हमारी पुराकथाओं में वर्णन मिलता है कि कैसे राजा ययाति ने अपनी अतृप्त वासनाओं को पूरा करने के लिए बेटे पुरु से उसका यौवन मांग लिया था। इसी सप्ताह साथी स्तंभकार प्रभाकर चौबे ने इस कथा को आधार बनाकर अपनी बात कही है। मुझे एक अन्य कथा का स्मरण हो आता है। कहा जाता है कि सम्राट अशोक की दूसरी पत्नी तिष्यरक्षिता ने अपने बेटे को राजगद्दी पर बैठाने के उद्देश्य से सौतेले बेटे कुणाल से उसकी आंखें मांगीं तो कुणाल ने विमाता की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं होकर अपनी आंखें गर्म छड़ से फोड़ ली थीं। इन कथाओं में हम रामायण का प्रसंग भी जोड़ सकते हैं जब कैकेयी ने दशरथ को बाध्य कर रामचन्द्र को वनवास पर भेज दिया था। यह बात अलग है कि कैकेयी पुत्र भरत ने ज्येष्ठ भ्राता के अधिकार का हनन कर स्वयं राजा बनना मंजूर नहीं किया। यह त्रेतायुग की कथा है तो द्वापर में भी कृष्ण के देखते-देखते द्धारिका में उनके सत्तालोलुप संबंधियों के बीच युद्ध हुआ, जिसकी छाया आज भी यादवी संग्राम मुहावरे में देखी जा सकती है।
मेरे ध्यान में अचानक यह बात आई है कि श्रीकृष्ण को पूर्णपुरुष क्यों कहा जाता है? क्या इसलिए कि उन्होंने कई बार युद्धों में भाग लिया, अपने बलबूते पर विजय प्राप्त की, किन्तु सत्ता का मोह कभी नहीं पाला? मथुरा को कंस से मुक्ति दिलाई तो नाना उग्रसेन को वापिस गद्दी पर बैठाया; महाभारत में पांडवों की विजय के प्रणेता बने, लेकिन तुरंत बाद द्वारिका चले गए; वहां राज्य स्थापित किया, तो राजतिलक अग्रज बलराम का किया। यह ख्याल शायद मुझे इसलिए भी आ गया कि कल से ही दीवाली का पांच दिवसीय पर्व प्रारंभ हो रहा है। इसमें एक दिन यदि भगवान राम को समर्पित है तो तीन दिन किसी न किसी रूप में कृष्ण से जुड़े हुए हैं। नरक चौदस को उन्होंने नरकासुर का वध कर कितनी सारी महिलाओं को कैद से मुक्त करवाया था। दीपमालिका के अगले दिन याने गोवर्धन पूजा और अन्नकूट कृषि संस्कृति के देवता कृष्ण को ही समर्पित है और भाई दूज का दिन यमुना के मानवीय रूप की कथा से संबंधित है। हो सकता है कि मेरी जानकारियाँ अधूरी हों, लेकिन मैं एक तरफ जहां अनायास ही पुराकथाओं और मिथकों के संसार में भटक गया हूं वहीं दूसरी ओर इन कथाओं में कितनी सारी बातें हैं जो वर्तमान की सच्चाईयों से साक्षात्कार करवा रही हैं जैसे सत्तामोह, राजसी षडय़ंत्र, परिवारवाद इत्यादि।
उत्तर प्रदेश में चल रहे नाटक को ही देखिए। मुलायम सिंह ने 2012 में अखिलेश को क्या सोच कर मुख्यमंत्री बनाया और आज वे उनसे खफा क्यों हैं? 2010 में अमर सिंह को पार्टी से निकाला और छह साल बाद उन्हें न सिर्फ वापिस ले लिया बल्कि राज्यसभा में भी भेज दिया। मुलायम परिवार में हर बालिग व्यक्ति सत्ता के किसी न किसी पद पर है, फिर भी इतनी कलह क्यों मची हुई है? नेताजी की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की भूमिका क्या है? उनके पुत्र को सक्रिय राजनीति से दूर क्यों रखा गया? ऐसे तमाम प्रश्न राजनीतिक गलियारों में गूंज रहे हैं। उत्तर भी तरह-तरह के सुनने मिलते हैं, लेकिन इनमें सच क्या है यह कोई भी ज्ञानी नहीं बता पा रहा है। फिर भी मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश सिंह से नाराजगी का एक बड़ा कारण हमारे अनुमान में है। मुलायम सिंह ने शायद सोचा था कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने से युवावर्ग बड़ी संख्या में सपा की ओर आकृष्ट होगा जिसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनावों में मिलेगा और वे प्रधानमंत्री बनने के लिए सौदेबाजी करने की स्थिति में आ जाएंगे।
मुलायम सिंह यादव की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा नई नहीं है। वे पिछले तीस साल से इसकी जुगत में लगे रहे हैं। अपने चरम लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने बार-बार विरोधियों से भी समझौते किए हैं। एक समय जो मुलायम सिंह धर्मनिरपेक्षता पर अपने अडिग कौल के कारण व्यंग्य में मौलाना मुलायम कहकर पुकारे जाने लगे थे, आज उन्हीं पर भाजपा से भीतर-भीतर हाथ मिला लेने का संदेह किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में सपा को अपेक्षित सफलता मिलती तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो जाते। दुर्भाग्य से यशवंतराव चव्हाण, अर्जुन सिंह, शरद पवार और मायावती की तरह वे भी राज्य की सफलता को केन्द्र में नहीं भुना सके। जयललिता, नीतीश, ममता, चन्द्राबाबू आदि नाम भी इस सूची में जोड़ सकते हैं। अब जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ, उसके लिए अखिलेश पर गुस्सा करने से क्या फायदा?
