प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का काम जिन लेखकों ने किया उनमें आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम अग्रणी है। उनके द्वारा लिखित 'देहाती दुनिया' को अनेक समालोचकों ने हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास माना है। पटना से बच्चों के लिए प्रकाशित पत्रिका 'बालक' का उन्होंने कई वर्ष संपादन किया। 1938-39 में प्रारंभ यह हिंदी में संभवत् पहली बाल पत्रिका थी। आचार्यजी के जन्मदिन 9 अगस्त पर बक्सर (बिहार) के दीपक राय आदि प्रगतिशील सोच वाले मित्र कई वर्षों से लगातार आयोजन करते आए हैं। तीन साल से टलते-टलते मुझे इस वर्ष इस सालाना कार्यक्रम में सहभागी होने का सुयोग प्राप्त हुआ। दोस्तों का न्यौता स्वीकार तो कर लिया; समस्या यह थी कि इतनी लंबी दूरी कैसे तय की जाए, कोलकाता होकर जाऊं, कि दिल्ली से, कि बनारस की राह ली जाए। अंतत: रायपुर से पटना तक चलने वाली दक्षिण बिहार एक्सप्रेस से जाने का फैसला किया। ट्रेन यात्रा में इक्कीस घंटे लगना था, लेकिन सोचा कि रात को तो सोना ही है, दिन का समय किताबें पढ़कर और ट्रेन की खिड़की से बाहर के दृश्य देखने में कट जाएगा। कुछ नए अनुभव ही इस बहाने होंगे। इस लिहाज से निर्णय ठीक ही सिद्ध हुआ।
रायपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म एक और प्लेटफॉर्म पांच दोनों की लिफ्ट बराबर काम कर रही थी, ट्रैक और प्लेटफॉर्म की साफ-सफाई भी काफी बेहतर थी, ट्रेन आई भी समय पर और पटना के कुछ पहले तक समय पर ही चलती रही; फिर न जाने किस वजह से लगभग दो घंटे लेट हो गई। डिब्बे के परिचारक से पूछा कि अच्छी चाय कहां मिलेगी तो उसका जवाब था- राउरकेला के आगे झारखंड/बिहार में प्रवेश के बाद। उसने सच कहा था। शाम और सुबह बिहार के स्टेशनों पर चाय बहुत अच्छी तो नहीं, फिर भी अच्छी मिली। क्या इसलिए कि बिहार में दूध की गुणवत्ता बेहतर थी? बिहार में रेल लाइन के किनारे गांवों में पटना पहुंचने तक लगभग हर घर में मवेशी बंधे दिखे, जिससे अनुमान हुआ कि दुग्ध उत्पादन इस प्रदेश की एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है। पटना से सड़क मार्ग से बक्सर जाते हुए भी रास्ते में पेड़ों की अनेक दूकानें मिलीं।
धारवाड़ (कर्नाटक) और मथुरा के पेड़े तो विख्यात हैं, लेकिन बिहार के पेड़ों की ख्याति अभी बाहर पहुंचना बाकी है। क्षमा कीजिए, यहां मैं भटक कर आगे चला आया। वापिस रायपुर लौटना पड़ेगा। मैं एक लंबे अरसे बाद दिन के समय ट्रेन से कोलकाता की दिशा में जा रहा था। रायपुर से बाहर निकलते साथ कारखानों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है- मांढर, बैकुंठ, फिर शिवनाथ के पुल के पार; उधर बिलासपुर के आगे दोनों तरफ कारखानों की चारदीवारियाँ और चिमनियाँ। भूपदेवपुर, किरोड़ीमल नगर, रायगढ़, कोतरलिया के आसपास की तस्वीर तो पूरी तरह बदल चुकी है, छत्तीसगढ़ की सीमा पार करने के बाद भी बेलपहाड़, हिमगिर के आगे काफी दूर तक यह सिलसिला जारी रहता है। यहां सिर्फ कारखाने ही स्थापित नहीं हुए हैं, रेल लाइनों का विस्तार कार्य भी चल रहा है। साल के बेशकीमती जंगल धीरे-धीरे कर नष्ट हो रहे हैंं। जहां संयंत्र चालू हैं, वहां धुएं के बादलों के पार कुछ दिखाई नहीं देता।
छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड का यह इलाका खनिज संपदा का धनी है। जो बेतहाशा माइनिंग हाल के बरसों में हुई है, उससे जंगल तो कटे ही, हाथी व अन्य वन्य प्राणियों की रिहाइशें भी खत्म हो गईं। आज जशपुर से लेकर अंबिकापुर और इधर सिरपुर तक हाथी आ रहे हैं, उसका प्रमुख कारण यही है। विकास की कीमत हम इस तरह चुका रहे हैं और शायद आगे भी चुकाते रहेंगे!! ट्रेन में यही सोचते-सोचते जो नींद आई तो सुबह बिहार के किसी गांव के आसपास खुली। धान के खेतों में पानी लबालब भरा था। अनुमान लगा कि यहां बारिश पर्याप्त हो चुकी है।
पटना स्टेशन पर रंगकर्मी, पत्रकार अनीश अंकुर लेने आ गए थे। शहर में वरिष्ठ लेखक खगेंद्र ठाकुर और पत्रकार प्रमोद कुमार भी साथ आ गए। बक्सर का लगभग 140 किमी का सफर तय करने में साढ़े चार घंटे लगे। एक तो सड़क को फोरलेन करने का काम चल रहा था, दूसरे यातायात बहुत अधिक था। लेकिन बातचीत करते सफर मजे में कट गया। रास्ते में सकड्डी चौक नामक स्थान पर चाय-नाश्ते के लिए जिस ढाबे में रुके उसका नाम था-''तिलंगाजी का मशहूर पेड़ा दूकान"। ये तिलंगाजी वर्तमान होटल मालिक के दादाजी थे। चलते-चलते आसपास नजर दौड़ाई तो देखा कि इसी नाम की यहां कम से कम पांच और ढाबे थे। समझ पड़ा कि वंशजों में बंटवारा होने से सबने अपनी-अपनी दूकानें खोल ली होंगी। जैसे मथुरा में विश्रामघाट पर ''गोसाईं जी के पेड़े'' की कोई एक दर्जन दूकानें मेरे देखते-देखते पिछले पचास साल में खुल गई हैं।
सकड्डी चौक के थोड़ा पहले हमने सोन नदी पार की थी। अमरकंटक से निकली सोन का स्वरूप यहां समुद्र के समान था- दूर-दूर तक जल ही जल। सोन पर पहला पुल यहीं 1865 के आसपास बना था और इसमें इंजीनियरिंग का जो कमाल है, उसकी सराहना किए बिना नहीं रहा जाता। आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तामीर पुल एक किमी से अधिक लंबा है, दुमंजिला है, नीचे सड़क, ऊपर रेल चलती है और पुल निरंतर सेवारत है। अब पास में एक नए सेतु का निर्माण प्रारंभ हो गया है। बूढ़े बाबा पता नहीं कब तक साथ दें? इस पुल के पास स्थित गांव का नाम कवित्वमय है- कोइलवर।
बक्सर में भी तीन स्थान दर्शनीय हैं। एक तो यहां का पांच सौ साल पुराना किला है जो गंगा किनारे है। किला लगभग नष्ट हो चुका है या कर दिया गया है। अब किले की जगह सरकारी अधिकारियों के लिए भव्य विश्रामगृह बन गया है। कहीं-कहीं किले के खंडहर बचे हैं। इसके चारों ओर कई फीट चौड़ी, कई फीट गहरी खाई थी, वह भी शनै:-शनै: पाट दी गई है। कुछ प्राचीन वृक्ष अवश्य बच गए हैं। पीपल का एक वृक्ष देखकर मैं चमत्कृत रह गया। इतना मोटा तना और इतनी ऊंची फुनगी। पेड़ शायद दो सौ साल पुराना होगा! किले के बाहर ही सीताराम उपाध्याय संग्रहालय है जिसे राज्य सरकार संचालित करती है। श्री उपाध्याय ने अपनी निजी रुचि से आसपास से पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं का संग्रह व संरक्षण बिना सरकारी मदद के प्रारंभ किया था। उन्हें दूसरे तो क्या, स्वजन भी खब्ती समझते थे। आज उनका वह संग्रह एक बेशकीमती खजाने के रूप में हमारे सामने है, जिसमें ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व की मूर्तियां व अन्य सामग्रियां हैं। किले से मैं दुखी मन बाहर निकला था, म्यूजियम देखकर दुख दूर हुआ।
