Wednesday, 12 October 2016

लक्ष्यवेध पर वितंडा जारी है




भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर 28 सितंबर को लक्ष्यवेध याने सर्जिकल स्ट्राइक की कार्रवाई को अंजाम दिया था। इस घटना को दो सप्ताह से अधिक का समय बीत गया है, किन्तु इस पर बहसों का दौर लगातार चला हुआ है। पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ से जो बातें की जा रही हैं उन्हें देख-सुन कर कुछ धारणाएं बनती हैं। यह साफ तौर पर समझ आता है कि भारतीय जनता का सामरिक मामलों में ज्ञान लगभग नहीं के बराबर है। अधिकतर लोग यह भी नहीं जानते कि किसी देश को युद्ध की कीमत तत्काल और कालांतर में किस तरह चुकाना पड़ती है। इसके अलावा हम तर्कसंगत तरीके से यह समझने में असमर्थ हैं कि पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। यहां हम भूगोल की सच्चाई को भुला देते हैं, इतिहास के सबक याद नहीं रखते हैं तथा भावनाओं के वशीभूत हो जाते हैं।

भारत यद्यपि अपने आपको एक शांतिप्रिय और सहिष्णु देश कहने में गौरव अनुभव करता है, लेकिन ऐसा लगता है कि अपने इन गुणों को हम धीरे-धीरे तिलांजलि दे रहे हैं। यदि हम भारत को एक सैन्य दृष्टि से मुस्तैद और सैन्य शक्तिसम्पन्न देश के रूप में देखना चाहते हैं जिससे कि सारा विश्व भय करे तो यह एक विचार अवश्य हो सकता है, लेकिन क्या भारतीय समाज इसके लिए मानसिक रूप से तैयार है? आज अमेरिका और चीन दो प्रमुख राष्ट्र हैं जिनकी आक्रामक सैन्य शक्ति से विश्व परिचित है। अतीत में जर्मनी और जापान को भी हमने देखा है। हिटलर की नाज़ी फौजों का मुकाबला जिस हिम्मत के साथ सोवियत संघ ने किया था वह भी बहुत पुरानी बात नहीं है। इन सहित कई देशों में युवाओं को अनिवार्य रूप से सेना में एक-दो साल के लिए सेवाएं देना होती हैं, लेकिन भारत में ऐसे कितने परिवार हैं जो स्वेच्छा से अपने बच्चों को मिलिटरी में भेजने को तैयार हों?

1947 से अब तक का इतिहास देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि लड़ाई का खामियाजा मुख्य तौर पर सीमावर्ती प्रदेश के परिवारों को ही भुगतना पड़ता है याने राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर। जो नौजवान सेना में भर्ती होते हैं उनमें से अधिकांश पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान से आते हैं। मोर्चे पर वीरगति प्राप्त होने वालों में बहुतायत इनकी ही होती है। यह इनकी हिम्मत और बहादुरी है जिनके दम पर शेष भारत चैन से रह पाता है। लेकिन युद्ध का समय छोडक़र बाकी समय इनके प्रति हमारा क्या रवैया होता है? क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं कि हम फिल्मी नायकों और विश्व सुंदरियों के पीछे पागलों की तरह भागते हैं, लेकिन अपने सैनिकों का पर्याप्त सम्मान कभी नहीं करते? यह एक विचित्र स्थिति है कि इस सच्चाई के बरक्स देश में युद्ध को लेकर एक उन्माद का माहौल बनाया जा रहा है। इसमें सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के नुमाइंदे, कुछ रिटायर्ड फौजी अफसर और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं। इसके लिए स्वयं पाकिस्तान  ही मुख्यत: दोषी है। यह तथ्य छुपा नहीं है कि पाकिस्तान की ओर से जो आतंकी कार्रवाईयां या सैनिक घुसपैठ होती हैं वे निर्वाचित सरकार के कारण नहीं, बल्कि सैन्य प्रतिष्ठान के द्वारा संचालित की जाती हैं। इसकी जवाबी कार्रवाई भारत को करना पड़ती है और यह हम 1947 से अब तक लगातार करते आ रहे हैं। यह बात दीगर है कि 2014 के पहले इसका ढिंढोरा कभी नहीं पीटा गया। हमारी सेना ने अपना काम किया, बात वहीं समाप्त। चूंकि इस बार सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक का प्रचार किया इस वजह से यह वितंडा खड़ा हुआ। अगर सरकार संयम से काम लेती तो अनावश्यक बहसबाजी से बचा जा सकता था।

स्मरणीय है कि सभी विपक्षी दलों ने प्रारंभ में सैन्य कार्रवाई का अनुमोदन किया था। कांग्रेस के एक-दो प्रवक्ताओं ने पार्टी लाइन से हटकर बात की तो सोनिया गांधी ने दुबारा वक्तव्य जारी कर सरकार का समर्थन किया। इसके बाद भाजपा को क्या आवश्यकता थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भगवान राम के रूप में चित्रित करते हुए उत्तर प्रदेश में बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाए जाते? इसमें यह भी खेदजनक था कि अरविंद केजरीवाल को विभीषण बतलाया गया। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश और अन्य प्रदेशों में आसन्न विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा इस सैन्य कार्रवाई का महिमामंडन कर राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहती है। राहुल गांधी ने इसीलिए अगर पलटवार किया तो वह भी एक राजनीतिक कदम था। इससे राहुल देशद्रोही नहीं हो जाते। सबसे घृणास्पद टिप्पणी भाजपा के एक सांसद ने की जिसमें उन्होंने राहुल गांधी की वल्दियत पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। क्या राजनीति अब इतने  निचले स्तर पर ही होगी?

