Sunday, 19 February 2017

वैलेंटाइन डे और अन्य बातें



यह 12 फरवरी याने वैलेंटाइन डे से दो दिन पूर्व की बात है। हम एक साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम के सिलसिले में खैरागढ़ जा रहे थे। जालबांधा के कुछ पहले एक गांव में सडक़ पर कुछ लोग खड़े होकर आती-जाती गाडिय़ों को रोक रहे थे। हमें लगा कि कोई चंदा मांगने वाले होंगे। लेकिन नहीं, वे तो परचे बांट रहे थे। बाजू की खुली मैदाननुमा जगह में उनके तीन-चार वाहन खड़े थे, जिनमें वे आए होंगे। एक भारवाहक छोटा वाहन भी था, जिसमें परचों के गठ्ठर भरे थे। वे उस इलाके में एक मिशन पर निकले थे। हमने उनकी गाड़ी पर लगा बैनर देखकर उनसे परचा लेने से इंकार कर दिया। आगे बढ़े तो सडक़ पर यहां-वहां परचे बिखरे हुए थे, जो हमसे आगे गए वाहनचालकों ने देख-दिखाकर फेंक दिए थे। हमारे सामने ही एक बाइक पर पीछे बैठे सवार ने परचा देखा और फेंक दिया। 
 ये उत्साहीजन तथाकथित साधु आसाराम के चेले थे और 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे पर मातृ-पितृ पूजन दिवस मनाने का आह्वान करने वाले परचे बांट रहे थे। अपने देश में सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी है, इसलिए वे जो कर रहे थे, उस पर मैं भला आपत्ति क्यों करूं? आपत्ति की बात तो तब है जब कोई अपनी आज़ादी को दूसरे की आज़ादी से ज्यादा अहम माने तथा अपनी बात मनवाने के लिए हिंसक उपायों का सहारा ले। ये तो शांति के साथ परचे ही वितरित कर रहे थे।  लेकिन मुझे इन भक्तजनों की वैचारिक दुर्बलता और अंधश्रद्धा को देखकर आश्चर्य और अफसोस हुआ। क्या इन्हें नहीं पता कि जिसे ये अपना आराध्य मान रहे हैं वह अदालत द्वारा घोषित अपराधी है। उस पर संगीन जुर्मों की दफाएं कायम हैं। वह जेल में है और उसके रिकार्ड को देखते हुए अदालत से बार-बार उसकी जमानत अर्जी खारिज हो रही है। ऐसे व्यक्ति पर होशोहवास में कोई भी जन कब तक श्रद्धा रख सकता है? क्या वे सम्मोहन पाश में बंधे हैं या वेतनभोगी कर्मचारी हैं? क्या आसाराम का साम्राज्य जेल के भीतर से भी संचालित हो रहा है?
ये तो खैर, परचे ही बांट रहे थे। छिंदवाड़ा के जिला कलेक्टर के बारे में क्या कहें जिन्होंने बाकायदा शासकीय आदेश निकाला कि जिले की शिक्षण संस्थाओं में 14 फरवरी को मातृ-पितृ पूजन दिवस के रूप में मनाया जाए। आईएएस जिलाधीश महोदय को कायदे-कानून की जानकारी पर संदेह करना उचित नहीं किन्तु यह तो उनसे पूछा ही जा सकता है कि ऐसा आदेश उन्होंने देश के किस कानून के अंतर्गत जारी किया? प्रसंगवश, छिंदवाड़ा वह जिला है जहां आसाराम के आश्रम में बच्चों की हत्या होने जैसी ख़बरें कुछ वर्ष पूर्व आई थीं। क्या जिलाधीश आसाराम के शिष्य हैं जो उन्होंने आदेश निकाला या फिर इसके लिए उन्हें राज्य शासन से कोई आदेश मिला था? जो भी हो, स्पष्ट है कि एक उच्चाधिकारी ने यहां अपने पद की मर्यादा का उल्लंघन किया है। इधर छत्तीसगढ़ में भी संभवत् किसी शासकीय निर्णय के तहत स्कूलों में वैलेंटाइन डे को इस नए रूप में मनाने की खबरें मिली हैं। यहां भी कोई नेता, मंत्री, अधिकारी इसमें लिप्त हैं?
इस प्रसंग का तीसरा पक्ष भी है जो खासा अहमकाना है। सोशल मीडिया पर विगत दो-तीन वर्ष से खबरें आ रही हैं कि 14 फरवरी को शहीदे-आजम भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु का बलिदान दिवस है कि अंग्रेजों ने उन्हें इसी दिन फांसी के तख्ते पर चढ़ाया था। यह झूठी और बहकाने वाली खबर कौन पोस्ट कर रहा है और इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य है? आपको वैलेंटाइन डे नहीं मनाना है तो न मनाएं परंतु इस तरह इतिहास से खिलवाड़ करने का हक इन्हें किसने दिया? कौन नहीं जानता कि भगत सिंह व उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। ऐसी झूठी बातें करने से यही सिद्ध होता है कि इन लोगों के मन में न शहीदों के प्रति कोई सम्मान है और न इतिहास के प्रति। इन्हें अपराधी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्या ये वही लोग तो नहीं हैं जो गांधी-नेहरू के खिलाफ भी दिन-रात विषवमन करते रहते हैं? क्या ये वे तो नहीं जो गोडसे के मंदिर बनाने चाहते हैं? इन्हें शायद अपने मंसूबे पूरे करने के लिए इतिहास बदलना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। एक तरफ ये पोस्ट करने वाले, दूसरी ओर छिंदवाड़ा के कलेक्टर जैसे लोग, तीसरी ओर आसाराम जैसों की टोली, इस तरह राजनीति, अफसरशाही और नकली साधुओं का एक त्रिगुट बन गया है जिससे सावधान रहने की आवश्यकता है।
वैलेंटाइन डे पर हर साल खड़ा होने वाला तमाशा मानो पर्याप्त न हो, भारत के आधुनिक समय के एक विश्व-विख्यात कारपोरेट घराने के प्रमुख ने एक अजीबोगरीब बयान देकर सबको हैरत में डाल दिया। इन्फोसिस के वर्तमान मुख्य कार्यकारी अधिकारी याने सीईओ विशाल सिक्का ने अपने इस बयान में कहा कि मैं क्षत्रिय योद्धा हूं और पद नहीं छोड़ूंगा। श्री सिक्का को साल-दो साल पहले ही नारायणमूर्ति ने इन्फोसिस का प्रमुख बनाया था। हाल में नारायणमूर्ति ने विशाल सिक्का की कार्यशैली की कटु आलोचना की थी, जिसका यह जवाब श्री सिक्का ने दिया है। कारपोरेट प्रतिष्ठान हो या कोई और संगठन, आपसी मतभेद होना, यहां तक कि कटुता उत्पन्न हो जाना कोई नई बात नहीं है। स्वयं नारायणमूर्ति की आलोचना उस समय हुई थी जब उन्होंने अध्यक्ष पद त्यागने के कुछ अरसे बाद दुबारा हासिल कर लिया था। इन्फोसिस के संस्थापक और कंपनी को वैश्विक प्रतिष्ठा मिलने में उनका भारी योगदान रहा है और इसलिए वे कंपनी अपनी इच्छानुसार न चलने से क्षुब्ध हो सकते हैं। विशाल सिक्का को भी उनका हस्तक्षेप नागवार गुजरे तो स्वाभाविक है। लेकिन इसमें जाति का प्रश्न कहां से आ गया?
इन्फोसिस जैसी कंपनी जो आधुनिकतम तकनीकी का व्यापार करती है, उसके कर्ता-धर्ता से ऐसी प्रतिगामी सोच की उम्मीद तो शायद ही किसी ने की हो! श्री सिक्का इत्यादि उस वर्ग से आते हैं जो उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में व्याप्त जातिवाद को नीची निगाहों से देखते हैं, इनके नागरिकों को गंवार व पिछड़ा हुआ निरूपित करते हैं। इन्हें अपनी बुद्धि की श्रेष्ठता, अपनी ऊंची-ऊंची डिग्रियों का अभिमान होता है जिसे जतलाने से ऐसे लोग कभी चूकते नहीं हैं। लेकिन जब खुद के स्वार्थों पर आ बनती है तो बड़े जतन से ओढ़ा हुआ सभ्यता का नकाब नीचे गिर जाता है। आखिर यही लोग तो हैं जो निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के घोर विरोधी हैं। विगत कई वर्षों में सरकार द्वारा इस बारे में की गई अपीलों को ये तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देते हैं और फिर बॉलीवुड की किसी फिल्म के अंदाज़ में अपनी जाति गौरव का बखान करते हैं। हमें अभी तक सिक्काजी की जात पता नहीं थी। अब पता चल गई है तो अच्छा है कि आगामी महाराणा प्रताप जयंती पर इनका कहीं सम्मान करवा दिया जाए।
सवर्ण उच्चता का यह दर्प सिर्फ सिक्काजी ने दिखाया हो ऐसा नहीं है। जाने-माने टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई भी ऐसा कर चुके हैं। अभी उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनावों में जातीय समीकरणों पर दुख जतलाते हुए कहा कि जाने कब भारत इस अभिशाप से मुक्त होगा। इस पर उन्हें तुर्की-ब-तुर्की जवाब मिला- जिस दिन आप गौड़ सारस्वत श्रेष्ठता का बखान बंद कर देंगे। हुआ यह कि जब मनोहर पार्रीकर व सुरेश प्रभु केन्द्रीय मंत्री बने तो सरदेसाई ने लिखा कि इन दोनों गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों के मंत्री बनने से वे भी उसी जाति का होने के नाते गौरव महसूस कर रहे हैं। इस टिप्पणी में उनका कुलीनता बोध उभर आया था। सवाल यह है कि आम जनता किनसे प्रेरणा ले जब कथित तौर पर समाज का नेतृत्व कर रहे लोगों के मनोभाव इतने संकुचित हों?
सच तो यह है कि भारतीय समाज का वर्चस्ववादी वर्ग दुनिया की सारी नेमतें खुद के लिए चाहता है और उसकी पूरी कोशिश होती है कि जो निचली पायदानों पर हैं हाशिए पर हैं, उनके हिस्से कुछ न आए। उनकी वक्रदृष्टि इन पर न पड़े, इसीलिए वे उन्हें भांति-भांति के मकडज़ालों में फंसाकर व्यस्त रखते हैं। यह दुष्चक्र तभी टूटेगा जब वैज्ञानिक चेतना से लैस सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी सामने आएगी। कन्हैया कुमार जैसे अपवादों को छोड़ दें तो वह दिन बहुत दूर लगता है।
देशबंधु में 19 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

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