एक अन्य कारण से भी है। पिछले कुछ बरसों में हमने किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें बारंबार पढ़ी हैं। इस हद तक कि नागर समाज ने तो उनकी तरफ ध्यान देना, उस बारे में बात करना तक बंद कर दिया है। लेकिन किसान मर रहे हैं, यह सच्चाई अपनी जगह कायम है। अब  एक मध्यमवर्गीय युवा सेल्समैन द्वारा हताशा में खुदकुशी कर लेना देश के युवा वर्ग में बढ़ रही बेचैनी, हताशा, असुरक्षा, अनिश्चित भविष्य इत्यादि की प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा है। उस युवा वर्ग में जिसे भारत अपनी सबसे बड़ी पूंजी याने असैट मानकर चल रहा है। बारंबार कहा जा रहा है कि आने वाले दशकों में भारत की युवा आबादी विश्व में सर्वाधिक होगी इत्यादि। इन युवजनों को लुभाने के लिए तरह-तरह के सरंजाम कारपोरेट जगत कर रहा है- मॉल और मल्टीप्लैक्स से लेकर लाखों की बाईक, फ्यूज़न फूड, फ्यूज़न म्यूज़िक, स्मार्टफोन, मोबाइल एप्प आदि तक। लेकिन इन युवाओं को पढ़ाई पूरी करने के बाद भविष्य क्या होगा, ये जब कौशल विकास का प्रशिक्षण पा लेंगे, उसके बाद इन्हें रोजगार कैसे मिलेगा जैसे बुनियादी मुद्दों पर क्या गंभीरता से सोचा गया है?

ध्यान से देखें तो किसानों और युवाओं की आत्महत्या के बीच एक गहरा नाता है। दोनों नवपूंजीवाद के मारे हुए हैं। किसान जब खुदकुशी करता है तो किस्म-किस्म के कारण गिना दिए जाते हैं। वह बीमार था, पेट दर्द से परेशान था; तो फिर उसका इलाज समय पर और सही रूप में क्यों नहीं हुआ? वह गृहकलह से परेशान था; अच्छा, तो इस गृहकलह का कारण क्या था? वह शराब पीकर मरा; तो उसके लिए गांव-गांव में शराब दूकानें किसने खोलीं? सच तो यह है कि अधिकतर अंचलों में किसान ने मौत का वरण इसलिए किया कि वह जिस पारंपरिक खेती का अभ्यस्त था, उससे उसे विमुख कर ऐसे नए प्रयोग करने कहा गया जो उसकी सामथ्र्य के परे थे। उसे अपनी फसल का सही दाम नहीं मिलता, सरकार से मिलने वाले खाद-बीज- कीटनाशक में मिलावट तथा कमी होती है, जो कृषि साधन खरीदने उसे मजबूर किया जाता है वे सब बहुराष्ट्रीय या देशी कारपोरेट द्वारा उत्पन्न तथा मुहैय्या कराए जाते हैं।

भारत में एक वर्ग आर्थिक साम्राज्यवाद पर बेतरह फिदा है। देश को सुखी-संपन्न बनाने का एक ही मंत्र उसने रट लिया है कि वैश्विक पूंजी के गुण गाते रहो। हमारी कंपनियां देश में कमाए धन से विदेशों में कारखाने खरीदें, फिर भले ही आगे चलकर उनमें घाटा क्यों न हो, और विदेश कंपनियां भारत में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निवेश कर यहां के कल-कारखानों पर कब्जा कर लें। यहां तक कि प्रतिरक्षा कारखाने भी उनके हवाले कर दिए जाएं। एक समय नंदन निलेकनी भी इसी सोच के हामी थे। अनुदारपंथी अर्थशास्त्री थॉमस एल. फ्रीडमैन ने अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज़ फ्लैट’ का आरंभ ही उनकी सराहना से किया था। आज वही निलेकनी मोदी सरकार को चेता रहे हैं कि मेक इन इंडिया नहीं मेक फॉर इंडिया की बात कीजिए। विदेशियों, विदेशी पूंजी, विदेशी बाजार से हमारा भला नहीं होगा, बल्कि हमें देश के भीतर देशवासियों के लिए उत्पादन, उपयोग व रोजगार के अवसर सृजित करना होंगे।

वामपंथी किंवा उदारपंथी विचारकों की बात जाने दीजिए। जब फ्रांसिस फुकुयामा और नंदन निलेकनी जैसे विचारक भी अपनी पूर्व धारणाओं में संशोधन करने लगें, तब इस देश के नीति-निर्माताओं को भी थोड़ा ठहर कर अपनी नीतियों पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए। अन्यथा भविष्य क्या होगा, यह सोचने में भी डर लगता है।

देशबंधु में 18 अगस्त 2016 को प्रकाशित 

Saturday, 13 August 2016

आज़ादी और अराजकता

नोट : कादंबिनी  पत्रिका ने अगस्त अंक के लिए इसी विषय पर लेख चाहा था।  समयाभाव के कारण लेख भेजना संभव नहीं हुआ, किंतु पत्रिका के कॉपी एडीटर एवं चिंतनशील पत्रकार संत समीर के आग्रह पर उनसे फोन पर प्रश्नोत्तर के रूप में चर्चा हुई, जिसे उन्होंने बड़े मनोयोग व परिश्रम से लेख का रूप दे दिया। यह लेख कादम्बिनी से साभार लेकर यहां पुनर्प्रकाशित है। मैं भाई संत समीर का भी आभारी हूं।

