इस बीच दुनिया में और भी बहुत कुछ हुआ। उनका भी जायजा संक्षेप में लेने में कोई हर्ज नहीं है। सीरिया में लम्बे समय से चला आ रहा गृहयुद्ध पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, किन्तु असद सरकार ने रूस की मदद से आईएस के कब्जे वाले इलाकों को काफी हद तक मुक्त करवा लिया है। उधर इजरायल बराक ओबामा की तमाम चेतावनियों के बावजूद पश्चिमी तट पर नई कॉलोनियां बसाने से बाज नहीं आ रहा है। जो फिलिस्तीनी तीन हजार साल से अपनी धरती छोडक़र कभी बाहर नहीं गए, उन्हें दर-बदर भटकना पड़ रहा है। स्थिति पहले से ज्यादा गंभीर हो गई है। फिलिस्तीन देश के रूप में तो मानो खत्म हो ही चुका है, एक संज्ञा के रूप में भी विश्व की सामूहिक चेतना में अब उसका कोई संज्ञान नहीं है। चीन और जापान के बीच नरम-गरम संबंध बने हुए हैं; लेकिन अभी दक्षिण कोरिया और जापान के रिश्तों में तल्खी पैदा हो गई है। दक्षिण कोरिया ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान में कोरियाई युवतियों को जबरन वेश्यावृत्ति में ढकेलने के त्रासद सच के प्रतीक स्वरूप ‘‘कम्फर्ट वूमन’’ की प्रतिमा सियोल में लगाई है, जिसका सत्तर साल बाद के जापान से कोई सीधा ताल्लुक नहीं बनता है। उधर जापान एक ओर अपनी सैन्य शक्ति मजबूत करने में लगा है, तो वहीं पहली बार जापान विश्व युद्ध में का कोई प्रधानमंत्री पर्ल हार्बर पहुंचकर जापान द्वारा विश्व युद्ध में मारे गए अमेरिकन सिपाहियों को श्रद्धांजलि देता है।
आधुनिक समय में माफी देने-लेने का यह सिलसिला मुझे खासा दिलचस्प प्रतीत होता है। हमारे ज्ञानी लोकसभा सदस्य शशि थरूर कुछ माह पहले इंग्लैंड जाकर सलाह दे आए हैं कि इंग्लैंड को भारत से अपना उपनिवेश बनाने के लिए माफी मांगना चाहिए। मेरी समझ में किसी व्यक्ति को मरणोपरांत भारत रत्न या पद्म पुरस्कार देना समझ नहीं आता। वैसे ही सौ, दो सौ, पांच सौ साल बाद एक देश द्वारा दूसरे देश से अतीत के किन्हीं अपराधों के लिए क्षमायाचना करने की बात भी समझ नहीं आती। सुदूर इतिहास की किसी घटना के लिए वर्तमान पीढ़ी को उत्तरदायी क्यों माना जाए और वह भी आज की बहुत तेजी के साथ बदलती स्थितियों में। मुझे नहीं लगता कि इससे दो देशों के आपसी संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में कोई बहुत फर्क पड़ता हो। आज तो वैसे भी संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में मिठास व्यापार से आती है। बाकी सारी बातें शिष्टाचार के नाते की जाती हैं।
यह व्यापार ही तो है जिसके चलते दुनिया के भूगोल में कई बार परिवर्तन हुए हैं और राजनीतिक इतिहास में नए-नए मोड़ आए हैं। अमेरिका ने लैटिन अमेरिकी देशों को हमेशा अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहा, जिसका सफल प्रतिकार सबसे पहले फिदेल कास्त्रो के क्यूबा ने किया। कास्त्रो की राह पर ही वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज, ब्राजील के जेवियर लूला, बोलेविया के इवो मोरालेस आदि चले, अर्जेन्टीना के नेस्टर किर्चनर ने भी काफी हद तक उसी रास्ते को अपनाया। यह सब अमेरिका को पसंद नहीं आया, परिणाम सामने है। ब्राजील में राष्ट्रपति दिलमा रूसेफ को संसद में महाभियोग लाकर हटाकर एक कार्पाेरेट मुखिया को राष्ट्रपति बना दिया गया। वेनेजुएला में राष्ट्रपति निकोलस मदुरो को हटाने की कोशिशें हो रही हैं। अर्जेन्टीना में पूर्व राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्चनर के ऊपर मुकदमे की तैयारी चल रही है। इधर रूस और चीन की निकटता बढ़ी है। पाकिस्तान के साथ भी रूस ने संबंध बढ़ाए हैं। चीन ने भारत को ‘‘वन बेल्ट वन रोड’’ परियोजना में भागीदार बनने के लिए आमंत्रित किया है। भारत अभी तय नहीं कर पा रहा है कि वह समयसिद्ध मित्र रूस के साथ कहां तक संबंध निभाए, पाकिस्तान के प्रति उसकी नीति क्या हो और चीन से रिश्तों की शक्ल क्या बने।
अफ्रीका और अरब देशों की स्थितियां समझना अक्सर कठिन होता है। अधिकतर देशों में या तो एकदलीय लोकतंत्र है, या फिर सैन्यतंत्र अथवा राजतंत्र। अभी घाना में कई वर्षों बाद एक नया राष्ट्रपति चुना गया, पुराने राष्ट्रपति जो महामा ने सहज भाव से सत्ता छोड़ दी; लेकिन पड़ोसी गांबिया में चुनाव में हारने के बाद राष्ट्रपति याह्या जम्मेह पद छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। इजिप्त में सैन्य शासन चल ही रहा है। सूडान का विभाजन हो जाने के बाद भी सूडान और दक्षिणी सूडान दोनों में अशांति कायम है। नाइजीरिया में बोको हराम पर काफी कुछ नियंत्रण पा लिया गया है लेकिन सोमालिया में स्थिति पहले की तरह खराब है। सऊदी अरब में महिलाओं को स्वतंत्रता देने की छुटपुट पहल चल रही है, किन्तु कैसे भूला जाए कि अमेरिका और सऊदी अरब ने मिलकर ही इस्लामिक स्टेट नामक दैत्य को जन्म दिया जिसकी चपेट में यमन, सीरिया, इराक आदि अनेक देश आ चुके हैं। अपने आपको यूरोप का हिस्सा मानने वाला तुर्की भी ऊहापोह में है कि वह प्रतिगामी ताकतों का साथ दे या जमाने के साथ चले। कुल मिलाकर पश्चिम एशिया व अफ्रीका में खलबली मची हुई है।
यूरोप में भी स्थितियां गड्ड-मड्ड हैं। ब्रेक्सिट और ट्रंप के बाद फ्रांस में उग्र राष्ट्रवादी पार्टी की नेता मैरीन ला पैन बहुत उत्साह में हैं कि अब राष्ट्रपति बनने का उनका समय आ गया है। जर्मनी में भी इस साल चुनाव होना है। एंजेला मर्केल चौथी बार चांसलर याने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ेंगी, किन्तु उनके समान परिपक्व समझ वाली नेता को भी भय होगा कि राष्ट्रवाद की नई लहर से वे कैसे पार पाएं। दरअसल एक समय था जब यूरोपीय देशों ने अफ्रीका में अपने उपनिवेश कायम किए थे। पूरा महाद्वीप इंग्लैंड और फ्रांस के बीच लगभग बंट गया था। बीच-बीच में इटली, पुर्तगाल, नीदरलैंड, बेल्जियम आदि के उपनिवेश कायम थे। आज उन पूर्ववर्ती गुलाम देशों के नागरिक सुनहरे भविष्य की तलाश में यूरोप का रुख कर रहे हैं। इसे लेकर यूरोप का लगभग हर देश दो पक्षों में बंट गया है- उदार और अनुदार। उदार वर्ग मानता है कि जिन देशों को आपने कंगाल बना दिया, आज उनकी सहायता करना आपका धर्म है। अनुदार पक्ष इसे मानने तैयार नहीं है। इससे नए पेंच पैदा हो रहे हैं।
मैं वहां लौटता हूं जहां से बात शुरू की थी। यह उदार और अनुदार का श्रेणी-भेद आज जितना स्पष्ट है, इतना शायद पहले कभी नहीं था। विश्व में व्यापार तो हजारों सालों से चला आ रहा है। अतिप्राचीन समय में भी व्यापारियों की यात्राएं दूर-दूर के देशों में होती थीं। आखिरकार सिल्क रुट पर व्यापार कैसे होता था! भारत और अरब देशों के बीच भी घनिष्ठ व्यापारिक संबंध थे। यहां तक कि हमारे व्यापारी काकेशस के पहाड़ी मुल्कों तक जाया करते थे। जिस तरह व्यापार ने विश्व के एक बड़े हिस्से को एक सूत्र में बांधने का काम किया, वैसे ही आगे चलकर फिर धर्म ने। जब विभिन्न धर्म के प्रचारकों ने देश-देशांतर की यात्राएं कीं और वहां के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। बीसवीं सदी में वैश्वीकरण का एक नया दौर प्रारंभ हुआ। विश्व-ग्राम की बात की जाने लगी, लेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाया?
यदि हम इंग्लैंड और अमेरिका के ताजा राजनीतिक हालात देखें, फ्रांस और जर्मनी में उभर रही प्रवृत्तियों को जानें, राष्ट्रपति पुतिन की सफलता का रहस्य समझने की कोशिश करें, भारत में नरेन्द्र मोदी को प्राप्त समर्थन का विश्लेषण करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व के विभिन्न समाजों को उदारता रास नहीं आ रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसका समीचीन विश्लेषण करना आज की महती आवश्यकता है और यह बुद्धिजीवी वर्ग के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जनतांत्रिक प्रणाली वाले देशों में शासक वर्ग ने शायद जनता का विश्वास खो दिया है। मसलन अमेरिका में बराक ओबामा आठ साल राष्ट्रपति रहे। वे एक युवा, स्फूर्तिवान, हंसमुख नेता और ओजस्वी वक्ता हैं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इस्लामिक स्टेट का जन्म ही उनके कार्यकाल में हुआ और उनकी सरकार ने उसे बढ़ावा दिया। अमेरिका और ब्रिटेन दोनों में मतदाताओं को लगा कि जब तक वे सरकार नहीं बदलेंगे उनकी रोजी-रोटी का सवाल हल नहीं होगा। कार्ल माक्र्स ने कभी दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा दिया था, लेकिन आज की हकीकत तो यही है कि औद्योगिक देशों में बाहर से मजदूर आने के कारण स्थानीय जनता को अपनी आजीविका छिन जाने का डर लगने लगा है। दूसरी ओर अमेरिका ने सभ्यता के संघर्ष की अवधारणा को मानते हुए शिया-सुन्नी संघर्ष बढ़ाने के लिए इस्लामिक स्टेट को उत्पन्न किया, बिना यह जाने-समझे कि यह भस्मासुर सारी दुनिया में क्या कहर ढाएगा। इस अविचारित नीति का परिणाम हॉलैण्ड और जर्मनी से लेकर इंडोनेशिया और फिलीपींस तक देखने मिल रहा है। और इसमें जो मर रहे हैं, बेघर हो रहे हैं वे निर्दोष लोग हैं उनमें दो ढाई साल के निष्पाप शिशु भी हैं जिनकी तस्वीरें सीरिया में देखी और म्यांमार में भी।
अभी कुछ साल पहले तर्क दिया जाता था कि जब पूंजी एक देश से दूसरे देश जा सकती है तो कामगारों का आवागमन भी उतना ही सुलभ क्यों न हो। जाहिर है कि यह तर्क खोखला सिद्ध हुआ। इस स्थिति में समाजचिंतकों के समक्ष नए सिरे से अपनी भूमिका तय करने का वक्त आ गया है। जितने भी राजनीतिक दर्शन हैं वे आज तक उन्होंने ही स्थापित और परिभाषित किए हैं, सुकरात और अरस्तू से लेकर मार्क्स और गांधी तक। आज विश्व की जो परिस्थितियां हैं उनकी नए सिरे से व्याख्या करना आवश्यक है। यह विडम्बना है कि एक ओर प्रौद्योगिकी ने देशकाल की बहुत सी सीमाओं को तोड़ दिया है, दूसरी तरफ समाज खुद को सीमाओं में बांधते जा रहा है। उसका भय और संकोच कैसे समाप्त हो, उसमें उदात्त भावों का विकास कैसे हो, इसके लिए एक नई योजना, एक नया रोड मैप तैयार करना समय की न टाली जा सकने वाली मांग है। अन्यथा हम लकीर पीटते रहेंगे और प्रतिगामी, पुनरुत्थानवादी ताकतें विजय घोष के साथ आगे बढ़ती जाएंगी। इतिहास गवाह है कि हिटलर के उदय को समय रहते नहीं समझा गया, जिसकी भारी कीमत विश्व समाज को चुकानी पड़ी। वे खौफनाक दिन दुनिया के किसी भी देश में कभी भी नई शक्ल लेकर लौट सकते हैं। इस चेतावनी की अनसुनी करेंगे तो आने वाली पीढिय़ां हमें अपराधी मानकर धिक्कारेंगी।
अक्षर पर्व फरवरी 2017 अंक की प्रस्तावना
No comments:
Post a Comment