Wednesday, 22 February 2017

मीडिया की चिंताजनक स्थिति



मीडिया जगत से हाल के दिनों में कुछ बड़ी खबरें आईं। ये चिंता में डालने वाली हैं। बिड़ला समूह द्वारा संचालित हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपने छह संस्करण बंद कर दिए। इससे अनेक पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारी एकाएक बेरोजगार हो गए। कोलकाता के आनंद बाजार पत्रिका समूह ने अपने दो अखबारों आनंद बाजार पत्रिका और द टेलीग्राफ से करीब आठ सौ पत्रकारों की छंटनी कर दी। इनके सामने भी सवाल है कि अब कहां जाएं? देश के लगभग हर मीडिया हाउस में एक लंबे अरसे तक चले विस्तार के बाद सिमटने का दौर प्रारंभ हो गया है। इस बीच एक अन्य स्तर पर  चिंता उपजाने वाली खबर आई कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के कारण जागरण पत्र समूह के एक संपादक को गिरफ्तार कर लिया गया। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी तरफ यह खबर है कि टाइम्स नाउ के पूर्व संपादक अर्णब गोस्वामी रिपब्लिक टीवी के नाम से एक नया चैनल प्रारंभ करने जा रहे हैं जिसमें राजीव चंद्रशेखर व मोहनदास पाई जैसे पूंजीपति बड़ा निवेश कर रहे हैं। एक अन्य चर्चित टीवी पत्रकार बरखा दत्त ने भी एनडी टीवी से त्यागपत्र दे दिया है। अभी उन्होंने अपनी भावी कार्ययोजना प्रकट नहीं की है।

लगभग दो दशक पूर्व पत्रकार चंदन मित्रा ने पायोनियर अखबार खरीद लिया था। उस समय चर्चा थी कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी अथवा उसके नेताओं से आर्थिक सहयोग मिला था। आगे चलकर श्री मित्रा भाजपा की ओर से दो बार राज्यसभा में मनोनीत हुए। इनका अखबार भी कई स्थानों से प्रकाशित होने लगा। इस मामले में अन्य पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस हो या भाजपा- दोनों अपने विश्वासपात्र पत्रकारों का यथोचित सम्मान करती हैं। अनेक पत्रकारों की अदम्य इच्छा राज्यसभा सदस्य बनने में होती है जो पार्टी निष्ठा के चलते पूरी हो जाती है। जो राज्यसभा में नहीं जाते वे पद्मभूषण अथवा पद्मश्री पाकर अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। विगत दस-बारह साल के भीतर मेरे अनेक पत्रकार बंधु ऐसे उपहार पा चुके हैं। इनकी सूची में एक नाम तरुण विजय का है जिन्हें मैं अलग करके देखता हूं इसलिए कि वे संघ के मुखपत्र के संपादक थे तथा उनकी राजनीतिक निष्ठा पहले से स्पष्ट थी। अन्य मित्रों की तरह उन्होंने कभी निष्पक्ष होने का दावा नहीं किया था।

सत्ता से लाभ लेने वाले पत्रकारों की एक तीसरी श्रेणी भी है। ये बहुत ऊंची छलांग नहीं लगाते। राजनीति के बजाय ये वाणिज्य की समझ ज्यादा रखते हैं। मुख्यमंत्री इत्यादि से कहकर किसी को ठेका दिलवा देना, किसी को लाइसेंस दिलवाना, किसी का तबादला या पोस्टिंग करवाना और अपने राजनैतिक संरक्षकों के इंगित पर पार्टी के भीतर विरोधियों पर अथवा अन्य विरोधी पार्टियों के नेताओं के बारे में सच्ची-झूठी खबरें छापना, उनके डोज़ियर तैयार करना जैसी गतिविधियों में इन्हें जो भौतिक सुख मिलता है ये उसी में फूले रहते हैं। विगत तीस वर्षों में हमने देखा है कि पत्रकारिता के पैमाने उसी रफ्तार से बदले हैं, जिस रफ्तार से राजनीति के। एक समय राजनेता अपनी आलोचना सुनने-सहने के लिए तैयार रहते थे, अब उन्हें अपने खिलाफ लिखे गए एक वाक्य में भी षडय़ंत्र की गंध आने लगती है। इसके चलते राजनेताओं और पत्रकारों के बीच एक नए किस्म का गठजोड़ विकसित हो गया है जिसकी कल्पना भी तीस साल पहले तक नहीं की जा सकती थी। अब हर प्रदेश के, हर मुख्यमंत्री के अपने अखबार और अपने पत्रकार हैं। जो सत्ता में नहीं हैं, उन्होंने भी अपने साथी चुन रखे हैं।

देश में धीरे-धीरे कर राजनैतिक चेतना का विकास हो रहा है। यह अन्य बात है कि चेतना नीति के स्तर पर कम और राज करने की इच्छा के स्तर पर अधिक प्रबल है। जो भी है, इसके चलते व साथ-साथ नई टेक्नालॉजी तथा नवपूंजीवादी आर्थिक नीतियों के कारण मीडिया का विस्तार भी तेजी के साथ हुआ है। एक वह दौर था जब देश के चार महानगरों का अपना-अपना एक अखबार था- दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स, मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया, चेन्नई में द हिन्दू और कोलकाता में द स्टेट्समेन जिसका स्थान बाद में द टेलीग्राफ ने ले लिया। इन केन्द्रों के अपने-अपने प्रमुख भाषाई अखबार भी थे जिनकी अपील अपने भाषा-भाषी क्षेत्र तक सीमित थी। 1990 के आसपास भारत में मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश होना प्रारंभ हुआ, वेंचर केपिटल जैसे उपकरणों से कम ब्याज दर पर मीडिया घरानों ने बाजार से रकम उठाई और ताबड़तोड़ विस्तार करना प्रारंभ किया। इसमें अखबारों के नए संस्करण के साथ-साथ टीवी चैनल स्थापित करने की भी शुरुआत हुई।

यह विचित्र किन्तु सत्य है कि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी मीडिया को इतने विस्तार की अनुमति नहीं दी जाती कि उसका एकाधिकार स्थापित हो जाए, लेकिन हमारे यहां इस बारे में कोई पाबंदी नहीं लगाई गई, जिसको जहां जगह मिले फैल जाओ। इसका एक असर तो यह हुआ कि अखबारों की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी हुई, पुराने स्थापित अखबार, नेताओं के मनचीते अखबार, रीयल एस्टेट, भूमाफिया, चिटफंड कंपनियों और तस्करों के अखबार- इस प्रतिस्पर्धा ने अखबारों का पारंपरिक रूप बदल दिया। जो छोटे अखबार थे वे धीरे-धीरे कर खत्म होने लगे। इसके बाद टीवी का जोर चला। उसने प्रिंट मीडिया याने अखबारों को ही चपेट में ले लिया। पहले विज्ञापनदाता को निर्णय लेने में अधिक समय नहीं लगता था क्योंकि उसके सामने विकल्प सीमित थे। टीवी आने के बाद विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा चैनलों के पास चला गया। अखबार जो पहले ही आपसी प्रतिस्पर्धा में जूझ रहे थे उनके सामने वित्तीय साधन जुटाने की नई चुनौती आ गई।

इस बीच सरकारों के रुख में भी परिवर्तन आया। पहले सरकार मानती थी कि अखबार जनतंत्र के लिए आवश्यक है। छोटे और मध्यम समाचारपत्रों का विशेष ख्याल रखने की नीति थी वह समाप्त कर दी गई। अब केन्द्र हो या राज्य, एकाधिकार वाले अखबारों को प्राथमिकता दी जाती है या फिर उनको जिनके साथ मंत्रियों और अफसरों के व्यवसायिक हित जुड़े हुए हैं। कोल ब्लॉक, पावर प्लांट, रीयल एस्टेट ऐसे तमाम व्यापारों में मीडिया घराने जुड़े हुए हैं और अपना व्यापार चलाने के लिए उन्हें सत्ता के साथ मधुर संबंध रखने ही होते हैं। ऐसे उदाहरण देखने में आए हैं जब अखबार के संपादक को उसी कंपनी के स्टील प्लांट का संपर्क अधिकारी बना दिया गया हो या संपर्क अधिकारी को संपादक बना दिया गया हो। अखबार या टीवी चैनल का मालिक जिसका लिखने-पढऩे से भला कोई नाता न हो वह प्रधान संपादक बन जाता है और उस बहाने सत्ता के गलियारों में सीधी पैठ बना लेता है।

यह सब तो हो ही रहा है। इसके अलावा हर दस साल में भारत सरकार द्वारा पत्रकारों व गैरपत्रकारों के लिए गठित वेज बोर्ड की आवश्यकता और उसकी भूमिका भी पुनर्विचार की मांग करती है। पंडित नेहरू के समय में एक ओर तो पहले और दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया गया था जिससे समाचारपत्रों की संपूर्ण स्थिति का अध्ययन कर स्वस्थ और निर्भीक पत्रकारिता के लिए उचित वातावरण निर्मित किया जा सके। इसी के अनुपालन में पहले-पहले वेज बोर्ड भी गठन किया गया ताकि पत्रकारों को समुचित वेतन और सुविधाएं मिले ताकि वे अपना पेशेवर दायित्व निश्चिंत व निद्र्वन्द्व होकर निभा सकें। अपने समय के लिए यह एक सही पहल थी। उस समय अनेक अखबार स्वयं पत्रकारों के ही मालिकाना हक में थे और जो पूंजीपतियों के अखबार थे उनमें भी पत्रकारों को बड़ी हद तक स्वतंत्रता थी। सरकार का रुख अखबारों को विज्ञापन आदि देने के मामले में किसी हद तक न्यायपूर्ण था तथा समाज व पत्रकारिता के बीच विश्वास का रिश्ता था।

आज स्थिति बदल गई है। मीडिया में एकाधिकार की प्रवृत्ति है। सरकारों का रुख मैत्रीपूर्ण न होकर पक्षपातपूर्ण है। कुछेक बड़े अखबार और टीवी चैनल हैं जिनमें संपादकों और वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों को अकल्पनीय सुविधाएं प्राप्त हैं। कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया के पास साधनों की कोई कमी नहीं है यद्यपि उनके स्तर पर हो रही प्रतिस्पर्धा की आंच अब उनको ही झुलसा रही है। इस वातावरण में एक सवाल तो यह है कि स्वस्थ पत्रकारिता कैसे हो और दूसरा सवाल यह है कि पत्रकारिता कैसे जीवित बचे? एक तरफ वो पत्रकार हैं जिन्हें पूंजीपति और राजनेता अपनी गोद में उठाए घूम रहे हैं उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस घराने के लिए काम कर रहे हैं। इनके लिए वेज बोर्ड जैसी संस्था कोई मायने नहीं रखती। लेकिन जब बड़े अखबार अपने संस्करण बंद कर दें, पत्रकारों की छंटनी कर दें, अपनी चमड़ी बचाने के लिए संपादक को जेल भिजवा दें, ऐसे में सामान्य पत्रकार क्या करें?

मेरा आखरी सवाल राज्यसभा में बैठे और पद्म अलंकरणों से सम्मानित पत्रकारों से है कि जब यह सब कुछ हो रहा है तब आप क्या कर रहे हैं?

देशबंधु में 23 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

Sunday, 19 February 2017

वैलेंटाइन डे और अन्य बातें



यह 12 फरवरी याने वैलेंटाइन डे से दो दिन पूर्व की बात है। हम एक साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम के सिलसिले में खैरागढ़ जा रहे थे। जालबांधा के कुछ पहले एक गांव में सडक़ पर कुछ लोग खड़े होकर आती-जाती गाडिय़ों को रोक रहे थे। हमें लगा कि कोई चंदा मांगने वाले होंगे। लेकिन नहीं, वे तो परचे बांट रहे थे। बाजू की खुली मैदाननुमा जगह में उनके तीन-चार वाहन खड़े थे, जिनमें वे आए होंगे। एक भारवाहक छोटा वाहन भी था, जिसमें परचों के गठ्ठर भरे थे। वे उस इलाके में एक मिशन पर निकले थे। हमने उनकी गाड़ी पर लगा बैनर देखकर उनसे परचा लेने से इंकार कर दिया। आगे बढ़े तो सडक़ पर यहां-वहां परचे बिखरे हुए थे, जो हमसे आगे गए वाहनचालकों ने देख-दिखाकर फेंक दिए थे। हमारे सामने ही एक बाइक पर पीछे बैठे सवार ने परचा देखा और फेंक दिया। 
 ये उत्साहीजन तथाकथित साधु आसाराम के चेले थे और 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे पर मातृ-पितृ पूजन दिवस मनाने का आह्वान करने वाले परचे बांट रहे थे। अपने देश में सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी है, इसलिए वे जो कर रहे थे, उस पर मैं भला आपत्ति क्यों करूं? आपत्ति की बात तो तब है जब कोई अपनी आज़ादी को दूसरे की आज़ादी से ज्यादा अहम माने तथा अपनी बात मनवाने के लिए हिंसक उपायों का सहारा ले। ये तो शांति के साथ परचे ही वितरित कर रहे थे।  लेकिन मुझे इन भक्तजनों की वैचारिक दुर्बलता और अंधश्रद्धा को देखकर आश्चर्य और अफसोस हुआ। क्या इन्हें नहीं पता कि जिसे ये अपना आराध्य मान रहे हैं वह अदालत द्वारा घोषित अपराधी है। उस पर संगीन जुर्मों की दफाएं कायम हैं। वह जेल में है और उसके रिकार्ड को देखते हुए अदालत से बार-बार उसकी जमानत अर्जी खारिज हो रही है। ऐसे व्यक्ति पर होशोहवास में कोई भी जन कब तक श्रद्धा रख सकता है? क्या वे सम्मोहन पाश में बंधे हैं या वेतनभोगी कर्मचारी हैं? क्या आसाराम का साम्राज्य जेल के भीतर से भी संचालित हो रहा है?
ये तो खैर, परचे ही बांट रहे थे। छिंदवाड़ा के जिला कलेक्टर के बारे में क्या कहें जिन्होंने बाकायदा शासकीय आदेश निकाला कि जिले की शिक्षण संस्थाओं में 14 फरवरी को मातृ-पितृ पूजन दिवस के रूप में मनाया जाए। आईएएस जिलाधीश महोदय को कायदे-कानून की जानकारी पर संदेह करना उचित नहीं किन्तु यह तो उनसे पूछा ही जा सकता है कि ऐसा आदेश उन्होंने देश के किस कानून के अंतर्गत जारी किया? प्रसंगवश, छिंदवाड़ा वह जिला है जहां आसाराम के आश्रम में बच्चों की हत्या होने जैसी ख़बरें कुछ वर्ष पूर्व आई थीं। क्या जिलाधीश आसाराम के शिष्य हैं जो उन्होंने आदेश निकाला या फिर इसके लिए उन्हें राज्य शासन से कोई आदेश मिला था? जो भी हो, स्पष्ट है कि एक उच्चाधिकारी ने यहां अपने पद की मर्यादा का उल्लंघन किया है। इधर छत्तीसगढ़ में भी संभवत् किसी शासकीय निर्णय के तहत स्कूलों में वैलेंटाइन डे को इस नए रूप में मनाने की खबरें मिली हैं। यहां भी कोई नेता, मंत्री, अधिकारी इसमें लिप्त हैं?
इस प्रसंग का तीसरा पक्ष भी है जो खासा अहमकाना है। सोशल मीडिया पर विगत दो-तीन वर्ष से खबरें आ रही हैं कि 14 फरवरी को शहीदे-आजम भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु का बलिदान दिवस है कि अंग्रेजों ने उन्हें इसी दिन फांसी के तख्ते पर चढ़ाया था। यह झूठी और बहकाने वाली खबर कौन पोस्ट कर रहा है और इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य है? आपको वैलेंटाइन डे नहीं मनाना है तो न मनाएं परंतु इस तरह इतिहास से खिलवाड़ करने का हक इन्हें किसने दिया? कौन नहीं जानता कि भगत सिंह व उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। ऐसी झूठी बातें करने से यही सिद्ध होता है कि इन लोगों के मन में न शहीदों के प्रति कोई सम्मान है और न इतिहास के प्रति। इन्हें अपराधी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्या ये वही लोग तो नहीं हैं जो गांधी-नेहरू के खिलाफ भी दिन-रात विषवमन करते रहते हैं? क्या ये वे तो नहीं जो गोडसे के मंदिर बनाने चाहते हैं? इन्हें शायद अपने मंसूबे पूरे करने के लिए इतिहास बदलना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। एक तरफ ये पोस्ट करने वाले, दूसरी ओर छिंदवाड़ा के कलेक्टर जैसे लोग, तीसरी ओर आसाराम जैसों की टोली, इस तरह राजनीति, अफसरशाही और नकली साधुओं का एक त्रिगुट बन गया है जिससे सावधान रहने की आवश्यकता है।
वैलेंटाइन डे पर हर साल खड़ा होने वाला तमाशा मानो पर्याप्त न हो, भारत के आधुनिक समय के एक विश्व-विख्यात कारपोरेट घराने के प्रमुख ने एक अजीबोगरीब बयान देकर सबको हैरत में डाल दिया। इन्फोसिस के वर्तमान मुख्य कार्यकारी अधिकारी याने सीईओ विशाल सिक्का ने अपने इस बयान में कहा कि मैं क्षत्रिय योद्धा हूं और पद नहीं छोड़ूंगा। श्री सिक्का को साल-दो साल पहले ही नारायणमूर्ति ने इन्फोसिस का प्रमुख बनाया था। हाल में नारायणमूर्ति ने विशाल सिक्का की कार्यशैली की कटु आलोचना की थी, जिसका यह जवाब श्री सिक्का ने दिया है। कारपोरेट प्रतिष्ठान हो या कोई और संगठन, आपसी मतभेद होना, यहां तक कि कटुता उत्पन्न हो जाना कोई नई बात नहीं है। स्वयं नारायणमूर्ति की आलोचना उस समय हुई थी जब उन्होंने अध्यक्ष पद त्यागने के कुछ अरसे बाद दुबारा हासिल कर लिया था। इन्फोसिस के संस्थापक और कंपनी को वैश्विक प्रतिष्ठा मिलने में उनका भारी योगदान रहा है और इसलिए वे कंपनी अपनी इच्छानुसार न चलने से क्षुब्ध हो सकते हैं। विशाल सिक्का को भी उनका हस्तक्षेप नागवार गुजरे तो स्वाभाविक है। लेकिन इसमें जाति का प्रश्न कहां से आ गया?
इन्फोसिस जैसी कंपनी जो आधुनिकतम तकनीकी का व्यापार करती है, उसके कर्ता-धर्ता से ऐसी प्रतिगामी सोच की उम्मीद तो शायद ही किसी ने की हो! श्री सिक्का इत्यादि उस वर्ग से आते हैं जो उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में व्याप्त जातिवाद को नीची निगाहों से देखते हैं, इनके नागरिकों को गंवार व पिछड़ा हुआ निरूपित करते हैं। इन्हें अपनी बुद्धि की श्रेष्ठता, अपनी ऊंची-ऊंची डिग्रियों का अभिमान होता है जिसे जतलाने से ऐसे लोग कभी चूकते नहीं हैं। लेकिन जब खुद के स्वार्थों पर आ बनती है तो बड़े जतन से ओढ़ा हुआ सभ्यता का नकाब नीचे गिर जाता है। आखिर यही लोग तो हैं जो निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के घोर विरोधी हैं। विगत कई वर्षों में सरकार द्वारा इस बारे में की गई अपीलों को ये तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देते हैं और फिर बॉलीवुड की किसी फिल्म के अंदाज़ में अपनी जाति गौरव का बखान करते हैं। हमें अभी तक सिक्काजी की जात पता नहीं थी। अब पता चल गई है तो अच्छा है कि आगामी महाराणा प्रताप जयंती पर इनका कहीं सम्मान करवा दिया जाए।
सवर्ण उच्चता का यह दर्प सिर्फ सिक्काजी ने दिखाया हो ऐसा नहीं है। जाने-माने टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई भी ऐसा कर चुके हैं। अभी उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनावों में जातीय समीकरणों पर दुख जतलाते हुए कहा कि जाने कब भारत इस अभिशाप से मुक्त होगा। इस पर उन्हें तुर्की-ब-तुर्की जवाब मिला- जिस दिन आप गौड़ सारस्वत श्रेष्ठता का बखान बंद कर देंगे। हुआ यह कि जब मनोहर पार्रीकर व सुरेश प्रभु केन्द्रीय मंत्री बने तो सरदेसाई ने लिखा कि इन दोनों गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों के मंत्री बनने से वे भी उसी जाति का होने के नाते गौरव महसूस कर रहे हैं। इस टिप्पणी में उनका कुलीनता बोध उभर आया था। सवाल यह है कि आम जनता किनसे प्रेरणा ले जब कथित तौर पर समाज का नेतृत्व कर रहे लोगों के मनोभाव इतने संकुचित हों?
सच तो यह है कि भारतीय समाज का वर्चस्ववादी वर्ग दुनिया की सारी नेमतें खुद के लिए चाहता है और उसकी पूरी कोशिश होती है कि जो निचली पायदानों पर हैं हाशिए पर हैं, उनके हिस्से कुछ न आए। उनकी वक्रदृष्टि इन पर न पड़े, इसीलिए वे उन्हें भांति-भांति के मकडज़ालों में फंसाकर व्यस्त रखते हैं। यह दुष्चक्र तभी टूटेगा जब वैज्ञानिक चेतना से लैस सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी सामने आएगी। कन्हैया कुमार जैसे अपवादों को छोड़ दें तो वह दिन बहुत दूर लगता है।
देशबंधु में 19 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 15 February 2017

चुनाव : कुछ नए दृश्य




यह चुनाव का सीजन है और इन दिनों सबकी निगाहें खासकर उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई हैं। उत्तराखंड और मणिपुर से भी चुनावी समाचार ही सुनने मिल रहे हैं। इस बीच मुंबई में भी महानगरपालिका के आसन्न चुनावों को लेकर दिलचस्प वातावरण बन गया है। मणिपुर के चुनावों को लेकर शेष भारत में सामान्यत: कोई रुचि न होती। एक तो सुदूर प्रदेश, दूसरे पूर्वोत्तर भारत का प्रदेश याने एक ऐसा इलाका जिसके साथ देश के बाकी हिस्से बहुत सरोकार नहीं रखना चाहते। वहां जब कबीलाई संघर्ष  और आर्थिक नाकेबंदी जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं तब मीडिया थोड़ा-बहुत नोटिस भले ही ले ले, जनता लगभग निर्लिप्त रही आती है। इरोम शर्मिला का एक दशक से अधिक तक चला अनशन अवश्य बार-बार चर्चा में आया, लेकिन प्रदेश की स्थितियों और समस्याओं को समझने में हमने कोई रुचि नहीं दिखाई। इरोम शर्मिला अब चुनावी राजनीति में आ गई हैं। वे कांग्रेस के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं। शर्मिला ने भाजपा पर आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है कि केन्द्र में सत्तारुढ़ दल के एक बहुत बड़े पदाधिकारी ने उन्हें भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩे के लिए छत्तीस करोड़ रुपया रिश्वत देने की पेशकश की।

इरोम शर्मिला चानू द्वारा लगाए गए इस आरोप को सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ; यद्यपि इसमें कितना सत्य है कहना कठिन है। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में पिछले पन्द्रह साल से कांग्रेस लगातार सत्ता में है। यह भी विदित है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर पूर्व में येन-केन-प्रकारेण अपना वर्चस्व स्थापित करने में जुटी हुई है। असम में उसने कांग्रेस के असंतुष्ट लोगों को साथ लेकर चुनाव जीतने में सफलता पाई। अरुणाचल में भाजपा ने जो करतब किया वह भी कल की ही बात है; सत्ता के इस खेल की एक त्रासद परिणति एक दलबदलू मुख्यमंत्री द्वारा आत्महत्या करने से हुई। भाजपा ने सशस्त्र नगा गुटों के साथ भी कोई समझौता किया है जिसे अभी तक उजागर नहीं किया गया है, लेकिन अनुमान होता है कि मणिपुर में भाजपा के पैर फैलाने में नगाओं का कोई न कोई गुट उसे मदद कर रहा है। इरोम शर्मिला अगर भाजपा में आ जातीं तो यह पार्टी के लिए एक बड़ी उपलब्धि होती। शर्मिला अपने आमरण अनशन के कारण मानवाधिकारों के लिए संघर्ष की एक ज्वलंत मिसाल जो बन चुकी हैं। भाजपा ने शर्मिला के आरोप का खंडन अवश्य किया है किन्तु सहज अनुमान होता है कि मणिपुर को लेकर भाजपा में बेचैनी है।

मुंबई महानगरपालिका के चुनाव कहने को भले ही स्थानीय निकाय के चुनाव हों, लेकिन मुंबई की अपनी शान है। महानगरपालिका का बजट कई प्रदेशों  के बजट से बड़ा है। मुंबई देश की वित्तीय राजधानी भी है और वहां की राजनीतिक हलचलों का संदेश देश और दुनिया तक जाता है। विगत चार दशक से महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन चला आ रहा था। इसकी एक बड़ी शर्त मुंबई पर शिवसेना का एकाधिकार जैसा होना था। जब भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा में जीत हासिल की थी तब शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बनाए गए थे। दोनों दलों के बीच आपसी समझ थी कि भाजपा केन्द्र में राज करेगी और प्रदेश में शिवसेना। भाजपा ने 2014 में यह समझौता तोड़ दिया। ऐसा माना जाता  है कि अपने बलबूते लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के कारण भाजपा में अहंकार आ गया था। तब से दोनों सहयोगी दलों के बीच दूरी बढ़ती गई है। इधर शरद पवार को पद्मविभूषण देकर भाजपा ने उन्हें रिझाने की कोशिश की है, लेकिन पवार साहब जैसा मंजा खिलाड़ी भाजपा का साथ अगर देगा तो अपनी काफी कुछ शर्तें मनवाने के बाद ही। यह सब देखकर लगता है कि मुंबई महानगरपालिका में भाजपा को हटाना सेना और राकांपा का संयुक्त लक्ष्य हो गया है। कांग्रेस तो विरोध में है ही।

उत्तर प्रदेश में मतदान का पहला चरण पूरा हो गया है। दूसरा चरण भी इस लेख के छपने तक सम्पन्न हो जाएगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाकों से मिली खबरें कहती हैं कि हरियाणा के जाट आंदोलन को लेकर खट्टर सरकार ने जो रवैया अपनाया, उसके चलते भाजपा से जाट समुदाय ने दूरियां बनाई हैं। यह अफवाह हवा में तैर रही है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की जल्दी ही छुट्टी कर दी जाएगी। महाराष्ट्र में मराठा लॉबी को प्रसन्न रखने के लिए देवेन्द्र फडऩवीस को हटाए जाने की चर्चाएं भी गर्म हैं। राजनीति में अपने विरोधियों को छकाने के लिए ऐसी चर्चाएं फैलाना आम बात है, लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कुछ समय पूर्व तक जो भारतीय जनता पार्टी अपराजेय दिख रही थी वह तस्वीर बदलने लगी है, ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दिल्ली और बिहार में भाजपा को करारी हार मिली और अब सब उत्सुकतापूर्वक उत्तर प्रदेश को देख रहे हैं। इस चुनावी दौर में जो दृश्य सामने आए हैं वे भारतीय जनता पार्टी को अपनी राजनीति और रणनीति दोनों पर पुनर्विचार का अवसर देते हैं।

एक समय सपा-कांग्रेस गठबंधन को लेकर संशय का माहौल बना हुआ था वह स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के दो बड़े और सफल रोड शो हो चुके हैं। मुलायम सिंह ने भी गठबंधन के पक्ष में प्रचार करने की घोषणा कर दी है। वे अपने भाई शिवपाल यादव के पक्ष में प्रचार भी कर आए हैं। कल तक जो अमरसिंह नेताजी के बेहद करीबी थे वे निराश होकर पहले तो लंदन चले गए और अब भाजपा में शामिल होने के संकेत दे रहे हैं। अमरसिंह की लीला न्यारी है। वे भारतीय राजनीति में इतना महत्व कैसे पा गए, इस रहस्य पर से पता नहीं कब पर्दा उठेगा? यह भी गौरतलब है कि जिन दिग्विजय सिंह को राहुल गांधी का गुरु और सलाहकार प्रचारित किया जाता था वे पूरी तरह नेपथ्य में चले गए हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में उनका कोई अता-पता नहीं है तथा कांग्रेस पार्टी में भी उनका नाम कम ही सुनने मिलता है। तो क्या वे राहुल गांधी के स्वघोषित सलाहकार थे?

यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से राहुल गांधी ने अपने हाथों में ले ली है। सोनिया गांधी शायद अस्वस्थता के कारण चुनाव प्रचार में नहीं आ रही हैं। बीच-बीच में प्रियंका गांधी का नाम अवश्य लिया जाता है, किन्तु चुनावों में उनके सामने आकर सक्रिय होने की कोई प्रामाणिक  खबर अभी तक नहीं है। लेकिन यह तो मानना होगा कि एक तरफ राहुल-अखिलेश की जोड़ी की सक्रियता और दूसरी तरफ प्रियंका-डिंपल के नाम का प्रचार। इसमें मतदाताओं में एक आकर्षण पैदा हो ही रहा है। इस स्थिति को देखकर ही उत्तर प्रदेश में भाजपा के लोग कहीं-कहीं यह भी कहते सुने गए हैं कि भाजपा को वोट न देना हो तो न दें, अपना वोट बसपा को दें, लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन को किसी भी सूरत में न दें। इसका एक ही तर्क है कि गठबंधन हार जाए तो बसपा और भाजपा मिलकर सरकार बना लें। बसपा सुप्रीमो मायावती भी शायद इसीलिए अपनी सभाओं में भाजपा पर कम और गठबंधन पर ज्यादा आक्रमण कर रही हैं।

हमें एक और बात समझ आती है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। राहुल गांधी पर किसी तरह का कोई आरोप नहीं है। उनकी छवि बेदाग है। अखिलेश यादव पर भी कोई निजी आरोप नहीं है। जनता उन्हें संदेह का लाभ दे रही है कि विगत पांच वर्षों में उन्हें अपने पिता और चाचा की मर्जी से चलना पड़ा था जिससे उन्होंने स्वयं को मुक्त कर लिया है। अखिलेश यादव सौम्य छवि के एक युवा नेता के रूप में उभर रहे हैं। रजत शर्मा ने आपकी अदालत में उन्हें बहुत उकसाने की कोशिश की, लेकिन अखिलेश शांतिपूर्वक उनके हर सवाल का जवाब देते रहे। आमसभाओं में भी वे अपनी बातें शालीन अंदाज में सामने रखते हैं। उनके जोड़ीदार राहुल गांधी पर विरोधियों द्वारा जो कटाक्ष किए जाते थे वे भी अब कम हो गए हैं। आज जब राहुल आमसभा में भाषण देते हैं तो उनकी बातों का जवाब देने में सत्तापक्ष को परेशानी होती है।

भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश की चुनाव अभियान की बागडोर स्वयं नरेन्द्र मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने संभाल रखी है। ये दोनों नेता आमसभाओं में लगातार बहुत गुस्से की मुद्रा में भाषण कर रहे हैं। ऐसा क्यों है हमें समझ नहीं आता। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में एग्जिट पोल प्रकाशित कर जागरण अखबार मुसीबत में फंस गया है। चुनाव संहिता का उल्लंघन करने के कारण समाचार पत्र के एक संपादक को मंगलवार की सुबह गिरफ्तार कर लिया गया। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। सर्वेक्षण प्रकाशित करने के पीछे कौन सा प्रलोभन काम कर रहा था, निष्पक्ष जांच होने पर ही पता चलेगा, लेकिन इस प्रकरण ने मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। ऐसे में क्या हम पाठकों को यह सलाह दें कि वे अखबार में छपी, टीवी पर दिखी और फेसबुक में लिखी किसी भी राजनैतिक बात पर बिना जांचे-समझे विश्वास न करें!!

देशबंधु में 16 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

Friday, 10 February 2017

आगरे का पेठा और चुनाव




यह चुनावों का मौसम है। पिछले एक माह से तमाम टीवी चैनल चुनावी हलचलों का कवरेज करने के लिए आकाश-पाताल एक किए हुए हैं। अखबार भी भरपूर सामग्री दे रहे है, लेकिन उसमें वह चाक्षुष आनंद कहाँ जो चैनलों द्वारा फिल्मी अंदाज में सजाए गए सेटों को देखकर मिलता है। एक चैनल में आगरा का जो दृश्य प्रस्तुत किया गया वह ललचाने वाला था। किसी बड़े से लॉन में टेबलें सजी हुई हैं, पास में भट्ठियों पर गरमागरम भोजन तैयार हो रहा है, चर्चा में आमंत्रित नागरिकों के सामने टेबल पर पूड़ी-कचौड़ी इत्यादि के साथ आगरे के अंगूरी पेड़ों की प्लेटें रखी हुई हैं और बहस चल रही है कि यहां किस पार्टी की विजय होगी। मैं उम्मीद करता हूं कि साल-डेढ़ साल बाद हमारे शहर में भी कोई न कोई चैनल वाला ऐसी व्यवस्था अवश्य करेगा। डर इस बात का है कि बहस बढ़ जाने पर जैसे कुर्सियां फेंकी जाती हैं वैसे ही लोग कहीं एक-दूसरे पर पूड़ी-कचौड़ी न फेंकने लग जाएं।