असल में अराजकता एक राजनीतिक दर्शन है, पर हम यहां अराजकता को शायद उच्छृंखलता के रूप में देखना चाहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मैं कहूंगा कि ऐसे लोग हमारे बीच में हो सकते हैं जो अराजकता के दर्शन में विश्वास करते हों। ठीक उसी तरह जैसे बहुत सारे अन्य राजनीतिक दर्शनों को मानने वाले लोग भी इस देश में हैं।  उच्छृंखलता की जहां तक बात है तो 120 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में इसके भी तमाम उदाहरण मिलते हैं और इसके कई कारण हो सकते हैं। यह बात भी है कि आजादी हो या न हो, पर उच्छृंखलता तब भी किसी भी समाज में हो सकती है। यों इस प्रवृत्ति के लोगों की संख्या कम होती है और ज्यादातर लोग आजादी के मायने समझते हैं, अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं और उसके हिसाब से काम भी करते हैं। एक किसान अपना काम करता ही करता है। बारिश हो गई है तो उसे खेत में जाना ही है। फसल पक गई तो उसे उसको काटना ही है। कारखाने में कोई मजदूर काम कर रहा है तो उसको भी अपनी मजदूरी करनी ही करनी है। अधिकतकर जनता अपना काम करती रहती है और अपना दायित्व निभाती है। वास्तव में उच्छृंखलता वृहत्तर समाज का एक छोटा हिस्सा है, पर है खतरनाक।
जहां तक यह बात है कि कुछ समर्थ लोग आजादी का नाजायज फायदा उठा रहे हैं तो यह निश्चित रूप से विचारणीय है। असल में हमारा जो संविधान है, उसमें हमने एक समाजवादी राज्य की संरचना का, कल्याणकारी राज्य की सरंचना का संकल्प लिया है। हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्व यही कहते हैं। पिछले करीब तीस-पैंतीस सालों में धीरे-धीरे एक प्रकार का नव-साम्राज्यवाद उभरा है, नव-पूंजीवाद की प्रवृत्तियां उभरी हैं। इसमें टेक्नोलॉजी का बहुत बड़ा योगदान है, जिसके कारण संचार के साधन विकसित हुए और यातायात के साधन सुलभ हुए। इस सबके चलते हुआ यह है कि पूंजी का कब्जा समाज में बढ़ता ही चला जा रहा है। इसके अलावा समाज जिस सरकार को चुन रहा है, उस पर भी इसका प्रभाव बढ़ रहा है। मेरा मानना है कि इंदिरा गांधी का जो द्वितीय कार्यकाल था, उस समय इसकी थोड़ी-सी शुरूआत हो गई थी। राजीव गांधी के कार्यकाल में यह प्रवृत्ति और बढ़ी।  वीपी सिंह, नरसिम्हा राव, वाजपेयी, यूपीए-1 और यूपीए-2 के समय में यह उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। यूपीए के समय इतना जरूर था कि चूंकि किसी कोने-अंतरे में गांधी-नेहरू की कांग्रेस की थोड़ी बहुत छाया बची हुई थी तो किसानों की ऋण माफी जैसे कुछ काम उस समय हो गए, लेकिन कुल मिलाकर नव-पंूजीवाद से वह सरकार प्रभावित थी और उसी के अनुसार नीतियां बनाई गईं। वर्तमान सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है।

इस संदर्भ में अगर आजादी का जायज-नाजायज फायदा उठाने की बात करें, तो यह देखना पड़ेगा कि यदि नियम-कानून बनाकर काम किया जा रहा है तो उसे नाजायज तो नहीं कह सकते हैं। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि सरकार ने जो कायदे-कानून बनाएं हैं वे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं और सरकार के द्वारा जो निर्णय लिए जा रहे हैं वे जनता की आकांक्षाओं की अवहेलना करते हैं। मिसाल के तौर पर अगर आप किसी उद्योगपति का दो सौ करोड़ रुपये का ऋण पर्यावरण की क्षति के लिए माफ कर देते हैं तो यह जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप निर्णय तो नहीं ही है। सरकार के कई सारे ऐसे फैसले आप देख सकते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि सरकार स्वयं भी शायद असहाय है। ऐसा इसलिए भी है कि चुनाव लडऩा अब एक महंगा सौदा हो गया है। ऐसे में जब लोग चुनाव जीतकर आते हैं तो जिनसे चुनाव में धनराशि मिली होती है, जिनसे उपकृत होते हैं, उनके पक्ष में निर्णय भी लेते हैं। हाल यह है कि आज हम पूंजीवाद के ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत... अर्थात जो ऊपर से बचेगा वह नीचे की तरफ पहुंचेगा... पर चल रहे हैं। तो हम स्पष्ट कह सकते हैं कि जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप काम बहुत नहीं हो पा रहा है।

आज़ादी के नाम पर आजकल जो बात-बात पर धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं, उनके भी मूल कारणों की तलाश करनी पड़ेगी। जब तक हम इन चीजों के मूल में नहीं जाएंगे, तब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। हरियाणा में पिछले दिनों आरक्षण के नाम पर जो अराजक माहौल बना या पहले और भी कई जगहों पर इस रह का वातावरण बना, उसके पीछे के कारणों को समझने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है? असल में आज के समय में तकनीकी वगैरह के विकास के कारण या राजनीति और दूसरे कई कारणों से भी लोग खेती वगैरह के काम में नहीं जाना चाहते और इसे छोडऩा चाहते हैं खेती में उत्पादकता नहीं दिखाई देती या इसमें लाभ नहीं दिखाई देता। दूसरी बात यह है कि मजदूर का, रिक्शेवाले का, किसान का, कारीगर का आज के दौर में सम्मान नहीं रह गया है। अफसरशाही पूरे देश में हावी हो गई है। ऐसे में एक किसान को भी लगता है कि उसके बेटे-बेटी किसी तरह आईएएस, पीसीएस बन जाएं या किसी नौकरी में लग जाएं लोग इस तरह के अवसरों, नौकरियों की तलाश में आंदोलन कर रहे हैं।

 यह एक सामाजिक सच्चाई है और सामूहिक अराजक वातावरण बनने के पीछे इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। कई बार सरकार कुछ समूहों को संतुष्ट करने के लिए खंड-खंड में उन्हें कुछ सुविधाएं बांट देती है, पर इससे काम नहीं चलने वाला! इससे तो असंतोष ही बढ़ता है और कई और तरह की अराजकता फैलाने वाले आंदोलनों की संख्या बढ़ती है। वास्तव में  नौकरियों, अवसरों की कमी की वजह से उपजे असंतोष के परिपे्रक्ष्य में सरकार को एक आरक्षण आयोग बनाना चाहिए। इसके अलावा सरकारी नौकरियों की तरह निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण लागू किया जाए, तो कुछ हद तक समस्या हल हो सकती है। वास्तव में आंदोलन वगैरह के दौरान अराजकता की बात सिर्फ लॉ एंड ऑर्डर का मामला नहीं है। यह अंतत: शासन के विवेक का मामला है।

