Wednesday 15 February 2017

चुनाव : कुछ नए दृश्य




यह चुनाव का सीजन है और इन दिनों सबकी निगाहें खासकर उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई हैं। उत्तराखंड और मणिपुर से भी चुनावी समाचार ही सुनने मिल रहे हैं। इस बीच मुंबई में भी महानगरपालिका के आसन्न चुनावों को लेकर दिलचस्प वातावरण बन गया है। मणिपुर के चुनावों को लेकर शेष भारत में सामान्यत: कोई रुचि न होती। एक तो सुदूर प्रदेश, दूसरे पूर्वोत्तर भारत का प्रदेश याने एक ऐसा इलाका जिसके साथ देश के बाकी हिस्से बहुत सरोकार नहीं रखना चाहते। वहां जब कबीलाई संघर्ष  और आर्थिक नाकेबंदी जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं तब मीडिया थोड़ा-बहुत नोटिस भले ही ले ले, जनता लगभग निर्लिप्त रही आती है। इरोम शर्मिला का एक दशक से अधिक तक चला अनशन अवश्य बार-बार चर्चा में आया, लेकिन प्रदेश की स्थितियों और समस्याओं को समझने में हमने कोई रुचि नहीं दिखाई। इरोम शर्मिला अब चुनावी राजनीति में आ गई हैं। वे कांग्रेस के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं। शर्मिला ने भाजपा पर आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है कि केन्द्र में सत्तारुढ़ दल के एक बहुत बड़े पदाधिकारी ने उन्हें भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩे के लिए छत्तीस करोड़ रुपया रिश्वत देने की पेशकश की।

इरोम शर्मिला चानू द्वारा लगाए गए इस आरोप को सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ; यद्यपि इसमें कितना सत्य है कहना कठिन है। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में पिछले पन्द्रह साल से कांग्रेस लगातार सत्ता में है। यह भी विदित है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर पूर्व में येन-केन-प्रकारेण अपना वर्चस्व स्थापित करने में जुटी हुई है। असम में उसने कांग्रेस के असंतुष्ट लोगों को साथ लेकर चुनाव जीतने में सफलता पाई। अरुणाचल में भाजपा ने जो करतब किया वह भी कल की ही बात है; सत्ता के इस खेल की एक त्रासद परिणति एक दलबदलू मुख्यमंत्री द्वारा आत्महत्या करने से हुई। भाजपा ने सशस्त्र नगा गुटों के साथ भी कोई समझौता किया है जिसे अभी तक उजागर नहीं किया गया है, लेकिन अनुमान होता है कि मणिपुर में भाजपा के पैर फैलाने में नगाओं का कोई न कोई गुट उसे मदद कर रहा है। इरोम शर्मिला अगर भाजपा में आ जातीं तो यह पार्टी के लिए एक बड़ी उपलब्धि होती। शर्मिला अपने आमरण अनशन के कारण मानवाधिकारों के लिए संघर्ष की एक ज्वलंत मिसाल जो बन चुकी हैं। भाजपा ने शर्मिला के आरोप का खंडन अवश्य किया है किन्तु सहज अनुमान होता है कि मणिपुर को लेकर भाजपा में बेचैनी है।

मुंबई महानगरपालिका के चुनाव कहने को भले ही स्थानीय निकाय के चुनाव हों, लेकिन मुंबई की अपनी शान है। महानगरपालिका का बजट कई प्रदेशों  के बजट से बड़ा है। मुंबई देश की वित्तीय राजधानी भी है और वहां की राजनीतिक हलचलों का संदेश देश और दुनिया तक जाता है। विगत चार दशक से महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन चला आ रहा था। इसकी एक बड़ी शर्त मुंबई पर शिवसेना का एकाधिकार जैसा होना था। जब भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा में जीत हासिल की थी तब शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बनाए गए थे। दोनों दलों के बीच आपसी समझ थी कि भाजपा केन्द्र में राज करेगी और प्रदेश में शिवसेना। भाजपा ने 2014 में यह समझौता तोड़ दिया। ऐसा माना जाता  है कि अपने बलबूते लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के कारण भाजपा में अहंकार आ गया था। तब से दोनों सहयोगी दलों के बीच दूरी बढ़ती गई है। इधर शरद पवार को पद्मविभूषण देकर भाजपा ने उन्हें रिझाने की कोशिश की है, लेकिन पवार साहब जैसा मंजा खिलाड़ी भाजपा का साथ अगर देगा तो अपनी काफी कुछ शर्तें मनवाने के बाद ही। यह सब देखकर लगता है कि मुंबई महानगरपालिका में भाजपा को हटाना सेना और राकांपा का संयुक्त लक्ष्य हो गया है। कांग्रेस तो विरोध में है ही।

उत्तर प्रदेश में मतदान का पहला चरण पूरा हो गया है। दूसरा चरण भी इस लेख के छपने तक सम्पन्न हो जाएगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाकों से मिली खबरें कहती हैं कि हरियाणा के जाट आंदोलन को लेकर खट्टर सरकार ने जो रवैया अपनाया, उसके चलते भाजपा से जाट समुदाय ने दूरियां बनाई हैं। यह अफवाह हवा में तैर रही है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की जल्दी ही छुट्टी कर दी जाएगी। महाराष्ट्र में मराठा लॉबी को प्रसन्न रखने के लिए देवेन्द्र फडऩवीस को हटाए जाने की चर्चाएं भी गर्म हैं। राजनीति में अपने विरोधियों को छकाने के लिए ऐसी चर्चाएं फैलाना आम बात है, लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कुछ समय पूर्व तक जो भारतीय जनता पार्टी अपराजेय दिख रही थी वह तस्वीर बदलने लगी है, ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दिल्ली और बिहार में भाजपा को करारी हार मिली और अब सब उत्सुकतापूर्वक उत्तर प्रदेश को देख रहे हैं। इस चुनावी दौर में जो दृश्य सामने आए हैं वे भारतीय जनता पार्टी को अपनी राजनीति और रणनीति दोनों पर पुनर्विचार का अवसर देते हैं।

एक समय सपा-कांग्रेस गठबंधन को लेकर संशय का माहौल बना हुआ था वह स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के दो बड़े और सफल रोड शो हो चुके हैं। मुलायम सिंह ने भी गठबंधन के पक्ष में प्रचार करने की घोषणा कर दी है। वे अपने भाई शिवपाल यादव के पक्ष में प्रचार भी कर आए हैं। कल तक जो अमरसिंह नेताजी के बेहद करीबी थे वे निराश होकर पहले तो लंदन चले गए और अब भाजपा में शामिल होने के संकेत दे रहे हैं। अमरसिंह की लीला न्यारी है। वे भारतीय राजनीति में इतना महत्व कैसे पा गए, इस रहस्य पर से पता नहीं कब पर्दा उठेगा? यह भी गौरतलब है कि जिन दिग्विजय सिंह को राहुल गांधी का गुरु और सलाहकार प्रचारित किया जाता था वे पूरी तरह नेपथ्य में चले गए हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में उनका कोई अता-पता नहीं है तथा कांग्रेस पार्टी में भी उनका नाम कम ही सुनने मिलता है। तो क्या वे राहुल गांधी के स्वघोषित सलाहकार थे?

यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से राहुल गांधी ने अपने हाथों में ले ली है। सोनिया गांधी शायद अस्वस्थता के कारण चुनाव प्रचार में नहीं आ रही हैं। बीच-बीच में प्रियंका गांधी का नाम अवश्य लिया जाता है, किन्तु चुनावों में उनके सामने आकर सक्रिय होने की कोई प्रामाणिक  खबर अभी तक नहीं है। लेकिन यह तो मानना होगा कि एक तरफ राहुल-अखिलेश की जोड़ी की सक्रियता और दूसरी तरफ प्रियंका-डिंपल के नाम का प्रचार। इसमें मतदाताओं में एक आकर्षण पैदा हो ही रहा है। इस स्थिति को देखकर ही उत्तर प्रदेश में भाजपा के लोग कहीं-कहीं यह भी कहते सुने गए हैं कि भाजपा को वोट न देना हो तो न दें, अपना वोट बसपा को दें, लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन को किसी भी सूरत में न दें। इसका एक ही तर्क है कि गठबंधन हार जाए तो बसपा और भाजपा मिलकर सरकार बना लें। बसपा सुप्रीमो मायावती भी शायद इसीलिए अपनी सभाओं में भाजपा पर कम और गठबंधन पर ज्यादा आक्रमण कर रही हैं।

हमें एक और बात समझ आती है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। राहुल गांधी पर किसी तरह का कोई आरोप नहीं है। उनकी छवि बेदाग है। अखिलेश यादव पर भी कोई निजी आरोप नहीं है। जनता उन्हें संदेह का लाभ दे रही है कि विगत पांच वर्षों में उन्हें अपने पिता और चाचा की मर्जी से चलना पड़ा था जिससे उन्होंने स्वयं को मुक्त कर लिया है। अखिलेश यादव सौम्य छवि के एक युवा नेता के रूप में उभर रहे हैं। रजत शर्मा ने आपकी अदालत में उन्हें बहुत उकसाने की कोशिश की, लेकिन अखिलेश शांतिपूर्वक उनके हर सवाल का जवाब देते रहे। आमसभाओं में भी वे अपनी बातें शालीन अंदाज में सामने रखते हैं। उनके जोड़ीदार राहुल गांधी पर विरोधियों द्वारा जो कटाक्ष किए जाते थे वे भी अब कम हो गए हैं। आज जब राहुल आमसभा में भाषण देते हैं तो उनकी बातों का जवाब देने में सत्तापक्ष को परेशानी होती है।

भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश की चुनाव अभियान की बागडोर स्वयं नरेन्द्र मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने संभाल रखी है। ये दोनों नेता आमसभाओं में लगातार बहुत गुस्से की मुद्रा में भाषण कर रहे हैं। ऐसा क्यों है हमें समझ नहीं आता। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में एग्जिट पोल प्रकाशित कर जागरण अखबार मुसीबत में फंस गया है। चुनाव संहिता का उल्लंघन करने के कारण समाचार पत्र के एक संपादक को मंगलवार की सुबह गिरफ्तार कर लिया गया। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। सर्वेक्षण प्रकाशित करने के पीछे कौन सा प्रलोभन काम कर रहा था, निष्पक्ष जांच होने पर ही पता चलेगा, लेकिन इस प्रकरण ने मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। ऐसे में क्या हम पाठकों को यह सलाह दें कि वे अखबार में छपी, टीवी पर दिखी और फेसबुक में लिखी किसी भी राजनैतिक बात पर बिना जांचे-समझे विश्वास न करें!!

देशबंधु में 16 फरवरी 2017 को प्रकाशित 

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