Wednesday, 26 October 2016

उत्तर प्रदेश : कुणाल की आँखें



 हमारी पुराकथाओं में वर्णन मिलता है कि कैसे राजा ययाति ने अपनी अतृप्त वासनाओं को पूरा करने के लिए बेटे पुरु से उसका यौवन मांग लिया था। इसी सप्ताह साथी स्तंभकार प्रभाकर चौबे ने इस कथा को आधार बनाकर अपनी बात कही है। मुझे एक अन्य कथा का स्मरण हो आता है। कहा जाता है कि सम्राट अशोक की दूसरी पत्नी तिष्यरक्षिता ने अपने बेटे को राजगद्दी पर बैठाने के उद्देश्य से सौतेले बेटे कुणाल से उसकी आंखें मांगीं तो कुणाल ने विमाता की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं होकर अपनी आंखें गर्म छड़ से फोड़ ली थीं। इन कथाओं में हम रामायण का प्रसंग भी जोड़ सकते हैं जब कैकेयी ने दशरथ को बाध्य कर रामचन्द्र को वनवास पर भेज दिया था। यह बात अलग है कि कैकेयी पुत्र भरत ने ज्येष्ठ भ्राता के अधिकार का हनन कर स्वयं राजा बनना मंजूर नहीं किया। यह त्रेतायुग की कथा है तो द्वापर में भी कृष्ण के देखते-देखते द्धारिका में उनके सत्तालोलुप संबंधियों के बीच युद्ध हुआ, जिसकी छाया आज भी यादवी संग्राम मुहावरे में देखी जा सकती है।

भारतीय समाज का एक मुखर वर्ग मानता है कि भारत किसी समय में विश्वगुरु था और उसने जो संस्कृति विकसित की वह अतुल्य और अद्वितीय है। किन्तु उपरोक्त चारों कथाएं कुछ और ही हकीकत बयां करती है।  भारत में सतयुग कब से कब तक था यह हमें पता नहीं, किन्तु जिस वीर बालक भरत के नाम पर इस देश का नामकरण हुआ उसके पिता दुष्यंत ने अपनी पत्नी शकुंतला को पहचानने से एक बार तो इंकार कर ही दिया था। अगर उस प्राचीन समय में सतयुग था तो वहां से त्रेता और द्वापर होते हुए हम कलयुग तक आते हैं और पाते हैं कि बहुत सारी गड़बडिय़ां अनादिकाल से ही चली आ रही है। प्रबुद्ध समाज उनका परिमार्जन कर एक आदर्श वातावरण निर्मित करने की कोशिशों में जुटा रहता है और कई बार असफल होने के बाद भी सफलता पाने के स्वप्न को छोड़ता नहीं है।

मेरे ध्यान में अचानक यह बात आई है कि श्रीकृष्ण को पूर्णपुरुष क्यों कहा जाता है? क्या इसलिए कि उन्होंने कई बार युद्धों में भाग लिया, अपने बलबूते पर विजय प्राप्त की, किन्तु सत्ता का मोह कभी नहीं पाला? मथुरा को कंस से मुक्ति दिलाई तो नाना उग्रसेन को वापिस गद्दी पर बैठाया; महाभारत में पांडवों की विजय के प्रणेता बने, लेकिन तुरंत बाद द्वारिका चले गए; वहां राज्य स्थापित किया, तो राजतिलक अग्रज बलराम का किया। यह ख्याल शायद मुझे इसलिए भी आ गया कि कल से ही दीवाली का पांच दिवसीय पर्व प्रारंभ हो रहा है। इसमें एक दिन यदि भगवान राम को समर्पित है तो तीन दिन किसी न किसी रूप में कृष्ण से जुड़े हुए हैं। नरक चौदस को उन्होंने नरकासुर का वध कर कितनी सारी महिलाओं को कैद से मुक्त करवाया था। दीपमालिका के अगले दिन याने गोवर्धन पूजा और अन्नकूट कृषि संस्कृति के देवता कृष्ण को ही समर्पित है और भाई दूज का दिन यमुना के मानवीय रूप की कथा से संबंधित है। हो सकता है कि मेरी जानकारियाँ अधूरी हों, लेकिन मैं एक तरफ जहां अनायास ही पुराकथाओं और मिथकों के संसार में भटक गया हूं वहीं दूसरी ओर इन कथाओं में कितनी सारी बातें हैं जो वर्तमान की सच्चाईयों से साक्षात्कार करवा रही हैं जैसे सत्तामोह, राजसी षडय़ंत्र, परिवारवाद इत्यादि।

उत्तर प्रदेश में चल रहे नाटक को ही देखिए। मुलायम सिंह ने 2012 में अखिलेश को क्या सोच कर मुख्यमंत्री बनाया और आज वे उनसे खफा क्यों हैं? 2010 में अमर सिंह को पार्टी से निकाला और छह साल बाद उन्हें न सिर्फ वापिस ले लिया बल्कि राज्यसभा में भी भेज दिया। मुलायम परिवार में हर बालिग व्यक्ति सत्ता के किसी न किसी पद पर है, फिर भी इतनी कलह क्यों मची हुई है? नेताजी की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की भूमिका क्या है? उनके पुत्र को सक्रिय राजनीति से दूर क्यों रखा गया? ऐसे तमाम प्रश्न राजनीतिक गलियारों में गूंज रहे हैं। उत्तर भी तरह-तरह के सुनने मिलते हैं, लेकिन इनमें सच क्या है यह कोई भी ज्ञानी नहीं बता पा रहा है। फिर भी मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश सिंह से नाराजगी का एक बड़ा कारण हमारे अनुमान में है। मुलायम सिंह ने शायद सोचा था कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने से युवावर्ग बड़ी संख्या में सपा की ओर आकृष्ट होगा जिसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनावों में मिलेगा और वे प्रधानमंत्री बनने के लिए सौदेबाजी करने की स्थिति में आ जाएंगे।

मुलायम सिंह यादव की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा नई नहीं है। वे पिछले तीस साल से इसकी जुगत में लगे रहे हैं। अपने चरम लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने बार-बार विरोधियों से भी समझौते किए हैं। एक समय जो मुलायम सिंह धर्मनिरपेक्षता पर अपने अडिग कौल के कारण व्यंग्य में मौलाना मुलायम कहकर पुकारे जाने लगे थे, आज उन्हीं पर भाजपा से भीतर-भीतर हाथ मिला लेने का संदेह किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में सपा को अपेक्षित सफलता मिलती तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो जाते। दुर्भाग्य से यशवंतराव चव्हाण, अर्जुन सिंह, शरद पवार और मायावती की तरह वे भी राज्य की सफलता को केन्द्र में नहीं भुना सके। जयललिता, नीतीश, ममता, चन्द्राबाबू आदि नाम भी इस सूची में जोड़ सकते हैं। अब जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ, उसके लिए अखिलेश पर गुस्सा करने से क्या फायदा?

अखिलेश यादव के सामने बहुत सारी मूर्तिमान परेशानियां हैं। ये मूर्तियां  पिता के अलावा चाचा शिवपाल, चचेरे चाचा रामगोपाल, संकटमोचक चाचा अमरसिंह, विमाता इत्यादि के रूप में हैं। इतना हम जानते हैं अखिलेश स्वयं ही मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे, लेकिन जब बना दिए गए तो उन्हें सरकार चलाने के लिए पार्टी की ओर से यथेष्ट स्वतंत्रता भी मिलना चाहिए थी। जाहिर है कि इसमें उनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाए गए, बात चाहे अधिकारियों की नियुक्ति की रही हो, चाहे मंत्री बनाने अथवा उनके विभाग तय करने की। इन बाधाओं का मुकाबला करने में अखिलेश अनेक बार असमर्थ सिद्ध हुए। उनके सामने बहुत बड़ी द्विविधा इस बात को लेकर अवश्य होगी कि पिता से कैसे टकराएं, वह भी उस पिता से जिसने उन्हें मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया। उन्होंने जब चाचा शिवपाल तथा अन्य विरोधियों से मोर्चा लिया तो वहां भी मुलायम सिंह ढाल बनकर खड़े हो गए। ऐसे में अखिलेश को ही कई बार हथियार डालने पड़े।

स्पष्ट है कि अखिलेश के साथ पार्टी सुप्रीमो और अन्य नेतागण अन्याय कर रहे हैं किन्तु इसके लिए अखिलेश स्वयं किसी हद तक जिम्मेदार हैं। आज यदि वे मुख्यमंत्री पद छोड़ दें तो इसमें उनका नुकसान नहीं, बल्कि फायदा ही है। सच पूछें तो यह इस्तीफा उन्हें लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए दे देना चाहिए था। उस समय नहीं दिया तो अभी कुछ हफ्ते पहले जब उन्हें गायत्रीप्रसाद प्रजापति और शिवपाल सिंह को मंत्रिमंडल में वापिस लेने के लिए बाध्य किया गया तब दे देना चाहिए था। इस युवा नेता को शायद समझ नहीं आया कि अगर वह मंत्री पद छोड़ दे तो इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि ही होगी। जो लोग पद से चिपके रहते हैं उन्हें आगे चलकर कोई भी नहीं पूछता, लेकिन जो सत्ता को ठुकराते हैं उनका सम्मान जनता की निगाह में कई गुना बढ़ जाता है। अखिलेश यहां शायद अपने आराध्य भगवान कृष्ण से प्रेरणा ले सकते थे!

खैर! अब सवाल इस बात का है कि उत्तर प्रदेश में होगा क्या? चुनाव के लिए मात्र तीन-चार माह ही बचे हैं। इस मोड़ पर समाजवादी पार्टी को यदि ययाति, तिष्यरक्षिता और कंस ही अपने आदर्श प्रतीत हो रहे हैं तो इस स्थिति में पार्टी की दुर्गति होना स्वाभाविक है। यह संभव है कि मुलायम सिंह प्रधानमंत्री न सही, राष्ट्रपति बनने के लिए भारतीय जनता पार्टी से समझौता कर लें। उनकी वे जानें। अखिलेश के रूप में उत्तर प्रदेश को एक ऊर्जावान युवा नेतृत्व प्राप्त हुआ है। इस पूंजी के भरोसे उन्हें आगे बढऩा चाहिए। अगर वे कांग्रेस और जदयू और संभव हो तो बसपा के साथ मिलकर गठजोड़ बना सकें, तो एक बेहतर तस्वीर सामने आ सकेगी। इस बीच में वरुण गांधी का चरित्र हनन करने के प्रयास हुए हैं जिसके पीछे उनकी ही पार्टी के लोगों का हाथ बतलाया जा रहा है, तो क्या वरुण अपने पुरखों की पार्टी में वापिस लौटेंगे? इस संभावना पर भी बातें हो रही हैं। उत्तर प्रदेश में यदि देशज  नेतृत्व का उभार होता है और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर धर्मनिरपेक्ष ताकतें एक साथ आती हैं तो यह उत्तर प्रदेश की नहीं, देश की बेहतरी की बात होगी।

