Wednesday 5 October 2016

लक्ष्यवेध पर संदेह क्यों?




लक्ष्यवेध या लक्ष्यभेद याने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’।  इस अंग्रेज़ी संज्ञा का हिन्दी में समानार्थी शब्द ढूंढना आसान नहीं था। हमारे अंग्रेजीदां अफसर अधिकतर अंग्रेजी पदावली का ही प्रयोग करते हैं और हम मेहनत से बचने के लिए उसे यथावत उठा लेते हैं। ऐसी स्थिति बीस साल पहले नहीं थी। अब यह है कि नाम हिन्दी का लो और काम अंग्रेज़ी में करो। बहरहाल सर्जिकल स्ट्राइक पर यह चर्चा सिर्फ इसके सही अर्थ को समझने के लिए है। एक शल्य चिकित्सक याने सर्जन की कोशिश यह होती है कि रोगी का आपरेशन करते समय जितनी आवश्यक हो उससे अधिक चीरफाड़ बिल्कुल भी न की जाए। इसी विचार के कारण एंडोस्कोपी व लेज़र प्रक्रिया आदि का आविष्कार एवं प्रचलन हुआ। जब भारत ने 28 सितंबर को रात बीतने के पहले सर्जिकल स्ट्राइक करने का फैसला लिया तो उसमें यही सोच थी कि कुछ चुनिंदा आतंकी ठिकानों को नष्ट कर पाकिस्तान को संदेश दिया जाए कि उसकी ओर से हो रही आक्रामक कार्रवाईयां अब बर्दाश्त नहीं। मैंने अंग्रेज़ी संज्ञा का अनुवाद लक्ष्यभेदी आक्रमण अथवा  लक्ष्यवेध यही सोच कर किया कि जितना आवश्यक है उतना ही करना या, उससे आगे नहीं।

भारत ने इस साल जनवरी से अब तक लगातार पाकिस्तान की तरफ से हो रही आतंकी कार्रवाईयों को झेला है। इसकी शुरूआत नए वर्ष में पठानकोट में आक्रमण के साथ ही हो गई थी और वह अभी तक चालू है। इसी सप्ताह बारामूला और गुरुदासपुर में भी हमले हुए। इस पृष्ठभूमि में यदि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सीमित जवाबी कार्रवाई करने का फैसला किया तो उसका स्वागत होना ही चाहिए था। मीडिया में तो स्वागत हुआ ही। जैसे ही खबर फैली आम जनता ने भी खुलकर उसका स्वागत किया। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, जदयू आदि दलों ने भी इस कार्रवाई पर भारत सरकार का समर्थन करने में कोई कमी नहीं की। सोनिया गांधी ने तत्काल एक संजीदगी भरा वक्तव्य जारी किया जिसमें उन्होंने अपने सैनिकों की भी प्रशंसा की। राहुल गांधी ने कहा कि मोदीजी ने पहली बार प्रधानमंत्री लायक काम किया है तथा कांग्रेस राष्ट्रहित में सरकार के साथ है। शरद यादव ने भी तारीफ की व सैनिकों को बधाई भेजी। सीताराम येचुरी ने स्वागत करते हुए इतना जोड़ा कि इसके आगे बातचीत से रास्ता निकालना चाहिए।

यह सब तो बहुत अच्छा हुआ। इससे पता चला कि अगर देश में कोई संकट आएगा तो राजनीतिक दल अपने मतभेद भुलाकर सरकार व सेना के साथ होंगे। यह स्वाभाविक था कि भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों व चाकर पत्रकारों को सबसे ज्यादा खुशी होती। टीवी चैनल तो जैसे पागल हो गए हैं। एक सीमित कार्रवाई पर भाजपा के लोगों ने मोदीजी की प्रशंसा में जो अतिरंजना की वह आश्चर्यजनक तो नहीं किन्तु कहीं-कहीं हास्यास्पद अवश्य थी। जैसे शिवराज सिंह चौहान को यह क्यों कहना चाहिए था कि मोदीजी की छाती छप्पन इंच की नहीं, बल्कि सौ इंच की है।  इसी तरह रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर ने मोदीजी को राम, सेना को हनुमान व खुद को जामवंत बता दिया कि जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराया था। श्री पार्रिकर के बयान का यह अर्थ भी निकलता है कि उनके रक्षा मंत्री बनने के पहले तक भारतीय सेना सोई हुई थी। यह अनजाने में या अतिउत्साह में सेना को कमजोर सिद्ध करने वाली बात हो गई। डॉ. रमन सिंह ने कहा कि सबसे पहले सर्जिकल स्ट्राईक हनुमानजी ने की थी। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री स्वयं अनुभवी चिकित्सक हैं, लेकिन यह तुलना उन्होंने न जाने क्या सोचकर की। इस घटनाचक्र के बीच प्रशांत भूषण का वह बयान दब गया जिसमें उन्होंने एक उच्चाधिकारी बंसल के पूरे परिवार द्वारा आत्महत्या कर लेने के मामले में उस सुसाइड नोट का मुद्दा उठाया था जिसमें प्रभावशाली व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगाए गए थे।

बहरहाल, ध्यातव्य है कि भारतीय सेना द्वारा किए गए लक्ष्यभेदी आक्रमण पर ऐसा नहीं है कि अनुकूल प्रतिक्रियाएं ही आई हों। देश में ही राजनीति, कूटनीति और सैन्य नीति  के अनेक अध्येताओं ने इस आक्रमण के बारे में अनेक तरह के प्रश्न उठाए हैं।  एक सवाल तो यही पूछा जा रहा है कि अगर भारतीय सेना ने सचमुच ऐसा कोई आक्रमण किया था तो उसके सबूत कहां हैं? हमारे स्पेशल कमांडो फोर्स के सैनिक सीमा पार तीन किलोमीटर तक रेंगते हुए गए और काम तमाम कर दो-ढाई घंटे के भीतर उसी तरह लौट आए, यह बात हर किसी के गले नहीं उतर रही है। इस पर भी आश्चर्य है कि भारत का एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ। जबकि पाकिस्तान ने हमारे एक सैनिक को पकड़ा, उसकी पहचान जारी की, जिस पर हमारा जवाब था कि सैनिक धोखे से सीमा-पार चला गया था। ऐसी सफाई पर विश्वास करना कठिन है।

पाकिस्तान ने तो भारत की ओर से ऐसी कोई कार्रवाई होने से स्पष्ट इंकार किया है। उसका कहना है कि भारत सरकार अपनी जनता को मूर्ख बना रही है। पाकिस्तान से तो खैर, इस तरह के ही वक्तव्यों की उम्मीद थी, लेकिन क्या वजह है कि देश के भीतर अनेक विशेषज्ञ और जानकार लोग लक्ष्यवेध पर संदेह प्रकट कर रहे हैं। ये लोग न तो भाजपा के विरोधी हैं, और न मोदीजी के, किन्तु मिलिट्री ऑपरेशनों के बारे में उतना ज्ञान रखते हैं जो हम जैसे सामान्य लोगों को नहीं होता। इसलिए इन्हें हम देशद्रोही वगैरह कहकर खारिज नहीं कर सकते बल्कि इनके विचारों को शांतिपूर्वक समझने की आवश्यकता है। अगर सरकार की ओर से कोई विस्तृत स्पष्टीकरण आता तब भी ठीक होता, लेकिन सरकार का तो कहना यह है कि वह समय आने पर सबूत प्रस्तुत करेगी याने सरकार की ओर से जो कहा गया है उस पर विश्वास किया जाए।

एक टीकाकार ने लिखा है कि  मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से एक मनोवैज्ञानिक खेल खेला है। ऐसा कोई ऑपरेशन वास्तव में  हुआ या नहीं इसे कुछ देर के लिए भूल जाएं। यदि भारत की जनता इस बात से प्रसन्न और आश्वस्त होती है कि मोदी सरकार पाकिस्तान से बदला लेने में सक्षम है व हाथ पर हाथ धरे रहने की बजाय कार्रवाई कर रही है तो यही सही। कुछ अन्य टीकाकारों ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि बीते वर्षों में अनेक बार ऐसे सीमित आक्रमण भारत करते रहा है, लेकिन पूर्व में इसका ढिंढोरा कभी नहीं पीटा गया। इस संबंध में पूर्व प्रसंगों के विवरण भी दिए गए हैं। कहने का आशय यह कि मोदी जी इससे राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

हम मानते हैं कि अगर सचमुच यह लक्ष्यभेदी आक्रमण किया गया था और वर्तमान सरकार इससे लाभ उठा रही है तो यह एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया है। किन्तु इसमें अगर सिर्फ प्रचार पाने की चाहत है तो आगे चलकर इसका विपरीत असर पड़ सकता है। हम उम्मीद करते हैं कि ऐसा नहीं है। इस घटनाचक्र का एक अन्य पहलू भी नज़र आता है जो शायद दूर की कौड़ी हो! पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ तीन-चार हफ्ते बाद रिटायर हो रहे हैं। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं जिसका पर्याप्त परिचय मिल चुका है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ऊपर से चाहे जितना खंडन करें, क्या भीतर-भीतर वे जनरल शरीफ को इस सर्जिकल स्ट्राइक के लिए दोषी ठहराकर उन्हें आगे बढऩे से रोक सकते हैं? अगर ऐसा हुआ तो क्या इसके बाद नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ दोनों मिलकर बेहतर संबंधों की एक इबारत लिखेंगे?
 
देशबंधु में 06 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित 

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