हमें सर्वप्रथम यह स्वीकार करना होगा कि जल प्रकृति का सबसे बड़ा उपहार है। इधर दो-तीन दशकों से सरकार और वित्तीय संस्थानों से एक नई संज्ञा प्रचलित कर दी है-जल संसाधन। जल चूंकि मनुष्य और अन्य तमाम प्राणियों के उपयोग में आता है इसलिए वह संसाधन तो है, लेकिन जब उसे व्यवसायिकता की परिधि में इस्तेमाल किया जाता है तो जिन्होंने इसका प्रयोग प्रारंभ किया, उनके इरादों पर स्वाभाविक ही संदेह उपजने लगता है। जल संसाधन सुनने से ही लगता है मानो यह खरीद-फरोख्त की कोई वस्तु है। तब हम भूल जाते हैं कि प्रकृति के इस अनमोल वरदान के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। आज की तारीख में पानी का एक अच्छा खासा बाजार खड़ा हो गया है और बड़े-छोटे उद्योगपति इसके भरोसे चांदी काट रहे हैं। जेम्स बाण्ड की एक फिल्म ‘क्वांटम ऑफ सोलेस’ में भयावह चित्रण है कि कैसे कुछ स्वार्थी तत्व एक देश के जलस्रोतों पर एकाधिकार स्थापित कर लेना चाहते हैं।
पानी को लेकर दूसरी बात यह समझने की है कि पृथ्वी पर जल की मात्रा असीमित नहीं, बल्कि सीमित है। यद्यपि पृथ्वी का दो तिहाई धरातल जलयुक्त है, लेकिन बहुउपयोगी मीठे पानी का अंश बहुत कम है। अनेक कारणों से इसकी उपलब्धता में भी धीरे-धीरे कमी आ रही है जैसे बढ़ती हुई आबादी, जलवायु परिवर्तन इत्यादि। यह हम जान ही रहे हैं कि उत्तरी भूभाग में हिमखंड याने ग्लेशियर निरंतर पिघल रहे हैं और उनसे बनने वाली नदियों में पानी का भंडारण एवं प्रवाह धीरे-धीरे कम होते जा रहा है। दुनिया के जो वर्षा जल से सिंचित वन थे वे भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। दूसरी तरफ बढ़ती आबादी एवं बढ़ते औद्योगीकरण के कारण प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में कमी आ रही है।
ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक और नीति निर्माता इस तथ्यों से अनभिज्ञ हैं। कृषि वैज्ञानिक अनुसंधान में जुटे हुए हैं कि कम पानी में फसलें कैसे ली जाएं; उद्योगों में, भवन निर्माण में, निस्तार में पानी के उपयोग में कटौती कैसे हो, इस पर भी प्रयोग चल रहे हैं। लेकिन जो कुछ हो रहा है वह नाकाफी है। हमारे देश में पानी को लेकर तीसरा बिन्दु एक अन्य समस्या के रूप में इस तरह है कि हम अपने मीठे जल के स्रोतों जिसमें नदी, तालाब, कुएं, बावड़ी सभी सम्मिलित हैं को स्वच्छ और सुरक्षित रखने में नाकामयाब सिद्ध हो रहे हैं। कितने सालों से गंगा सफाई अभियान चल रहा है अब यमुना का नाम भी जुड़ गया है, लेकिन अब तक कोई भी आशाजनक परिणाम सामने नहीं आया है। अन्य नदियों की तो बात ही क्या करें? चौथी बात यह भी है कि जल स्रोतों का संधारण एवं संरक्षण करने का जो पारंपरिक ज्ञान था उससे हमने मुंह मोड़ लिया है।
एक सोच यह कहती है कि आबादी बढऩे से पानी की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि गरीब आदमी पानी का बहुत सीमित उपयोग करता है। यह नासमझ सोच है। एक व्यक्ति या परिवार प्रत्यक्ष रूप में भले ही कम पानी इस्तेमाल करता हो, अप्रत्यक्ष उपभोग में उसकी भागीदारी होती है। क्योंकि दिनचर्या का कौन सा ऐसा हिस्सा है जहां पानी का इस्तेमाल न होता हो। खैर! यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है। मुख्य रूप से चार बातें समझने की हैं- जल की उपलब्धता, उसके उपयोग की प्राथमिकता, संरक्षण की विधियां और पर्यावरण का प्रभाव। इन सभी पहलुओं पर विचार करने, नीतियां और कार्यक्रम बनाने और उन्हें लागू करने का दायित्व सरकार ने ले रखा है, वह इसलिए कि जीवन के इस बुनियादी प्रश्न पर समाज ने अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह किनारा कर लिया है।