देशबंधु में 27 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 19 October 2016

बॉब डिलन : जन कवि, नोबल विजेता


 बॉब डिलन को साहित्य के लिए 2016 का नोबल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा सुनी तो मन आनंद से भर उठा। नोबल पुरस्कार एक यूरोपीय देश स्वीडन की संस्था द्वारा दिए जाते हैं और उसके निर्णायक मंडल के अधिकतर सदस्य यूरोप की  विशिष्ट संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए पूरी दुनिया से अनुशंसाएं आमंत्रित की जाती हैं और यह भी सच है कि पुरस्कार अनेक बार गैर-यूरोपीय लेखकों को भी दिया गया है तथापि एशिया विशेषकर दक्षिण एशिया अथवा भारतीय उपमहाद्वीप की दृष्टि से कई बार इस पुरस्कार का औचित्य समझना कठिन हो जाता है। लेखन में श्रेष्ठता के प्रति हमारा अपना नजरिया है जो देशज परिस्थितियों, निजी अनुभवों व जातीय स्मृतियों से मिलकर बना है। जो साहित्य के उत्कट अनुरागी हैं वे भले ही रसास्वाद करते हों, अधिकतर लोगों को न तो नोबल पुरस्कार विजेताओं के नाम पता होते, न उनकी पुस्तकें पढऩे में रुचि होती।

यहां स्पष्ट करना उचित होगा कि साहित्य के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार अन्य क्षेत्रों के पुरस्कारों से सर्वथा भिन्न होता है। भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र में जो नोबल पुरस्कार दिए जाते हैं उनका महत्व विशेषज्ञों के बीच होता है। वे ही उसकी मीमांसा करने में समर्थ होते हैं। नोबल विजेताओं द्वारा किए गए आविष्कारों अथवा स्थापनाओं का व्यापक समाज के लिए क्या महत्व हो सकता है यह भी वे ही बताते हैं। साहित्य का मामला बिल्कुल अलहदा है क्योंकि साहित्यिक रचनाएं जनता तक पहुंचाने के लिए लिखी व प्रकाशित की जाती हैं। पाठक उनमें अपने जीवन के प्रतिबिंब तलाशते हैं, पात्रों, घटनाओं और विचारों के साथ पहचान कायम करते हैं, किसी हद तक एकसूत्रता का अनुभव करते हैं। दूसरी ओर पुरस्कार का महत्व इस बात में भी है कि प्राप्तकर्ता की उपलब्धियों से समाज व्यापक तौर पर परिचित हो सकता है। यदि किसी पुरस्कृत रचना को पाठक न मिले तो थोड़ी निराशा होना स्वाभाविक होगी।

बॉब डिलन को पुरस्कार मिलने पर आनंदित होने का कारण यही है कि वे एक विश्व-ख्याति प्राप्त कवि, संगीतकार और गायक हैं। यह प्रसिद्धि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई है। अपने देश की सीमाओं से परे जाकर यदि उनके नाम और काम से करोड़ों लोग परिचित और प्रभावित हैं तो इसका कारण है कि वे अपनी रचनाओं में वैश्विक संवेदनाओं को समेटते और मुखरित करते हैं। अगर कहा जाए कि बॉब डिलन एक विश्व नागरिक हैं, तो गलत नहीं होगा। पचहत्तर वर्षीय बॉब डिलन पचास वर्षों से अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय देते आए हैं। उनकी कविताओं में एक ओर युवकोचित विद्रोह का स्वर है, व्यवस्था बदलने की बेचैनी है तो दूसरी ओर वे विश्व शांति का गायक बनकर उभरते हैं और तीसरी ओर उनकी कृतियों में पीडि़त मानवता के प्रति पुरजोर पक्षधरता है। दूसरे शब्दों में वे कविता या गायन को स्वान्त: सुखाय न मानकर वृहत्तर लोक कल्याण का माध्यम मानते हैं।

जैसा कि हर पुरस्कार के साथ होता है बॉब डिलन को पुरस्कार देने के निर्णय की भी कहीं-कहीं आलोचना की गई है। कुछ का कहना है कि नोबल कमेटी ने सस्ती लोकप्रियता भुनाने के चक्कर में यह पुरस्कार दे दिया है। अन्य का कहना है कि बॉब तो पहले से ही इतने लोकप्रिय हैं उन्हें पुरस्कार देने की क्या आवश्यकता थी। अप्रसन्न कुछ विद्वान कह रहे हैं कि बॉब डिलन ने जो लिखा है वह साहित्य है ही नहीं, वे तो सिर्फ एक गायक हैं। इनके अनुसार बॉब डिलन की रचनाओं को साहित्य के दायरे में मान्य करना एक अतिरेक भरा कदम है। इनमें से किसी ने कहा कि यह वैसा ही निर्णय है जैसा विंस्टन चर्चिल को साहित्य का नोबल देते समय किया गया था। चर्चिल के इतिहास लेखन व मुहावरेदार अंग्रेजी भाषणों को ही साहित्य मान लिया गया था। इस निर्णय से पुस्तक प्रकाशकों को भी बहुत निराशा हुई है।  उनके किसी लेखक को पुरस्कार मिलता तो उसकी पुस्तकों की भारी बिक्री होती और वह प्रकाशक अच्छा खासा मुनाफा कमा लेता।