उधर संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन ने मसूद अजहर के मामले में वीटो इस्तेमाल किया तो हमारे यहां देशभक्ति के प्रमाण बतौर चीनी सामानों का बहिष्कार करने की अपीलें आने लगीं। इसके अलावा पाकिस्तानी कलाकारों को देश छोडऩे का फरमान शिवसेना ने दे दिया। उग्र भावनाओं में बहते हुए ऐसा कहने वालों ने जमीनी सच्चाई पर ध्यान नहीं दिया। अगर चीन के सामान का बहिष्कार करना है, तो फिर अमेरिका का क्यों नहीं जो विगत साठ वर्षों से पाकिस्तान को हर किस्म की इमदाद देते आया है। अमेरिका में बसे सारे भारतीय लौटकर अपने देश क्यों नहीं आ जाते?वे क्यों ग्रीनकार्ड की लालसा में लगे रहते हैं? और क्या चीन से सिर्फ दिए, पटाखे, झालर, बस यही सामान आता है? अपने इस पड़ोसी के साथ हमारा व्यापार कितना लंबा-चौड़ा है, इस पर बहिष्कार की अपील करने वालों ने गौर फरमाने की जहमत नहीं उठाई।

इन भले लोगों को कोई बताए कि मोदीजी सरदार पटेल की जो विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा रहे हैं, उसका लोहा चीन से आ रहा है, उसकी पूरी डिजाइन भी चीन के तकनीकीविदों ने तैयार की है। निजी क्षेत्र में लग रहे बिजली कारखानों में बड़ी संख्या में चीनी इंजीनियर काम कर रहे हैं व तकनीक भी उन्हीं की है। इन सबका क्या करेंगे? और यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब हमारे प्रधानमंत्री अहमदाबाद में चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूल रहे थे। इसी तरह आप पाकिस्तानी कलाकारों को धमका कर वापिस तो भेज सकते हैं, लेकिन क्या इससे पाकिस्तानी जनता के मन में भारत के प्रति जो सदाशय है और जो लोग वहां जनतंत्र बहाली में जुटे हुए हैं उनका पक्ष कमजोर नहीं पड़ता? फिर यदि कलाकारों का आदान-प्रदान रोकना है तो पाकिस्तान के साथ हमारा जो व्यापार विनिमय चलता है उसे भी रोक देना चाहिए। उसकी बात तो कोई नहीं करता।

एक चिंताजनक बात केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने की है। उन्होंने भारत-पाक सीमा को पुख्ता तौर पर सील करने और उसमें इजराइल का सहयोग लेने की घोषणा की है। हम जानते हैं कि फिलीस्तीन की धरती पर अवैध कब्जा कर इजराइल ने वहां कांक्रीट की दीवाल खींच दी है ताकि यहूदी और मुसलमान, इजराइली और फिलीस्तीनी  दोनों एक- दूसरे से पृथक रहें। अगर भारत भी इसी रास्ते पर चलता है तो इसमें हमें आश्चर्य नहीं होगा। हमारे देश में ऐसे उदाहरण हैं जहां सवर्णों और दलितों की बस्तियों के बीच ईंट-पत्थर की दीवारें खड़ी हैं। निजी क्षेत्र में इन दिनों जो कालोनियां और अपार्टमेंट बन रहे हैं उनमें जाति और धर्म को जोड़ दिया गया है। कुछ समय पहले एक विज्ञापन था कि सिर्फ ब्राह्मणों के लिए एक नई कालोनी बन रही है। ऐसा शायद ही कोई गांव हो जहां दलितों की बस्ती सवर्ण रिहाइश से दूर न हो। अनेक समाजों ने जातिगत आधारों पर कालोनियां बनाई हैं। मुंबई महानगर में एक अपार्टमेंट बिल्डिंग में किसी मुसलमान ने मकान खरीद लिया तो उस पर आपत्ति उठ गई। यह घेट्टो या दड़बाई मानसिकता है, जो असुरक्षा व अपवित्रता के भय से उपजती है। पहले भी व्यवसाय या जाति के आधार पर मुहल्ले बसते थे लेकिन वह समय और था। आज के वैज्ञानिक युग में जहां संकुचित मानसिकता से निकलना चाहिए वहां मध्ययुग में लौटने की बात हो रही है। राजनाथ जी बताएं कि पाक सीमा पर तो कांक्रीट की दीवाल खड़ी हो जाएगी, लेकिन क्या देश के भीतर भी हर गांव और शहर में इजराइल की सलाह से ऐसी ही दीवालें खड़ी की जाएंगी?  

देशबंधु में 13 अक्टूबर 2016 को प्रकाशित 
 

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