बॉब डिलन को साहित्य के लिए 2016 का नोबल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा सुनी तो मन आनंद से भर उठा। नोबल पुरस्कार एक यूरोपीय देश स्वीडन की संस्था द्वारा दिए जाते हैं और उसके निर्णायक मंडल के अधिकतर सदस्य यूरोप की विशिष्ट संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए पूरी दुनिया से अनुशंसाएं आमंत्रित की जाती हैं और यह भी सच है कि पुरस्कार अनेक बार गैर-यूरोपीय लेखकों को भी दिया गया है तथापि एशिया विशेषकर दक्षिण एशिया अथवा भारतीय उपमहाद्वीप की दृष्टि से कई बार इस पुरस्कार का औचित्य समझना कठिन हो जाता है। लेखन में श्रेष्ठता के प्रति हमारा अपना नजरिया है जो देशज परिस्थितियों, निजी अनुभवों व जातीय स्मृतियों से मिलकर बना है। जो साहित्य के उत्कट अनुरागी हैं वे भले ही रसास्वाद करते हों, अधिकतर लोगों को न तो नोबल पुरस्कार विजेताओं के नाम पता होते, न उनकी पुस्तकें पढऩे में रुचि होती।
बॉब डिलन को पुरस्कार मिलने पर आनंदित होने का कारण यही है कि वे एक विश्व-ख्याति प्राप्त कवि, संगीतकार और गायक हैं। यह प्रसिद्धि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई है। अपने देश की सीमाओं से परे जाकर यदि उनके नाम और काम से करोड़ों लोग परिचित और प्रभावित हैं तो इसका कारण है कि वे अपनी रचनाओं में वैश्विक संवेदनाओं को समेटते और मुखरित करते हैं। अगर कहा जाए कि बॉब डिलन एक विश्व नागरिक हैं, तो गलत नहीं होगा। पचहत्तर वर्षीय बॉब डिलन पचास वर्षों से अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय देते आए हैं। उनकी कविताओं में एक ओर युवकोचित विद्रोह का स्वर है, व्यवस्था बदलने की बेचैनी है तो दूसरी ओर वे विश्व शांति का गायक बनकर उभरते हैं और तीसरी ओर उनकी कृतियों में पीडि़त मानवता के प्रति पुरजोर पक्षधरता है। दूसरे शब्दों में वे कविता या गायन को स्वान्त: सुखाय न मानकर वृहत्तर लोक कल्याण का माध्यम मानते हैं।
जैसा कि हर पुरस्कार के साथ होता है बॉब डिलन को पुरस्कार देने के निर्णय की भी कहीं-कहीं आलोचना की गई है। कुछ का कहना है कि नोबल कमेटी ने सस्ती लोकप्रियता भुनाने के चक्कर में यह पुरस्कार दे दिया है। अन्य का कहना है कि बॉब तो पहले से ही इतने लोकप्रिय हैं उन्हें पुरस्कार देने की क्या आवश्यकता थी। अप्रसन्न कुछ विद्वान कह रहे हैं कि बॉब डिलन ने जो लिखा है वह साहित्य है ही नहीं, वे तो सिर्फ एक गायक हैं। इनके अनुसार बॉब डिलन की रचनाओं को साहित्य के दायरे में मान्य करना एक अतिरेक भरा कदम है। इनमें से किसी ने कहा कि यह वैसा ही निर्णय है जैसा विंस्टन चर्चिल को साहित्य का नोबल देते समय किया गया था। चर्चिल के इतिहास लेखन व मुहावरेदार अंग्रेजी भाषणों को ही साहित्य मान लिया गया था। इस निर्णय से पुस्तक प्रकाशकों को भी बहुत निराशा हुई है। उनके किसी लेखक को पुरस्कार मिलता तो उसकी पुस्तकों की भारी बिक्री होती और वह प्रकाशक अच्छा खासा मुनाफा कमा लेता।
बहरहाल बॉब डिलन प्रशंसा और आलोचना से परे इस घोषणा के उपरांत अमेरिका के किसी नगर में कार्यक्रम देने के लिए चले गए। उन्होंने पत्रकारों आदि से बातचीत करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पुरस्कार पर खुशी जाहिर करते हुए लिखा कि बॉब से उनकी सिर्फ एक बार मुलाकात हुई। वे अपना एक कार्यक्रम देकर मंच से उतरे, दर्शकों में बैठे, राष्ट्रपति से हाथ मिलाया और बाहर चले गए। उन्होंने राष्ट्रपति के साथ बैठने, फोटो खिंचाने आदि की जरूरत नहीं समझी। ओबामा ने लिखा कि बॉब डिलन ने वही बर्ताव किया, जो कि उन्हें करना चाहिए था। एक सृजनशील व्यक्ति के रूप में बॉब डिलन के व्यक्तित्व का सहज परिचय राष्ट्रपति ओबामा के इस संस्मरण से मिलता है। साहित्यकार अपना काम कर रहा है, सरकार अपना काम। दोनों के बीच दुआ-सलाम हो गई तो ठीक और नहीं तो उसके लिए अवसर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं। भारत में राजाश्रय अथवा सेठाश्रय की निरंतर तलाश में लगे लेखकों को बॉब डिलन के इस व्यवहार से आश्चर्य हो सकता है।
