नामवर सिंह नब्बे के हो गए। वे स्वस्थ, सक्रिय बने रहें व शतायु हों। अक्षर पर्व उन्हें शुभकामनाएं देता है।
उनके नब्बे वर्ष पूर्ण होने पर उन्हें चारों ओर से बधाइयां और शुभकामनाएं मिलीं। विशेषकर सोशल मीडिया पर प्रशंसकों एवं शुभचिंतकों ने अपने-अपने तरीके से उनके प्रति अपने मनोभाव व्यक्त किए। इसके समानांतर अनेक जनों ने न सिर्फ उनकी आलोचना बल्कि निंदा, भर्त्सना करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनके विरुद्ध व्यंग्य बाण छोड़े गए। नामवर जब आयु के दशवें दशक की दहलीज पर पैर रख रहे थे, तब यह भी उनका प्राप्य होना था!
बहुत लोग कहेंगे कि इस स्थिति के लिए स्वयं नामवर जिम्मेदार हैं। यह सोच शायद गलत नहीं है! लोग-बाग उन्हें क्या समझते थे और वे क्या निकले? उन्होंने एक तरह से अपने चाहने वालों को मर्माहत किया है, अपने प्रति उनके विश्वास को खंडित किया है। विगत 40-42 वर्षों से याने प्रगतिशील लेखक संघ के 74-75 में पुनरोदय के समय से जो साहित्यिक और बुद्धिजीवी प्रलेस के साथ जुड़े रहे और जुड़ते गए, उन्हें नामवर ने विशेषकर निराश और दु:खी किया है।
हुआ यह कि मोदी सरकार द्वारा नियंत्रित एवं संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा संचालित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने किसी श्रृंखलाबद्ध आयोजन की परिकल्पना की और उसका पहिला कार्यक्रम नामवर सिंह की 90वीं वर्षगांठ के दिन ही रख दिया गया। खबर फैलनी थी सो फैली। लोगों ने नामवर जी से ही जानना चाहा कि क्या वे इस संघ-प्रायोजित कार्यक्रम में जाएंगे। उन्होंने उत्तर दिया कि हां, जाएंगे। लोकतंत्र में विचार वैभिन्नय हो सकता है, किन्तु इस कारण संवाद स्थगित नहीं होना चाहिए, बहिष्कार नहीं होना चाहिए। जब नामवर सिंह ने तय कर लिया कि वे जाएंगे तो फिर क्या बचना था? जिन्हें कष्ट हुआ, वे अपना विरोध दर्ज कराने लगे, कोई सोशल मीडिया में, कोई पत्र-पत्रिका में लेख लिखकर।
नियत तिथि, समय पर नामवर कार्यक्रम में शरीक हुए। उनका अभिनंदन हुआ। श्रोताओं में ऐसे अनेक व्यक्ति भी थे, जो बरसों से उनकी वैचारिक यात्रा में, अकादमिक यात्रा में, राजनैतिक यात्रा में साथ रहे हैं; जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ में भी उनके साथ काम किया है। लेकिन वे सब मंच के इस ओर थे। मंच पर नामवर जी का साथ एक बाजू से केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह दे रहे थे, दूसरी ओर से केन्द्रीय संस्कृति राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा। क्या इनके बीच नामवर किसी तरह की असुविधा महसूस कर रहे थे या स्थितप्रज्ञ हो गए थे? कौन जाने? राजनाथ सिंह ने अपने संबोधन में कटाक्ष किया कि अब उनको कोई असहिष्णु नहीं कहेगा। प्रकारांतर से यह गुणधर्म नामवर सिंह पर भी लागू हो गया। एक सिंह ने दूसरे सिंह की अभ्यर्थना समुचित भाव से कर दी। बात खत्म।
साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा उसके किसी अनुषंगी संगठन का यह पहला उपक्रम नहीं था, जब उसने राजनीति के नितांत दूसरे ध्रुव पर खड़े लेखक या लेखकों का मनोनयन करने का प्रयत्न न किया हो। यह उनकी सहिष्णुता का अंग है या रणनीति का, इसे समझने की आवश्यकता है। लेकिन हमारे साहित्यकार अमूमन इस बारे में ज्यादा माथापच्ची नहीं करते। हिन्दी में इसके अनेक ताजा उदाहरण देखे जा सकते हैं। लेखक शायद उस फिल्मी गाने को अपना आदर्श मानने लगा है- हम हैं राही प्यार के / हमसे कुछ न पूछिए / जो भी प्यार से मिला / हम उसी के हो लिए। गोरखपुर से लेकर रायपुर तक इस बारे में जाने कितनी चर्चाएं हो चुकी हैं।
इस संदर्भ में नामवर सिंह की बात करते हुए कुछ बिन्दु मन में उभरते हैं। एक तो मैं अपने मित्रों को स्मरण कराना चाहूंगा कि अपने उत्तम स्वास्थ्य के बावजूद नामवर सचमुच वृद्ध हो चुके हैं। नब्बे वर्षीय व्यक्ति के बारे में आलोचना करने से, परिहास करने से किसी को क्या हासिल होना है? क्या हम अपना समय इस तरह व्यर्थ नहीं कर रहे हैं? दूसरे, नामवर से हमारा मोहभंग क्या आज हुआ है? 2012 में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में क्या इसी कारण उन्हें उपेक्षित नहीं कर दिया गया था? इस हद तक कि उनके प्रति सामान्य शिष्टाचार का भी निर्वाह नहीं किया गया। तीसरे, इस जाहिरा सामूहिक और संस्थागत उपेक्षा के बावजूद अधिवेशन में आए दर्जनों प्रतिनिधि क्या उनके घर पर उनसे अलग-अलग मिलने नहीं गए थे? ऐसा क्यों हुआ, क्या इस पर बाद में किसी ने मंथन किया?
इन सबसे बढक़र प्रश्न यह है कि वे तमाम लेखक जो स्वयं को प्रगतिशील घोषित करते हैं, उस रूप में अपनी पहिचान बनाने की अभिलाषा रखते हैं, उन्होंने इस बारे में कितना गौर किया कि हाल के बरसों में प्रलेस कहां से कहां पहुंचा है, और यह भी कि एक सदस्य और साहित्यिक के रूप में उनका अपना क्या योगदान प्रगतिशील जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए रहा! यूं तो 2012 के राष्ट्रीय अधिवेशन के काफी पहिले से, उस समय भी जबकि नामवर सिंह अध्यक्ष थे, प्रलेस की सार्वजनिक चेतना के द्वार पर दस्तकें धीमी पड़ती जा रही थीं, किन्तु विगत चार वर्षों में तो प्रलेस की स्थिति पानी में डोल रही उस नौका की भांति हो गई, जिसमें नाविक ही न हो।
आज वयोवृद्ध नामवर सिंह के प्रति अपने मोहभंग की अभिव्यक्ति कर क्या प्रगतिशील लेखक अपनी ही दुर्बलता को प्रकट नहीं कर रहे हैं? उन्हें शायद एक मसीहा की जरूरत थी, जिसके आभा मंडल में दाखिल होकर वे स्वयं को प्रकाशवान मान रहे थे। जिस दिन वह मसीहा शीशे का सिद्ध हुआ, उस दिन मानो उनसे भी प्रकाश छिन गया। अब यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि नया प्रकाशपुंज कहां से लाएं! इस बीच जो अधिक उद्यमशील थे, उन्होंने या तो अपना नया संगठन खड़ा कर लिया है या लगभग समान विचार वाले किसी अन्य संगठन से जाकर जुड़ गए हैं। यह दृश्य एक तरह से स्थापित करता है कि साहित्यकार मूलत: आत्मपरक होता है, संगठन उसके लिए वक्ती तौर पर एक पड़ाव हो सकता है। क्या इस स्थापना को हम गलत सिद्ध कर सकते हैं? और क्या वाकई इस स्थापना को गलत सिद्ध करने की गंभीर आवश्यकता आज नहीं है?
साहित्य की स्वायत्तता को लेकर काफी कुछ पिछले सौ बरसों में लिखा है, लेकिन यह एक बड़ा सच है कि साहित्य के आद्योपांत इतिहास में उन्हीं लेखकों का स्थान कायम रह सका जिन्होंने अपनी कलम से एक बेहतर विश्व के सपने की इबारत लिखी। जिन्होंने असमानता, अन्याय, अशांति और असुरक्षा से पीडि़त-दमित सामान्य मनुष्य के मौन क्रंदन को अपनी संवेदना का स्वर और संबल दिया। कितने मजे की बात है कि हिन्दी साहित्य में ही हमारे बीच ऐसे लेखक मौजूद हैं जो बात तो स्वायत्तता की करते हैं, लेकिन इतिहास में अपना स्थान सुरक्षित करने की दृष्टि से ऐसी रचनाएं लिखने की ओर प्रवृत्त होते हैं, जिन्हें साधारणत: प्रगतिशील सौंदर्यबोध में स्थान दिया जा सकता है। इतना ही नहीं, हम ऐसे लेखकों को भी जानते हैं जो कथित रूपवादी रुझान के बावजूद प्रतिगामी शक्तियों के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करने में किसी से पीछे नहीं रहते। मतलब यह कि लेखक की आत्मपरकता का पर्याय आत्ममुग्धता नहीं होता और वह उसके सार्वजनिक सरोकारों में आड़े नहीं आती, बल्कि शायद अधिक प्रगल्भ सोच के साथ उसमें सहायक हो सकती है!
यह संभव है कि स्वायत्तता का उद्घोष करते हुए लेखक किसी समूह या संगठन से न जुडऩा चाहे, लेकिन यह भी उतना ही मुमकिन है कि समूह-संगठन से जुड़ा लेखक सार्वजनिक भूमिका निभाने नहीं, वरन् व्यक्तिगत स्वार्थवश उसमें सम्मिलित हुआ हो! बहरहाल, हमारे सामने साक्ष्य हैं कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की दुनिया में मौजूदा परिस्थितियों से विचलित-व्यथित, कितने ही प्रतिभाशाली व प्रतिष्ठित लेखक हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे रहे। उन्होंने जहां अपनी रचनाओं से पीडि़तजनों में उत्साह का संचार किया, उनकी संघर्षशीलता को धार दी, वहीं वे एक चेतनासंपन्न नागरिक के रूप में भी निजी भूमिका निभाने के लिए तत्पर हुए। स्पेन का गृहयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, तानाशाहियाँ, सैनिक शासन, साम्राज्यवाद इनके विरुद्ध लेखकों की सजग भूमिका के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। ऐसे अवसरों पर हमने उन्हें किसी राजनैतिक दल के सदस्य के रूप में देखा तो कभी जनयुद्ध में एक सैनिक के रूप में, कभी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में। गरज यह कि उन्होंने संगठन के स्तर पर काम करने से स्वयं को दूर नहीं रखा।
आज प्रगतिशील मूल्यों के लिए प्रतिष्ठित लेखक भले ही तीन-चार अलग-अलग संगठनों में बंट गए हों, लेकिन इस दौर की मांग है कि ये संगठन अकादमिक मतभेदों को कुछ समय के लिए भूल जाएं और प्रतिगामी शक्तियों का मुकाबला करने के लिए एक साझा मोर्चा बनाएं। इसमें एक उदार दृष्टि रखने की भी आवश्यकता है, ताकि जो मुख्य चुनौतियां सामने हैं उनका दृढ़ता के साथ मुकाबला किया जा सके जबकि छिद्रान्वेषण से उसमें कमजोरी आएगी। इसमें प्रगतिशील लेखक संघ को सबसे पहिले आत्मावलोकन की आवश्यकता होगी। प्रेमचंद से लेकर मखदूम मोइनुद्दीन, गुलाम रब्बानी ताबां, कैफी आजमी, भीष्म साहनी व हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों की संस्था आज संभ्रम की स्थिति में क्यों है, इस पर विचार करना ही होगा। यह तभी संभव है जब गैर जरूरी मुद्दों व बहसों से हटकर मुख्य लक्ष्य की ओर ध्यान दिया जाए। नामवर सिंह पर चली बहस गैर जरूरी ही थी।
अक्षर पर्व सितंबर 2016 अंक की प्रस्तावना
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