आजादी और अराजकता की जब हम बात करते हैं, तो इस ओर भी देखना पड़ेगा कि आज की नई पीढ़ी कई रूपों में उच्छृंखलता की ओर बढ़ती दिखाई देती है। एक वर्ग ऐसा पैदा हो रहा है, जो अपने आगे किसी और की आजादी या निजता का ख्याल ही नहीं करता। इसकी एक बड़ी वजह है कि राजनीतिक दलों ने लोकशिक्षण का काम छोड़ दिया है। शिक्षा की जो दुर्गति हमारे देश में हो रही है, उसकी ओर पिछले काफी समय से ध्यान नहीं दिया गया है। कहां तो यह तय किया गया था कि हम शिक्षा पर कुल बजट का छह प्रतिशत खर्च करेंगे, पर तीन-चार प्रतिशत पर अटके हुए हैं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म-सी हो गई है। कॉलेजों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा का हाल यह है कि शिक्षकों को अंशकालिक बना दिया गया है। तीस-पैंतीस साल के प्राथमिक शिक्षा में कायदे से पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही है। कहीं शिक्षा- मित्र तो कहीं पंचायत शिक्षक के नाम पर अंशकालिक शिक्षक भर्ती किए जा रहे हैं।  एक तरफ शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का कानून लाया जाता है, तो दूसरी तरफ शिक्षा के अधिकार कानून को समाप्त करने या कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। हालात ऐसे पैदा किए जा रहे हैं कि संपन्न के बच्चे की शिक्षा तो चलती रहे, पर कमजोर का बच्चा स्कूल में पढ़े या न पढ़े, उसकी कोई चिंता नहीं। विद्यार्थियों में जो उच्छृंखलता दिख रही है, युवाओं में जो उच्छृंखलता दिख रही है, उसका यहएक बड़ा कारण है। दूसरा एक और कारण है, नवधनाढ्य वर्ग। नवधनाढ्य वर्ग के घरों के बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, एयरकंडीशन घर से निकलते हैं, एयरकंडीशन बस में बैठते हैं, एयरकंडीशन कमरे में बैठकर पढ़ाई करते हैं। ये बच्चे जब बड़े होते हैं तो कई-कई लाख की बाइक पर चलते हैं। मां-बाप उन पर ध्यान नहीं देते और समझते हैं कि वे अपने बच्चों को पैसे से खुश कर देंगे, पर अकसर बच्चे इतने बिगडै़ल निकलते हैं कि उच्छृंखलता की सीमाएं पार करने लगते हैं। असल में मां-बाप को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। आखिर स्कूलों में भी वह वातावरण मिलना चाहिए जहां कि बच्चे अच्छी पढ़ाई पर ध्यान दे सकें। इसके बावजूद मैं समझता हूं कि बिगडऩेवाले बच्चे पांच-दस प्रतिशत ही हैं।

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मीडिया जो कर रहा है, इस संदर्भ में उसकी भी भूमिका देखी जानी चाहिए। मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट घरानों के हाथ में है, यह एक सच है। इसके अलावा पत्रकार बिरादरी के लोगों का हाल यह है कि जो ज्यादा पैसे देगा, उसके पास चले जाएंगे। आप देख सकते हैं कि स्वतंत्रतचेता पत्रकार कितने हैं, या पत्रकारों की यूनियन कहां है! पत्रकारों की स्वाधीनता के लिए स्वाधीन कलम के लिए लडऩे की बात अभी है कहां? ऐसे में मीडिया भी देश के लोगों को जिम्मेदारी का पाठ भला कितना पढ़ा सकता है?

यहां एक बार फिर ध्यान देने की बात है कि अराजकता एक राजनीतिक दर्शन है, इसलिए इसे अलग तरह से देखना चाहिए, पर सामान्य अर्थों में इसे उच्छृंखलता के रूप में लें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आज का जो राजनीतिक परिवेश है, वह पूंजी से संचालित है। देशी कॉरपोरेट घरानों की पूंजी तो है ही, वैश्विक पूंजी का भी बहुत बड़ा दबाव है। वैश्विक पूंजी के दबाव में हमारे सारे उद्योग-धंधे, खेती, रोजगार, हस्तशिल्प वगैरह पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसके कारण बड़ी संख्या में बेरोजगार पैदा हो रहे हैं और यह बेरोजगारी अंतत: हताशा और कुंठा को जन्म दे रही है। नतीजतन, विरोध की आवाजें उठ रही हैं और नए-नए आंदोलन शुरू हो रहे हैं। यही स्थिति धीरे-धीरे उन्माद में बदलती है तो उच्छृंखलता का रूप लेने लगती है। दूसरी तरफ हमारे देश में श्रम की महत्ता दिनोंदिन कम होती जा रही है और जो हमारा सत्ताधारी वर्ग है, वह श्रम की महत्ता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, बल्कि उसको वह हर मौके पर अपमानित करता है। उसकी वजह से लोग यह समझते हैं कि यदि उनके बच्चे सरकार में होंगे तो उन्हें यह अपमान नहीं झेलना पड़ेगा और लोग सरकारी नौकरियों की ओर भाग रहे हैं। यह होगा तो जाहिर है कि ‘सबके लिए शिक्षा’ महज एक झूठा नारा होकर रह जाएगा। ऐसे में हमारे युवाओं में एक तरह की हताशा जन्म ले रही है और इस हताशा में वह अपराध की ओर कदम बढ़ा रहा है। यदि हम अराजकता को पारिभाषिक शब्दावली से थोड़ा दूर करके राज्य के नियमों के उल्लंघन के रूप में देखें, तो कई बार हमारी सरकारें भी वास्तव में अराजक व्यवहार करने लगी हैं, वे खुद अराजक होने लगी हैं।

देशबंधु में 14 अगस्त 2016 को प्रकाशित 
 

Thursday, 11 August 2016

तेल के दाम और प्रवासी भारतीय




दो साल पहले तक विश्व बाजार में खनिज तेल की कीमत एक सौ पचास डालर प्रति बैरल के आसपास थी, वह कम होते-होते चालीस डालर के न्यूनतम स्तर पर आ गिरी है। जानकारों का कहना है कि कीमतें और घट सकती हैं। तेल की कीमतों में आई इस गिरावट के पीछे अनेक कारण गिनाए गए हैं। जैसे अमेरिका में नई विधि से धरती के बहुत नीचे जाकर तेल उत्खनन करना, आधुनिक टेक्नालॉजी के प्रयोग से उद्योगों में पहले की बनिस्बत तेल की कम खपत, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों यथा पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा का विकास और इन सबसे बढक़र तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक द्वारा अधिकाधिक तेल उत्खनन करना। यहां एक विरोधाभास दिखाई देता है। ओपेक देश अधिक तेल उत्खनन में जुटे हुए हैं जबकि विश्व बाजार में  उतनी आवश्यकता नहीं है। यह तस्वीर का एक पहलू है। हमारे लिए यह समझना अधिक आवश्यक है कि भारत के ऊपर इसका क्या असर पड़ रहा है।

