भारत में अब तक सोलह आम चुनाव हो चुके हैं। इस लंबी अवधि में यह स्वाभाविक होता कि जनतांत्रिक राजनीति धीरे-धीरे कर पुष्ट और परिपक्व होती, लेकिन अभी जो दृश्य सामने है उसमें लगता है कि हम सामंतवादी युग की ओर वापिस लौट रहे हैं। सामंतवाद याने स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता। यह भावना बलवती होती जा रही है कि जिसे एक बार सत्ता मिल गई वह उसका मनमाना उपभोग करे। आज नागरिक महज मतदाता बनकर रह गया है। उसका दायित्व सिर्फ इतना है कि मन करे तो पांच साल में एक बार जाकर अपना वोट डाल आए और इच्छा न हो तो घर बैठा रहे। इस बीच जिन्हें चुना गया है उनका आचरण कैसा है इस बारे में सोचने-समझने की फुर्सत अब शायद किसी के पास नहीं है। यह अधिकार तो जनता ने अपने पास रखा है कि वह चाहे तो पांच साल में एक बार सरकार पलट दें, लेकिन क्या इतना काफी है?
उत्तर प्रदेश में जो नाटक चल रहा है वह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। मुलायम सिंह यादव को डॉ. लोहिया की परंपरा में दीक्षित समाजवादी नेता माना जाता है। उनके दल का नाम भी समाजवादी पार्टी है। भारत को कांग्रेस मुक्त करने का बीड़ा सबसे पहले डॉ. लोहिया ने ही उठाया था। आज उनके शिष्य माने जाने वाले नेतागण जैसी व्यक्तिवादी राजनीति कर रहे हैं क्या इसकी कोई कल्पना स्वयं उन्होंने की थी? मुलायम सिंह ने अपने पूरे कुनबे को जिस ठसक के साथ राजनीति में स्थापित किया है उसे दुर्लभ ही मानना चाहिए। मुश्किल यह है कि यादव कुनबे में सत्ता भोग को लेकर दरारें पड़ गई हैं तथा नेताजी के लिए तय कर पाना कठिन हो गया है कि भाई और बेटे के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए? उनकी यह विडंबना अन्य प्रादेशिक क्षत्रपों से बहुत अलग नहीं है।
मुलायम सिंह ने कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था। वे अगले वर्ष राष्ट्रपति पद के दावेदार भी हो सकते हैं। अमर सिंह को पार्टी में वापस लाना और राज्यसभा में भेजना उनकी महत्वाकांक्षी रणनीति का शायद एक हिस्सा हो। लेकिन क्या वे अपने पुत्र युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और भाई शिवपाल यादव के बीच पड़ गई दरार को काटने में समर्थ होंगे? यह अखिलेश की विवशता हो सकती है कि वे अपने पिता के खिलाफ न जा सकें, लेकिन चाचा को उनकी जगह दिखाने में वे कोई कमी नहीं रख रहे हैं। किन्तु यह सवाल सिर्फ एक प्रदेश के राजनीतिक परिवार का नहीं है; देश के सबसे बड़े प्रदेश में राजनीति के कौन से आदर्श स्थापित हो रहे हैं यह गहरी चिंता का विषय है। आखिरकार इसका खामियाजा तो प्रदेश की आम जनता को ही भुगतना है।
इधर देश की राजधानी दिल्ली में एक अलग विद्रूप रचा जा रहा है। यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि आम आदमी पार्टी ने जनता की आकांक्षाएं कैसे जगाई थीं और उसका लाभ पार्टी को कैसे मिला। लेकिन दो साल बीतते न बीतते वहां जो स्थितियां निर्मित हुई हैं उनसे क्या संदेश मिलता है? अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा दिल्ली तक सीमित नहीं है। वे पंजाब से लेकर गोवा और छत्तीसगढ़ तक अपने पैर फैलाने में लगे हैं। हालात ये हंै कि छह में से चार मंत्री पिछले दिनों दिल्ली से बाहर थे। दूसरी ओर उपराज्यपाल की अपनी ठसक। उन्हें अपनी अधिकार सजगता में उच्च न्यायालय का अनुमोदन मिल गया है। प्रश्न यह है कि उपराज्यपाल हो या मुख्यमंत्री या आप पार्टी की सरकार, क्या सत्ता का अर्थ सिर्फ अधिकार हासिल कर लेना है अथवा जनतांत्रिक राजनीति में जनता के प्रति आपकी कोई जवाबदेही है?
