Tuesday, 31 October 2017

विशेष संपादकीय : छत्तीसगढ़ में यह भी होना था!!




छत्तीसगढ़ के नए सीडी कांड की खबर जिस दिन आई तब से मन उद्विग्न और विक्षुब्ध है। मेरी तरह और भी बहुत से लोगों के मन में ऐसा ही विक्षोभ होगा। मैंने वह दौर देखा है जब राजनीति में शिष्टता और शालीनता अनिवार्य गुण माने जाते थे। समय बदला, स्थितियां बदलीं, गुणों में गिरावट आई, यह भी देखा। किन्तु आज जो स्थिति बन गई है इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। दूसरी तरफ पत्रकारिता के बेहतरीन दिनों का भी मैं साक्षी रहा हूं। अधिकतर लोग पत्रकारिता के पेशे में इसलिए आते थे कि वे अपनी कलम के माध्यम से एक बेहतर समाज की रचना में भागीदार बनना चाहते थे। सत्यनिष्ठा और संघर्षशीलता पत्रकारिता के अनिवार्य गुण होते थे। इस अंग में समय के साथ जो गिरावट आई उसे भी लगातार देख रहा हूं, लेकिन फिर यह भी कल्पना से परे था कि पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच जाएगी।
मैं छत्तीसगढ़ के मंत्री राजेश मूणत को पिछले कुछ वर्षों से जानता हूं। उन्होंने काफी तेजी के साथ राजनीति में अपनी पकड़ बनाई है। वे रायपुर नगर के कायाकल्प के लिए जो अनेकानेक प्रकल्प चला रहे हैं उनमें से बहुत से मुझे पसंद नहीं हैं और अखबार के माध्यम से मैं अपनी असहमति दर्ज करा चुका हूं।श्री मूणत से मेरा विशेष परिचय नहीं है, लेकिन उनके बारे में जितना जाना सुना है उस आधार पर विश्वास नहीं होता कि वे इस कोटि के दुर्बल चरित्र व्यक्ति हैं। दूसरी ओर विनोद वर्मा को मैं शायद तब से जानता हूं जब वे विद्यार्थी थे। देशबन्धु स्कूल में ही उन्होंने पत्रकारिता के पाठ पढ़े। उनके गुणों को देखकर ही उन्हें देशबन्धु के दिल्ली ब्यूरो का प्रमुख बनाकर भेजा जिसका उन्होंने कुशलतापूर्वक निर्वाह किया। अतएव आज मेरे लिए यह विश्वास करना भी कठिन है कि वे भयादोहन जैसे कुकृत्य में लिप्त अथवा सहयोगी हो सकते हैं।
मेरा मानसिक उद्वेग सिर्फ सैद्धांतिक कारणों से नहीं है। इसलिए भी है कि जिन दो व्यक्तियों- एक राजनेता, एक पत्रकार की, जो छवि मेरे मन में थी वह इस कांड के कारण टूटने की नौबत आ रही है। लेकिन हो सकता है कि जो सामने दिख रहा है वह कुछ भी सच न हो और समय आने पर जनता के सामने सारी स्थितियां स्पष्ट हो जाएं। मैं ऐसा सही वक्त आने की प्रतीक्षा करूंगा, इस विश्वास के साथ कि दोनों व्यक्तियों के बारे में मेरी अब तक की जो राय है वह कायम रही आएगी। मेरे मन में विक्षोभ कुछ अन्य कारणों से भी है। एक तो मुझे छत्तीसगढ़ पुलिस की भूमिका समझ में नहीं आ रही है। ये प्रकाश बजाज कौन हैं? इन्होंने किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई और फिर लापता हो गए। इन अज्ञात व्यक्तियों का विनोद वर्मा से क्या संबंध है? विनोद के घर से जो पांच सौ सीडी जब्त होने की बात की गई क्या उसका पंचनामा किया गया? पुलिस को गिरफ्तार करने की इतनी जल्दी थी कि हवाई जहाज से जाकर सुबह साढ़े तीन बजे विनोद वर्मा को नींद से उठाया गया? यह तत्परता रिमांड पर रायपुर लाने में क्यों नहीं दिखाई गई? यह एक अनोखा प्रकरण होगा जहां दिल्ली से रायपुर एक आरोपी को हवाई जहाज या ट्रेन के बजाय सड़क मार्ग से लाया गया।
बहरहाल मैं कानून का जानकार नहीं हूं। एक सामान्य व्यक्ति के मन में जो सवाल उठ सकते हैं वही मेरे दिमाग में भी आ रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि अदालत में ऐसे तमाम प्रश्नों के तार्किक उत्तर प्राप्त होंगे। लेकिन मैं यहां एक अन्य बिन्दु पर कुछ विस्तार के साथ बात करना चाहता हूं कि क्या विनोद वर्मा पत्रकार नहीं हैं या पत्रकार रहते हुए उन्हें किसी राजनैतिक दल के साथ सक्रिय रूप से जुडऩा चाहिए था या नहीं। मेरे अपने विचार में आदर्श स्थिति तो वही है जब पत्रकार पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष हो। देशबन्धु में प्रारंभ में हमारी नीति रही है कि कोई भी सहयोगी किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं बनेगा और सक्रिय राजनीति अथवा चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेगा। मेरे मित्र और सहयोगी राजनांदगांव के बलवीर खनूजा को 1985 में जब कांग्रेस का टिकट मिला तो मैंने उनसे देशबन्धु से त्यागपत्र ले लिया। उसके पूर्व 1977 में जबलपुर संस्करण के संपादक राजेन्द्र अग्रवाल जनता पार्टी टिकट पर केवलारी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बने तो उनसे भी त्यागपत्र ले लिया गया था
यह पुराने दौर की बात हो गई। देशबन्धु आज भी उसी नीति पर कायम है, लेकिन अन्यत्र स्थितियां बदल चुकी हैं। वैसे तो पहले भी आर.आर. दिवाकर, राधानाथ रथ, हीरालाल शास्त्री जैसे उदाहरण हमारे सामने थे, लेकिन ये तमाम पत्रकार स्वाधीनता संग्राम की उपज थे और इन्होंने उस दौर में राजनीति और पत्रकारिता साथ-साथ की थी जिसका जारी रहना स्वाभाविक था। किन्तु उसके बाद हमने देखा कि कैसे अनेक अखबार मालिक और पत्रकार राजनीति की चाशनी में डूबने के लिए आतुर होने लगे। एम.जे. अकबर, चंदन मित्रा, स्वप्न दासगुप्ता, तरुण विजय, हरिवंश, प्रफुल्ल माहेश्वरी और भी बहुत से नाम इस संदर्भ में ध्यान आते हैं। छत्तीसगढ़ में ऐसे अखबार मालिक और पत्रकारों की कमी नहीं है जो पत्रकारिता का इस्तेमाल व्यापार के लिए कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार गोविंदलाल वोरा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष रहे। किसी ने नहीं कहा कि वे पत्रकार नहीं हैं। मेरे स्नेही मित्र और पूर्व सहयोगी रमेश नैय्यर कई वर्षों तक छत्तीसगढ़ हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्णकालिक वेतनभोगी संचालक रहे, लेकिन मैं उन्हें उस समय भी बुनियादी रूप से एक पत्रकार ही मानता रहा, जो कि वे हैं। ऐसे भी अनेक अन्य पत्रकार हैं जो इस या उस राजनैतिक दल से संबद्ध हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष उसके लिए काम करते हैं। इसलिए आज विनोद वर्मा के पत्रकार होने पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है या उनके एक राजनैतिक दल हेतु काम करने पर आपत्ति की जा रही है तो वर्तमान परिस्थिति में इसे अनुचित कैसे माना जाए? लगता है कि मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। ऐसे में श्रेयस्कर यह होगा कि सभी संबंधित पक्ष चरित्र हनन की राजनीति से ऊपर उठें और इस अशोभनीय, अवांछित प्रकरण का फैसला आने और पटाक्षेप होने का इंतजार करें।
देशबंधु में 31 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित 