आज आवश्यकता इसी बात की है कि समाज अपने प्राथमिक दायित्व को नए सिरे से पहचाने। ये हिमखंड, नदियां, पहाड़, झरने, तालाब, कुएं, पोखर सब हमारे हैं। इनमें से कुछ प्रकृति ने हमें दिए हैं, कुछ को हमने अपने ज्ञान व अनुभव से बनाया है। ये सब हमारी साझा धरोहर हैं। इन पर अपना हक हमें क्यों कर छोडऩा चाहिए? अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तकों में इस बारे में बहुत सुंदरता से विस्तारपूर्वक लिखा है। क्या कभी हमने उन पुस्तकों को पढ़ा है? राजेन्द्र सिंह और अन्ना हजारे ने अपने-अपने ढंग से जल संरक्षण किया, लेकिन अब वह मानो सुदूर अतीत की बात हो गई। मेधा पाटकर सरदार सरोवर को लेकर तीस साल से लड़ रही हैं किन्तु उनको समाज का जैसा समर्थन मिलना चाहिए था नहीं मिला।
आज एक तरफ तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल बंटवारे को लेकर फिर से बवाल शुरू हो गया है तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ और ओडिशा के बीच महानदी जल बंटवारे पर पहली बार एक आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। देश में विभिन्न राज्यों के बीच ऐसे सात-आठ विवाद और चल रहे हैं। हम यह न भूलें कि भारत-पाकिस्तान के बीच, नेपाल-भारत के बीच, चीन-भारत के बीच और भारत-बंगलादेश के बीच भी विभिन्न नदियों के जल बंटवारे पर विवाद बने हुए हैं। भारत और पाक के बीच सिंधु नदी जल बंटवारे पर लगभग साठ साल पहले अंतरराष्ट्रीय संधि हुई थी जिसे एक अभूतपूर्व सफल प्रयोग माना गया। वह संधि आज भी बरकरार है, किन्तु यह एकमात्र उदाहरण बनकर क्यों रह गया? अन्य देशों के साथ सफल समझौते अब तक क्यों नहीं हो पाए?
देश के भीतर राज्यों के बीच जो विवाद खड़े हुए हैं, उनमें हम न्यायालय की शरण में जाते हैं, लेकिन जब न्यायालय का फैसला आता है तो उसे मानने से इंकार कर देते हैं। राजनेताओं को लगता है कि पानी पर राजनीति करने से उन्हें लाभ मिल सकता है। यह एक संकीर्ण और अस्वीकार योग्य सोच है। मैं समझता हूं कि समाज को आगे आकर कुछ बातें तय कर लेना चाहिए। जैसे कि पानी पर सबसे पहला हक पेयजल और निस्तारी का हो, फिर खेती का और फिर उद्योग का। नदियों और सहायक नदियों के किनारे बसे गांवों के लोग नदी पंचायतों का गठन करें, उसमें पानी के युक्तियुक्त वितरण के फैसले लिए जाएं, तालाबों और कुंओं का प्रयोग फिर से प्रारंभ हो, इसमें शहरी भूमाफियाओं और उनके समर्थकों का मुंह काला किया जाए और इन सबके अलावा पानी का दक्षता के साथ उपयोग हो, पानी बर्बाद न हो इसके उपाय खोजे जाएं। अगर समाज इस तरह खड़ा होता है तो बहुत कुछ विवाद तो अपने आप शांत हो जाएंगे।
देशबंधु में 15 सितंबर 2016 को प्रकाशित
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