यह जानकर हैरत हुई कि जब अरविंद केजरीवाल बेंगलुरू में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे उसी समय उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया फिनलैंड की अध्ययन यात्रा पर थे। उपराज्यपाल नजीब जंग अमेरिका में अवकाश मना रहे थे। एक मंत्री सत्येन्द्र जैन गोवा में थे और चौथे मंत्री गोपाल राय छत्तीसगढ़ प्रवास पर। इस दौरान दिल्ली किसके हवाले थी? इसका उत्तर केन्द्र सरकार से मिल सकता है या दिल्ली उच्च न्यायालय से या फिर आप पार्टी से? कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आ रहा है। इसमें करेला और नीम चढ़ा की कहावत तब याद आई जब उपराज्यपाल ने अमेरिका से लौटते साथ उपमुख्यमंत्री को आदेश दिया कि वे विदेश दौरा रद्द कर तुरंत लौट आएं जिसे मानने से श्री सिसोदिया ने इंकार कर दिया।
ये कुछ ताजा उदाहरण हैं जो अपनी राजनीतिक समझदारी के बारे में पुनर्विचार करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। इस बीच एक बौद्धिक बहस वामपंथी दलों में शुरू हो गई है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि मोदी सरकार अधिनायकवादी तो हैं, लेकिन फासीवादी नहीं। उनके इस कथन का खंडन वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी ने यह कहकर किया कि वर्तमान सरकार फासीवादी है। इस बहस में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी भी खुद को कूदने से नहीं रोक पाए। उन्होंने कहा कि सरकार फासीवादी नहीं है, लेकिन फासीवादी प्रवृत्ति लिए हुए है। ये तीनों विचारशील राजनेता हैं और उनके कथनों का विश्लेषण राजनीति के अध्येता अवश्य करेंगे, किन्तु हमारी शंका यह है कि ये बहसें आम जनता को कितनी समझ में आने वाली हैं।
मोदी सरकार का लगभग ढाई साल का कामकाज जनता के सामने है। आज आवश्यकता उसके विभिन्न बिन्दुओं पर तर्कसम्मत ढंग से विचार करने की है। इसी तरह राज्यों में जो प्रवृत्तियां पनप रही हैं उनका भी अध्ययन और विश्लेषण होना चाहिए। देश के सामने बहुत से सवाल मुंह बाए खड़े हैं। अभी सातवां वेतनमान लागू हो रहा है। इसका क्या असर महंगाई और मुद्रास्फीति पर पड़ेगा? रुपए का और अवमूल्यन करने की वकालत एक वर्ग लगातार कर रहा है उसमें किसका स्वार्थ सिद्ध होगा? स्त्रियों पर अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं, दलितों का आक्रोश दिनोंदिन बढ़ रहा है, आदिवासी, भूमिहीन कृषक, खेतिहर मजदूर उनके सामने अस्तित्व को बचाने का संकट है, अल्पसंख्यकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं, कश्मीर का कोई समाधान सामने दिखाई नहीं देता।
यह पहली बार हुआ कि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री ने भागीदारी नहीं की। उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपति का निधन हुआ तो भारत सरकार ने कोई भी नुमाइंदा अन्त्येष्टि में नहीं भेजा जबकि साल भर पहले ही प्रधानमंत्री उज्बेकिस्तान होकर आए थे। अमेरिका के प्रति झुकाव स्पष्ट दिख रहा है, लेकिन अमेरिका और चीन के साथ संबंधों में संतुलन कैसे साधा जाए तथा रूस के साथ दोस्ती को कैसे प्रगाढ़ किया जाए यह अभी शायद समझ नहीं आ रहा है।
देश के भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर इतने सारे पेचीदा मसले सामने हैं, लेकिन धिक्कार है उन पर जो इस सबके बीच संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति में डूबे हुए हैं।
देशबंधु में 22 सितंबर 2016 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment