उस समय जो नाटकीय घटनाक्रम हुआ उसमें दो यादव बंधु अलग-अलग भूमिकाओं में नज़र आए थे। मुलायम सिंह के सगे छोटे भाई शिवपाल यादव नेताजी के विश्वस्त हैं तथा वे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर नियंत्रण रखना चाहते हैं, यह समझ आ रहा था। नाम मुलायम सिंह का काम शिवपाल का, जिसमें अखिलेश यादव की भूमिका कठपुतली से कुछ बेहतर ही रहना थी। इसमें शक नहीं कि अखिलेश यादव ने साढ़े चार साल तक काफी कुछ काम अपने पिता की इच्छा को ध्यान में रखकर ही किए। इसमें कहीं-कहीं उनकी अपनी प्रतिष्ठा को चोट पहुंची तो उसे भी बर्दाश्त कर गए। इस शालीनता को शिवपाल ने अखिलेश की दुर्बलता मानने की गलती की। जहां अखिलेश साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेता के रूप में राजनीति करना चाहते थे, वहीं उन्हें गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद जैसे व्यक्तियों को साथ लेकर चलने कहा गया, जिनकी सार्वजनिक जीवन में कोई अच्छी छवि नहीं है। आखिरकार अखिलेश इस दबाव को कब तक बर्दाश्त करते?
हमने इस स्तंभ में 27 अक्टूबर को ही अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद छोडऩे की सलाह दी थी। लेकिन अखिलेश शायद बेहतर जानते थे। वे सही समय की धीरज के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। यहां उनकी रणनीति में साथ देने के लिए मुलायम सिंह के चचेरे भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव आगे आए। प्रोफेसर यादव राज्यसभा में पार्टी के नेता हैं और उन्हें एक शिष्ट, शालीन व तर्कबुद्धि का इस्तेमाल करने वाले राजनेता के रूप में जाना जाता है। इस तरह परिवार आधारित समाजवादी पार्टी में दो खेमे साफ-साफ दिखाई देते हैं। एक तरफ नेताजी, शिवपाल, अमर सिंह, नेताजी की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता, उनकी अन्य विश्वासपात्र अनिता सिंह इत्यादि। दूसरी ओर अखिलेश, रामगोपाल और अनेक युवा कार्यकर्ता। जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ रही हैं और वह मोड़ आ चुका है जहां इस पार या उस पार का फैसला लिया जाना है।
फैसला लेने की शुरूआत मुलायम सिंह के खेमे से ही हुई। पहले तो अतीक अहमद की पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय करवा लिया गया। तिस पर भी अखिलेश ने धीरज रखा और अपनी ओर से कोई जवाबी कार्रवाई तुरंत नहीं की। किंतु इसके बाद जब मुलायम सिंह की ओर से पार्टी उम्मीदवारों की पहली लंबी फेहरिस्त जारी की गई तब अखिलेश के लिए जवाबी कदम उठाना अनिवार्य हो गया। मुलायम सिंह ने इसके पहले अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर शिवपाल को यह दायित्व सौंप दिया था, जिसका व्यवहारिक अर्थ यह था कि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह का वितरण शिवपाल करेंगे, अखिलेश नहीं। उम्मीदवारों के चयन में अखिलेश से कोई सलाह नहीं की गई, उल्टे उनके कुछ निकट सहयोगियों के ही टिकट काट दिए गए। इसमें यही संदेश निहित था कि अखिलेश को कठपुतली ही बनकर रहना होगा।