विगत कई वर्षों से हम पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होते हुए देख रहे थे। यह सामान्य समझ है कि किसी भी वस्तु की कीमत जब एक बार बढ़ जाती है तब फिर उसके घटने की कोई उम्मीद नहीं रहती। फिर बात चाहे सोना-चांदी की हो या साग-भाजी की। सोना-चांदी में बीच-बीच में कुछ गिरावट होती है और देखते ही देखते भाव फिर बढ़ जाते हैं। अभी अरहर और अन्य दालों की कीमतों में वृद्धि हम देख ही रहे हैं। ऐसे में जब तेल की कीमतें कम हुईं तो मानो एक चमत्कार हो गया। आम जनता को लगने लगा कि अब पेट्रोल-डीजल के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के मूल्य भी कम हो जाएंगे। यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। इसका गणित स्पष्ट था। जब विश्व बाजार में तेल के भाव बढ़ रहे थे तब केन्द्र और राज्य उस पर लगाए टैक्स में यत्किंचित समायोजन कर उपभोक्ताओं का बोझ कम करने की कोशिश कर रहे थे।  उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने विमान ईंधन याने एविएशन फ्यूल पर वाणिज्यकर एकदम कम कर दिया था।

चूंकि पेट्रोल-डीजल पर उसकी कीमत के अनुपात में कराधान की व्यवस्था थी इसलिए जब भाव घटे तो उस पर लगे टैक्स से हो रहे राजस्व कम होने की आशंका बन गई। यही कारण था कि विपक्षी दलों और आम जनता द्वारा आलोचना तथा व्यंग्य प्रहारों के बावजूद केन्द्र सरकार खनिज तेल पर लगातार टैक्स की दर बढ़ाते गई है। इससे सरकार को मिलने वाले राजस्व में कोई कमी नहीं हुई साथ ही सस्ती दर पर तेल आयात करने से विगत दो वर्षों में अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में काफी मदद मिली। दूसरी ओर केन्द्र सरकार ने आम उपभोक्ताओं के लिए समय-समय पर तेल के भाव में आंशिक कटौती भी की ताकि जनता को भी थोड़ी राहत मिलती रहे और उसका गुस्सा बेकाबू न हो जाए। मेरी अपनी राय में चूंकि हम अपनी खपत का अस्सी प्रतिशत तेल आयात करते हैं तथा उसके लिए बहुमूल्य विदेशी मुद्रा में भुगतान करना होता है, ऐसी स्थिति में तेल पर कर लगाने में कोई गलती नहीं है।

भारत पर विश्व बाजार में तेल के भाव गिरने का एक और असर हुआ जो अब देखने मिल रहा है। मुझे आश्चर्य है कि हमारे नीति निर्माताओं ने इस बारे में समय रहते विचार क्यों नहीं किया! मैं बात कर रहा हूं सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों में फंसे हुए भारतीय नागरिकों की जिनमें से अधिकतर कारीगर और मजदूर हैं। अभी हमने खबरें पढ़ी कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इनकी तकलीफ की खबर पाते साथ किस तरह फौरी कार्रवाई की, कि कैसे विदेश राज्यमंत्री जनरल सिंह को सऊदी अरब भेजा गया कि वे वहां जाकर स्थिति संभालें, कि कैसे भारतीय दूतावास के माध्यम से इन भारतीयों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई आदि। इन खबरों में सुषमाजी की बेहद तारीफ की गई। इस मौके का उपयोग उनके छवि निर्माण के लिए भी भलीभांति किया गया।

यह तो अच्छी बात है कि परदेस में मुसीबत में पड़े भारतीयों को समय रहते सहायता पहुंचाई गई। यद्यपि कुछेक कूटनीतिज्ञों ने इस अवसर पर यह कहकर आलोचना की है कि अतीत में भी ऐसे मौके आए हैं और तब बिना हो-हल्ले के जो करणीय है वह किया गया था।  बहरहाल मेरा सवाल कुछ अलग है। जो तेल उत्पादक देश डेढ़ सौ डालर में तेल बेच रहे थे, उन्हें धीरे-धीरे कर चालीस डालर पर बेचने की नौबत आई तो इसका मतलब साफ है कि उनकी अपनी आय में तेजी के साथ गिरावट आ रही थी।  इसकी कुछ भरपाई उन्होंने अधिक तेल उत्पादन करके अवश्य की, लेकिन कुल मिलाकर तो बजट बिगड़ ही रहा था। ऐसी स्थिति आने पर उसका प्रतिकूल प्रभाव सबसे पहले प्रवासी आबादी पर पडऩा स्वाभाविक था।  खाड़ी देशों के संदर्भ में प्रवासी का मतलब मुख्य रूप से भारतीय होना है। क्या हमारे कूटनयिकों, अर्थशास्त्रियों और सरकार को इस बात का कोई इल्म नहीं था? अगर होता तो आग लगने के बाद बुझाने की बात नहीं होती!

हम लंबे अरसे से वाकिफ हैं कि खाड़ी देशों में जो भारतीय मजदूरी करने जाते हैं उनके साथ वहां अच्छा बर्ताव नहीं होता। उन्हें गेस्ट वर्कर कहा जाता है लेकिन वे लगभग बंधुआ मजदूर की स्थिति में वहां जीवनयापन करते हैं।  विदेश में पहुंचते साथ ही उनका पासपोर्ट आदि नियोक्ता कंपनी द्वारा जब्त कर लिए जाते हैं। याने अगर वे कभी ठेके की शर्त समाप्त होने के पहले लौटना चाहें तो नहीं लौट सकते। उनके साथ अगर कोई अत्याचार हो तो स्थानीय पुलिस या प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती। इसका बड़ा कारण यह भी है कि ये जिन कंपनियों में काम करने जाते हैं वे अधिकतर वहां के शाही परिवार के नाते-रिश्तेदारों एवं नजदीकी लोगों की होती है। यहां से ये मजदूर सुनहरे सपने लेकर जाते हैं। डालर में कमाई होने और उसके द्वारा घर की माली हालत सुधारने का मोह उन्हें वहां ले जाता है।  इसके चलते वे हजार तकलीफें बर्दाश्त कर काम करते रहते हैं।

भारत सरकार को मजदूरी करने विदेश गए इन मजबूर नागरिकों के साथ कोई प्रेम नहीं है। सच पूछिए तो देश के भीतर भी जो मजदूर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश काम की तलाश में जाते हैं उनकी ओर भी हमारी सरकारें कहां ध्यान देती हैं! यह एक विडंबना है कि समृद्ध देशों में जा बसे समृद्ध भारतवंशियों के प्रति हमारा प्रेम ऐसा उमड़ता है कि बस पूछिए मत। उनके लिए सुविधाओं और सम्मान में कोई कसर बाकी नहीं रह जाती, फिर भले ही वे भारत कभी न लौटना चाहते हों। लेकिन जो भारतीय विदेशों में जाकर खून-पसीना एक करते हैं उनके प्रति हमारी सरकार उस वक्त तक दुर्लक्ष्य करती है जब तक कि कोई बड़ी वारदात न हो जाए, जैसा कि अभी सऊदी अरब में हुआ।