Wednesday, 25 October 2017

बदलते समय में स्टील फ्रेम


 भारत में समय-समय पर देश के प्रशासनिक ढांचे में सुधार और बदलाव की मांग उठती रही है। इस बहस की शुरूआत 1947 में देश की आजादी के साथ प्रारंभ हो गई थी। अंग्रेजों ने ब्रिटिश इंडिया में सुचारु प्रशासन तंत्र के लिए आईसीएस अर्थात इम्पीरियल सिविल सर्विसेस की व्यवस्था लागू की थी। आईसीएस में शुरूआत में इंग्लैंड से ही अफसर आते थे, बाद में होनहार भारतीयों को भी स्थान मिलने लगा था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, यद्यपि अंग्रेज सरकार की नौकरी करना उन्हें मंजूर नहीं हुआ। बहरहाल 1947 में बहस छिड़ी कि आईसीएस को कायम रखें या भंग कर दें। पंडित नेहरू और उनके गृहमंत्री सरदार पटेल दोनों का मानना था कि नवस्वतंत्र देश की व्यवस्था संभालने के लिए अनुभवी प्रशासनिक अधिकारियों की आवश्यकता है इसलिए आईसीएस को कायम रखा गया। सरदार पटेल ने तो उसे स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया की संज्ञा भी दी थी। एक सोच यह भी थी कि एक अखिल भारतीय सेवा होने से प्रशासनिक स्तर पर राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में मदद मिलेगी। आगे चलकर आईसीएस का देशीकरण हुआ और आईएएस अर्थात भारतीय प्रशासनिक सेवा अस्तित्व में आई।
आज हम देखते हैं कि आईएएस का तंत्र बदस्तूर कायम है। इस बीच देश में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक सभी मोर्चों पर अनेक बदलाव आए हैं, लेकिन भारतीय प्रशासनिक सेवा पर इन बदलावों का कोई खास असर नहीं पड़ा है। आज भी आईएएस बन जाना भारतीय समाज में गर्व का विषय होता है। यूसीएससी की परीक्षा में लाखों नौजवान हर साल शामिल होते हैं जिनमें से कुछ सौ ही उत्तीर्ण हो पाते हैं। जिन्हें आईएएस नहीं मिल पाता उनमें से एक-दो हजार को अन्य संघीय सेवाओं जैसे आईपीएस, आईआरएस, आईएफएस इत्यादि में मौका मिल जाता है। एक समय था जब भारतीय विदेश सेवा को सर्वोच्च वरीयता मिलती थी, लेकिन उसका आकर्षण पिछले सालों से कम हुआ है। आईएएस बनने का मतलब देश का राजा बन जाने जैसा है। वैसे तो आईएएस केन्द्रीय सेवा के अधिकारी होते हैं, लेकिन उन्हें जिस प्रदेश में भेजा जाता है वहां  लोक प्रशासन की परंपरा और स्थानीय वातावरण के अनुसार उन्हें सामंजस्य भी स्थापित करना होता है।
आईएएस की व्याप्ति सर्वत्र है। उन्हें प्रशासन के शिखर याने कैबिनेट सेक्रेटरी से लेकर नीचे अनुविभागीय अधिकारी या एसडीओ के पद तक काम करते हुए हम देखते हैं। इस अमले के सामने 1947 में जो चुनौतियां और जिम्मेदारियां थीं उनका स्वरूप समय के साथ बदलता गया है। अभी कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस दिशा में पुनर्विचार की बात की। मेरी जानकारी में समय के साथ बदलाव की यह शुरूआत इंदिरा गांधी के समय में हो गई थी। उन्होंने आईएमपी या इंडस्ट्रीयल मैनेजमेंट पूल नामक एक समूह बनाया था जिसमें कुशल टैक्नोक्रेट्स को सार्वजनिक उद्यमों में प्रशासनिक जिम्मेदारियां सौंपने की पहल हुई थी। यह प्रयोग अधिक समय तक नहीं चला। लेकिन उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी ने हिन्दुस्तान लीवर के सीईओ रहे एम.ए. वदूद खान को भारत सरकार में सचिव बनाया था। आणविक ऊर्जा, अंतरिक्ष विज्ञान आदि विभागों में भी आईएएस के बदले वैज्ञानिक ही सचिव बनाए गए थे।
श्रीमती गांधी के किए कुछ प्रयोग अभी भी सफलतापूर्वक चल रहे हैं। यद्यपि इससे आईएएस के बुनियादी ढांचे पर कोई फर्क नहीं पड़ा। राजीव गांधी ने अपने समय में जिलाधीश से लेकर भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारियों के लिए पुनश्चर्या पाठ्यक्रम जैसे प्रयोग किए थे। उनका सोचना था कि अधिकारियों को निरंतर सीखने के लिए तैयार रहना चाहिए। फिर कोई पन्द्रह-बीस साल पहले एक नया सुझाव आया कि जिस तरह बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई होती है या विधि का पांच वर्षीय पाठ्यक्रम लागू हो गया है उसी तरह प्रशासनिक अधिकारी बनने के लिए भी बारहवीं के बाद पांचसाला कोर्स प्रारंभ किया जाए। यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। अभी कुछ दिन पहले एक प्रतिष्ठित टैक्नोक्रेटअशोक पार्थसारथी ने इस स्टील फ्रेम में सुधार के लिए कुछ ठोस सुझाव दिए हैं।  उनका सोचना है कि प्रशासनिक ढांचे को उसके विभिन्न आयामों के अनुसार समूहों में बांट दिया जाए और अधिकारियों को विकल्प दिया जाए कि वे अपनी रुचि के अनुसार जिस समूह में जाना चाहते हैं उसमें चले जाएं।
श्री पार्थसारथी इन्हें सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, टेक्नालॉजी, ऊर्जा, रसायन, परिवहन, ग्रामीण, विज्ञान एवं सामाजिक क्षेत्र ऐसे समूहों में बांटते हैं। वे इस तथ्य को संज्ञान में लेते हैं कि हमारे यहां अधिकारियों को बिना किसी उचित कारण के कभी भी, किसी भी महकमे में भेजा जाता है। आज जो व्यक्ति बैकिंग देख रहा है, कल उसे आप परिवार नियोजन देखने कह सकते हैं। इसमें समय और साधनों की बर्बादी ही होती है। एक अधिकारी किसी विभाग में आता है तो उसे तीन माह तो विभाग की रीति-नीति, कार्यविधि इत्यादि को समझने में लग जाते हैं। वह जब उस काम में रम जाता है तब एकाएक उसे कहीं और भेज दिया जाता है। अपने अनुभव की बात करें तो यह तर्क सटीक लगता है।
यह मजे की बात है कि जिस इंग्लैंड से हमने इस व्यवस्था को लिया है वहां ऐसा नहीं होता। सरकार के मंत्री बदलते रहते हैं, सरकार भी बदल जाती है, लेकिन विभाग के अधिकारी लंबे समय तक वहीं पर काम करते रहते हैं। वे संस्थागत स्मृति के धनी होते हैं याने उन्हें पता होता है कि अतीत में कोई नीति या निर्णय क्यों और किसलिए लिया गया था। वे अनुभवहीन मंत्री को सही सलाह देने की स्थिति में होते हैं गो कि अंतिम निर्णय तो मंत्री को ही लेना होता है। अमेरिका में आईसीएस या आईएएस तो नहीं हैं, लेकिन वहां भी अंडर सेक्रेटरी, जो हमारे विभागीय सचिव के स्तर तक के अधिकारी होते हैं, बीसियों बरस उसी विभाग में काम करते हैं। इस दृष्टि से हमारी स्थिति दुबले और दो असाढ़ वाली है। मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, अधिकारी भी हमेशा दबाव में रहते हैं कि जाने कब जगह या विभाग बदल जाए। मंत्रियों के पास इतना धीरज भी नहीं होता कि वे अधिकारियों की बात ध्यान से सुनें। इसके चलते हमारी योजनाएं अकसर अपना निर्धारित लक्ष्य हासिल करने में असफल हो जाती हैं।
भारत में आईएएस के बारे में एक बात अच्छी है कि उनकी पोस्टिंग देश के किसी भी हिस्से में की जा सकती है। यह आवश्यक नहीं कि वे जिस प्रदेश का कैडर चाहे वही उन्हें मिल जाए। दूसरी अच्छी बात है कि उन्हें हर तरह की परिस्थिति में काम करने की ट्रेनिंग मिलती है। अपने प्रशिक्षण और कार्य दोनों के दौरान उन्हें देश के छोटे-छोटे गांव और कस्बों में भी असुविधा में रहना पड़ता है। किन्तु इन अच्छाइयों को कुछेक बुराइयों का ग्रहण लग गया है। एक तो देश या प्रदेश में जब भी राजनैतिक नेतृत्व कमजोर हुआ है आईएस ने उसका लाभ उठाया है। अपने तात्कालिक हितों के लिए राजनीतिक आकाओं से सांठगांठ करने की खबरें अब आम होने लगी हैं। उन्हें जिस निष्पक्षता,  निर्भीकता और शिष्टता का परिचय देना चाहिए उसमें शोचनीय कमी आई है। आज से चालीस साल पहले तक आईएएस अधिकारियों की ईमानदारी के चर्चे होते थे, आज उनकी बेईमानी की खबरें सुनने मिलती हैं। सुना तो यह भी है कि दहेज इत्यादि सामाजिक बुराइयों को लेकर एक पुरातनपंथी सोच भी विकसित होने लगी है।
आज इसलिए एक तरफ यदि प्रशासनिक ढांचे में संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है, तो दूसरी तरफ नेहरू और पटेल ने इनमें जो विश्वास व्यक्त किया था नए सिरे से उसे भी कायम करने की आवश्यकता है। अगर हमें स्टील फ्रेम चाहिए तो मन, वचन, कर्म से उसमें इस्पाती दृढ़ता होना आवश्यक है। सिर्फ जबानी जमा-खर्च से काम नहीं चलेगा।
देशबंधु में 26 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित 

Friday, 20 October 2017

दिए जलाएं, पटाखों से दूर रहें

                                            
 भारत में पटाखों का चलन 1920 के बाद प्रारंभ हुआ जब तमिलनाडु के शिवाकाशी नगर में एक उद्यमी श्री नाडर ने देश का पहला पटाखा कारखाना स्थापित किया। सर्वोच्च न्यायालय में पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के केस में याचिकाकर्ताओं की वकील सुश्री हरिप्रिया पद्मनाभन ने यह तर्क प्रस्तुत किया है। जिन बच्चों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई थी, सुश्री पद्मनाभन का बेटा भी उनमें से एक है। आज दीवाली का दिन है और जब हम अपने बच्चों के साथ पटाखे चला रहे होंगे तब इस प्रकरण को विस्तार से जान लेना हमारी शारीरिक और मानसिक सेहत दोनों के लिए अच्छा  होगा। यह तो तय है कि जिन भी राज्यों में दीवाली धूमधाम से मनाई जाती है उनमें से अधिकतर स्थानों पर पटाखे चलेंगे। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सीमित और आंशिक है, वह सिर्फ दिल्ली के लिए है और पाबंदी एक नवंबर तक के लिए ही लगाई गई है। यह दीगर बात है कि पंजाब से लेकर मुंबई तक कई जगहों पर स्थानीय स्तर पर रोक लगा दी गई है। उसका असर कितना होगा कहना कठिन है।
पटाखों पर रोक लगाने का फैसला देने वाले न्यायमूर्ति सीकरी ने गहरे विषाद में भरकर कहा है कि हम जानते हैं कि लोग पटाखे चलाएंगे, लेकिन इस वजह से हम अपना फैसला वापिस नहीं ले सकते। यह भी एक खिन्न कर देने वाला तथ्य है कि उन्हें इस टिप्पणी के साथ अपने धर्मप्राण होने की दुहाई देना पड़ी। यह दुर्भाग्य की बात है कि पर्यावरण की रक्षा, स्वस्थ जलवायु का अधिकार और बच्चों तथा आम नागरिकों की सेहत का सवाल जैसे मुद्दों से प्रेरित एक तर्कसंगत फैसले को संकीर्ण सोच वाले तत्वों ने साम्प्रदायिकता का रंग दे दिया। इसे अनावश्यक एवं अवांछित रूप से हिन्दू विरूद्ध अन्य धर्मों का रंग देने की कोशिश की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े-बड़े नेता भी इस दुराग्रह को आगे बढ़ाने में शरीक हो गए। इनमें से किसी ने भी शायद सबसे बड़ी अदालत के फैसले को पढ़ने की जहमत नहीं उठाई और न ही किसी ने तथ्यों की पड़ताल करने की ईमानदार चेष्टा की।  देश में लगातार भावनाओं के उफान में बहने के लिए उकसाया जा रहा है और एक वर्ग तो कम से कम ऐसा है जो इस उकसाने में आ जाता है।
यदि हम तथ्यों की बात करें तो सबसे पहले गौर करना होगा कि आज से बारह साल पहले 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने ध्वनि प्रदूषण संबंधी एक फैसले में कहा था कि यह आवश्यक नहीं है कि दीपावली और पटाखे साथ-साथ चलें। तब अदालत ने यह भी कहा था कि पटाखे किसी धार्मिक परंपरा का अंग नहीं है और उन्हें दीपावली से नहीं जोड़ा जा सकता। सुश्री पद्मनाभन ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में इस फैसले का उल्लेख किया है। उन्होंने आज से कोई बीस साल पहले केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में दी गई दलील का भी उल्लेख किया है कि पटाखों में गंधक का उपयोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि उसका धुआं हानिकारक होता है। ध्यान रहे कि उस समय केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। यही नहीं वाजपेयी सरकार के ही समय दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल भी पहल की थी कि घर-घर में पटाखे जलाने के बजाय सार्वजनिक स्थलों पर आतिशबाजी होना चाहिए, जिससे प्रदूषण पर नियंत्रण पाया जा सके।
पटाखों से उठने वाला शोर और धुआं दोनों सेहत पर बुरा असर डालते हैं। इनसे दिल के मरीजों को तकलीफ होती है, अस्थमा की शिकायत बढ़ती है तथा पटाखों के शोर से कान के परदे भी खराब होते हैं। ये जो बच्चे सर्वोच्च न्यायालय में याचना करने गए वे कोई पेशेवर मुकदमेबाज नहीं थे। उन्होंने देखा था कि पिछले साल पटाखों के शोर व धुएं से दिल्ली महानगर पर कैसी विपत्ति आई। पूरे शहर के आकाश पर धुआं इस कदर छाया कि साफ होने में कई दिन लग गए। बच्चों को तकलीफ न हो, यह सोचकर स्कूलों में दो या तीन दिन की छुट्टी करने की नौबत तक आ गई। एक तो हमारे देश में वैसे ही हर तरह के भारी प्रदूषण है। यह विडंबना है कि एक तरफ प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान चलाते हैं, स्वच्छ भारत का नारा देते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं के अंधसमर्थक धर्म की आड़ लेकर ध्वनि और वायु प्रदूषण फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
मैंने कुछ दिन पहले फेसबुक पर लिखा था कि दुनिया के अधिकतर देशों में आतिशबाजी सार्वजनिक स्थान पर कुशल और प्रशिक्षित आतिशबाजों के हाथों होती है। इसमें आतिशबाजी का आनंद भी मिलता है और निजी सुरक्षा भी बनी रहती है। अमेरिका हो या जापान, रूस हो या चीन, सब तरफ आतिशबाजी करने के साल में एक-दो अवसर आते ही हैं। ऐसे मौकों पर जहां तक संभव हो, समुद्र, नदी या तालाब के किनारे या फिर बड़े से खुले मैदान में आयोजन किया जाता है। रंगबिरंगी फुलझड़ियां आकाश में छूटती हैं, बहुत मनमोहक दृश्य होता है, उसका संचालन रिमोट कंट्रोल से किया जाता है। दर्शकगण के बैठने के लिए स्थान निर्धारित होता है, वहां से वे नजारा देख सकते हैं। इसका समय सीमित होता है। एक या डेढ़ घंटे में खेल खत्म और सब अपने-अपने घर लौट आते हैं। भारत में भी तो दस बजे रात के बाद लाउड स्पीकर और पटाखों पर प्रतिबंध है ताकि लोग उसके बाद चैन की नींद ले सकें।
हम विदेशों की बहुत बातों में नकल करते हैं। एक अच्छी परंपरा की भी नकल कर लें तो उसमें बुराई क्या है? क्या हम नहीं जानते कि घर-घर में आतिशबाजी करने से दुर्घटनाओं को न्यौता मिलता है। हमारे रायपुर शहर के सेवाभावी नेत्र चिकित्सक डॉ. दिनेश मिश्र दीपावली के दिन-रात उन बच्चों का इलाज करने में लगे रहते हैं जिनकी आंखों में बारूद चला जाता है। हाथ में लेकर अनार जलाने पर हाथ झुलस जाते हैं। पटाखों से कभी कपड़ों में आग लग जाती है तब अस्पताल के लिए भागना पड़ता है। त्यौहार की सारी खुशी तिरोहित हो जाती है। उसके बाद भी यदि हम सबक नहीं ले रहे हैं या जनता को सबक न लेने के लिए भड़काया जा रहा है तो यह सिर्फ विडंबना नहीं है बल्कि अक्षम्य अपराध है।
हमें यह भी याद कर लेना उचित होगा कि बारूद का आविष्कार आज से लगभग दो हजार साल पहले चीन में हुआ था, वहां से अरब देशों की यात्रा करते हुए फिर वह लगभग पांच सौ साल पहले भारत पहुंचा, लेकिन दीपावली तो हम बहुत पहले से मनाते आए हैं। कृषि प्रधान देश भारत में चौमासा बीतने, फसल कटने, घर में फसल की आमदनी आ जाने और साथ ही साथ शरद ऋतु के सुहावने और शीतल मौसम- इन सबका आनंद मनाने का उत्सव है दीपावली। तेल के दिए जलकर अमावस की रात वातावरण में उजास भरते हैं। घर में तुलसी चौरे पर रखा दिया या नदी में दीप प्रवाह, हमारी आंखों को शुरू से लुभाते रहे हैं। इसी तरह हमारे जीवन में उल्लास की सृष्टि करते हैं। इस निर्मल वातावरण में ये कमबख्त पटाखे कहां से आ गए!
यह एक और विडंबना है कि अब माटी के दिए लुप्त होते जा रहे हैं। उनकी जगह बिजली की झालर ने ले ली है। वह भी चीन में बनी हो तो ज्यादा अच्छा क्योंकि दाम में सस्ती पड़ती है। जो चीज हमारी परंपरा में नहीं है उसे अपनी सुविधा देखते हुए हमने अपना लिया है, लेकिन जब अपनी निजी सुविधा के बजाय सार्वजनिक सुविधा की बात आई तो हम व्यर्थ में वितंडा खड़ा करने लग गए। अरे भाई! बम फोड़ने का इतना ही शौक है तो उसके पहले शहीदे आजम भगतसिंह को याद कर लो जिन्होंने बहरी सरकार तक बात पहुंचाने के लिए बम फोड़ा था। आज तो देश में लोकतांत्रिक सरकार है। इसमें बम की जरूरत नहीं है, न लक्ष्मी बम की, न सुतली बम की, न पटाखों की लड़ी की। 
देशबंधु में 19 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित 

Sunday, 15 October 2017

प्रेमचंद को याद क्यों करें!

                             
31जुलाई। प्रेमचंद जयंती। देश में अनेक स्थानों पर हर साल की तरह इस बरस भी कार्यक्रम हुए। प्रेमचंद को याद किया, विद्वानों ने उन पर व्याख्यान दिए, उनके चित्र पर माला पहनाई गई। यह सब कुछ वैसे ही हुआ होगा जैसा अमूमन होता आया है। प्रेमचंद जयंती हो या अन्य किसी महापुरुष की, उन्हें याद करने की एक लीक सी बंध गई है जिससे हटकर चलने की बात कम ही सोची जाती है। लेकिन छत्तीसगढ़ के एक ग्रामीण अंचल खैरागढ़ में प्रेमचंद जयंती इस साल  बिल्कुल अनूठे ढंग से मनाई गई।
अक्षर पर्व के सुधी पाठक खैरागढ़ के नाम से अपरिचित नहीं होंगे! यहां एशिया का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय है जो संगीत और ललित कलाओं को समर्पित है। यहां के पूर्ववर्ती राजा ने 1954 में अपनी दिवंगत पुत्री राजकुमारी इंदिरा की स्मृति में विश्वविद्यालय खोलने के लिए भव्य राजमहल सरकार को दान कर दिया था। इस महल की झलक हबीब तनवीर की फिल्म चरणदास चोर में आपने शायद देखी होगी। आप खैरागढ़ के नाम से इसलिए भी परिचित होंगे कि अपने इस नियमित स्तंभ में एकाधिक बार मैं इस कस्बाई नगर का जिक्र कर चुका हूं कि कैसे छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन स्थानीय मित्रों के सहयोग से आसपास के गांवों में भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की जयंती पर सुरुचिसम्पन्न गीत यामिनी कार्यक्रम विगत तीन वर्षों से लगातार आयोजित करते आया है। इटार, पेंड्री और पांड़ादाह जैसे अनजाने गांवों में सम्मेलन के कार्यक्रम हुए हैं, आधी रात के बाद तक चले हैं और कम से कम उस रात गांव में टीवी सेट बंद रहे। जब पूरा गांव चौपाल में कविताएं सुनने के लिए इकट्ठा हो गया तो घर में टीवी कौन चलाए! अक्षर पर्व के सुपरिचित लेखक डॉ. गोरेलाल चंदेल और सम्मेलन द्वारा संचालित पाठक मंच के संयोजक डॉ. प्रशांत झा इन आयोजनों के कर्ताधर्ता रहे हैं। दरअसल यह प्रशांत के उर्वर मस्तिष्क की उपज थी कि ग्रामवासियों को साहित्य से जोडऩे के लिए चलो गांव की ओर अभियान शुरू किया गया। वे एक व्यस्त चिकित्सक हैं, फिर भी अपने साहित्यिक अनुराग के चलते इस अभियान को गति दे रहे हैं। यह तो हुई पृष्ठभूमि।
आप शायद यह जानकर चकित, विस्मित होंगे कि 31 जुलाई 2017 को खैरागढ़ अनुविभाग अथवा प्रखंड के एक सौ पचास गांवों में एक सौ सतहत्तर स्कूलों में एक साथ प्रेमचंद की अमर कहानी "पूस की रात" का वाचन किया गया। हर जगह पर यह वाचन किसी स्कूली छात्र ने किया, फिर उस पर घंटे-दो घंटे की चर्चा हुई। इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में स्कूलों के अलावा ग्रामवासी बड़ी संख्या में शामिल हुए। एक कम्प्यूटर प्रशिक्षण केन्द्र था जहां सिर्फ छह लोगों के बीच कहानी पाठ हुआ। यह न्यूनतम संख्या थी। अन्य स्थानों पर बीस-पच्चीस से लेकर चार-पांच सौ तक लोग कहानी सुनने के लिए एकत्र हुए और उन्होंने खुलकर कहानी के बारे में अपने विचार भी सामने रखे। पूस की रात ने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण समाज के बीच लगभग सौ साल बाद भी कैसी बेचैनी उत्पन्न की और कैसे अपने प्रासंगिकता सिद्ध की, यह इन केन्द्रों से आई रिपोर्टों से पता चलता है। यदि स्थानाभाव न होता तो मैं इन सारी रपटों को यथावत प्रकाशित करता। लेकिन फिलहाल कुछ चुने हुए अंश सामने है। यह जानकारी देना प्रासंगिक होगा कि खैरागढ़ के पाठक मंच ने कार्यक्रम आयोजित करने के लिए हर गांव में एक ज्ञानमित्र मनोनीत किया था और उनके माध्यम से रिपोर्ट का एक प्रपत्र गांवों में पहले से वितरित करवा दिया था ।
कोहकाबोड़ गांव के श्रोताओं ने निष्कर्ष निकाला कि वास्तव में किसानों की दशा कभी सुधरेगी या नहीं, यदि हां तो कैसे, यदि नहीं तो क्यों? इस सभा में त्रिलोचन ने सवाल उठाया कि किसान भरी दोपहरी में काम करता है जबकि कानून बनाने वाला एसी में रहता है। सिंगारघाट की प्रतिभा पांडेय का कहना था कि आज भी किसान के रूप में हर गांव में हलकू हैं। मुड़पार में अधिकतर श्रोताओं ने छत्तीसगढ़ी में चर्चा की और सरकार से किसानों की संरक्षण की मांग की गई। बोईरडीह की श्रीमती शेषबाई का विचार था कि कहानी में ऋणग्रस्त किसान की गरीबी और बेबसी का यथार्थ चित्रण है। पांड़ादाह में कहानी पाठ के बाद विद्यार्थियों के लिए निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। धौराभाठा के देवकांत ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कहानी वाचन के दौरान श्रोता किसान भावुक नजर आए। घुमका की सभा में साढ़े चार सौ से अधिक लोग उपस्थित थे। घोटिया के श्रोताओं ने कहा कि उच्च वर्ग किसानों का शोषण करता है। धनगांव के ज्ञानमित्र गिरधारी वर्मा ने लिखा कि कुछ लोगों को कहानी समझ में नहीं आई। कुछ स्थान पर श्रोताओं को हलकू के ठंड से ठिठुरने की पीड़ा ही समझ पड़ी। पवनतरा में "पूस की रात" के वाचन के साथ-साथ ईदगाह, पंच परमेश्वर इत्यादि कहानियों की भी चर्चा की गई। बिजेतला के श्रोताओं ने कहानी सुनने के बाद गांवों में दलगत राजनीति, साहूकार की जगह बैंक ऋण, रासायनिक खाद और कीटनाशक इत्यादि के प्रश्न भी उठाए। इन प्रतिक्रियाओं को जानने के बाद पाठक सहमत होंगे कि सही मायनों में यह एक अपूर्व आयोजन था।
मुझे यहां बतलाना चाहिए कि छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन पिछले कुछ वर्षों से प्रेमचंद जयंती पर दूरदराज के इलाकों में आयोजन करने का आह्वान अपने सदस्यों से ही नहीं, वृहतर लेखक बिरादरी से करता रहा है। पिछले दिनों हमने छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में प्रेमचंद क्लब स्थापित करने का भी सुझाव दिया है। हमारा मानना है कि इसी तर्ज पर बिहार में दिनकर क्लब या शिवपूजन सहाय क्लब खोले जा सकते हैं। तमिलनाडु में सुब्रमण्यम भारती तथा अन्य भाषा-भाषी प्रदेशों में वरेण्य रचनाकारों का स्मरण करते हुए श्रेष्ठ साहित्य के प्रति जनता की रुचि पुनर्जीवित  करने का काम इस प्रकार हो सकता है।
संयोगवश यह सितम्बर का माह है याने हिन्दी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा और माह मनाने का अवसर। देश भर में राजभाषा विभाग हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए कार्यक्रम करेंगे। उसमें शायद यह चिंतन भी होगा कि बंगलुरु जैसे बहुलतावादी महानगर के मेट्रो स्टेशनों पर हिन्दी नाम पटल पर आपत्ति क्यों हो रही है। उस समय यह याद रख लेना उचित होगा कि हिन्दी का अपना स्थान है किन्तु वह कन्नड़ या अन्य किसी प्रादेशिक भाषा को अपदस्थ करे यह उचित नहीं। हम हिन्दीवालों के लिए 14 सितंबर के भाषणों के आगे-पीछे यह सोचने का भी अवसर है कि हिन्दी जन-जन की भाषा कैसे बने, विशेषकर नई पीढ़ी में उसकी स्वीकार्यता कैसे बढ़े, विशेषकर तब जबकि पैकेज के पीछे भागी जा रही युवा पीढ़ी चेतन भगत और अमीश जैसे लेखकों के तीसरे दर्जे के उपन्यास पढऩे में ही सुख पाती है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर आज तक खड़ी बोली हिन्दी में अपार साहित्य रचा गया है। लेखक लगातार अपना काम कर रहे हैं, लेकिन यह हर दिन की शिकायत बनी हुई है कि हिन्दी रचनाओं को पाठक नहीं मिलते और हिन्दी पुस्तकों को ग्राहक नसीब नहीं होते। हिन्दी समाचार पत्रों में साहित्य पृष्ठ लगभग लुप्त हो चुका है। किसी-किसी पत्र का साल में एकाध साहित्य विशेषांक निकल जाता है जिसमें सामान्यत: वही लेखक होते हैं जो वर्षों से अपना वर्चस्व स्थापित करके बैठे हैं। हिन्दी साहित्य से आमजन कैसे परिचित हो, कैसे उसकी ओर प्रवृत्त हो, यह एक कठिन सवाल खड़ा हुआ है। मुझे लगता है कि प्रेमचंद की रचना हिन्दी साहित्य में प्रवेश करने के लिए एक दरवाजा खोलती है और प्रेमचंद क्लब जैसी संस्था यदि बने तो इस हेतु वातावरण तैयार कर सकती है।
मेरा आग्रह प्रेमचंद को लेकर कई कारणों से है। एक तो उनकी भाषा सरल-सुबोध है। यदि कोई स्कूली बच्चा भी उनकी रचना पढ़े तो आसानी से पढ़ सकता है, भले ही कथा का मर्म उसकी समझ में न आए। दूसरे प्रेमचंद की रचनाएं सही मायनों में कालजयी कही जा सकती हैं। इसका प्रमाण हमने पूस की रात  के वाचन में देखा। प्रेमचंद को ग्रामीण भारत की स्थितियों की सही पकड़ थी, वे मानव मन को भी बखूबी समझते थे और समाज में अन्याय व शोषण के मूल कारणों को भी बिल्कुल ठीक पहचानते थे। इन सबके चलते उनकी कहानियां पाठक या श्रोता को गहरे तक आंदोलित करते हैं। आज जो प्रेमचंद की कहानियां पढऩा शुरू कर रहा है, कल वह उनके उपन्यास भी पढ़ेगा, फिर महाजनी सभ्यता। वह प्रेमचंद से प्रारंभ कर वर्तमान साहित्य की तरफ रुख करेगा, यह आशा की जा सकती है।
कोई दस वर्ष हुए स्पैनिश भाषा के महान लेखक सर्वांतीस की चार सौवीं जयंती पड़ी तो स्पैन ही नहीं लातिन अमेरिकी देशों में भी गांव-गांव में भव्य आयोजन हुए, उनके उपन्यास डॉन क्विकज़ोट का वाचन किया गया। दक्षिण अमेरिका के देशों में अपने प्रसिद्ध कवियों की जयंती पर रात-रात भर काव्यपाठ का आयोजन होता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग एकत्र होते हैं। रूसी भाषा के महान कवि अलेक्जेंडर पुश्किन की दो सौवीं जयंती 1999 में पड़ी तो मास्को शहर की हर दुकान और हर सार्वजनिक स्थान पर पोस्टर चस्पा थे कि इस यादगार मौके पर कहां क्या आयोजन होने जा रहे हैं। उनकी किताबों के नए संस्करण बाजार में आ गए थे और रियायती दर पर खरीदने के लिए उपलब्ध थे। 
कौन नहीं चाहेगा कि अपने साहित्य और अपने लेखकों के प्रति ऐसा उत्साह हमारे समाज में भी हो। इसकी शुरूआत करने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। एक तरीका मैंने यहां प्रस्तुत किया है। मैं अंत में कहना चाहता हूं कि लेखक अपना काम करता रहे लेकिन उत्तम साहित्य को जनता तक ले जाने के लिए हमें निस्पृह समालोचकों की आवश्यकता है, साहित्य रसिक हिन्दी अध्यापकों की आवश्यकता है, निष्पक्ष संपादकों की आवश्यकता है और इन सबके साथ आवश्यकता है स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की जो हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं को अकाल मौत से बचाने के लिए तन-मन से काम कर सकें। धन की इसमें कोई खास आवश्यकता नहीं होगी
अक्षर पर्व सितम्बर 2017 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday, 11 October 2017

विश्व राजनीति के दो संकेत

                                     

 अभी हाल में यूरोप से ऐसी दो खबरें आईं जिन पर भारत में कोई खास ध्यान नहीं दिया गया। शायद इसलिए कि इन दिनों हमारा ध्यान अधिकतर अपने देश की घटनाओं पर ही लगा रहता है। शायद इसलिए भी कि जिन दो अलग-अलग देशों से ये खबरें आईं वे सामान्य तौर पर हमारी चर्चा के केन्द्र में नहीं रहते। इंग्लैंड में या सुदूर अमेरिका में चल रहे राजनीतिक घटनाचक्र के बारे में हमारी दिलचस्पी रहती है, लेकिन जर्मनी या स्पेन या अन्य बहुत सारे देशों की ओर अमूमन ध्यान नहीं जाता। मैं भी शायद इन दो खबरों को नहीं उठाता यदि इनमें विश्व राजनीति के वर्तमान और भविष्य के बारे में कुछ संकेत मेरी समझ में न आते। 
यह मेरा अनुमान है कि जर्मनी में हाल ही में सम्पन्न आम चुनाव की खबर पाठकों की निगाहों से सरसरी तौर पर गुजरी होगी। वहां वर्तमान चांसलर एंजेला मर्केल की पार्टी ने चौथी बार सर्वाधिक वोट प्रतिशत और सीटें हासिल की हैं। यद्यपि उनका वोट प्रतिशत पिछली बार के मुकाबले लगभग आठ प्रतिशत गिर गया है, जिसके कारण सुश्री मर्केल को सरकार बनाने में कठिनाई पेश आ रही है। उल्लेखनीय है कि एक समय मर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ने समाजवादी पार्टी को अपदस्थ किया था, लेकिन स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण दोनों ने मिलकर साझा सरकार बनाई थी। इस बार भी सोशलिस्ट पार्टी दूसरे नंबर हैं, लेकिन अब वह मर्केल के साथ साझा सरकार बनाने की इच्छुक नहीं है। तीसरे नंबर पर एक उग्र राष्ट्रवादी पार्टी एएफडी आई है जिसके वोट प्रतिशत में एकाएक इजाफा हुआ है। जर्मनी के चुनाव नियमों के अनुसार इस अतिवादी पार्टी को पहली बार संसद में बैठने का मौका मिलेगा। लेकिन वह एंजेला मर्केल से विपरीत ध्रुव पर है। वे अब अन्य छोटे दलों को साथ लेकर सरकार बनाने की कोशिश में जुटी होंगी!
दरअसल, एंजेला मर्केल इस समय यूरोप की सबसे कद्दावर नेता हैं, वे सबसे अधिक अनुभवी भी हैं और उन्होंने एक विश्व नेता के रूप में अपनी छवि निर्मित की है। एक ओर जहां विश्व के अनेक देश  राजनीतिक कारणों से विस्थापित हुए जनसमूहों को शंका की दृष्टि से देखते हैं, उनका तिरस्कार करते हैं, उनके प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहते और उन्हें अपने देश में शरण लेने से रोकते हैं, वहीं एंजेला मर्केल सीरिया और अन्य अरब देशों से आए शरणार्थियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का परिचय दे रही हैं। इस समय जर्मनी में बड़ी संख्या में विस्थापितों को शरण मिली हुई है। सुश्री मर्केल पर चुनाव के समय दबाव था कि वे शरणार्थियों के प्रति कठोर रुख अपनाएं अन्यथा उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन उन्होंने  चुनावी जीत अथवा राजनीतिक लाभ के लिए सिद्धांतों से समझौता करने से इंकार कर दिया। इस कारण उनसे बहुत से मतदाता नाराज हुए और उनको मिले वोटों में इसी वजह से कमी आई। जबकि भावनाओं को भड़काने वाले अतिवादी दल के वोटों में अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई।
आज पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका याने अरब जगत और बहुत से अनेक देशों में जो राजनीतिक अस्थिरता व गृहयुद्ध की स्थितियां विद्यमान हैं उन्हें समझने के लिए इतिहास में जाना होगा। इनमें से अधिकतर देश उपनिवेशवाद का शिकार थे। 1950 व 1960 के दशक में इन्हें स्वतंत्रता मिली भी तो वहां या तो साम्राज्यवादी शक्तियों की कठपुतली सरकारें बन गईं या फिर जनतांत्रिक परंपराओं से अनभिज्ञ कबीलाई नेताओं के हाथ में सत्ता आ गई। जो उपनिवेशवादी ताकतें पहले से ही इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटते आई थीं उनके लिए ऐसी व्यवस्था अनुकूल थी ताकि लूट-खसोट का व्यापार अबाध गति से चलता रहे। इस तरह जो माहौल निर्मित हुआ उसमें हर तरह से वंचित समाज में धर्म अथवा कबीले के नाम पर आंतरिक अशांति पनपने लगी, कबीलाई मानसिकता हावी हो गई, गृहयुद्ध होने लगे और बहुत बड़ी संख्या में निरीह जनता को अपना वतन छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा। जिस यूरोप के अनेक देशों ने अतीत में उपनिवेश स्थापित किए थे, दूसरे देशों को गुलाम बनाया था, जिसने पहले और दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका झेली थी उसी यूरोप ने कुछ तो शायद प्रायश्चित करने के लिए या कुछ शायद जनतांत्रिक मूल्यों से प्रेरित होकर इन शरणार्थियों को अपने देश में जगह दी, समय के साथ उन्हें नागरिकता प्रदान की और बराबरी का दर्जा भी दिया। इंग्लैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, नार्वे, जर्मनी आदि अनेक देशों में तुर्की, अल्जीरिया, सोमालिया, सीरिया, पोलैण्ड इत्यादि से आकर लोग बसे और कालांतर में शहर के मेयर से लेकर संसद सदस्य तक बने।
एक तरह से कहा जा सकता है कि यूरोप के एक बड़े हिस्से ने अपने अतीत पर पश्चाताप करते हुए एक नए विश्व समाज के निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाए, जो शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित हो। एंजेला मर्केल ने इसमें जो भूमिका निभाई उसी के चलते उन्हें विश्व स्तर पर सम्मान मिला। लेकिन यह कटु वास्तविकता अपनी जगह पर है कि हर देश व समाज में एक ऐसा वर्ग भी होता है जो अपने आपको महासागर का हिस्सा बनाने के बजाय कुआं या डबरी बना रहना पसंद करता है। जो अतिवादी दल जर्मनी में तीसरे स्थान पर आया वह इसी सोच को प्रतिबिंबित करता है। इंग्लैंड में जिन्होंने ब्रेक्जाट की वकालत की वे भी इसी सोच को दर्शाते हैं। इ•ारायल 1948 से आज तक यही कर रहा है कि उसके और फिलीस्तिनियों के बीच में कांक्रीट की अभेद्य दीवार खड़ी हो जाए। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसी प्रजाति के हैं। एक समय इंग्लैंड में इनॉक पॉवेल और अमेरिका में बैरी गोल्डवाटर जैसे राजनेता थे, जो इसी संकीर्ण मानसिकता के प्रतिनिधि थे, लेकिन वे हमेशा हाशिये पर बने रहे। आज दुर्भाग्य से उसी तरह के लोग हाशिये से केन्द्र में आ रहे हैं।
इस बीच एक और नई परिस्थिति निर्मित हुई है। विश्व के अनेक देशों में क्षेत्रीय अस्मिता प्रबल होने लगी है। स्काटलैंड में ग्रेट ब्रिटेन से अलग होने की मांग लगातार उठ रही है। वहां दो बार जनमत संग्रह भी हो चुका है। कुछ वर्ष पूर्व इंडोनेशिया से अलग होकर तिमोर ल एस्ते नामक नया देश बन चुका है। भारत में भी कश्मीर घाटी में पृथकतावादी ताकतें सक्रिय हैं। नेपाल में मधेशियों का एक वर्ग स्वतंत्र देश की मांग कर रहा है। श्रीलंका में तमिल अस्मिता और सिंहली वर्चस्ववाद का द्वंद्व चल रहा है। स्पेन के कैटोलनिया प्रांत में भी आत्मनिर्णय की आवाज लंबे समय से उठती रही है। पिछले दिनों वहां एकाएक गैर सरकारी तौर पर जनमत संग्रह का आयोजन किया गया, जिसमें कैटोलेनिया को अलग देश बनाने के प्रस्ताव को प्रचंड बहुमत मिला। स्पेन के प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे इस जनमत संग्रह को अवैध मानते हैं, स्पेन की अखंडता के साथ कोई समझौता नहीं होगा और कैटोलेनिया को अलग देश नहीं बनने दिया जाएगा।
स्पेन की यह घटना सोचने पर मजबूर करती है कि क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल इस तरह क्यों उठ रहे हैं। जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रवाद की अवधारणा यूरोप से ही आई है। वहां के छोटे-छोटे समाज भी अपने आपको राष्ट्र निरूपित करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व स्पेन के सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्णय दिया था कि कैटोलेनिया एक राष्ट्र तो है, लेकिन वह एक सार्वभौम देश का हिस्सा है, वह अलग देश नहीं बन सकता। मैं जहां तक समझता हूं जब किसी भी देश या समाज में वर्चस्ववादी या बहुमतवादी मानसिकता हावी हो जाती है तब क्षेत्रीय, जातीय या राष्ट्रीय अस्मिता के ऐसे सवाल उठते हैं। यह सत्ताधीशों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे सबको साथ लेकर चल सकते हैं या नहीं।
देशबंधु में 12 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित 

