Tuesday, 9 August 2016

चार नई पुस्तकें



इस समय मेरे सामने चार पुस्तकें हैं। एक कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह और एक अनूदित कविताओं का संकलन। मैंने इन्हें चर्चा के लिए क्यों चुना? मुख्यत: इसलिए कि इन रचनाकारों में अपने समय व परिस्थितियों को लेकर गहरी व्याकुलता है। प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की तड़प है। कहीं सुदूर आशा की किरण है। और है वास्तविक स्थितियों को सही संदर्भों में समझने की कोशिश। 

छत्तीसगढ़ निवासी उर्मिला शुक्ल की पहिचान एक कवयित्री के रूप में है। लेकिन वे कहानियां भी लिखती रही हैं। मैं, फूलमती और हिजड़े  हिन्दी में उनका पहला कहानी संकलन है। प्रसंगवश कह देना होगा कि उर्मिला को हिंदी, छत्तीसगढ़ी व अवधी पर समान अधिकार है। बहरहाल, दस कहानियों के इस पहिले संकलन के शीर्षक से ही काफी स्पष्ट हो जाता है कि उनका रचनाओं  का प्रमुख अवलंब क्या है। दस में से नौ कहानियां सीधे-सीधे आज के समय में स्त्री की दारुण अवस्था को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। इनमें स्त्री सिर्फ स्त्री है, शोषित, वंचित और छली गई। वह संपन्न परिवार से है या गरीब घर से, शिक्षित है या अशिक्षित, कामकाजी है या गृहिणी, शहर निवासी है या ग्रामवासी- इन सबके कोई मानी नहीं है। 

लेकिन उर्मिला शुक्ल अपने पात्रों को हार नहीं मानने देतीं। वे उनमें विश्वास का संचार करती हैं। उन्हें अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की ताकत देती हैं। नारी जीवन के कटु यथार्थ को वे अपनी कथाओं के माध्यम से एक आदर्शवादी भावना में परिवर्तित करने का अर्थपूर्ण यत्न करती हैं। ऐसा करते हुए वे पुरुषप्रधान समाज द्वारा निर्मित सदियों से चली आ रही तमाम रूढिय़ों तथा मर्यादाओं  का साहसपूर्वक निषेध करती हैं। उर्मिला की उस महिला से भी सहानुभूति है जो गणिका बनने के लिए विवश होती है, उससे भी जिसे अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता का नाम नहीं मालूम। वे तो हिजड़ों के प्रति संवेदना का परिचय देती हैं, जिनका जीवन आज भी बाहरी संसार के लिए रहस्यमय व कुत्सापूर्ण है।  

इन सभी कहानियों  में  पाठक  को  लेखिका की न सिर्फ भाषा पर अधिकार, बल्कि सूक्ष्म ब्यौरे पकड़ लेने की क्षमता का भी पता चलता है। उर्मिला के पास इस खूबी के चलते कहानियों की कमी तो नहीं होगी, लेकिन अब उन्हें वृहत्तर कैनवास पर काम करने की तैयारी करना चाहिए। आज भारतीय नारी के सामने पहले के मुकाबले कहीं अधिक चुनौतियां हैं और उनसे पार पाना सरल नहीं है। नवपूंजीवाद के प्रभाव से जो बदलाव समाज में आ रहे हैं उनकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी। इस नए परिदृश्य में स्त्री कहां है, इसकी पड़ताल करना आवश्यक हो गया है। मैं आशा करता हूं कि उर्मिला की आने वाली कहानियों में इसके वर्णन हमें पढऩे मिलेंगे। 

युवा कवि रोहित कौशिक का संभवत: पहला कविता संकलन ‘इस खंडित समय में’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता का जो रंग है  उससे ये कविताएं विशिष्ट हो जाती हैं। उनकी एक कविता है- झोक्काओं  के  बच्चे। यह कविता वही लिख सकता था जिसने गुड़ बनाने के कारखाने में भट्टी पर गन्ना रस को खौलते और गुड़ में तब्दील हुए देखा होगा। लेकिन रोहित दृष्टिसम्पन्न कवि हैं। वे सिर्फ गुड़ बनने की प्रक्रिया का वर्णन नहीं करते बल्कि तीखा सवाल उठाते हैं कि गुड़ तो किसी के मुंह में घुलकर रस पैदा करेगा, लेकिन उनका क्या जो कड़ाह में रस झोंकते हुए दूसरों को मिठास देने के लिए अपना पूरा जीवन झोंक देते हैं। वे तो कोल्हू के बैल बने रहने के लिए अभिशप्त बने रहेंगे। 

सन् 2013 में मुजफ्फरनगर के कुख्यात दंगे हुए थे जिसने उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी की विजय का पथ प्रशस्त किया था। इस त्रासदी ने कवि को संतप्त किया है। इंसान बनने में कविता में वे मानो इस तरह एक शोकगीत रचते हैं- 

हिन्दू, हिन्दू बने रहें
मुसलमान बने रहें मुसलमान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होते है श्रीमान!

