नोट : कादंबिनी पत्रिका ने अगस्त अंक के लिए इसी विषय पर लेख चाहा था। समयाभाव के कारण लेख भेजना संभव नहीं हुआ, किंतु पत्रिका के कॉपी एडीटर एवं चिंतनशील पत्रकार संत समीर के आग्रह पर उनसे फोन पर प्रश्नोत्तर के रूप में चर्चा हुई, जिसे उन्होंने बड़े मनोयोग व परिश्रम से लेख का रूप दे दिया। यह लेख कादम्बिनी से साभार लेकर यहां पुनर्प्रकाशित है। मैं भाई संत समीर का भी आभारी हूं।
असल में अराजकता एक राजनीतिक दर्शन है, पर हम यहां अराजकता को शायद उच्छृंखलता के रूप में देखना चाहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मैं कहूंगा कि ऐसे लोग हमारे बीच में हो सकते हैं जो अराजकता के दर्शन में विश्वास करते हों। ठीक उसी तरह जैसे बहुत सारे अन्य राजनीतिक दर्शनों को मानने वाले लोग भी इस देश में हैं। उच्छृंखलता की जहां तक बात है तो 120 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में इसके भी तमाम उदाहरण मिलते हैं और इसके कई कारण हो सकते हैं। यह बात भी है कि आजादी हो या न हो, पर उच्छृंखलता तब भी किसी भी समाज में हो सकती है। यों इस प्रवृत्ति के लोगों की संख्या कम होती है और ज्यादातर लोग आजादी के मायने समझते हैं, अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं और उसके हिसाब से काम भी करते हैं। एक किसान अपना काम करता ही करता है। बारिश हो गई है तो उसे खेत में जाना ही है। फसल पक गई तो उसे उसको काटना ही है। कारखाने में कोई मजदूर काम कर रहा है तो उसको भी अपनी मजदूरी करनी ही करनी है। अधिकतकर जनता अपना काम करती रहती है और अपना दायित्व निभाती है। वास्तव में उच्छृंखलता वृहत्तर समाज का एक छोटा हिस्सा है, पर है खतरनाक।
जहां तक यह बात है कि कुछ समर्थ लोग आजादी का नाजायज फायदा उठा रहे हैं तो यह निश्चित रूप से विचारणीय है। असल में हमारा जो संविधान है, उसमें हमने एक समाजवादी राज्य की संरचना का, कल्याणकारी राज्य की सरंचना का संकल्प लिया है। हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्व यही कहते हैं। पिछले करीब तीस-पैंतीस सालों में धीरे-धीरे एक प्रकार का नव-साम्राज्यवाद उभरा है, नव-पूंजीवाद की प्रवृत्तियां उभरी हैं। इसमें टेक्नोलॉजी का बहुत बड़ा योगदान है, जिसके कारण संचार के साधन विकसित हुए और यातायात के साधन सुलभ हुए। इस सबके चलते हुआ यह है कि पूंजी का कब्जा समाज में बढ़ता ही चला जा रहा है। इसके अलावा समाज जिस सरकार को चुन रहा है, उस पर भी इसका प्रभाव बढ़ रहा है। मेरा मानना है कि इंदिरा गांधी का जो द्वितीय कार्यकाल था, उस समय इसकी थोड़ी-सी शुरूआत हो गई थी। राजीव गांधी के कार्यकाल में यह प्रवृत्ति और बढ़ी। वीपी सिंह, नरसिम्हा राव, वाजपेयी, यूपीए-1 और यूपीए-2 के समय में यह उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। यूपीए के समय इतना जरूर था कि चूंकि किसी कोने-अंतरे में गांधी-नेहरू की कांग्रेस की थोड़ी बहुत छाया बची हुई थी तो किसानों की ऋण माफी जैसे कुछ काम उस समय हो गए, लेकिन कुल मिलाकर नव-पंूजीवाद से वह सरकार प्रभावित थी और उसी के अनुसार नीतियां बनाई गईं। वर्तमान सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है।
इस संदर्भ में अगर आजादी का जायज-नाजायज फायदा उठाने की बात करें, तो यह देखना पड़ेगा कि यदि नियम-कानून बनाकर काम किया जा रहा है तो उसे नाजायज तो नहीं कह सकते हैं। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि सरकार ने जो कायदे-कानून बनाएं हैं वे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं और सरकार के द्वारा जो निर्णय लिए जा रहे हैं वे जनता की आकांक्षाओं की अवहेलना करते हैं। मिसाल के तौर पर अगर आप किसी उद्योगपति का दो सौ करोड़ रुपये का ऋण पर्यावरण की क्षति के लिए माफ कर देते हैं तो यह जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप निर्णय तो नहीं ही है। सरकार के कई सारे ऐसे फैसले आप देख सकते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि सरकार स्वयं भी शायद असहाय है। ऐसा इसलिए भी है कि चुनाव लडऩा अब एक महंगा सौदा हो गया है। ऐसे में जब लोग चुनाव जीतकर आते हैं तो जिनसे चुनाव में धनराशि मिली होती है, जिनसे उपकृत होते हैं, उनके पक्ष में निर्णय भी लेते हैं। हाल यह है कि आज हम पूंजीवाद के ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत... अर्थात जो ऊपर से बचेगा वह नीचे की तरफ पहुंचेगा... पर चल रहे हैं। तो हम स्पष्ट कह सकते हैं कि जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप काम बहुत नहीं हो पा रहा है।
आज़ादी के नाम पर आजकल जो बात-बात पर धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं, उनके भी मूल कारणों की तलाश करनी पड़ेगी। जब तक हम इन चीजों के मूल में नहीं जाएंगे, तब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। हरियाणा में पिछले दिनों आरक्षण के नाम पर जो अराजक माहौल बना या पहले और भी कई जगहों पर इस रह का वातावरण बना, उसके पीछे के कारणों को समझने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है? असल में आज के समय में तकनीकी वगैरह के विकास के कारण या राजनीति और दूसरे कई कारणों से भी लोग खेती वगैरह के काम में नहीं जाना चाहते और इसे छोडऩा चाहते हैं खेती में उत्पादकता नहीं दिखाई देती या इसमें लाभ नहीं दिखाई देता। दूसरी बात यह है कि मजदूर का, रिक्शेवाले का, किसान का, कारीगर का आज के दौर में सम्मान नहीं रह गया है। अफसरशाही पूरे देश में हावी हो गई है। ऐसे में एक किसान को भी लगता है कि उसके बेटे-बेटी किसी तरह आईएएस, पीसीएस बन जाएं या किसी नौकरी में लग जाएं लोग इस तरह के अवसरों, नौकरियों की तलाश में आंदोलन कर रहे हैं।
यह एक सामाजिक सच्चाई है और सामूहिक अराजक वातावरण बनने के पीछे इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। कई बार सरकार कुछ समूहों को संतुष्ट करने के लिए खंड-खंड में उन्हें कुछ सुविधाएं बांट देती है, पर इससे काम नहीं चलने वाला! इससे तो असंतोष ही बढ़ता है और कई और तरह की अराजकता फैलाने वाले आंदोलनों की संख्या बढ़ती है। वास्तव में नौकरियों, अवसरों की कमी की वजह से उपजे असंतोष के परिपे्रक्ष्य में सरकार को एक आरक्षण आयोग बनाना चाहिए। इसके अलावा सरकारी नौकरियों की तरह निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण लागू किया जाए, तो कुछ हद तक समस्या हल हो सकती है। वास्तव में आंदोलन वगैरह के दौरान अराजकता की बात सिर्फ लॉ एंड ऑर्डर का मामला नहीं है। यह अंतत: शासन के विवेक का मामला है।
आजादी और अराजकता की जब हम बात करते हैं, तो इस ओर भी देखना पड़ेगा कि आज की नई पीढ़ी कई रूपों में उच्छृंखलता की ओर बढ़ती दिखाई देती है। एक वर्ग ऐसा पैदा हो रहा है, जो अपने आगे किसी और की आजादी या निजता का ख्याल ही नहीं करता। इसकी एक बड़ी वजह है कि राजनीतिक दलों ने लोकशिक्षण का काम छोड़ दिया है। शिक्षा की जो दुर्गति हमारे देश में हो रही है, उसकी ओर पिछले काफी समय से ध्यान नहीं दिया गया है। कहां तो यह तय किया गया था कि हम शिक्षा पर कुल बजट का छह प्रतिशत खर्च करेंगे, पर तीन-चार प्रतिशत पर अटके हुए हैं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म-सी हो गई है। कॉलेजों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा का हाल यह है कि शिक्षकों को अंशकालिक बना दिया गया है। तीस-पैंतीस साल के प्राथमिक शिक्षा में कायदे से पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही है। कहीं शिक्षा- मित्र तो कहीं पंचायत शिक्षक के नाम पर अंशकालिक शिक्षक भर्ती किए जा रहे