मुलायम-शिवपाल के इस निर्णय के विरोध में मुख्यमंत्री ने पहला सांकेतिक कदम उठाया, शिवपाल के दो करीबी लोगों को उनके पदों से हटाकर। फिर अखिलेश ने अपनी ओर से प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ है, वह पाठक जानते ही हैं उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि मुलायम सिंह यादव वर्तमान राजनीति में अप्रासंगिक हो गए हैं। 1980 के उत्तरार्द्ध में उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालने वाले युवा समाजवादी मुलायम सिंह की एक अलग ही छवि थी जिसे स्वयं उन्होंने विद्रूप कर दिया है। इसके लिए और कोई नहीं, स्वयं उनकी महत्वाकांक्षा दोषी है। मुलायम सिंह एक जुझारू नेता थे। वे साम्प्रदायिक शक्तियों से डटकर मुकाबला करने के लिए जाने जाते थे। लेकिन वे इस प्रतिष्ठा को बचाकर नहीं रख पाए। इसमें सत्ता का मोह था ही, परिवारवाद से भी वे स्वयं को मुक्त नहीं रख पाए तथा परिवार के कुछ सदस्यों के निजी स्वार्थसाधन के लिए उन्होंने स्वयं को मोहरा बन जाने दिया।
मुलायम सिंह ने जिन भी कारणों से युवा अखिलेश को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी हो, वह एक निर्णय ही उनकी प्रतिष्ठा बचाने में काम आ सकता है, ऐसा हमारा अनुमान है। बशर्ते मुलायम सिंह अब कोई और ड्रामा न करें तथा साफ मन से अखिलेश के हाथों में समाजवादी पार्टी की कमान सौंप दें। अखिलेश यादव के लिए परीक्षा का समय दरअसल अब प्रारंभ होता है। वे पांच वर्ष तक दुधारी तलवार पर चलते रहे हैं। एक तरफ पिता का सम्मान और उनकी इच्छाओं का पालन, दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में सुशासन की स्थापना। उन्हें पता है कि स्वयं उनका राजनीतिक भविष्य इस दूसरी बात पर निर्भर करता है। याने कि क्या वे उत्तर प्रदेश को सामंती मानसिकता से निकालकर विकास के आधुनिक मार्ग पर सफलतापूर्वक ले जा सकते हैं! प्रदेश में पिछले पांच वर्षों में विकास के बहुत से काम तो हुए हैं लेकिन अपराध व भ्रष्टाचार से निजात नहीं मिल पाई है।
उत्तर प्रदेश में आम जनता के बीच में अखिलेश लोकप्रिय हैं। उनकी छवि भी स्वच्छ है। लोगों का मानना है कि अगर वे पिता और चाचा की छाया से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से काम कर सकें तो एक बेहतर प्रदेश बनाने के सपने में रंग भरे जा सकते हैं। अभी जो कुछ चल रहा है उसमें भी अखिलेश ने नेता जी के प्रति अशिष्टता न बरत निरंतर जो सम्मान का भाव व्यक्त किया है उससे जनमानस में अच्छा संदेश गया है। इसके बावजूद अखिलेश यादव सिर्फ अपने बलबूते शायद आसन्न चुनाव में पूर्ण बहुमत न ला सकें। पिछले चुनाव में उनकी सीधी लड़ाई बहुजन समाज पार्टी के साथ थी। कांग्रेस और भाजपा दोनों हाशिए पर रहकर चुनाव लड़ रहे थे। इस बार स्थिति अलग है। बसपा तो अपनी जगह पर है ही, भारतीय जनता पार्टी भी लोकसभा में मिली अभूतपूर्व सफलता व साधनसंपन्नता के कारण विश्वास और उत्साह से भरी हुई है। कांग्रेस ने भी अपना दमखम दिखाने के आधे-अधूरे प्रयत्न किए ही हैं और यह खतरा भी विद्यमान है कि अमर सिंह और शिवपाल यादव मिलकर पार्टी का विघटन करने के साथ-साथ भाजपा से हाथ मिला सकते हैं।
इस स्थिति में अखिलेश यादव के सामने एक कारगर विकल्प है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में उभर रही युवतर कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन हो जाए। इसमें अजीत सिंह के सुपुत्र जयंत चौधरी भी अपनी पार्टी को साथ ला सकते हैं, राजद, जदयू तथा दोनों साम्यवादी दल भी हाशिए पर आकर मिल सकते हैं। कुछ सप्ताह पूर्व अखिलेश यादव ने कहा था कि अगर कांग्रेस साथ हो तो वे तीन सौ सीटें जीत सकते हैं। हमें इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती। अगर उपरोक्त सभी दल मिलकर समझदारी दिखाएं तो बिहार जैसी जीत कल्पना से परे नहीं है। जो भी हो, नववर्ष में हम युवा अखिलेश यादव को उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं देते हैं।
देशबंधु में 05 जनवरी 2017 को प्रकाशित
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