बहरहाल बॉब डिलन प्रशंसा और आलोचना से परे इस घोषणा के उपरांत अमेरिका के किसी नगर में कार्यक्रम देने के लिए चले गए। उन्होंने पत्रकारों आदि से बातचीत करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पुरस्कार पर खुशी जाहिर करते हुए लिखा कि बॉब से उनकी सिर्फ एक बार मुलाकात हुई। वे अपना एक कार्यक्रम देकर मंच से उतरे, दर्शकों में बैठे, राष्ट्रपति से हाथ मिलाया और बाहर चले गए। उन्होंने राष्ट्रपति के साथ बैठने, फोटो खिंचाने आदि की जरूरत नहीं समझी। ओबामा ने लिखा कि बॉब डिलन ने वही बर्ताव किया, जो कि उन्हें करना चाहिए था। एक सृजनशील व्यक्ति के रूप में बॉब डिलन के व्यक्तित्व का सहज परिचय राष्ट्रपति ओबामा के इस संस्मरण से मिलता है। साहित्यकार अपना काम कर रहा है, सरकार अपना काम। दोनों के बीच दुआ-सलाम हो गई तो ठीक और नहीं तो उसके लिए अवसर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं। भारत में राजाश्रय अथवा सेठाश्रय की निरंतर तलाश में लगे लेखकों को बॉब डिलन के इस व्यवहार से आश्चर्य हो सकता है।

पुरस्कार घोषित होने के दो-तीन घंटे बाद ट्विटर पर एक रोचक टिप्पणी आई कि हो सकता है कि बॉब डिलन इस पुरस्कार को अस्वीकार कर दें। उनकी जो छवि है उसे देखकर अगर ऐसा होता  तो आश्चर्य की कोई बात न होती। किन्तु संभव है कि नोबल कमेटी ने घोषणा करने के पूर्व उनकी सहमति हासिल कर ली हो। याद कीजिए कि 1964 में महान लेखक ज्यां पाल सात्र को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि उनके लिए इस पुरस्कार का महत्व आलू के बोरे से अधिक नहीं है। नोबल कमेटी शायद तब से सतर्कता बरत रही होगी कि उसके सामने ऐसी अनपेक्षित और अप्रिय स्थिति दुबारा न आए! प्रशंगवश भारत में सिर्फ कृष्णा सोबती का ही नाम याद आता है, जिन्होंने पद्मभूषण या पद्मविभूषण लेने से ही साफ-साफ इंकार कर दिया।

यह सही है कि बॉब डिलन को एक गायक के रूप में अधिक ख्याति प्राप्त हुई है। इसमें आश्चर्य नहीं। यदि बॉब की रचना यात्रा पर गौर किया जाए तो वे हमारे सम्मुख  एक कवि और  जनगायक के रूप में उभरते हैं। नोबल पुरस्कार विगत एक सौ सोलह वर्षों में तीन बरस छोडक़र निरंतर दिया गया है। इसे पाने वालों में अधिकतर उपन्यासकार या कथाकार ही रहे हैं। विंस्टन चर्चिल इसमें एक अपवाद हैं। दूसरा अपवाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं जिन्हें कविता संकलन गीतांजलि के लिए 1913 में पुरस्कृत किया गया। रवीन्द्रनाथ भारत ही नहीं एशिया से नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बने। उनकी कविताएं आज भी हमें स्पंदित करती हैं। कवि गुरु की कविताओं में मानवता, प्रकृति, लोकजीवन, बहुलतावाद का जो चित्रण हुआ है वह अद्भुत और अपूर्व है। उनकी कविताओं के गायन के लिए रवीन्द्र संगीत के नाम से एक अलग ही विधा प्रचलित हो गई है जो सुगम संगीत से ऊपर उठकर है।

बॉब डिलन की तुलना रवीन्द्रनाथ ठाकुर से करने का मन सहज हो आता है लेकिन यह तुलना बहुत दूर तक नहीं जाती। मेरी राय में बॉब डिलन के समानांतर भारत में अगर किसी को रखा जा सकता है तो वर्तमान समय में तेलगु के क्रांतिकारी कवि गदर को। वे अपनी उग्र वामपंथी राजनीति के कारण विवादों में भी रहते हैं, लेकिन उनकी कविता और गायन में जनसमुदाय को आंदोलित करने की अपार क्षमता है। अतीत में शायद मराठी के लोक गायक अमर शेख का भी स्मरण कर सकते हैं। किन्तु एक बहुभाषी देश में इनकी अपनी सीमाएं थीं-भाषा, भूगोल और राजनीति की। इसलिए कहना होगा कि नोबल कमेटी ने सचमुच पहली बार जन-जन को आंदोलित करने वाले एक लोक कवि और गायक को पुरस्कार देकर एक नई परिपाटी डाली है।

बॉब डिलन वह व्यक्ति हैं जिन्होंने बंगलादेश में मुक्ति संग्राम के दौर में 1 अगस्त 1971 को न्यूयॉर्क के मैडीसन स्क्वायर गार्डन में अपने मित्रों के साथ कंसर्ट में भाग लेकर बंगलादेश के विस्थापितों के लिए लाखों डालर की सहायता राशि एकत्र की थी। इसमें रविशंकर, अली अकबर खान, जार्ज हैरिसन, एरिक क्लेप्टन, रिंगो स्टार इत्यादि थे। यह वह समय था जब निक्सन का अमेरिका बंगलादेश में हो रहे नरसंहार से आंख मूंदे पाकिस्तान के तानाशाह याह्या खां का समर्थन कर रहा था।

अंत में बॉब डिलन की मुझे प्रिय चार पंक्तियां जिनका भावानुवाद करने का प्रयत्न मैंने किया है-
हाऊ मैनी ईयर्स मस्ट वन मैन हैव
बिफोर ही कैन हीयर पीपुल क्राई?
हाउ मैनी डैथ्स विल इट टेक टिल ही नोज
दैट टू मैनी पीपुल हैव डाइड?

(कितने कान हों एक मनुष्य के पास
इसके पहले कि सुन सके वह पीडि़तों का आर्तनाद?
कितनी मौतें हों उसके जान पाने के लिए
कि बेशुमार लोगों पर हुआ है मृत्यु का प्रहार?)

देशबंधु में 20 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 12 October 2016

लक्ष्यवेध पर वितंडा जारी है




भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर 28 सितंबर को लक्ष्यवेध याने सर्जिकल स्ट्राइक की कार्रवाई को अंजाम दिया था। इस घटना को दो सप्ताह से अधिक का समय बीत गया है, किन्तु इस पर बहसों का दौर लगातार चला हुआ है। पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ से जो बातें की जा रही हैं उन्हें देख-सुन कर कुछ धारणाएं बनती हैं। यह साफ तौर पर समझ आता है कि भारतीय जनता का सामरिक मामलों में ज्ञान लगभग नहीं के बराबर है। अधिकतर लोग यह भी नहीं जानते कि किसी देश को युद्ध की कीमत तत्काल और कालांतर में किस तरह चुकाना पड़ती है। इसके अलावा हम तर्कसंगत तरीके से यह समझने में असमर्थ हैं कि पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। यहां हम भूगोल की सच्चाई को भुला देते हैं, इतिहास के सबक याद नहीं रखते हैं तथा भावनाओं के वशीभूत हो जाते हैं।

भारत यद्यपि अपने आपको एक शांतिप्रिय और सहिष्णु देश कहने में गौरव अनुभव करता है, लेकिन ऐसा लगता है कि अपने इन गुणों को हम धीरे-धीरे तिलांजलि दे रहे हैं। यदि हम भारत को एक सैन्य दृष्टि से मुस्तैद और सैन्य शक्तिसम्पन्न देश के रूप में देखना चाहते हैं जिससे कि सारा विश्व भय करे तो यह एक विचार अवश्य हो सकता है, लेकिन क्या भारतीय समाज इसके लिए मानसिक रूप से तैयार है? आज अमेरिका और चीन दो प्रमुख राष्ट्र हैं जिनकी आक्रामक सैन्य शक्ति से विश्व परिचित है। अतीत में जर्मनी और जापान को भी हमने देखा है। हिटलर की नाज़ी फौजों का मुकाबला जिस हिम्मत के साथ सोवियत संघ ने किया था वह भी बहुत पुरानी बात नहीं है। इन सहित कई देशों में युवाओं को अनिवार्य रूप से सेना में एक-दो साल के लिए सेवाएं देना होती हैं, लेकिन भारत में ऐसे कितने परिवार हैं जो स्वेच्छा से अपने बच्चों को मिलिटरी में भेजने को तैयार हों?

1947 से अब तक का इतिहास देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि लड़ाई का खामियाजा मुख्य तौर पर सीमावर्ती प्रदेश के परिवारों को ही भुगतना पड़ता है याने राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर। जो नौजवान सेना में भर्ती होते हैं उनमें से अधिकांश पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान से आते हैं। मोर्चे पर वीरगति प्राप्त होने वालों में बहुतायत इनकी ही होती है। यह इनकी हिम्मत और बहादुरी है जिनके दम पर शेष भारत चैन से रह पाता है। लेकिन युद्ध का समय छोडक़र बाकी समय इनके प्रति हमारा क्या रवैया होता है? क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हम फिल्मी नायकों और विश्व सुंदरियों के पीछे पागलों की तरह भागते हैं, लेकिन अपने सैनिकों का पर्याप्त सम्मान कभी नहीं करते? यह एक विचित्र स्थिति है कि इस सच्चाई के बरक्स देश में युद्ध को लेकर एक उन्माद का माहौल बनाया जा रहा है। इसमें सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के नुमाइंदे, कुछ रिटायर्ड फौजी अफसर और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं। इसके लिए स्वयं पाकिस्तान  ही मुख्यत: दोषी है। यह तथ्य छुपा नहीं है कि पाकिस्तान की ओर से जो आतंकी कार्रवाईयां या सैनिक घुसपैठ होती हैं वे निर्वाचित सरकार के कारण नहीं, बल्कि सैन्य प्रतिष्ठान के द्वारा संचालित की जाती हैं। इसकी जवाबी कार्रवाई भारत को करना पड़ती है और यह हम 1947 से अब तक लगातार करते आ रहे हैं। यह बात दीगर है कि 2014 के पहले इसका ढिंढोरा कभी नहीं पीटा गया। हमारी सेना ने अपना काम किया, बात वहीं समाप्त। चूंकि इस बार सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक का प्रचार किया इस वजह से यह वितंडा खड़ा हुआ। अगर सरकार संयम से काम लेती तो अनावश्यक बहसबाजी से बचा जा सकता था।

स्मरणीय है कि सभी विपक्षी दलों ने प्रारंभ में सैन्य कार्रवाई का अनुमोदन किया था। कांग्रेस के एक-दो प्रवक्ताओं ने पार्टी लाइन से हटकर बात की तो सोनिया गांधी ने दुबारा वक्तव्य जारी कर सरकार का समर्थन किया। इसके बाद भाजपा को क्या आवश्यकता थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भगवान राम के रूप में चित्रित करते हुए उत्तर प्रदेश में बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाए जाते? इसमें यह भी खेदजनक था कि अरविंद केजरीवाल को विभीषण बतलाया गया। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश और अन्य प्रदेशों में आसन्न विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा इस सैन्य कार्रवाई का महिमामंडन कर राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहती है। राहुल गांधी ने इसीलिए अगर पलटवार किया तो वह भी एक राजनीतिक कदम था। इससे राहुल देशद्रोही नहीं हो जाते। सबसे घृणास्पद टिप्पणी भाजपा के एक सांसद ने की जिसमें उन्होंने राहुल गांधी की वल्दियत पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। क्या राजनीति अब इतने  निचले स्तर पर ही होगी?

उधर संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन ने मसूद अजहर के मामले में वीटो इस्तेमाल किया तो हमारे यहां देशभक्ति के प्रमाण बतौर चीनी सामानों का बहिष्कार करने की अपीलें आने लगीं। इसके अलावा पाकिस्तानी कलाकारों को देश छोडऩे का फरमान शिवसेना ने दे दिया। उग्र भावनाओं में बहते हुए ऐसा कहने वालों ने जमीनी सच्चाई पर ध्यान नहीं दिया। अगर चीन के सामान का बहिष्कार करना है, तो फिर अमेरिका का क्यों नहीं जो विगत साठ वर्षों से पाकिस्तान को हर किस्म की इमदाद देते आया है। अमेरिका में बसे सारे भारतीय लौटकर अपने देश क्यों नहीं आ जाते?वे क्यों ग्रीनकार्ड की लालसा में लगे रहते हैं? और क्या चीन से सिर्फ दिए, पटाखे, झालर, बस यही सामान आता है? अपने इस पड़ोसी के साथ हमारा व्यापार कितना लंबा-चौड़ा है, इस पर बहिष्कार की अपील करने वालों ने गौर फरमाने की जहमत नहीं उठाई।

इन भले लोगों को कोई बताए कि मोदीजी सरदार पटेल की जो विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा रहे हैं, उसका लोहा चीन से आ रहा है, उसकी पूरी डिजाइन भी चीन के तकनीकीविदों ने तैयार की है। निजी क्षेत्र में लग रहे बिजली कारखानों में बड़ी संख्या में चीनी इंजीनियर काम कर रहे हैं व तकनीक भी उन्हीं की है। इन सबका क्या करेंगे? और यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब हमारे प्रधानमंत्री अहमदाबाद में चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूल रहे थे। इसी तरह आप पाकिस्तानी कलाकारों को धमका कर वापिस तो भेज सकते हैं, लेकिन क्या इससे पाकिस्तानी जनता के मन में भारत के प्रति जो सदाशय है और जो लोग वहां जनतंत्र बहाली में जुटे हुए हैं उनका पक्ष कमजोर नहीं पड़ता? फिर यदि कलाकारों का आदान-प्रदान रोकना है तो पाकिस्तान के साथ हमारा जो व्यापार विनिमय चलता है उसे भी रोक देना चाहिए। उसकी बात तो कोई नहीं करता।

एक चिंताजनक बात केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने की है। उन्होंने भारत-पाक सीमा को पुख्ता तौर पर सील करने और उसमें इजराइल का सहयोग लेने की घोषणा की है। हम जानते हैं कि फिलीस्तीन की धरती पर अवैध कब्जा कर इजराइल ने वहां कांक्रीट की दीवाल खींच दी है ताकि यहूदी और मुसलमान, इजराइली और फिलीस्तीनी  दोनों एक- दूसरे से पृथक रहें। अगर भारत भी इसी रास्ते पर चलता है तो इसमें हमें आश्चर्य नहीं होगा। हमारे देश में ऐसे उदाहरण हैं जहां सवर्णों और दलितों की बस्तियों के बीच ईंट-पत्थर की दीवारें खड़ी हैं। निजी क्षेत्र में इन दिनों जो कालोनियां और अपार्टमेंट बन रहे हैं उनमें जाति और धर्म को जोड़ दिया गया है। कुछ समय पहले एक विज्ञापन था कि सिर्फ ब्राह्मणों के लिए एक नई कालोनी बन रही है। ऐसा शायद ही कोई गांव हो जहां दलितों की बस्ती सवर्ण रिहाइश से दूर न हो। अनेक समाजों ने जातिगत आधारों पर कालोनियां बनाई हैं। मुंबई महानगर में एक अपार्टमेंट बिल्डिंग में किसी मुसलमान ने मकान खरीद लिया तो उस पर आपत्ति उठ गई। यह घेट्टो या दड़बाई मानसिकता है, जो असुरक्षा व अपवित्रता के भय से उपजती है। पहले भी व्यवसाय या जाति के आधार पर मुहल्ले बसते थे लेकिन वह समय और था। आज के वैज्ञानिक युग में जहां संकुचित मानसिकता से निकलना चाहिए वहां मध्ययुग में लौटने की बात हो रही है। राजनाथ जी बताएं कि पाक सीमा पर तो कांक्रीट की दीवाल खड़ी हो जाएगी, लेकिन क्या देश के भीतर भी हर गांव और शहर में इजराइल की सलाह से ऐसी ही दीवालें खड़ी की जाएंगी?  