सऊदी अरब व अन्य तेल उत्पादक देश क्या सोचकर तेल का उत्पादन लगातार बढ़ा रहे हैं, ये तो वही जानें, लेकिन इतना तय है कि इससे उनकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। सुदूर वेनेजुएला जो कि विश्व का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है वह बदहाल हो चुका है। पश्चिम एशिया के देश भी कमोबेश इसी स्थिति से गुजर रहे हैं। यद्यपि सबकी स्थितियों में थोड़ा-थोड़ा फर्क है। जैसे दुबई अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन चुका है, या कुवैत को लंबे समय से अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त है। सऊदी अरब एक तरफ अमेरिका की कठपुतली है, दूसरी ओर मक्का और मदीना के कारण मुसलमानों का तीर्थ होने के साथ-साथ वहाबी इस्लाम का पोषक है, और तीसरी ओर सामाजिक रूप से विश्व के सबसे पिछड़े और पोंगापंथी देशों में से है। यहां का शाही परिवार अपनी विलासिता के लिए लंबे समय से कुख्यात है और अमेरिका की मदद से आईएस को खड़ा करने में उसने हाल के समय में बहुत खतरनाक भूमिका निभाई है।

इस परिपे्रक्ष्य में और पुराने प्रसंगों के प्रकाश में वहां भारतीय मजदूरों के साथ जो कुछ हुआ वह अनपेक्षित नहीं था। भारत सरकार को इसका अनुमान पहले ही लगा लेना था। जब वहां कारखाने बंद हो रहे थे तभी अपने नागरिकों को वापिस लाने का काम उसे कर लेना चाहिए थे। अब हमारी सरकार का यह दायित्व भी बनता है कि वह सऊदी सरकार से अपने मजदूरों के बचे वेतन और छंटनी के विरुद्ध मुआवजे की मांग कर उन्हें राहत पहुंचाए।

देशबंधु में 11 अगस्त 2016 को प्रकाशित 

Tuesday, 9 August 2016

चार नई पुस्तकें



इस समय मेरे सामने चार पुस्तकें हैं। एक कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह और एक अनूदित कविताओं का संकलन। मैंने इन्हें चर्चा के लिए क्यों चुना? मुख्यत: इसलिए कि इन रचनाकारों में अपने समय व परिस्थितियों को लेकर गहरी व्याकुलता है। प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की तड़प है। कहीं सुदूर आशा की किरण है। और है वास्तविक स्थितियों को सही संदर्भों में समझने की कोशिश। 

छत्तीसगढ़ निवासी उर्मिला शुक्ल की पहिचान एक कवयित्री के रूप में है। लेकिन वे कहानियां भी लिखती रही हैं। मैं, फूलमती और हिजड़े  हिन्दी में उनका पहला कहानी संकलन है। प्रसंगवश कह देना होगा कि उर्मिला को हिंदी, छत्तीसगढ़ी व अवधी पर समान अधिकार है। बहरहाल, दस कहानियों के इस पहिले संकलन के शीर्षक से ही काफी स्पष्ट हो जाता है कि उनका रचनाओं  का प्रमुख अवलंब क्या है। दस में से नौ कहानियां सीधे-सीधे आज के समय में स्त्री की दारुण अवस्था को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। इनमें स्त्री सिर्फ स्त्री है, शोषित, वंचित और छली गई। वह संपन्न परिवार से है या गरीब घर से, शिक्षित है या अशिक्षित, कामकाजी है या गृहिणी, शहर निवासी है या ग्रामवासी- इन सबके कोई मानी नहीं है। 

लेकिन उर्मिला शुक्ल अपने पात्रों को हार नहीं मानने देतीं। वे उनमें विश्वास का संचार करती हैं। उन्हें अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की ताकत देती हैं। नारी जीवन के कटु यथार्थ को वे अपनी कथाओं के माध्यम से एक आदर्शवादी भावना में परिवर्तित करने का अर्थपूर्ण यत्न करती हैं। ऐसा करते हुए वे पुरुषप्रधान समाज द्वारा निर्मित सदियों से चली आ रही तमाम रूढिय़ों तथा मर्यादाओं  का साहसपूर्वक निषेध करती हैं। उर्मिला की उस महिला से भी सहानुभूति है जो गणिका बनने के लिए विवश होती है, उससे भी जिसे अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता का नाम नहीं मालूम। वे तो हिजड़ों के प्रति संवेदना का परिचय देती हैं, जिनका जीवन आज भी बाहरी संसार के लिए रहस्यमय व कुत्सापूर्ण है।  

इन सभी कहानियों  में  पाठक  को  लेखिका की न सिर्फ भाषा पर अधिकार, बल्कि सूक्ष्म ब्यौरे पकड़ लेने की क्षमता का भी पता चलता है। उर्मिला के पास इस खूबी के चलते कहानियों की कमी तो नहीं होगी, लेकिन अब उन्हें वृहत्तर कैनवास पर काम करने की तैयारी करना चाहिए। आज भारतीय नारी के सामने पहले के मुकाबले कहीं अधिक चुनौतियां हैं और उनसे पार पाना सरल नहीं है। नवपूंजीवाद के प्रभाव से जो बदलाव समाज में आ रहे हैं उनकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी। इस नए परिदृश्य में स्त्री कहां है, इसकी पड़ताल करना आवश्यक हो गया है। मैं आशा करता हूं कि उर्मिला की आने वाली कहानियों में इसके वर्णन हमें पढऩे मिलेंगे। 

युवा कवि रोहित कौशिक का संभवत: पहला कविता संकलन ‘इस खंडित समय में’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता का जो रंग है  उससे ये कविताएं विशिष्ट हो जाती हैं। उनकी एक कविता है- झोक्काओं  के  बच्चे। यह कविता वही लिख सकता था जिसने गुड़ बनाने के कारखाने में भट्टी पर गन्ना रस को खौलते और गुड़ में तब्दील हुए देखा होगा। लेकिन रोहित दृष्टिसम्पन्न कवि हैं। वे सिर्फ गुड़ बनने की प्रक्रिया का वर्णन नहीं करते बल्कि तीखा सवाल उठाते हैं कि गुड़ तो किसी के मुंह में घुलकर रस पैदा करेगा, लेकिन उनका क्या जो कड़ाह में रस झोंकते हुए दूसरों को मिठास देने के लिए अपना पूरा जीवन झोंक देते हैं। वे तो कोल्हू के बैल बने रहने के लिए अभिशप्त बने रहेंगे। 

सन् 2013 में मुजफ्फरनगर के कुख्यात दंगे हुए थे जिसने उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी की विजय का पथ प्रशस्त किया था। इस त्रासदी ने कवि को संतप्त किया है। इंसान बनने में कविता में वे मानो इस तरह एक शोकगीत रचते हैं- 

हिन्दू, हिन्दू बने रहें
मुसलमान बने रहें मुसलमान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होते है श्रीमान!

कायर, कायर बने रहें
शैतान बने रहें शैतान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होता है श्रीमान।

साम्प्रदायिक हिंसा से व्यथित रोहित की मुजफ्फरनगर दंगों पर कुछ और कविताएं इस संकलन में शामिल हैं। लेकिन वे साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद को उसकी पूरी संरचना में देखते हैं। संकलन की पहली कविता आओ इसका प्रमाण है- 

कि आओ धर्म की रक्षा के लिए
लांघ जाएं क्रूरता की सभी सीमाएं
और हंसें एक क्रूर हंसी
कि जिंदा है हमारा धर्म। 

कि आओ अपने आपको 
झोंक दें हम धर्म की भट्टी में
धर्म की रक्षा के लिए आओ हम
सब कुछ तबाह कर दें
और बचा रहने दें पृथ्वी पर
सिर्फ साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों और
धर्म को।

अपने समय की विसंगतियों को कवि ने भली प्रकार समझा है। संतुष्टि कविता में इसे लेकर एक तीखा व्यंग्य कुछ इस तरह उभरा है- 

तीन-चार महीनों से नहीं मिला है वेतन
लेकिन ट्यूशन का एक और बैच बढऩे से 
संतुष्ट हैं गुरु जी... 

अभी-अभी हाथ से निकल गया है नया केस
लेकिन-संतुष्ट है  वकील
कि चार-पांच महीने और खिंचेगा पिछला मुकदमा।

अन्नदाता, औरत, साहब का मूड, लडक़ी, आम आदमी इत्यादि कविताएं भी वर्तमान से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं। रोहित ने एक कविता मेधा पाटकर के लिए भी लिखी है और उनके संघर्ष को अपना समर्थन दिया है। यहां मेरा ध्यान एक अन्य विषय पर बरबस चला जाता है। मेधा पर इसके पहले भगवत रावत व चंद्रकांत देवताले तो लिख ही चुके हैं, संभव है अन्य कवियों ने भी लिखा हो। 

मेधा पाटकर के लिए अवश्य यह संतोष का विषय हो सकता है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दों पर जिस तरह वे पिछले पच्चीस सालों से निरंतर पूरे जुझारूपन के साथ लड़ रही हैं, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उसमें विजय मिले या न मिले लेकिन आज का कवि उनके साथ है और उसने इतिहास के लिए उनका नाम अपनी कविताओं में दर्ज किया है। यहां मैं अपने आप से पूछता हूं कि आने वाले समय में क्या मेधा एक मिथक बन जाएंगी!! रोहित कौशिक की जो कविता मुझे अभिव्यंजना के कारण बेहद पसंद आई वह है- गांव से गांव गायब हैं।

मैं पानी बचाता हूं  राग तेलंग का नया कविता संकलन है। इसके पूर्व उनके सात-आठ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। झीलों की नगरी भोपाल में रहने वाले कवि को जब पानी बचाने की चिंता हो तो मानना चाहिए कि स्थिति सचमुच गंभीर है। इसमें  कवि के वैश्विक दृष्टिकोण का भी परिचय मिलता है। इस संकलन की कविताओं से गुजरते हुए इनमें दो धाराएं स्पष्ट नर आती हैं। एक धारा वह है जिसे मैं भाववादी कहना पसंद करूंगा जबकि शीर्षक कविता को दूसरी धारा में शुमार किया जाना चाहिए। भाववादी धारा की कविताओं से प्रतीत होता है कि कवि ने एक निभृत्त मनोलोक गढ़ लिया है, जहां वह शब्दों के साथ कुछ ऐसा खिलवाड़ कर रहा है मानो समुद्र तट पर लहरों  के साथ खेल रहा हो। आती-जाती लहरें स्पर्श कर चली जाती हैं, लेकिन संंग लेकर कहीं नहीं जातीं। 

दूसरी ओर वे कविताएं हैं जो कवि का एक नया रूप प्रकट करती हैं। ये कविताएं विचार प्रगल्भ हैं तथा राग की रचनाशीलता को सार्थक करती हैं। रोना शीर्षक कविता में राग ने अपने कवि का अनुभव बखूबी व्यक्त किया है। इसे मैं आद्योपांत उद्धृत करने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूं-

कविता में रोना
कवि घर में नहीं रोता
अपनी कविता में रोता है
दुनिया का रोना
तमाम कविताओं में दर्ज है

कवि घर में नहीं रोता
रो दे तो संभव है
घर में आग लग जाए
न रोकर
अपने घर को 
बचाए रखता है हर कवि

कविता में 
सबकी रुलाई दर्ज करते हुए
सोचता है कवि
दुनिया में एक दिन 
अगर आग लग जाए 
तो दुनिया को कैसे बचाऊंगा?

कवि क्या है? क्या वह एक शिल्पी या एक कारीगर से बहुत भिन्न है? राग ऐसा नहीं मानते। वे मकड़ी के बुने सख्त, महीन और सुंदर जाले की सराहना करते हैं और मकड़़ी के मारने पर उन्हें दुख होता है कि क्यों मारा/मैंने एक सुंदर कारीगर को/ इस छोटी सी कविता से कवि की सामथ्र्य का पता चलता है। भाई कविता बिल्कुल अलग तरह की रचना है जो भारतीय समाज में भाई-बहन के संबंधों को सुकोमल रूप से व्यक्त करती है। चार लोग कविता स्वार्थपूर्ण संबंधों पर गहरी चोट करती है। जीवन भर/हम चार लोगों से घिरे रहते हैं से कविता प्रारंभ होकर इन पंक्तियों पर समाप्त होती है-

चार लोग
हर बार ये चार ही होते हैं जो
आखिरी समय में
अपना कंधा देने की दुहाई देते हैं
और हम पसीज जाते हैं