बक्सर में तीसरा दर्शनीय स्थान हैं- कतकौली का मैदान। यहां अक्टूबर 1764 में ब्रिटिश सेनाओं ने अवध व बंगाल के नवाब की सेना को निर्णायक रूप से परास्त कर समूचे पूर्वी भारत पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था। अंग्रेजों ने यहां हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी व उर्दू में अपनी जीत की घोषणा के प्रस्तर-फलक लगाने के साथ एक विजय स्तंभ भी खड़ा किया था। विजय स्तंभ कालांतर में क्षतिग्रस्त हुआ होगा, लेकिन न जाने कब किसने वहीं एक नया विजय स्तंभ खड़ा कर दिया गया जिस पर मोज़ेक टाइल्स जड़े गए थे! वे टाइल्स एक-एक उखड़ रहे हैं, लेकिन अंग्रेजों की जीत का स्तंभ नये सिरे से खड़े करने की बुद्धिमानी हमने क्यों दिखाई? लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता नागेंद्रनाथ झा ने सांसद निधि से स्मारक की चारदीवारी बनवा दी थी कि अतिक्रमण न हो। वह एक समझदारी का काम था। लेकिन आसपास अवैध कब्जे बदस्तूर हो रहे हैं। एक दिन हम भूल जाएंगे कि इस जगह पर भारत का एक बड़ा भूभाग दो सौ साल के लिए गुलाम बना लिया गया था। मेरे गाइड युवा पत्रकार पंकज भारद्वाज ने रास्ते में मुझे वह नहर भी दिखाई, जिसमें कभी स्टीमर चला करते थे, लेकिन जिसे पाट कर अब मकान बन रहे हैं।
आचार्य शिवपूजन सहाय की जयंती पर आयोजित दो-दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने से मुझे बहुत संतोष मिला। सबसे अधिक प्रसन्नता की बात यह थी कि नौजवानों ने आयोजन में बढ़-चढ़कर शिरकत की। 10 तारीख को शहीद कुंवरसिंह की प्रतिमा से प्रारंभ हो शहीद भगतसिंह की प्रतिमा तक विश्व शांति, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी के लिए दो किमी का मार्च निकला, उसमें भी युवजन बड़ी संख्या में शामिल हुए।
मैंने उनके साथ करीब दो-ढाई घंटे तक खुली बातचीत की तो समझ आया कि ये युवा राजनीतिक रूप से बेहद सजग हैं, देश व दुनिया के प्रश्नों में उनकी गहरी दिलचस्पी है और वे हिंदी साहित्य के उत्कट अध्येता भी हैं। सभा स्थल पर पुस्तकों की दो दूकानें लगी थीं और सभी लोग रुचि के साथ किताबें खरीद रहे थे। बिहार को हम सदा से एक साहित्यप्रेमी समाज के रूप में जानते आए हैं, यह आयोजन उसका प्रत्यक्ष उदाहरण था। ट्रेन में विलंब होने के कारण मैं कार्यक्रम में दो घंटे देर से पहुंचा था, लेकिन सब धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। शाम सात बजे के आसपास कार्यक्रम समाप्त हुआ, लेकिन श्रोतागण ने कोई उकताहट या उत्साहहीनता नहीं दिखाई।
इस संक्षिप्त प्रवास से मैं अनेक मीठी यादें लेकर लौटा। साथ-साथ बक्सर की सोनपापड़ी मिठाई का एक डिब्बा भी दीपकजी ने रख दिया था। बक्सर की यह मिठाई बिहार में बहुत प्रसिद्ध है।
देशबंधु में 05 अक्टूबर को प्रकाशित
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