देशबंधु में 13 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित 
 

Wednesday, 5 October 2016

लक्ष्यवेध पर संदेह क्यों?




लक्ष्यवेध या लक्ष्यभेद याने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’।  इस अंग्रेज़ी संज्ञा का हिन्दी में समानार्थी शब्द ढूंढना आसान नहीं था। हमारे अंग्रेजीदां अफसर अधिकतर अंग्रेजी पदावली का ही प्रयोग करते हैं और हम मेहनत से बचने के लिए उसे यथावत उठा लेते हैं। ऐसी स्थिति बीस साल पहले नहीं थी। अब यह है कि नाम हिन्दी का लो और काम अंग्रेज़ी में करो। बहरहाल सर्जिकल स्ट्राइक पर यह चर्चा सिर्फ इसके सही अर्थ को समझने के लिए है। एक शल्य चिकित्सक याने सर्जन की कोशिश यह होती है कि रोगी का आपरेशन करते समय जितनी आवश्यक हो उससे अधिक चीरफाड़ बिल्कुल भी न की जाए। इसी विचार के कारण एंडोस्कोपी व लेज़र प्रक्रिया आदि का आविष्कार एवं प्रचलन हुआ। जब भारत ने 28 सितंबर को रात बीतने के पहले सर्जिकल स्ट्राइक करने का फैसला लिया तो उसमें यही सोच थी कि कुछ चुनिंदा आतंकी ठिकानों को नष्ट कर पाकिस्तान को संदेश दिया जाए कि उसकी ओर से हो रही आक्रामक कार्रवाईयां अब बर्दाश्त नहीं। मैंने अंग्रेज़ी संज्ञा का अनुवाद लक्ष्यभेदी आक्रमण अथवा  लक्ष्यवेध यही सोच कर किया कि जितना आवश्यक है उतना ही करना या, उससे आगे नहीं।

भारत ने इस साल जनवरी से अब तक लगातार पाकिस्तान की तरफ से हो रही आतंकी कार्रवाईयों को झेला है। इसकी शुरूआत नए वर्ष में पठानकोट में आक्रमण के साथ ही हो गई थी और वह अभी तक चालू है। इसी सप्ताह बारामूला और गुरुदासपुर में भी हमले हुए। इस पृष्ठभूमि में यदि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सीमित जवाबी कार्रवाई करने का फैसला किया तो उसका स्वागत होना ही चाहिए था। मीडिया में तो स्वागत हुआ ही। जैसे ही खबर फैली आम जनता ने भी खुलकर उसका स्वागत किया। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, जदयू आदि दलों ने भी इस कार्रवाई पर भारत सरकार का समर्थन करने में कोई कमी नहीं की। सोनिया गांधी ने तत्काल एक संजीदगी भरा वक्तव्य जारी किया जिसमें उन्होंने अपने सैनिकों की भी प्रशंसा की। राहुल गांधी ने कहा कि मोदीजी ने पहली बार प्रधानमंत्री लायक काम किया है तथा कांग्रेस राष्ट्रहित में सरकार के साथ है। शरद यादव ने भी तारीफ की व सैनिकों को बधाई भेजी। सीताराम येचुरी ने स्वागत करते हुए इतना जोड़ा कि इसके आगे बातचीत से रास्ता निकालना चाहिए।

यह सब तो बहुत अच्छा हुआ। इससे पता चला कि अगर देश में कोई संकट आएगा तो राजनीतिक दल अपने मतभेद भुलाकर सरकार व सेना के साथ होंगे। यह स्वाभाविक था कि भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों व चाकर पत्रकारों को सबसे ज्यादा खुशी होती। टीवी चैनल तो जैसे पागल हो गए हैं। एक सीमित कार्रवाई पर भाजपा के लोगों ने मोदीजी की प्रशंसा में जो अतिरंजना की वह आश्चर्यजनक तो नहीं किन्तु कहीं-कहीं हास्यास्पद अवश्य थी। जैसे शिवराज सिंह चौहान को यह क्यों कहना चाहिए था कि मोदीजी की छाती छप्पन इंच की नहीं, बल्कि सौ इंच की है।  इसी तरह रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर ने मोदीजी को राम, सेना को हनुमान व खुद को जामवंत बता दिया कि जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराया था। श्री पार्रिकर के बयान का यह अर्थ भी निकलता है कि उनके रक्षा मंत्री बनने के पहले तक भारतीय सेना सोई हुई थी। यह अनजाने में या अतिउत्साह में सेना को कमजोर सिद्ध करने वाली बात हो गई। डॉ. रमन सिंह ने कहा कि सबसे पहले सर्जिकल स्ट्राईक हनुमानजी ने की थी। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री स्वयं अनुभवी चिकित्सक हैं, लेकिन यह तुलना उन्होंने न जाने क्या सोचकर की। इस घटनाचक्र के बीच प्रशांत भूषण का वह बयान दब गया जिसमें उन्होंने एक उच्चाधिकारी बंसल के पूरे परिवार द्वारा आत्महत्या कर लेने के मामले में उस सुसाइड नोट का मुद्दा उठाया था जिसमें प्रभावशाली व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगाए गए थे।