इन चार लोगों से मुक्ति ही
असली मोक्ष है।

इस संग्रह में बहुत सी कविताएं हैं जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख मैं करना चाहता था मसलन नोट, टाइटेनिक, बेटे के लिए, रीढ़ की हड्डी का दर्द, मठाधीश, राजा, सीधा सादा आदमी इत्यादि। लेकिन स्थानाभाव के कारण ऐसा संभव नहीं है।

नवारुण भट्टाचार्य के नाम से कौन परिचित नहीं है। उनकी इक्यावन कविताओं का अनुवाद मीता दास ने किया है। पुस्तक का शीर्षक सरल है- नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं । इन दिनों जब भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की प्रवृत्ति कमजोर हुई है तब मीता दास का यह उपक्रम हर दृष्टि से सराहनीय है। मैं नहीं जानता कि नवारुण की अनूदित कविताओं का कोई संकलन पूर्व में प्रकाशित हुआ है या नहीं। पत्रिकाओं में यदा-कदा उनकी रचनाएं पढऩे मिलीं हैं। इस पुस्तक के आ जाने के बाद नवारुण के कवि व्यक्तित्व को समझने में सुविधा हो गई है। उनकी कविताओं में जितना प्रबल आक्रोश और नवसाम्राज्यवादी सत्तावर्ग के लिए जैसी चुनौती है वह हिन्दी में विरल है। यह शायद बांग्ला भाषा का अपने वैशिष्ट्य है। मैं यहां सिर्फ दो कविताओं का जिक्र करना चाहूंगा। अभागा देश दो पद की छोटी सी कविता है। इसका दूसरा पद दृष्टव्य है-

अभागा देश
इराक में नहीं
मैं और भी ज्यादा अभागे देश में रहता हूं
वहां का कोई कवि
अरबी या बंजारा नहीं होना चाहता
प्यास लगने पर वे
पेप्सी या पीते हैं कोका कोला।

संग्रह की अंतिम कविता है- मृत शिशुओं का ओलम्पिक।  जिसमें कवि निकारागुआ, वियतनाम, लीबिया, इथोपिया, भोपाल, द्वितीय विश्व युद्ध जैसी तमाम त्रासदियों को हमारे सामने उपस्थित करता है। इसका पहला और अंतिम दोनों पद पठनीय है-

मृत शिशुओं का ओलम्पिक
कल हो चुका मृत शिशुओं का ओलम्पिक
मेरे टूटे-फूटे धंसे खिडक़ी के सींखचों में
सूनी गोद और स्वप्न के कारखाने में, 
शैशव की मृत्यु उपत्यका में

कल सारी रात बजती रहीं छोटे-छोटे हाथों से तालियां
कल सारी रात चांद था ठंडा अवश लालीपॉप
कल सारी रात जन्मदिन की मोमबत्तियों की तरह
जलते रहे थे ढेरों तारे।

मैं चारों  रचनाकारों को शुभकामनाएं देता हूं। अभी उनके सामने संवेदनाओं का लंबा सफर बाकी है। उम्मीद है कि हमें इनकी ऐसी ही सशक्त रचनाएं आगे भी पढऩे मिलेंगी।
 
अक्षर पर्व अगस्त 2016 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday, 3 August 2016

धीरज भैया


 धीरज भैया याने धीरजलाल जैन का गत 25 जुलाई को दुर्ग में निधन हो गया। उनकी मृत्यु के साथ देशबन्धु ने अपने प्रथम सदस्य को खो दिया है। 17 अप्रैल 1959 को रायपुर से पत्र का प्रकाशन प्रारंभ होने के एक सप्ताह पूर्व धीरज भैया देशबन्धु के दुर्ग संवाददाता नियुक्त हुए थे। अखबार के दैनंदिन कामकाज से उन्होंने अवश्य अवकाश ग्रहण कर लिया था, लेकिन देशबन्धु परिवार में उनकी उपस्थिति लगातार बनी हुई थी। मैं और मेरे सहयोगी समय-समय पर अब भी उनसे मार्गदर्शन लेते थे। हम लोगों ने कभी यह ध्यान ही नहीं दिया कि वे रिटायर हो चुके हैं। अब उनके जाने के साथ सत्तावन साल से कुछ अधिक का समय इतिहास बन चुका है। दरअसल धीरज भैया देशबन्धु के परिवार के ऐसे सदस्य थे जो एक वेतनभोगी होने की परिभाषा से ऊपर थे।

आज उनके कितने ही स्मृतिचित्र एक के बाद एक आंखों के सामने आ रहे हैं। देशबन्धु एक कलमजीवी पत्रकार  याने बाबूजी ने उधार की पूंजी से शुरू किया था। इस अखबार की स्थापना ही इस विचार के साथ हुई थी कि यहां अखबार के अलावा न तो कोई व्यापार होगा और न किसी तरह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखी जाएगी। प्रारंभकाल से ही साधनों का अभाव और फिर स्वाभिमान। कुल मिलाकर नतीजा यह कि पत्र के संचालन में लगातार वित्तीय संकट की स्थितियां बनी रहीं। बाबूजी के बारे में कहा जाता था कि वे रेत में नाव खेते थे। धीरज लाल जैन उनके अनन्य सहयोगी थे। इस अर्थ में भी कि रेत में चल रही नाव को आगे कैसे बढ़ाया जाए। इस बारे में उनकी व्यवहारिक बुद्धि अनेक बार पतवार की तरह काम में आई।

मुझे याद आता है कि धीरज भैया ने ही यह युक्ति निकाली कि कैसे प्रेसकर्मियों को एक निर्धारित तिथि पर वेतन दिया जाए। उनका सुझाव मानकर अलग-अलग जिलों के प्रतिनिधियों को निश्चित तिथि पर जिले की एजेंसियों के न सिर्फ बिल की राशि एकत्र कर लाने की व्यवस्था की गई। इससे एक तरह का वित्तीय अनुशासन लागू हुआ। धीरज भैया ने स्वयं अपने लिए एक तारीख तय कर ली जिस दिन वे अविभाजित दुर्ग जिले की एजेंसियों व विज्ञापनों की रकम वसूल कर लाते थे और उस दिन प्रेस में सुचारु रूप से वेतन बंट जाता था। धीरज भैया अपने स्कूटर पर पूरे जिले का दौरा करते थे और लगभग तीस साल तक उनकी समय सारिणी में कोई व्यवधान नहीं हुआ। वे सामान्य तौर पर पाजामा और कमीज पहनते थे और एक साधारण झोले में रकम लाते थे कुछ इस तरह मानो घर का सौदा-सुसुफ लेने बाजार जा रहे हों। वे अपना हिसाब एक लाल नोट बुक में रखते थे जिसमें बड़ी सुंदर लिखावट के साथ बिना काट-छांट के विवरण दर्ज होते थे। मैंने कभी उनके लेन-देन में एक पैसे का भी फर्क नहीं पाया।

देशबन्धु के प्रदेशव्यापी नेटवर्क को सुदृढ़ करने के लिए भी उन्होंने जो उपाय सुझाया था वह बेहद कारगर सिद्ध हुआ। हमने अपना पहला ब्यूरो कार्यालय दुर्ग में ही खोला था जहां टेलीप्रिंटर आदि व्यवस्थाएं की गई थीं। धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी ब्यूरो स्थापित हुए। धीरज भैया ने हर तीन माह में ब्यूरो प्रभारियों की बैठक बुलाने की योजना बनाई। यह बैठक दिन भर चलती थी। इसमें समाचार, प्रसार, विज्ञापन, हिसाब-किताब- इन सब पर अलग-अलग सत्रों में बात होती थी। शिकायतों का निराकरण और सुझावों की समीक्षा भी साथ में चलती थी। कहने का अर्थ यह कि धीरज भैया ने प्रबंधशास्त्र में भले ही कोई डिग्री हासिल न की हो लेकिन उनमें प्रबंध कौशल की सहजात प्रतिभा थी जिसका लाभ अखबार को मिला और बाद में उनके बेटों के स्वतंत्र व्यवसाय स्थापित करने में भी।

यह भी धीरज भैया का ही सुझाव था कि हमें आजीवन ग्राहक योजना प्रारंभ करना चाहिए। 1978-79 में प्रेस के अपने भवन निर्माण और आधुनिकीकरण की योजना पर काम शुरू हुआ था। वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना था, किन्तु उसके लिए पच्चीस प्रतिशत मार्जिन मनी की व्यवस्था भी करना लाजिमी था। तब तेरह लाख की रकम हमारे लिए बहुत बड़ी थी और यह समझ से परे था कि इसका प्रबंध कैसे हो। ओवर इन्वाइसिंग आदि चतुराई हमें न तब आती थी और न अब आती है। ऐसे में धीरज भैया का सुझाव मानकर हम लोगों ने पूरे प्रदेश में धुधांधार दौरे किए। सहृदय पाठकों से मिले और एक साल के भीतर तेरह सौ ग्राहकों से तेरह लाख की राशि जुटाई। इस बड़े काम में बाबूजी और धीरज भैया के अलावा पंडितजी, राजू दा, सत्येन्द्र, गिरजा, शरद आदि सभी सहयोगियों ने भी खूब भागदौड़ की।

धीरज भैया को प्रबंधन के गुर चाहे जितने आते हों, वे मूलत: एक संवेदनशील पत्रकार थे तथा इस रूप में उन्होंने सिर्फ दुर्ग में अथवा देशबन्धु समूह में ही नहीं, पूरे मध्यप्रदेश में प्रतिष्ठा अर्जित की। वे जब भी कोई रिपोर्ट तैयार करते थे, तो पहले दिमाग में उसका पूरा खाका बैठा लेते थे, फिर जब लिखने बैठते तो सधी हुई कलम से छोटे-छोटे सुंदर अक्षरों में वे समाचार तैयार करते उसमें न तो कहीं व्याकरण की गलती होती और न कहीं वर्तनी की। उनका शब्द-लाघव कमाल का था। उनके लिखे हुए में एक शब्द भी काटना मुश्किल होता था। धीरज भैया ने एक लंबे समय तक अखबार में दुर्ग डायरी लिखी। इसमें वे सप्ताह भर की घटनाओं का लेखा-जोखा चुभते हुए व्यंग्य की शैली में लेते थे। यह कॉलम लोकप्रिय हुआ और इससे प्रेरणा लेकर हमारे और भी बहुत से साथियों ने जिले की डायरी लिखना शुरू किया, लेकिन धीरज भैया की बात ही कुछ और थी। वे वस्तुगत भाव से पत्रकारिता करते थे। उसमें निजी राग-द्वेष का कोई भाव नहीं होता था। वे अगर आलोचना भी करते थे तो उसमें लेखनी का संयम खूब साधते थे। दुर्ग जिला राजनीतिक दृष्टि से काफी संवेदनशील था और एक समय यहां के नेता मध्यप्रदेश की राजनीति में खासा दखल रखते थे। धीरज भैया ने उनके साथ हमेशा एक सम्मानजनक दूरी बनाकर रखी जिसके कारण उन पर कभी पक्षपात का आरोप नहीं लगा।

धीरज भैया की लेखन में रुचि अपने प्रारंभिक जीवन से ही थी। पचास के दशक में उनकी कहानियां सरिता में प्रकाशित होने लगी थीं. यही रुचि आगे चलकर उनकी पूर्णकालिक वृत्ति बन गई। अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने के बाद पहले तो उन्होंने अपनी पूर्व-प्रकाशित कहानियों का संकलन प्रकाशित किया। उसी रौ में फिर वे नए सिरे से कहानी लेखन में जुट गए। जब वे अस्सी साल के हुए होंगे तब उन्होंने अपना दूसरा संकलन प्रकाशित किया। प्रसंगवश, दोनों पुस्तकों की भूमिका लिखने का दायित्व उन्होंने मुझ पर ही डाला।

अपने सबसे पुराने सहयोगी पर लिखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन हंसा भाभी की चर्चा किए बिना बात अधूरी रहेगी।  मैं मानता हूं कि तमाम अभावों और कठिनाइयों  के बीच धीरज भैया यदि प्रतिष्ठा पा सके तो इसमें भाभी के  धैर्य, सहनशीलता व समझदारी की बहुत बड़ी भूमिका रही है। मैं प्रारंभ से ही उन्हें देशबन्धु की लक्ष्मी कहते आया हूं।

आखिरी बात एक निजी संस्मरण के रूप में। एक साल दीवाली पर (1976 में) धीरज भैया रुपयों की व्यवस्था करके आए। प्रेस में सभी साथियों को त्यौहार के पूर्व वेतन मिल गया। शाम को दुर्ग लौटते हुए धीरज भैया हमारे घर आए। अपने जेब से उन्होंने एक हजार रुपए निकालकर दिए कि आपने घर में त्यौहार मनाने के लिए तो पैसा रखा ही नहीं। बात सही थी। धीरज भैया के दिए इन रुपयों से उस बरस हमने कई साल बाद ठीक से दीवाली मनाई।

देशबंधु में 04 अगस्त 2016 को प्रकाशित