यह तो हुआ एक दृश्य। आपने भी अपने पसंदीदा चैनल पर कोई न कोई आनंददायक नजारा देखा होगा। उधर पंजाब और गोवा में 4 फरवरी को मतदान प्रारंभ होने के पहले ही मीडिया ने उसके कवरेज के लिए कमर कस ली थी। एक दिन पहले से ही सूचना दी जाने लगी थी कि कल सुबह छह बजे से फलाने-फलाने चुनावी पंडित और पंडिताइनें हमारे चैनल पर उपलब्ध रहेंगे। इन वार्ताकारों के धीरज की दाद देना होगी कि वे कैसे दिन-दिन भर स्टूडियो में बैठे रहते हैं। इस बहाने से ही कुछ लोगों को अस्थायी रोजगार भी मिल जाता है और टीवी पर दिखने का जो सुख है वह तो खैर, अनिर्वचनीय है। यह देखकर कौतुक जागता है कि सुबह आठ बजे जब डाक मतपत्रों की गणना सामने आती है उस समय से पंडित रुझानों का विश्लेषण प्रारंभ कर देते हैं और फिर दिन में दस-दस बार अपने ही पुराने विश्लेषण का खंडन भी कर देते हैं। उन्हें पता है कि दर्शक नादान है। उसके लिए जो इस क्षण सामने है वही सत्य है, बाकी सब मिथ्या।

सच पूछिए तो मुझे अपने देश में चुनावी नतीजों को लेकर कोई भविष्यवाणी करना खासा हास्यास्पद और दुस्साहसिक काम मालूम होता है। यही बात चैनलों पर हो रहे प्रारंभिक सर्वे, पूर्वानुमान, एग्जिट पोल  आदि के बारे में भी कही जा सकती है। लग गया तो तीर, नहीं तो तुक्का वाली कहावत यहां फिट बैठती है। ज्योतिषी हाथ देखकर या कुंडली बांचकर जो भविष्यवाणियां करता है उसमें से दो-चार संयोगवश ठीक निकल जाती हैं, लेकिन अधिकतर गलत साबित होती हैं। जो सही निकल गया उसको याद करके जजमान ज्योतिषी पर और ज्यादा भरोसा करने लगता है; जो सही नहीं निकली वह बात उसके मन से उतर जाती है। कुछ यही सच्चाई अपने यहां होने वाले चुनावी सर्वेक्षणों की है। आप जिससे भी बात करते हैं वह या तो टाल देता है, या अपनी राजनीतिक रुझान के मुताबिक जवाब देता है, या ताड़ लेता है कि पूछने वाला क्या सुनना चाहता है। इस तरह कहें तो सही उत्तर का आंकड़ा तैंतीस प्रतिशत के आसपास होता है।

इसके बावजूद अपने बहस-प्रिय देश में चुनावों की चर्चा करना और परिणामों के बारे में अटकलें लगाना एक दिलचस्प शगल है। खासकर तब जब लोगों के पास समय की कोई कमी न हो। वैसे भी अपने पसंदीदा खेल के लिए समय निकालना कौन सी बड़ी बात है। अब तो कितने सारे दफ्तरों में कम्प्यूटर लग गए हैं। साथ में स्मार्ट फोन भी हैं। इन पर चाहें तो गाने सुनिए, फिल्म देखिए, वर्जित वेबसाइटों का आनंद उठाइए, क्रिकेट मैच देखिए, शेयर बाजार के सौदे कीजिए और नहीं तो इस मौसम में चुनावी लहरों को गिनते रहिए। यही सोचकर मैंने भी तय किया कि आज चुनाव परिणामों को लेकर ही कुछ बात क्यों न की जाए? अखबार का कॉलम है, इसका मतलब ये तो नहीं कि हफ्ते दर हफ्ते गंभीरता का लबादा ओढ़ मैं अपनी अक्ल बघारता रहूं। शायद आप भी थक जाते होंगे और मुझे भी तो कुछ चुहलबाजी करने का हक आपकी ओर से मिलना चाहिए!

तो जैसा कि हर स्वनामधन्य पत्रकार को करना चाहिए मैं भी पिछले एक माह से पांचों चुनावी प्रदेशों में अपने मित्रों, परिचितों से बात कर राजनीतिक रुझानों को समझने के हठयोग में लगा हुआ हूं। 4 फरवरी को जब मतदान लगभग तीन चौथाई पूरा हो चुका था तब मैंने भी गोवा और पंजाब में दोस्तों को फोन किया कि भाई, बताओ क्या हाल है? तुम्हारे यहां कौन जीत रहा है? दोस्त भी तो इसी दुनिया के लोग हैं। वे अपना आकलन बताने से क्यों चूकते? एक ने कहा- आप पार्टी जीत रही है, दूसरे ने कांग्रेस की सरकार बन जाने की संभावना जतलाई, तीसरे ने त्रिशंकु विधानसभा की बात की। गोवा और पंजाब दोनों से लगभग समान जवाब मिले। इसके बाद मैं खुद संशय में पड़ गया कि किसकी बात को सही मानूं। फिर ध्यान गया कि दोनों प्रदेशों में किसी ने भी यह नहीं कहा कि वर्तमान सरकार लौट रही है। तो क्या मुझे यह मान लेना चाहिए कि गोवा में भाजपा और पंजाब में अकाली-भाजपा मिलीजुली सरकार के जाने का समय आ गया है? परिवर्तन हमेशा रोमांचक और अक्सर आकर्षक होता है। इसलिए मित्रों के आकलन पर विश्वास करने का मन तो होता है किन्तु फिर शंका धीरे से सिर उठाती है कि जिन लोगों से बात की है वे अगर भाजपा-विरोधी हैं तो वे क्योंकर भाजपा की जीतने की बात करेंगे! आखिर उनके भी तो कोई आग्रह हैं।

जो भी हो, मैंने जितनी चर्चाएं सुनीं, जितनी बातें कीं, जितने लेख और संपादकीय पढ़े, उनका संज्ञान लेते हुए मेरी अकल जहां तक दौड़ी उसे आपके साथ साझा करना चाहता हूं। पंजाब और गोवा में आप पार्टी एक नई ताकत के रूप में उभरी है। पत्रकारों का एक बड़ा दल जो कांग्रेस से बहिष्कृत और भाजपा से तिरस्कृत है, वह दोनों प्रदेशों में आप पार्टी की सरकार बनवा रहा है। इस दल में अनेक कथित उदारवादी बुद्धिजीवी भी हैं जो 2014 में कांग्रेस को हराने के लिए प्राणपण से जुटे हुए थे। इन पर कितना भरोसा किया जाए, यह मैं तय नहीं कर पा रहा हूं, लेकिन मेरे अनुमान में ‘आप’ ने पंजाब में दो बड़ी गलतियां कीं- एक तो नवजोत सिंह सिद्धू को धोखे में रखा, दूसरे अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने का गोपन मंतव्य उजागर कर दिया। तीसरे, अगर केजरीवाल नहीं तो मुख्यमंत्री कौन? इसका कोई जवाब ‘आप’ के पास नहीं है ऐसे में कांग्रेस मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है। गोवा में भी जनता साफ-सुथरी सरकार चाहती है इसलिए उसने ‘आप’ का स्वागत तो किया, लेकिन आधे मन से। मैं एक माह पहले गोवा गया था। वहां लोगों ने कहा कि पहले पुर्तगालियों ने राज किया; क्या अब दिल्ली वाले हम पर राज करेंगे? इस नन्हे प्रदेश में भाजपा की मुश्किल अलग प्रकार की है। मनोहर पार्रिकर एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। वे रक्षामंत्री जैसे अहम पद पर रहते हुए भी हर हफ्ते गोवा आते हैं किन्तु मतदाता खड़ाऊं राज से खुश नहीं है। मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसकर के व्यक्तित्व में चमक नहीं है। प्रदेश में संघ के बड़े नेता सुभाष वेलिंगकर द्वारा नई पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरने से एक नया सवाल खड़ा हो गया है कि क्या आरएसएस भाजपा नेतृत्व से खुश नहीं है और क्या वह परोक्ष रूप से कांग्रेस को मदद कर रहा है? जैसा उसने 1980 और 1984 में किया था।

उत्तराखंड की स्थिति भी रोचक है। नारायण दत्त तिवारी का ब्यान्नवे साल की आयु में पुत्रमोह में पडक़र कांग्रेस छोडऩा तो समझ आता है, लेकिन भाजपा की क्या मजबूरी थी कि उन्हें पार्टी में लेती? जबकि वे अपनी प्रणय लीलाओं के चलते खासे बदनाम हो चुके हैं। क्या इससे प्रदेश में भाजपा की छवि को कोई नुकसान नहीं पहुंचा? फिर शक्तिमान घोड़े की बेरहम पिटाई और उसकी मौत के लिए चर्चित गणेश जोशी को दुबारा मैदान में उतारना कितना जरूरी था? कांग्रेस के तमाम बागी विधायकों को तो भाजपा ने टिकट दिए ही हैं, इसके अलावा पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की अविश्वसनीय रूप से लंबी सूची बनी हुई है। मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार को अपदस्थ करने का जो षड़य़ंत्र किया गया, क्या उसे मतदाताओं ने भुला दिया है? इन सवालों से क्या प्रदेश भाजपा में उबर पाने की क्षमता है? आज की बात यहीं तक। उत्तर प्रदेश में और कहां-कहां चैनल वाले पकवान परोस रहे हैं, चलिए उनको देखकर आते हैं।

 देशबंधु में 09 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 8 February 2017

इस चेतावनी को सुनें



इंग्लैंड में ब्रेक्सिट, उसके साथ प्रधानमंत्री डेविड कैमरून का इस्तीफा, उनकी जगह देश की दूसरी महिला प्रधानमंत्री थैरेसा मे का चयन। संयुक्त राज्य अमेरिका में कई महीनों की गहमागहमी के बाद डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन, अमेरिकी चुनाव व्यवस्था का विचित्र अंतर्विरोध, हिलेरी क्लिंटन को दो लाख वोट अधिक मिले, लेकिन निर्वाचक मंडल के वोट थोक में ट्रंप के खाते में जाने से उनकी जीत, मतों की पुनर्गणना से भी नतीजा अप्रभावित, रूस पर अमेरिकी चुनाव में हस्तक्षेप के आरोप। भारत में नोटबंदी, शुरूआत में भारी अफरा-तफरी, अब स्थिति किसी हद तक सामान्य, कि जो हो चुका है उसे स्वीकार कर लेने की लाचारी। इस तरह तीन महाद्वीपों के तीन बड़े देशों में 2016 का साल बीतते न बीतते विश्व समाज को इन चौंकाने वाली, लगभग अप्रत्याशित घटनाओं का सामना करना पड़ा। सवाल उठता है कि क्या सचमुच ये घटनाएं अप्रत्याशित थीं?

इस बीच दुनिया में और भी बहुत कुछ हुआ। उनका भी जायजा संक्षेप में लेने में कोई हर्ज नहीं है। सीरिया में लम्बे समय से चला आ रहा गृहयुद्ध पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, किन्तु असद सरकार ने रूस की मदद से आईएस के कब्जे वाले इलाकों को काफी हद तक मुक्त करवा लिया है। उधर इजरायल बराक ओबामा की तमाम चेतावनियों के बावजूद पश्चिमी तट पर नई कॉलोनियां बसाने से बाज नहीं आ रहा है। जो फिलिस्तीनी तीन हजार साल से अपनी धरती छोडक़र कभी बाहर नहीं गए, उन्हें दर-बदर भटकना पड़ रहा है। स्थिति पहले से ज्यादा गंभीर हो गई है। फिलिस्तीन देश के रूप में तो मानो खत्म हो ही चुका है, एक संज्ञा के रूप में भी विश्व की सामूहिक चेतना में अब उसका कोई संज्ञान नहीं है। चीन और जापान के बीच नरम-गरम संबंध बने हुए हैं; लेकिन अभी दक्षिण कोरिया और जापान के रिश्तों में तल्खी पैदा हो गई है। दक्षिण कोरिया ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान में कोरियाई युवतियों को जबरन वेश्यावृत्ति में ढकेलने के त्रासद सच के प्रतीक स्वरूप ‘‘कम्फर्ट वूमन’’ की प्रतिमा सियोल में लगाई है, जिसका सत्तर साल बाद के जापान से कोई सीधा ताल्लुक नहीं बनता है। उधर जापान एक ओर अपनी सैन्य शक्ति मजबूत करने में लगा है, तो वहीं पहली बार जापान विश्व युद्ध में का कोई प्रधानमंत्री पर्ल हार्बर पहुंचकर जापान द्वारा विश्व युद्ध में मारे गए अमेरिकन सिपाहियों को श्रद्धांजलि देता है। 

आधुनिक समय में माफी देने-लेने का यह सिलसिला मुझे खासा दिलचस्प प्रतीत होता है। हमारे ज्ञानी लोकसभा सदस्य शशि थरूर कुछ माह पहले इंग्लैंड जाकर सलाह दे आए हैं कि इंग्लैंड को भारत से अपना उपनिवेश बनाने के लिए माफी मांगना चाहिए।  मेरी समझ में किसी व्यक्ति को मरणोपरांत भारत रत्न या पद्म पुरस्कार देना समझ नहीं आता। वैसे ही सौ, दो सौ, पांच सौ साल बाद एक देश द्वारा दूसरे देश से अतीत के किन्हीं अपराधों के लिए क्षमायाचना करने की बात भी समझ नहीं आती। सुदूर इतिहास की किसी घटना के लिए वर्तमान पीढ़ी को उत्तरदायी क्यों माना जाए और वह भी आज की बहुत तेजी के साथ बदलती स्थितियों में। मुझे नहीं लगता कि इससे दो देशों के आपसी संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में कोई बहुत फर्क पड़ता हो। आज तो वैसे भी संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में मिठास व्यापार से आती है। बाकी सारी बातें शिष्टाचार के नाते की जाती हैं। 

यह व्यापार ही तो है जिसके चलते दुनिया के भूगोल में कई बार परिवर्तन हुए हैं और राजनीतिक इतिहास में नए-नए मोड़ आए  हैं। अमेरिका ने लैटिन अमेरिकी देशों को हमेशा अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहा, जिसका सफल प्रतिकार सबसे पहले फिदेल कास्त्रो के क्यूबा ने किया। कास्त्रो की राह पर ही वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज, ब्राजील के जेवियर लूला, बोलेविया के इवो मोरालेस आदि चले, अर्जेन्टीना के नेस्टर किर्चनर ने भी काफी हद तक उसी रास्ते  को अपनाया। यह सब अमेरिका को पसंद नहीं आया, परिणाम सामने है। ब्राजील में राष्ट्रपति दिलमा रूसेफ को संसद में महाभियोग लाकर हटाकर एक कार्पाेरेट मुखिया को राष्ट्रपति बना दिया गया। वेनेजुएला में राष्ट्रपति निकोलस मदुरो को हटाने की कोशिशें हो रही हैं। अर्जेन्टीना में पूर्व राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्चनर के ऊपर मुकदमे की तैयारी चल रही है। इधर रूस और चीन की निकटता बढ़ी है। पाकिस्तान के साथ भी रूस ने संबंध बढ़ाए हैं। चीन ने भारत को ‘‘वन बेल्ट वन रोड’’ परियोजना में भागीदार बनने के लिए आमंत्रित किया है। भारत अभी तय नहीं कर पा रहा है कि वह समयसिद्ध मित्र रूस के साथ कहां तक संबंध निभाए, पाकिस्तान के प्रति उसकी नीति क्या हो और चीन से रिश्तों की शक्ल क्या बने। 

अफ्रीका और अरब देशों की स्थितियां समझना अक्सर कठिन होता है। अधिकतर देशों में या तो एकदलीय लोकतंत्र है, या फिर सैन्यतंत्र अथवा राजतंत्र। अभी घाना में कई वर्षों बाद एक नया राष्ट्रपति चुना गया, पुराने राष्ट्रपति जो महामा ने सहज भाव से सत्ता छोड़ दी; लेकिन पड़ोसी गांबिया में चुनाव में हारने के बाद राष्ट्रपति याह्या जम्मेह पद छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। इजिप्त में सैन्य शासन चल ही रहा है। सूडान का विभाजन हो जाने के बाद भी सूडान और दक्षिणी सूडान दोनों में अशांति कायम है। नाइजीरिया में बोको हराम पर काफी कुछ नियंत्रण पा लिया गया है लेकिन सोमालिया में स्थिति पहले की तरह खराब है। सऊदी अरब में महिलाओं को स्वतंत्रता देने की छुटपुट पहल चल रही है, किन्तु कैसे भूला जाए कि अमेरिका और सऊदी अरब ने मिलकर ही इस्लामिक स्टेट नामक दैत्य को जन्म दिया जिसकी चपेट में यमन, सीरिया, इराक आदि अनेक देश आ चुके हैं। अपने आपको यूरोप का हिस्सा मानने वाला तुर्की भी ऊहापोह में है कि वह प्रतिगामी ताकतों का साथ दे या जमाने के साथ चले। कुल मिलाकर पश्चिम एशिया व अफ्रीका में खलबली मची हुई है। 

यूरोप में भी स्थितियां गड्ड-मड्ड हैं। ब्रेक्सिट और ट्रंप के बाद फ्रांस में उग्र राष्ट्रवादी पार्टी की नेता मैरीन ला पैन बहुत उत्साह में हैं कि अब राष्ट्रपति बनने का उनका समय आ गया है। जर्मनी में भी इस साल चुनाव होना है। एंजेला मर्केल चौथी बार चांसलर याने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ेंगी, किन्तु उनके समान परिपक्व समझ वाली नेता को भी भय होगा कि राष्ट्रवाद की नई लहर से वे कैसे पार पाएं। दरअसल एक समय था जब यूरोपीय देशों ने अफ्रीका में अपने उपनिवेश कायम किए थे। पूरा महाद्वीप इंग्लैंड और फ्रांस के बीच लगभग बंट गया था। बीच-बीच में  इटली, पुर्तगाल, नीदरलैंड, बेल्जियम आदि के उपनिवेश कायम थे। आज उन पूर्ववर्ती गुलाम देशों के नागरिक सुनहरे भविष्य की तलाश में यूरोप का रुख कर रहे हैं। इसे लेकर यूरोप का लगभग हर देश दो पक्षों में बंट गया है- उदार और अनुदार। उदार वर्ग मानता है कि जिन देशों को आपने कंगाल बना दिया, आज उनकी सहायता करना आपका धर्म है। अनुदार पक्ष इसे मानने तैयार नहीं है। इससे नए पेंच पैदा हो रहे हैं। 

मैं वहां लौटता हूं जहां से बात  शुरू की थी। यह उदार और अनुदार का श्रेणी-भेद आज जितना स्पष्ट है, इतना शायद पहले कभी नहीं था। विश्व में व्यापार तो हजारों सालों से चला आ रहा है। अतिप्राचीन समय में भी व्यापारियों की यात्राएं दूर-दूर के देशों में होती थीं। आखिरकार सिल्क रुट पर व्यापार कैसे होता था! भारत और अरब देशों के बीच भी घनिष्ठ व्यापारिक संबंध थे। यहां तक कि हमारे व्यापारी काकेशस के पहाड़ी मुल्कों तक जाया करते थे। जिस तरह व्यापार ने विश्व के एक बड़े हिस्से को एक सूत्र में बांधने का काम किया, वैसे  ही आगे चलकर फिर धर्म ने। जब विभिन्न धर्म के प्रचारकों ने देश-देशांतर की यात्राएं कीं और वहां के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। बीसवीं सदी में वैश्वीकरण का एक नया दौर प्रारंभ हुआ। विश्व-ग्राम की बात की जाने लगी, लेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाया? 

यदि हम इंग्लैंड और अमेरिका के ताजा राजनीतिक हालात देखें, फ्रांस और जर्मनी में उभर रही प्रवृत्तियों को जानें, राष्ट्रपति पुतिन की सफलता का रहस्य समझने की कोशिश करें, भारत में नरेन्द्र मोदी को प्राप्त समर्थन का विश्लेषण करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व के विभिन्न समाजों को उदारता रास नहीं आ रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसका समीचीन विश्लेषण करना आज की महती आवश्यकता है और यह बुद्धिजीवी वर्ग के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जनतांत्रिक प्रणाली वाले देशों में शासक वर्ग ने शायद जनता का विश्वास खो दिया है। मसलन अमेरिका में बराक ओबामा आठ साल राष्ट्रपति रहे। वे एक युवा, स्फूर्तिवान, हंसमुख नेता और ओजस्वी वक्ता हैं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इस्लामिक स्टेट का जन्म ही उनके कार्यकाल में हुआ और उनकी सरकार ने उसे बढ़ावा दिया। अमेरिका और ब्रिटेन दोनों में मतदाताओं को लगा कि जब तक वे सरकार नहीं बदलेंगे उनकी रोजी-रोटी का सवाल हल नहीं होगा। कार्ल माक्र्स ने कभी दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा दिया था, लेकिन आज की हकीकत तो यही है कि औद्योगिक देशों में बाहर से मजदूर आने के कारण स्थानीय जनता को अपनी आजीविका छिन जाने का डर लगने लगा है। दूसरी ओर अमेरिका ने सभ्यता के संघर्ष की अवधारणा को मानते हुए शिया-सुन्नी संघर्ष बढ़ाने के लिए इस्लामिक स्टेट को उत्पन्न किया, बिना यह जाने-समझे कि यह भस्मासुर सारी दुनिया में क्या कहर ढाएगा। इस अविचारित नीति का परिणाम हॉलैण्ड और जर्मनी से लेकर इंडोनेशिया और फिलीपींस तक देखने मिल रहा है। और इसमें जो मर रहे हैं, बेघर हो रहे हैं वे निर्दोष लोग हैं उनमें दो ढाई साल के निष्पाप शिशु भी हैं जिनकी तस्वीरें सीरिया में देखी और म्यांमार में भी। 

अभी कुछ साल पहले तर्क दिया जाता था कि जब पूंजी एक देश से दूसरे देश जा सकती है तो कामगारों का आवागमन भी उतना ही सुलभ क्यों न हो। जाहिर है कि यह तर्क खोखला सिद्ध हुआ। इस स्थिति में समाजचिंतकों के समक्ष नए सिरे से अपनी भूमिका तय करने का वक्त आ गया है। जितने भी राजनीतिक दर्शन हैं वे आज तक उन्होंने ही स्थापित और परिभाषित किए हैं, सुकरात और अरस्तू से लेकर मार्क्स और गांधी तक। आज विश्व की जो परिस्थितियां हैं उनकी नए सिरे से व्याख्या करना आवश्यक है। यह विडम्बना है कि एक ओर प्रौद्योगिकी ने देशकाल की बहुत सी सीमाओं को तोड़ दिया है, दूसरी तरफ समाज खुद को सीमाओं में बांधते जा रहा है। उसका भय और संकोच कैसे समाप्त हो, उसमें उदात्त भावों का विकास कैसे हो, इसके लिए एक नई योजना, एक नया रोड मैप तैयार करना समय की न टाली जा सकने वाली मांग है। अन्यथा हम लकीर पीटते रहेंगे और प्रतिगामी, पुनरुत्थानवादी ताकतें विजय घोष के साथ आगे बढ़ती जाएंगी। इतिहास गवाह है कि हिटलर के उदय को समय रहते नहीं समझा गया, जिसकी भारी कीमत विश्व समाज को चुकानी पड़ी। वे खौफनाक दिन दुनिया के किसी भी देश में कभी भी नई शक्ल लेकर लौट सकते हैं। इस चेतावनी की अनसुनी करेंगे तो आने वाली पीढिय़ां हमें अपराधी मानकर धिक्कारेंगी। 
 
अक्षर पर्व फरवरी 2017 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday, 1 February 2017

ट्रंप का एजेंडा


संयुक्त राज्य अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूर्व घोषित एजेण्डे पर अमल प्रारंभ कर दिया है। एक तो उन्होंने अमेरिका और मैक्सिको के बीच दीवार खड़ी करने के संकल्प को दोहराया। इसमें उन्होंने कहा कि दीवार बनाने के खर्च में मैक्सिको को भी अपना हिस्सा वहन करना होगा। इससे मैक्सिको ने साफ तौर पर इंकार कर दिया।  मैक्सिकन राष्ट्रपति ने अपनी प्रस्तावित अमेरिका यात्रा भी स्थगित कर दी। इसके बाद ट्रंप ने सात मुस्लिम बहुल देशों के अमेरिका में शरण लेने पर तीस दिन की अवधि के लिए प्रतिबंध लगा दिया है। यही नहीं, इन देशों के जो नागरिक शरणार्थी बनकर अमेरिका में रह रहे हैं उन्हें वापिस भेजने के कदम भी नई सरकार उठा रही है। डोनाल्ड ट्रंप ने तीसरा महत्वपूर्ण निर्णय ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप संधि को खत्म करने का लिया है। और हां, इन सबके पहले अमेरिका के गरीब नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा सुनिश्चित करने वाले कार्यक्रम पर भी उन्होंने रोक लगा दी। ओबामा केयर के नाम से परिचित यह कार्यक्रम पूर्व राष्ट्रपति द्वारा लिया गया संभवत: सबसे महत्वपूर्ण जनहितैषी कार्यक्रम था।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप इस तरह जो ताबड़तोड़ निर्णय ले रहे हैं उसका अमेरिका में ही नहीं, विश्व समुदाय में घोर विरोध हो रहा है। जर्मनी की राजधानी बर्लिन के मेयर ने एक सार्वजनिक पत्र लिखकर ट्रंप को उनकी ही रिपब्लिकन पार्टी से चुने गए राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के उस कथन की याद दिलायी है कि दुनिया में दीवारें टूटना चाहिए। बर्लिन के मेयर ने कहा है कि हमारे शहर के लोग एक दूर देश में सही, एक नई दीवार का बनना खामोश रहकर नहीं देख सकते। हम बर्लिनवासी जानते हैं कि कैसे सिर्फ एक दीवार और कांटेदार तारों के कारण एक महाद्वीप कैसे विभाजित हो गया था जिसकी वेदना हमें झेलना पड़ी थी। मेरी अमेरिका के राष्ट्रपति से अपील है कि वे जनता को विभाजित करने वाले रास्ते पर न चलें। ऐसे विभाजन जहां भी हुए हैं जैसे कोरिया और साइप्रस में, वहां जनता को गुलामी और दर्द झेलना पड़ा है। मैं याद दिलाना चाहता हूं कि बर्लिन की दीवार तोडऩे में अमेरिका ने हमारी मदद की थी। हम अमेरिका को स्वतंत्रता की भूमि के रूप में देखते हैं। राष्ट्रपति जी! मेहरबानी करके दीवार खड़ी मत कीजिए। दूसरी ओर अमेरिका में ही पोस्टर प्रदर्शित किए जा रहे हैं कि दीवार खड़ी कीजिए, लेकिन धर्म और राज्य के बीच में, न कि जनता के बीच में।

सात मुस्लिम देशों से आए शरणार्थियों को रोकने व वापिस भेजने के निर्णय की भी व्यापक प्रतिक्रिया हुई है। देश की एक अदालत ने इस निर्णय पर स्टे दे दिया है। इस आदेश में कहा गया है कि जिन्हें वाशिंगटन के डलेस इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर रोका गया है उन्हें कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाए और अगले सात दिनों तक उन्हें वापिस न भेजा जाए। इसी तरह न्यूयार्क  महानगरपालिका जेएफके एयरपोर्ट पर इन शरणार्थियों की मदद में जुट गई है। न्यूयार्क के मेयर के दफ्तर से फोटो और समाचार जारी हो रहे हैं कि शरणार्थियों को नि:शुल्क कानूनी सहायता मुहैय्या कराई जा रही है ताकि उन्हें आनन-फानन में वापिस भेजने की कार्रवाई न हो सके। ट्रंप को यह जानकर धक्का लगा होगा कि उनकी पार्टी के ही सीनेटर बेन सास ने राष्ट्रपति के निर्णय की खुलकर आलोचना की है। सीनेटर ने अपने बयान में कहा है कि हर मुसलमान जेहादी नहीं होता, जबकि राष्ट्रपति के आदेश से इसके विपरीत संदेश जा रहा है। और तो और, ट्विटर ने भी अपनी ओर से ट्वीट किया है कि ट्विटर का निर्माण सभी धर्मों के अप्रवासियों ने मिलकर किया है और उसका पूरा समर्थन शरणार्थियों को है। अमेरिका के एक प्रतिष्ठित राजनीतिक अध्येता इयान ब्रेमर ने तो यहां तक कहा है कि यह मुस्लिमों पर लगाया गया प्रतिबंध नहीं है बल्कि उन देशों पर है जिनके साथ डोनाल्ड ट्रंप के व्यवसायिक हित जुड़े हुए नहीं है। बे्रमर ने याद दिलाया है कि विश्व की पांच सौ बड़ी कंपनियों (फार्च्यून-500) में से चालीस प्रतिशत अप्रवासियों अथवा उनकी संतानों द्वारा प्रारंभ की गई हैं। एक अन्य खबर है कि जिन आठ-दस बड़ी कंपनियों ने शरणार्थियों पर प्रतिबंध का विरोध किया है उनमें ट्विटर के अलावा माइक्रोसाफ्ट, गूगल, एप्पल, फेसबुक, टेसला, उबेर आदि शामिल है।

यदि बर्लिन के मेयर ने डोनाल्ड ट्रंप को रोनाल्ड रीगन की याद दिलाई है तो किसी अन्य टीकाकार ने एक अन्य रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश  का भाषण उद्धृत किया है, जिसमें उन्होंने विश्व के मुसलमानों को सीधे संबोधित करते हुए कहा था कि हम आपकी आस्था का सम्मान करते हैं। अमेरिका में लाखों मुसलमान अपने धर्म का निर्भय होकर पालन करते हैं। अमेरिका के मित्र राष्ट्रों में भी लाखों लोग इस्लाम को मानते हैं। आपके धर्म की सीख शांतिपूर्ण और सुंदर है। जो आतंकवादी हैं वे अल्लाह के नाम को बदनाम करते हैं। अमेरिका के दुश्मन मुसलमान नहीं है, न ही अरब देश; बल्कि जेहादियों के संगठन और उनका समर्थन करने वाली सरकारें हैं। ध्यान दीजिए कि ये जॉर्ज डब्ल्यू बुश वही थे जिनके शासन में ईराक और अफगानिस्तान पर आक्रमण हुए लेकिन बुश को इतनी समझ तो थी कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की राह सीधी सपाट नहीं होती और रोड-रोलर चला कर अपना लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। डोनाल्ड ट्रंप के सात मुस्लिम देशों के शरणार्थियों पर रोक लगाने से भारत में एक वर्ग को काफी खुशी हुई होगी लेकिन उन्हें यह जानकर निराशा होगी कि ट्रंप ने पाकिस्तान पर अभी तक कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है और न ऐसा करने का कोई इरादा है।

यह इतिहास की विडंबना है कि ट्रंप की कुदृष्टि जिन सात देशों पर पड़ी है वहां के वर्तमान हालात के लिए स्वयं अमेरिका बड़ी हद तक जिम्मेदार है। यह अमेरिका ही था जिसने इराक और ईरान के बीच दस साल तक चले खाड़ी युद्ध को प्रोत्साहित किया जिससे दोनों देश आंतरिक रूप से बहुत कमजोर हो गए। ईरान का शासक रजा शाह पहलवी अमेरिका का पिठ्ठू था। उसके खिलाफ बगावत हुई और अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में अमेरिका विरोधी शिया कट्टरपंथी सरकार काबिज हुई जो अमेरिका को  नागवार गुजरी। उस समय से बिगड़े संबंध अभी तक सामान्य नहीं हो सके हैं। आज ईरान से जो लोग भागकर अमेरिका में पनाह मांग रहे हैं वे अपने ही देश की सरकार द्वारा सताए गए लोग हैं। यह सीधी बात ट्रंप की बुद्धि में नहीं आ रही है। ईराक के सद्दाम हुसैन की अमेरिकापरस्ती हमने देखी है। उसी सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया, जबकि हकीकत उससे बिल्कुल विपरीत थी। आज ईराक में अमेरिकापरस्त सरकार है। इसके बाद अगर वहां से शरणार्थी आ रहे हैं तो उनसे अमेरिका को क्यों कर गुरेज होना चाहिए?

जो ईरान की स्थिति है ठीक वैसे ही हालात लीबिया के हैं। कर्नल गद्दाफी की पराजय और मौत के बाद आज उस देश पर अमेरिका का ही कब्जा है ऐसा कहें तो गलत नहीं होगा, लेकिन अपने देश की बदहाली से परेशान लोग बेहतर जीवन की तलाश में अमेरिका का रुख कर रहे हैं तो वे आतंकवादी कैसे हो गए? यमन, सोमालिया और सूडान में भी स्थितियां बहुत खराब है। सूडान को तो पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतों ने मिलकर दो देशों में बांट दिया। यहां से जो शरणार्थी आ रहे हैं वे अपनी ही सरकार से डरकर भागे हुए लोग हैं। सीरिया की जहां तक बात है वहां तो गृहयुद्ध भडक़ाने का काम अमेरिका ने ही किया था। वहां की  विद्रोही सेना को अमेरिका ने ओबामा के समय में लगातार मदद पहुंचायी, तो फिर वहां से जो लोग आ रहे हैं क्या उन्हें पनाह देना अमेरिका की नैतिक जिम्मेदारी नहीं है?

जितना हम जानते हैं ट्रंप एक अत्यंत सफल व्यापारी तो हैं, लेकिन राजनीति से उनका अब तक इतना ही वास्ता रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी को समय-समय पर चंदा देते रहे हैं। वे राष्ट्रपति कैसे बन गए यह अलग विश्लेषण का विषय है किन्तु ऐसा लगता है कि ट्रंप कुछ घोर अनुदारपंथी व्यवसायी मित्रों की सलाह पर काम कर रहे हैं। उनका शायद मानना है कि आज के वैश्विक परिदृश्य में भी अमेरिका एक द्वीप बनकर रह सकता है, जहां दुनिया के बाकी देशों के साथ व्यापारिक रिश्तों के अलावा और कोई खास संबंध न रहे। ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप पर अमल न करने का निर्णय इसी सोच को दर्शाता है, लेकिन ऐसे में अमेरिका में जो बहुराष्ट्रीय निगम हैं, जो द वल्र्ड इज फ्लैट के सिद्धांत पर चलकर सफलताएं अर्जित करते आए हैं, उनका क्या होगा? अमेरिका अपनी खोल में छुपेगा तो क्या चीन उस जगह को भरने से पीछे हटेगा? ऐसे और भी सवाल हैं जिनका जवाब पाने के लिए प्रतीक्षा करनी होगी।

देशबंधु में 02 फरवरी 2017 को प्रकाशित