बहरहाल, ध्यातव्य है कि भारतीय सेना द्वारा किए गए लक्ष्यभेदी आक्रमण पर ऐसा नहीं है कि अनुकूल प्रतिक्रियाएं ही आई हों। देश में ही राजनीति, कूटनीति और सैन्य नीति  के अनेक अध्येताओं ने इस आक्रमण के बारे में अनेक तरह के प्रश्न उठाए हैं।  एक सवाल तो यही पूछा जा रहा है कि अगर भारतीय सेना ने सचमुच ऐसा कोई आक्रमण किया था तो उसके सबूत कहां हैं? हमारे स्पेशल कमांडो फोर्स के सैनिक सीमा पार तीन किलोमीटर तक रेंगते हुए गए और काम तमाम कर दो-ढाई घंटे के भीतर उसी तरह लौट आए, यह बात हर किसी के गले नहीं उतर रही है। इस पर भी आश्चर्य है कि भारत का एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ। जबकि पाकिस्तान ने हमारे एक सैनिक को पकड़ा, उसकी पहचान जारी की, जिस पर हमारा जवाब था कि सैनिक धोखे से सीमा-पार चला गया था। ऐसी सफाई पर विश्वास करना कठिन है।

पाकिस्तान ने तो भारत की ओर से ऐसी कोई कार्रवाई होने से स्पष्ट इंकार किया है। उसका कहना है कि भारत सरकार अपनी जनता को मूर्ख बना रही है। पाकिस्तान से तो खैर, इस तरह के ही वक्तव्यों की उम्मीद थी, लेकिन क्या वजह है कि देश के भीतर अनेक विशेषज्ञ और जानकार लोग लक्ष्यवेध पर संदेह प्रकट कर रहे हैं। ये लोग न तो भाजपा के विरोधी हैं, और न मोदीजी के, किन्तु मिलिट्री ऑपरेशनों के बारे में उतना ज्ञान रखते हैं जो हम जैसे सामान्य लोगों को नहीं होता। इसलिए इन्हें हम देशद्रोही वगैरह कहकर खारिज नहीं कर सकते बल्कि इनके विचारों को शांतिपूर्वक समझने की आवश्यकता है। अगर सरकार की ओर से कोई विस्तृत स्पष्टीकरण आता तब भी ठीक होता, लेकिन सरकार का तो कहना यह है कि वह समय आने पर सबूत प्रस्तुत करेगी याने सरकार की ओर से जो कहा गया है उस पर विश्वास किया जाए।

एक टीकाकार ने लिखा है कि  मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से एक मनोवैज्ञानिक खेल खेला है। ऐसा कोई ऑपरेशन वास्तव में  हुआ या नहीं इसे कुछ देर के लिए भूल जाएं। यदि भारत की जनता इस बात से प्रसन्न और आश्वस्त होती है कि मोदी सरकार पाकिस्तान से बदला लेने में सक्षम है व हाथ पर हाथ धरे रहने की बजाय कार्रवाई कर रही है तो यही सही। कुछ अन्य टीकाकारों ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि बीते वर्षों में अनेक बार ऐसे सीमित आक्रमण भारत करते रहा है, लेकिन पूर्व में इसका ढिंढोरा कभी नहीं पीटा गया। इस संबंध में पूर्व प्रसंगों के विवरण भी दिए गए हैं। कहने का आशय यह कि मोदी जी इससे राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

हम मानते हैं कि अगर सचमुच यह लक्ष्यभेदी आक्रमण किया गया था और वर्तमान सरकार इससे लाभ उठा रही है तो यह एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया है। किन्तु इसमें अगर सिर्फ प्रचार पाने की चाहत है तो आगे चलकर इसका विपरीत असर पड़ सकता है। हम उम्मीद करते हैं कि ऐसा नहीं है। इस घटनाचक्र का एक अन्य पहलू भी नज़र आता है जो शायद दूर की कौड़ी हो! पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ तीन-चार हफ्ते बाद रिटायर हो रहे हैं। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं जिसका पर्याप्त परिचय मिल चुका है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ऊपर से चाहे जितना खंडन करें, क्या भीतर-भीतर वे जनरल शरीफ को इस सर्जिकल स्ट्राइक के लिए दोषी ठहराकर उन्हें आगे बढऩे से रोक सकते हैं? अगर ऐसा हुआ तो क्या इसके बाद नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ दोनों मिलकर बेहतर संबंधों की एक इबारत लिखेंगे?
 
देशबंधु में 06 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित