संयुक्त राज्य अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूर्व घोषित एजेण्डे पर अमल प्रारंभ कर दिया है। एक तो उन्होंने अमेरिका और मैक्सिको के बीच दीवार खड़ी करने के संकल्प को दोहराया। इसमें उन्होंने कहा कि दीवार बनाने के खर्च में मैक्सिको को भी अपना हिस्सा वहन करना होगा। इससे मैक्सिको ने साफ तौर पर इंकार कर दिया। मैक्सिकन राष्ट्रपति ने अपनी प्रस्तावित अमेरिका यात्रा भी स्थगित कर दी। इसके बाद ट्रंप ने सात मुस्लिम बहुल देशों के अमेरिका में शरण लेने पर तीस दिन की अवधि के लिए प्रतिबंध लगा दिया है। यही नहीं, इन देशों के जो नागरिक शरणार्थी बनकर अमेरिका में रह रहे हैं उन्हें वापिस भेजने के कदम भी नई सरकार उठा रही है। डोनाल्ड ट्रंप ने तीसरा महत्वपूर्ण निर्णय ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप संधि को खत्म करने का लिया है। और हां, इन सबके पहले अमेरिका के गरीब नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा सुनिश्चित करने वाले कार्यक्रम पर भी उन्होंने रोक लगा दी। ओबामा केयर के नाम से परिचित यह कार्यक्रम पूर्व राष्ट्रपति द्वारा लिया गया संभवत: सबसे महत्वपूर्ण जनहितैषी कार्यक्रम था।
सात मुस्लिम देशों से आए शरणार्थियों को रोकने व वापिस भेजने के निर्णय की भी व्यापक प्रतिक्रिया हुई है। देश की एक अदालत ने इस निर्णय पर स्टे दे दिया है। इस आदेश में कहा गया है कि जिन्हें वाशिंगटन के डलेस इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर रोका गया है उन्हें कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाए और अगले सात दिनों तक उन्हें वापिस न भेजा जाए। इसी तरह न्यूयार्क महानगरपालिका जेएफके एयरपोर्ट पर इन शरणार्थियों की मदद में जुट गई है। न्यूयार्क के मेयर के दफ्तर से फोटो और समाचार जारी हो रहे हैं कि शरणार्थियों को नि:शुल्क कानूनी सहायता मुहैय्या कराई जा रही है ताकि उन्हें आनन-फानन में वापिस भेजने की कार्रवाई न हो सके। ट्रंप को यह जानकर धक्का लगा होगा कि उनकी पार्टी के ही सीनेटर बेन सास ने राष्ट्रपति के निर्णय की खुलकर आलोचना की है। सीनेटर ने अपने बयान में कहा है कि हर मुसलमान जेहादी नहीं होता, जबकि राष्ट्रपति के आदेश से इसके विपरीत संदेश जा रहा है। और तो और, ट्विटर ने भी अपनी ओर से ट्वीट किया है कि ट्विटर का निर्माण सभी धर्मों के अप्रवासियों ने मिलकर किया है और उसका पूरा समर्थन शरणार्थियों को है। अमेरिका के एक प्रतिष्ठित राजनीतिक अध्येता इयान ब्रेमर ने तो यहां तक कहा है कि यह मुस्लिमों पर लगाया गया प्रतिबंध नहीं है बल्कि उन देशों पर है जिनके साथ डोनाल्ड ट्रंप के व्यवसायिक हित जुड़े हुए नहीं है। बे्रमर ने याद दिलाया है कि विश्व की पांच सौ बड़ी कंपनियों (फार्च्यून-500) में से चालीस प्रतिशत अप्रवासियों अथवा उनकी संतानों द्वारा प्रारंभ की गई हैं। एक अन्य खबर है कि जिन आठ-दस बड़ी कंपनियों ने शरणार्थियों पर प्रतिबंध का विरोध किया है उनमें ट्विटर के अलावा माइक्रोसाफ्ट, गूगल, एप्पल, फेसबुक, टेसला, उबेर आदि शामिल है।
यदि बर्लिन के मेयर ने डोनाल्ड ट्रंप को रोनाल्ड रीगन की याद दिलाई है तो किसी अन्य टीकाकार ने एक अन्य रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश का भाषण उद्धृत किया है, जिसमें उन्होंने विश्व के मुसलमानों को सीधे संबोधित करते हुए कहा था कि हम आपकी आस्था का सम्मान करते हैं। अमेरिका में लाखों मुसलमान अपने धर्म का निर्भय होकर पालन करते हैं। अमेरिका के मित्र राष्ट्रों में भी लाखों लोग इस्लाम को मानते हैं। आपके धर्म की सीख शांतिपूर्ण और सुंदर है। जो आतंकवादी हैं वे अल्लाह के नाम को बदनाम करते हैं। अमेरिका के दुश्मन मुसलमान नहीं है, न ही अरब देश; बल्कि जेहादियों के संगठन और उनका समर्थन करने वाली सरकारें हैं। ध्यान दीजिए कि ये जॉर्ज डब्ल्यू बुश वही थे जिनके शासन में ईराक और अफगानिस्तान पर आक्रमण हुए लेकिन बुश को इतनी समझ तो थी कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की राह सीधी सपाट नहीं होती और रोड-रोलर चला कर अपना लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। डोनाल्ड ट्रंप के सात मुस्लिम देशों के शरणार्थियों पर रोक लगाने से भारत में एक वर्ग को काफी खुशी हुई होगी लेकिन उन्हें यह जानकर निराशा होगी कि ट्रंप ने पाकिस्तान पर अभी तक कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है और न ऐसा करने का कोई इरादा है।
यह इतिहास की विडंबना है कि ट्रंप की कुदृष्टि जिन सात देशों पर पड़ी है वहां के वर्तमान हालात के लिए स्वयं अमेरिका बड़ी हद तक जिम्मेदार है। यह अमेरिका ही था जिसने इराक और ईरान के बीच दस साल तक चले खाड़ी युद्ध को प्रोत्साहित किया जिससे दोनों देश आंतरिक रूप से बहुत कमजोर हो गए। ईरान का शासक रजा शाह पहलवी अमेरिका का पिठ्ठू था। उसके खिलाफ बगावत हुई और अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में अमेरिका विरोधी शिया कट्टरपंथी सरकार काबिज हुई जो अमेरिका को नागवार गुजरी। उस समय से बिगड़े संबंध अभी तक सामान्य नहीं हो सके हैं। आज ईरान से जो लोग भागकर अमेरिका में पनाह मांग रहे हैं वे अपने ही देश की सरकार द्वारा सताए गए लोग हैं। यह सीधी बात ट्रंप की बुद्धि में नहीं आ रही है। ईराक के सद्दाम हुसैन की अमेरिकापरस्ती हमने देखी है। उसी सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया, जबकि हकीकत उससे बिल्कुल विपरीत थी। आज ईराक में अमेरिकापरस्त सरकार है। इसके बाद अगर वहां से शरणार्थी आ रहे हैं तो उनसे अमेरिका को क्यों कर गुरेज होना चाहिए?
जो ईरान की स्थिति है ठीक वैसे ही हालात लीबिया के हैं। कर्नल गद्दाफी की पराजय और मौत के बाद आज उस देश पर अमेरिका का ही कब्जा है ऐसा कहें तो गलत नहीं होगा, लेकिन अपने देश की बदहाली से परेशान लोग बेहतर जीवन की तलाश में अमेरिका का रुख कर रहे हैं तो वे आतंकवादी कैसे हो गए? यमन, सोमालिया और सूडान में भी स्थितियां बहुत खराब है। सूडान को तो पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतों ने मिलकर दो देशों में बांट दिया। यहां से जो शरणार्थी आ रहे हैं वे अपनी ही सरकार से डरकर भागे हुए लोग हैं। सीरिया की जहां तक बात है वहां तो गृहयुद्ध भडक़ाने का काम अमेरिका ने ही किया था। वहां की विद्रोही सेना को अमेरिका ने ओबामा के समय में लगातार मदद पहुंचायी, तो फिर वहां से जो लोग आ रहे हैं क्या उन्हें पनाह देना अमेरिका की नैतिक जिम्मेदारी नहीं है?
जितना हम जानते हैं ट्रंप एक अत्यंत सफल व्यापारी तो हैं, लेकिन राजनीति से उनका अब तक इतना ही वास्ता रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी को समय-समय पर चंदा देते रहे हैं। वे राष्ट्रपति कैसे बन गए यह अलग विश्लेषण का विषय है किन्तु ऐसा लगता है कि ट्रंप कुछ घोर अनुदारपंथी व्यवसायी मित्रों की सलाह पर काम कर रहे हैं। उनका शायद मानना है कि आज के वैश्विक परिदृश्य में भी अमेरिका एक द्वीप बनकर रह सकता है, जहां दुनिया के बाकी देशों के साथ व्यापारिक रिश्तों के अलावा और कोई खास संबंध न रहे। ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप पर अमल न करने का निर्णय इसी सोच को दर्शाता है, लेकिन ऐसे में अमेरिका में जो बहुराष्ट्रीय निगम हैं, जो द वल्र्ड इज फ्लैट के सिद्धांत पर चलकर सफलताएं अर्जित करते आए हैं, उनका क्या होगा? अमेरिका अपनी खोल में छुपेगा तो क्या चीन उस जगह को भरने से पीछे हटेगा? ऐसे और भी सवाल हैं जिनका जवाब पाने के लिए प्रतीक्षा करनी होगी।
देशबंधु में 02 फरवरी 2017 को प्रकाशित
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