पुरस्कार घोषित होने के दो-तीन घंटे बाद ट्विटर पर एक रोचक टिप्पणी आई कि हो सकता है कि बॉब डिलन इस पुरस्कार को अस्वीकार कर दें। उनकी जो छवि है उसे देखकर अगर ऐसा होता तो आश्चर्य की कोई बात न होती। किन्तु संभव है कि नोबल कमेटी ने घोषणा करने के पूर्व उनकी सहमति हासिल कर ली हो। याद कीजिए कि 1964 में महान लेखक ज्यां पाल सात्र को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि उनके लिए इस पुरस्कार का महत्व आलू के बोरे से अधिक नहीं है। नोबल कमेटी शायद तब से सतर्कता बरत रही होगी कि उसके सामने ऐसी अनपेक्षित और अप्रिय स्थिति दुबारा न आए! प्रशंगवश भारत में सिर्फ कृष्णा सोबती का ही नाम याद आता है, जिन्होंने पद्मभूषण या पद्मविभूषण लेने से ही साफ-साफ इंकार कर दिया।
यह सही है कि बॉब डिलन को एक गायक के रूप में अधिक ख्याति प्राप्त हुई है। इसमें आश्चर्य नहीं। यदि बॉब की रचना यात्रा पर गौर किया जाए तो वे हमारे सम्मुख एक कवि और जनगायक के रूप में उभरते हैं। नोबल पुरस्कार विगत एक सौ सोलह वर्षों में तीन बरस छोडक़र निरंतर दिया गया है। इसे पाने वालों में अधिकतर उपन्यासकार या कथाकार ही रहे हैं। विंस्टन चर्चिल इसमें एक अपवाद हैं। दूसरा अपवाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं जिन्हें कविता संकलन गीतांजलि के लिए 1913 में पुरस्कृत किया गया। रवीन्द्रनाथ भारत ही नहीं एशिया से नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बने। उनकी कविताएं आज भी हमें स्पंदित करती हैं। कवि गुरु की कविताओं में मानवता, प्रकृति, लोकजीवन, बहुलतावाद का जो चित्रण हुआ है वह अद्भुत और अपूर्व है। उनकी कविताओं के गायन के लिए रवीन्द्र संगीत के नाम से एक अलग ही विधा प्रचलित हो गई है जो सुगम संगीत से ऊपर उठकर है।
बॉब डिलन की तुलना रवीन्द्रनाथ ठाकुर से करने का मन सहज हो आता है लेकिन यह तुलना बहुत दूर तक नहीं जाती। मेरी राय में बॉब डिलन के समानांतर भारत में अगर किसी को रखा जा सकता है तो वर्तमान समय में तेलगु के क्रांतिकारी कवि गदर को। वे अपनी उग्र वामपंथी राजनीति के कारण विवादों में भी रहते हैं, लेकिन उनकी कविता और गायन में जनसमुदाय को आंदोलित करने की अपार क्षमता है। अतीत में शायद मराठी के लोक गायक अमर शेख का भी स्मरण कर सकते हैं। किन्तु एक बहुभाषी देश में इनकी अपनी सीमाएं थीं-भाषा, भूगोल और राजनीति की। इसलिए कहना होगा कि नोबल कमेटी ने सचमुच पहली बार जन-जन को आंदोलित करने वाले एक लोक कवि और गायक को पुरस्कार देकर एक नई परिपाटी डाली है।
बॉब डिलन वह व्यक्ति हैं जिन्होंने बंगलादेश में मुक्ति संग्राम के दौर में 1 अगस्त 1971 को न्यूयॉर्क के मैडीसन स्क्वायर गार्डन में अपने मित्रों के साथ कंसर्ट में भाग लेकर बंगलादेश के विस्थापितों के लिए लाखों डालर की सहायता राशि एकत्र की थी। इसमें रविशंकर, अली अकबर खान, जार्ज हैरिसन, एरिक क्लेप्टन, रिंगो स्टार इत्यादि थे। यह वह समय था जब निक्सन का अमेरिका बंगलादेश में हो रहे नरसंहार से आंख मूंदे पाकिस्तान के तानाशाह याह्या खां का समर्थन कर रहा था।
अंत में बॉब डिलन की मुझे प्रिय चार पंक्तियां जिनका भावानुवाद करने का प्रयत्न मैंने किया है-
हाऊ मैनी ईयर्स मस्ट वन मैन हैव
बिफोर ही कैन हीयर पीपुल क्राई?
हाउ मैनी डैथ्स विल इट टेक टिल ही नोज
दैट टू मैनी पीपुल हैव डाइड?
(कितने कान हों एक मनुष्य के पास
इसके पहले कि सुन सके वह पीडि़तों का आर्तनाद?
कितनी मौतें हों उसके जान पाने के लिए
कि बेशुमार लोगों पर हुआ है मृत्यु का प्रहार?)
देशबंधु में 20 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित
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