कायर, कायर बने रहें
शैतान बने रहें शैतान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होता है श्रीमान।

साम्प्रदायिक हिंसा से व्यथित रोहित की मुजफ्फरनगर दंगों पर कुछ और कविताएं इस संकलन में शामिल हैं। लेकिन वे साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद को उसकी पूरी संरचना में देखते हैं। संकलन की पहली कविता आओ इसका प्रमाण है- 

कि आओ धर्म की रक्षा के लिए
लांघ जाएं क्रूरता की सभी सीमाएं
और हंसें एक क्रूर हंसी
कि जिंदा है हमारा धर्म। 

कि आओ अपने आपको 
झोंक दें हम धर्म की भट्टी में
धर्म की रक्षा के लिए आओ हम
सब कुछ तबाह कर दें
और बचा रहने दें पृथ्वी पर
सिर्फ साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों और
धर्म को।

अपने समय की विसंगतियों को कवि ने भली प्रकार समझा है। संतुष्टि कविता में इसे लेकर एक तीखा व्यंग्य कुछ इस तरह उभरा है- 

तीन-चार महीनों से नहीं मिला है वेतन
लेकिन ट्यूशन का एक और बैच बढऩे से 
संतुष्ट हैं गुरु जी... 

अभी-अभी हाथ से निकल गया है नया केस
लेकिन-संतुष्ट है  वकील
कि चार-पांच महीने और खिंचेगा पिछला मुकदमा।

अन्नदाता, औरत, साहब का मूड, लडक़ी, आम आदमी इत्यादि कविताएं भी वर्तमान से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं। रोहित ने एक कविता मेधा पाटकर के लिए भी लिखी है और उनके संघर्ष को अपना समर्थन दिया है। यहां मेरा ध्यान एक अन्य विषय पर बरबस चला जाता है। मेधा पर इसके पहले भगवत रावत व चंद्रकांत देवताले तो लिख ही चुके हैं, संभव है अन्य कवियों ने भी लिखा हो। 

मेधा पाटकर के लिए अवश्य यह संतोष का विषय हो सकता है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दों पर जिस तरह वे पिछले पच्चीस सालों से निरंतर पूरे जुझारूपन के साथ लड़ रही हैं, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उसमें विजय मिले या न मिले लेकिन आज का कवि उनके साथ है और उसने इतिहास के लिए उनका नाम अपनी कविताओं में दर्ज किया है। यहां मैं अपने आप से पूछता हूं कि आने वाले समय में क्या मेधा एक मिथक बन जाएंगी!! रोहित कौशिक की जो कविता मुझे अभिव्यंजना के कारण बेहद पसंद आई वह है- गांव से गांव गायब हैं।

मैं पानी बचाता हूं  राग तेलंग का नया कविता संकलन है। इसके पूर्व उनके सात-आठ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। झीलों की नगरी भोपाल में रहने वाले कवि को जब पानी बचाने की चिंता हो तो मानना चाहिए कि स्थिति सचमुच गंभीर है। इसमें  कवि के वैश्विक दृष्टिकोण का भी परिचय मिलता है। इस संकलन की कविताओं से गुजरते हुए इनमें दो धाराएं स्पष्ट नर आती हैं। एक धारा वह है जिसे मैं भाववादी कहना पसंद करूंगा जबकि शीर्षक कविता को दूसरी धारा में शुमार किया जाना चाहिए। भाववादी धारा की कविताओं से प्रतीत होता है कि कवि ने एक निभृत्त मनोलोक गढ़ लिया है, जहां वह शब्दों के साथ कुछ ऐसा खिलवाड़ कर रहा है मानो समुद्र तट पर लहरों  के साथ खेल रहा हो। आती-जाती लहरें स्पर्श कर चली जाती हैं, लेकिन संंग लेकर कहीं नहीं जातीं। 

दूसरी ओर वे कविताएं हैं जो कवि का एक नया रूप प्रकट करती हैं। ये कविताएं विचार प्रगल्भ हैं तथा राग की रचनाशीलता को सार्थक करती हैं। रोना शीर्षक कविता में राग ने अपने कवि का अनुभव बखूबी व्यक्त किया है। इसे मैं आद्योपांत उद्धृत करने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूं-

कविता में रोना
कवि घर में नहीं रोता
अपनी कविता में रोता है
दुनिया का रोना
तमाम कविताओं में दर्ज है

कवि घर में नहीं रोता
रो दे तो संभव है
घर में आग लग जाए
न रोकर
अपने घर को 
बचाए रखता है हर कवि

कविता में 
सबकी रुलाई दर्ज करते हुए
सोचता है कवि
दुनिया में एक दिन 
अगर आग लग जाए 
तो दुनिया को कैसे बचाऊंगा?