अखिलेश यादव के सामने बहुत सारी मूर्तिमान परेशानियां हैं। ये मूर्तियां पिता के अलावा चाचा शिवपाल, चचेरे चाचा रामगोपाल, संकटमोचक चाचा अमरसिंह, विमाता इत्यादि के रूप में हैं। इतना हम जानते हैं अखिलेश स्वयं ही मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे, लेकिन जब बना दिए गए तो उन्हें सरकार चलाने के लिए पार्टी की ओर से यथेष्ट स्वतंत्रता भी मिलना चाहिए थी। जाहिर है कि इसमें उनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाए गए, बात चाहे अधिकारियों की नियुक्ति की रही हो, चाहे मंत्री बनाने अथवा उनके विभाग तय करने की। इन बाधाओं का मुकाबला करने में अखिलेश अनेक बार असमर्थ सिद्ध हुए। उनके सामने बहुत बड़ी द्विविधा इस बात को लेकर अवश्य होगी कि पिता से कैसे टकराएं, वह भी उस पिता से जिसने उन्हें मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया। उन्होंने जब चाचा शिवपाल तथा अन्य विरोधियों से मोर्चा लिया तो वहां भी मुलायम सिंह ढाल बनकर खड़े हो गए। ऐसे में अखिलेश को ही कई बार हथियार डालने पड़े।
स्पष्ट है कि अखिलेश के साथ पार्टी सुप्रीमो और अन्य नेतागण अन्याय कर रहे हैं किन्तु इसके लिए अखिलेश स्वयं किसी हद तक जिम्मेदार हैं। आज यदि वे मुख्यमंत्री पद छोड़ दें तो इसमें उनका नुकसान नहीं, बल्कि फायदा ही है। सच पूछें तो यह इस्तीफा उन्हें लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए दे देना चाहिए था। उस समय नहीं दिया तो अभी कुछ हफ्ते पहले जब उन्हें गायत्रीप्रसाद प्रजापति और शिवपाल सिंह को मंत्रिमंडल में वापिस लेने के लिए बाध्य किया गया तब दे देना चाहिए था। इस युवा नेता को शायद समझ नहीं आया कि अगर वह मंत्री पद छोड़ दे तो इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि ही होगी। जो लोग पद से चिपके रहते हैं उन्हें आगे चलकर कोई भी नहीं पूछता, लेकिन जो सत्ता को ठुकराते हैं उनका सम्मान जनता की निगाह में कई गुना बढ़ जाता है। अखिलेश यहां शायद अपने आराध्य भगवान कृष्ण से प्रेरणा ले सकते थे!
खैर! अब सवाल इस बात का है कि उत्तर प्रदेश में होगा क्या? चुनाव के लिए मात्र तीन-चार माह ही बचे हैं। इस मोड़ पर समाजवादी पार्टी को यदि ययाति, तिष्यरक्षिता और कंस ही अपने आदर्श प्रतीत हो रहे हैं तो इस स्थिति में पार्टी की दुर्गति होना स्वाभाविक है। यह संभव है कि मुलायम सिंह प्रधानमंत्री न सही, राष्ट्रपति बनने के लिए भारतीय जनता पार्टी से समझौता कर लें। उनकी वे जानें। अखिलेश के रूप में उत्तर प्रदेश को एक ऊर्जावान युवा नेतृत्व प्राप्त हुआ है। इस पूंजी के भरोसे उन्हें आगे बढऩा चाहिए। अगर वे कांग्रेस और जदयू और संभव हो तो बसपा के साथ मिलकर गठजोड़ बना सकें, तो एक बेहतर तस्वीर सामने आ सकेगी। इस बीच में वरुण गांधी का चरित्र हनन करने के प्रयास हुए हैं जिसके पीछे उनकी ही पार्टी के लोगों का हाथ बतलाया जा रहा है, तो क्या वरुण अपने पुरखों की पार्टी में वापिस लौटेंगे? इस संभावना पर भी बातें हो रही हैं। उत्तर प्रदेश में यदि देशज नेतृत्व का उभार होता है और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर धर्मनिरपेक्ष ताकतें एक साथ आती हैं तो यह उत्तर प्रदेश की नहीं, देश की बेहतरी की बात होगी।
देशबंधु में 27 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित
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