हैं। एक तरफ शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का कानून लाया जाता है, तो दूसरी तरफ शिक्षा के अधिकार कानून को समाप्त करने या कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। हालात ऐसे पैदा किए जा रहे हैं कि संपन्न के बच्चे की शिक्षा तो चलती रहे, पर कमजोर का बच्चा स्कूल में पढ़े या न पढ़े, उसकी कोई चिंता नहीं। विद्यार्थियों में जो उच्छृंखलता दिख रही है, युवाओं में जो उच्छृंखलता दिख रही है, उसका यहएक बड़ा कारण है। दूसरा एक और कारण है, नवधनाढ्य वर्ग। नवधनाढ्य वर्ग के घरों के बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, एयरकंडीशन घर से निकलते हैं, एयरकंडीशन बस में बैठते हैं, एयरकंडीशन कमरे में बैठकर पढ़ाई करते हैं। ये बच्चे जब बड़े होते हैं तो कई-कई लाख की बाइक पर चलते हैं। मां-बाप उन पर ध्यान नहीं देते और समझते हैं कि वे अपने बच्चों को पैसे से खुश कर देंगे, पर अकसर बच्चे इतने बिगडै़ल निकलते हैं कि उच्छृंखलता की सीमाएं पार करने लगते हैं। असल में मां-बाप को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। आखिर स्कूलों में भी वह वातावरण मिलना चाहिए जहां कि बच्चे अच्छी पढ़ाई पर ध्यान दे सकें। इसके बावजूद मैं समझता हूं कि बिगडऩेवाले बच्चे पांच-दस प्रतिशत ही हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मीडिया जो कर रहा है, इस संदर्भ में उसकी भी भूमिका देखी जानी चाहिए। मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट घरानों के हाथ में है, यह एक सच है। इसके अलावा पत्रकार बिरादरी के लोगों का हाल यह है कि जो ज्यादा पैसे देगा, उसके पास चले जाएंगे। आप देख सकते हैं कि स्वतंत्रतचेता पत्रकार कितने हैं, या पत्रकारों की यूनियन कहां है! पत्रकारों की स्वाधीनता के लिए स्वाधीन कलम के लिए लडऩे की बात अभी है कहां? ऐसे में मीडिया भी देश के लोगों को जिम्मेदारी का पाठ भला कितना पढ़ा सकता है?
यहां एक बार फिर ध्यान देने की बात है कि अराजकता एक राजनीतिक दर्शन है, इसलिए इसे अलग तरह से देखना चाहिए, पर सामान्य अर्थों में इसे उच्छृंखलता के रूप में लें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आज का जो राजनीतिक परिवेश है, वह पूंजी से संचालित है। देशी कॉरपोरेट घरानों की पूंजी तो है ही, वैश्विक पूंजी का भी बहुत बड़ा दबाव है। वैश्विक पूंजी के दबाव में हमारे सारे उद्योग-धंधे, खेती, रोजगार, हस्तशिल्प वगैरह पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसके कारण बड़ी संख्या में बेरोजगार पैदा हो रहे हैं और यह बेरोजगारी अंतत: हताशा और कुंठा को जन्म दे रही है। नतीजतन, विरोध की आवाजें उठ रही हैं और नए-नए आंदोलन शुरू हो रहे हैं। यही स्थिति धीरे-धीरे उन्माद में बदलती है तो उच्छृंखलता का रूप लेने लगती है। दूसरी तरफ हमारे देश में श्रम की महत्ता दिनोंदिन कम होती जा रही है और जो हमारा सत्ताधारी वर्ग है, वह श्रम की महत्ता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, बल्कि उसको वह हर मौके पर अपमानित करता है। उसकी वजह से लोग यह समझते हैं कि यदि उनके बच्चे सरकार में होंगे तो उन्हें यह अपमान नहीं झेलना पड़ेगा और लोग सरकारी नौकरियों की ओर भाग रहे हैं। यह होगा तो जाहिर है कि ‘सबके लिए शिक्षा’ महज एक झूठा नारा होकर रह जाएगा। ऐसे में हमारे युवाओं में एक तरह की हताशा जन्म ले रही है और इस हताशा में वह अपराध की ओर कदम बढ़ा रहा है। यदि हम अराजकता को पारिभाषिक शब्दावली से थोड़ा दूर करके राज्य के नियमों के उल्लंघन के रूप में देखें, तो कई बार हमारी सरकारें भी वास्तव में अराजक व्यवहार करने लगी हैं, वे खुद अराजक होने लगी हैं।
देशबंधु में 14 अगस्त 2016 को प्रकाशित
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