कवि क्या है? क्या वह एक शिल्पी या एक कारीगर से बहुत भिन्न है? राग ऐसा नहीं मानते। वे मकड़ी के बुने सख्त, महीन और सुंदर जाले की सराहना करते हैं और मकड़़ी के मारने पर उन्हें दुख होता है कि क्यों मारा/मैंने एक सुंदर कारीगर को/ इस छोटी सी कविता से कवि की सामथ्र्य का पता चलता है। भाई कविता बिल्कुल अलग तरह की रचना है जो भारतीय समाज में भाई-बहन के संबंधों को सुकोमल रूप से व्यक्त करती है। चार लोग कविता स्वार्थपूर्ण संबंधों पर गहरी चोट करती है। जीवन भर/हम चार लोगों से घिरे रहते हैं से कविता प्रारंभ होकर इन पंक्तियों पर समाप्त होती है-

चार लोग
हर बार ये चार ही होते हैं जो
आखिरी समय में
अपना कंधा देने की दुहाई देते हैं
और हम पसीज जाते हैं

इन चार लोगों से मुक्ति ही
असली मोक्ष है।

इस संग्रह में बहुत सी कविताएं हैं जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख मैं करना चाहता था मसलन नोट, टाइटेनिक, बेटे के लिए, रीढ़ की हड्डी का दर्द, मठाधीश, राजा, सीधा सादा आदमी इत्यादि। लेकिन स्थानाभाव के कारण ऐसा संभव नहीं है।

नवारुण भट्टाचार्य के नाम से कौन परिचित नहीं है। उनकी इक्यावन कविताओं का अनुवाद मीता दास ने किया है। पुस्तक का शीर्षक सरल है- नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं । इन दिनों जब भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की प्रवृत्ति कमजोर हुई है तब मीता दास का यह उपक्रम हर दृष्टि से सराहनीय है। मैं नहीं जानता कि नवारुण की अनूदित कविताओं का कोई संकलन पूर्व में प्रकाशित हुआ है या नहीं। पत्रिकाओं में यदा-कदा उनकी रचनाएं पढऩे मिलीं हैं। इस पुस्तक के आ जाने के बाद नवारुण के कवि व्यक्तित्व को समझने में सुविधा हो गई है। उनकी कविताओं में जितना प्रबल आक्रोश और नवसाम्राज्यवादी सत्तावर्ग के लिए जैसी चुनौती है वह हिन्दी में विरल है। यह शायद बांग्ला भाषा का अपने वैशिष्ट्य है। मैं यहां सिर्फ दो कविताओं का जिक्र करना चाहूंगा। अभागा देश दो पद की छोटी सी कविता है। इसका दूसरा पद दृष्टव्य है-

अभागा देश
इराक में नहीं
मैं और भी ज्यादा अभागे देश में रहता हूं
वहां का कोई कवि
अरबी या बंजारा नहीं होना चाहता
प्यास लगने पर वे
पेप्सी या पीते हैं कोका कोला।

संग्रह की अंतिम कविता है- मृत शिशुओं का ओलम्पिक।  जिसमें कवि निकारागुआ, वियतनाम, लीबिया, इथोपिया, भोपाल, द्वितीय विश्व युद्ध जैसी तमाम त्रासदियों को हमारे सामने उपस्थित करता है। इसका पहला और अंतिम दोनों पद पठनीय है-

मृत शिशुओं का ओलम्पिक
कल हो चुका मृत शिशुओं का ओलम्पिक
मेरे टूटे-फूटे धंसे खिडक़ी के सींखचों में
सूनी गोद और स्वप्न के कारखाने में, 
शैशव की मृत्यु उपत्यका में

कल सारी रात बजती रहीं छोटे-छोटे हाथों से तालियां
कल सारी रात चांद था ठंडा अवश लालीपॉप
कल सारी रात जन्मदिन की मोमबत्तियों की तरह
जलते रहे थे ढेरों तारे।

मैं चारों  रचनाकारों को शुभकामनाएं देता हूं। अभी उनके सामने संवेदनाओं का लंबा सफर बाकी है। उम्मीद है कि हमें इनकी ऐसी ही सशक्त रचनाएं आगे भी पढऩे मिलेंगी।
 
अक्षर पर्व अगस्त 2016 अंक की प्रस्तावना 

No comments:

Post a Comment