मीडिया जगत से हाल के दिनों में कुछ बड़ी खबरें आईं। ये चिंता में डालने वाली हैं। बिड़ला समूह द्वारा संचालित हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपने छह संस्करण बंद कर दिए। इससे अनेक पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारी एकाएक बेरोजगार हो गए। कोलकाता के आनंद बाजार पत्रिका समूह ने अपने दो अखबारों आनंद बाजार पत्रिका और द टेलीग्राफ से करीब आठ सौ पत्रकारों की छंटनी कर दी। इनके सामने भी सवाल है कि अब कहां जाएं? देश के लगभग हर मीडिया हाउस में एक लंबे अरसे तक चले विस्तार के बाद सिमटने का दौर प्रारंभ हो गया है। इस बीच एक अन्य स्तर पर चिंता उपजाने वाली खबर आई कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के कारण जागरण पत्र समूह के एक संपादक को गिरफ्तार कर लिया गया। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी तरफ यह खबर है कि टाइम्स नाउ के पूर्व संपादक अर्णब गोस्वामी रिपब्लिक टीवी के नाम से एक नया चैनल प्रारंभ करने जा रहे हैं जिसमें राजीव चंद्रशेखर व मोहनदास पाई जैसे पूंजीपति बड़ा निवेश कर रहे हैं। एक अन्य चर्चित टीवी पत्रकार बरखा दत्त ने भी एनडी टीवी से त्यागपत्र दे दिया है। अभी उन्होंने अपनी भावी कार्ययोजना प्रकट नहीं की है।
लगभग दो दशक पूर्व पत्रकार चंदन मित्रा ने पायोनियर अखबार खरीद लिया था। उस समय चर्चा थी कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी अथवा उसके नेताओं से आर्थिक सहयोग मिला था। आगे चलकर श्री मित्रा भाजपा की ओर से दो बार राज्यसभा में मनोनीत हुए। इनका अखबार भी कई स्थानों से प्रकाशित होने लगा। इस मामले में अन्य पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस हो या भाजपा- दोनों अपने विश्वासपात्र पत्रकारों का यथोचित सम्मान करती हैं। अनेक पत्रकारों की अदम्य इच्छा राज्यसभा सदस्य बनने में होती है जो पार्टी निष्ठा के चलते पूरी हो जाती है। जो राज्यसभा में नहीं जाते वे पद्मभूषण अथवा पद्मश्री पाकर अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। विगत दस-बारह साल के भीतर मेरे अनेक पत्रकार बंधु ऐसे उपहार पा चुके हैं। इनकी सूची में एक नाम तरुण विजय का है जिन्हें मैं अलग करके देखता हूं इसलिए कि वे संघ के मुखपत्र के संपादक थे तथा उनकी राजनीतिक निष्ठा पहले से स्पष्ट थी। अन्य मित्रों की तरह उन्होंने कभी निष्पक्ष होने का दावा नहीं किया था।
सत्ता से लाभ लेने वाले पत्रकारों की एक तीसरी श्रेणी भी है। ये बहुत ऊंची छलांग नहीं लगाते। राजनीति के बजाय ये वाणिज्य की समझ ज्यादा रखते हैं। मुख्यमंत्री इत्यादि से कहकर किसी को ठेका दिलवा देना, किसी को लाइसेंस दिलवाना, किसी का तबादला या पोस्टिंग करवाना और अपने राजनैतिक संरक्षकों के इंगित पर पार्टी के भीतर विरोधियों पर अथवा अन्य विरोधी पार्टियों के नेताओं के बारे में सच्ची-झूठी खबरें छापना, उनके डोज़ियर तैयार करना जैसी गतिविधियों में इन्हें जो भौतिक सुख मिलता है ये उसी में फूले रहते हैं। विगत तीस वर्षों में हमने देखा है कि पत्रकारिता के पैमाने उसी रफ्तार से बदले हैं, जिस रफ्तार से राजनीति के। एक समय राजनेता अपनी आलोचना सुनने-सहने के लिए तैयार रहते थे, अब उन्हें अपने खिलाफ लिखे गए एक वाक्य में भी षडय़ंत्र की गंध आने लगती है। इसके चलते राजनेताओं और पत्रकारों के बीच एक नए किस्म का गठजोड़ विकसित हो गया है जिसकी कल्पना भी तीस साल पहले तक नहीं की जा सकती थी। अब हर प्रदेश के, हर मुख्यमंत्री के अपने अखबार और अपने पत्रकार हैं। जो सत्ता में नहीं हैं, उन्होंने भी अपने साथी चुन रखे हैं।
देश में धीरे-धीरे कर राजनैतिक चेतना का विकास हो रहा है। यह अन्य बात है कि चेतना नीति के स्तर पर कम और राज करने की इच्छा के स्तर पर अधिक प्रबल है। जो भी है, इसके चलते व साथ-साथ नई टेक्नालॉजी तथा नवपूंजीवादी आर्थिक नीतियों के कारण मीडिया का विस्तार भी तेजी के साथ हुआ है। एक वह दौर था जब देश के चार महानगरों का अपना-अपना एक अखबार था- दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स, मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया, चेन्नई में द हिन्दू और कोलकाता में द स्टेट्समेन जिसका स्थान बाद में द टेलीग्राफ ने ले लिया। इन केन्द्रों के अपने-अपने प्रमुख भाषाई अखबार भी थे जिनकी अपील अपने भाषा-भाषी क्षेत्र तक सीमित थी। 1990 के आसपास भारत में मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश होना प्रारंभ हुआ, वेंचर केपिटल जैसे उपकरणों से कम ब्याज दर पर मीडिया घरानों ने बाजार से रकम उठाई और ताबड़तोड़ विस्तार करना प्रारंभ किया। इसमें अखबारों के नए संस्करण के साथ-साथ टीवी चैनल स्थापित करने की भी शुरुआत हुई।
यह विचित्र किन्तु सत्य है कि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी मीडिया को इतने विस्तार की अनुमति नहीं दी जाती कि उसका एकाधिकार स्थापित हो जाए, लेकिन हमारे यहां इस बारे में कोई पाबंदी नहीं लगाई गई, जिसको जहां जगह मिले फैल जाओ। इसका एक असर तो यह हुआ कि अखबारों की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी हुई, पुराने स्थापित अखबार, नेताओं के मनचीते अखबार, रीयल एस्टेट, भूमाफिया, चिटफंड कंपनियों और तस्करों के अखबार- इस प्रतिस्पर्धा ने अखबारों का पारंपरिक रूप बदल दिया। जो छोटे अखबार थे वे धीरे-धीरे कर खत्म होने लगे। इसके बाद टीवी का जोर चला। उसने प्रिंट मीडिया याने अखबारों को ही चपेट में ले लिया। पहले विज्ञापनदाता को निर्णय लेने में अधिक समय नहीं लगता था क्योंकि उसके सामने विकल्प सीमित थे। टीवी आने के बाद विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा चैनलों के पास चला गया। अखबार जो पहले ही आपसी प्रतिस्पर्धा में जूझ रहे थे उनके सामने वित्तीय साधन जुटाने की नई चुनौती आ गई।
इस बीच सरकारों के रुख में भी परिवर्तन आया। पहले सरकार मानती थी कि अखबार जनतंत्र के लिए आवश्यक है। छोटे और मध्यम समाचारपत्रों का विशेष ख्याल रखने की नीति थी वह समाप्त कर दी गई। अब केन्द्र हो या राज्य, एकाधिकार वाले अखबारों को प्राथमिकता दी जाती है या फिर उनको जिनके साथ मंत्रियों और अफसरों के व्यवसायिक हित जुड़े हुए हैं। कोल ब्लॉक, पावर प्लांट, रीयल एस्टेट ऐसे तमाम व्यापारों में मीडिया घराने जुड़े हुए हैं और अपना व्यापार चलाने के लिए उन्हें सत्ता के साथ मधुर संबंध रखने ही होते हैं। ऐसे उदाहरण देखने में आए हैं जब अखबार के संपादक को उसी कंपनी के स्टील प्लांट का संपर्क अधिकारी बना दिया गया हो या संपर्क अधिकारी को संपादक बना दिया गया हो। अखबार या टीवी चैनल का मालिक जिसका लिखने-पढऩे से भला कोई नाता न हो वह प्रधान संपादक बन जाता है और उस बहाने सत्ता के गलियारों में सीधी पैठ बना लेता है।
यह सब तो हो ही रहा है। इसके अलावा हर दस साल में भारत सरकार द्वारा पत्रकारों व गैरपत्रकारों के लिए गठित वेज बोर्ड की आवश्यकता और उसकी भूमिका भी पुनर्विचार की मांग करती है। पंडित नेहरू के समय में एक ओर तो पहले और दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया गया था जिससे समाचारपत्रों की संपूर्ण स्थिति का अध्ययन कर स्वस्थ और निर्भीक पत्रकारिता के लिए उचित वातावरण निर्मित किया जा सके। इसी के अनुपालन में पहले-पहले वेज बोर्ड भी गठन किया गया ताकि पत्रकारों को समुचित वेतन और सुविधाएं मिले ताकि वे अपना पेशेवर दायित्व निश्चिंत व निद्र्वन्द्व होकर निभा सकें। अपने समय के लिए यह एक सही पहल थी। उस समय अनेक अखबार स्वयं पत्रकारों के ही मालिकाना हक में थे और जो पूंजीपतियों के अखबार थे उनमें भी पत्रकारों को बड़ी हद तक स्वतंत्रता थी। सरकार का रुख अखबारों को विज्ञापन आदि देने के मामले में किसी हद तक न्यायपूर्ण था तथा समाज व पत्रकारिता के बीच विश्वास का रिश्ता था।
आज स्थिति बदल गई है। मीडिया में एकाधिकार की प्रवृत्ति है। सरकारों का रुख मैत्रीपूर्ण न होकर पक्षपातपूर्ण है। कुछेक बड़े अखबार और टीवी चैनल हैं जिनमें संपादकों और वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों को अकल्पनीय सुविधाएं प्राप्त हैं। कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया के पास साधनों की कोई कमी नहीं है यद्यपि उनके स्तर पर हो रही प्रतिस्पर्धा की आंच अब उनको ही झुलसा रही है। इस वातावरण में एक सवाल तो यह है कि स्वस्थ पत्रकारिता कैसे हो और दूसरा सवाल यह है कि पत्रकारिता कैसे जीवित बचे? एक तरफ वो पत्रकार हैं जिन्हें पूंजीपति और राजनेता अपनी गोद में उठाए घूम रहे हैं उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस घराने के लिए काम कर रहे हैं। इनके लिए वेज बोर्ड जैसी संस्था कोई मायने नहीं रखती। लेकिन जब बड़े अखबार अपने संस्करण बंद कर दें, पत्रकारों की छंटनी कर दें, अपनी चमड़ी बचाने के लिए संपादक को जेल भिजवा दें, ऐसे में सामान्य पत्रकार क्या करें?
मेरा आखरी सवाल राज्यसभा में बैठे और पद्म अलंकरणों से सम्मानित पत्रकारों से है कि जब यह सब कुछ हो रहा है तब आप क्या कर रहे हैं?
देशबंधु में 23 फरवरी 2017 को प्रकाशित