Monday, 9 October 2017

यात्रा वृत्तांत: बूढ़ा पीपल और बूढ़ा पुल

                                                
 
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का काम जिन लेखकों ने किया उनमें आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम अग्रणी है। उनके द्वारा लिखित 'देहाती दुनिया' को अनेक समालोचकों ने हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास माना है।  पटना से बच्चों के लिए प्रकाशित पत्रिका 'बालक'  का उन्होंने कई वर्ष संपादन किया। 1938-39 में प्रारंभ यह हिंदी में संभवत् पहली बाल पत्रिका थी। आचार्यजी के जन्मदिन 9 अगस्त पर बक्सर (बिहार) के दीपक राय आदि प्रगतिशील सोच वाले मित्र कई वर्षों से लगातार आयोजन करते आए हैं। तीन साल से टलते-टलते मुझे इस वर्ष इस सालाना कार्यक्रम में सहभागी होने का सुयोग प्राप्त हुआ। दोस्तों का न्यौता स्वीकार तो कर लिया; समस्या यह थी कि इतनी लंबी दूरी कैसे तय की जाए, कोलकाता होकर जाऊं, कि दिल्ली से, कि बनारस की राह ली जाए। अंतत: रायपुर से पटना तक चलने वाली दक्षिण बिहार एक्सप्रेस से  जाने का फैसला किया। ट्रेन यात्रा में इक्कीस घंटे लगना था, लेकिन सोचा कि रात को तो सोना ही है, दिन का समय किताबें पढ़कर और ट्रेन की खिड़की से बाहर के दृश्य देखने में कट जाएगा। कुछ नए अनुभव ही इस बहाने होंगे। इस लिहाज से निर्णय ठीक ही सिद्ध हुआ।
रायपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म एक और प्लेटफॉर्म पांच दोनों की लिफ्ट बराबर काम कर रही थी, ट्रैक और प्लेटफॉर्म की साफ-सफाई भी काफी बेहतर थी, ट्रेन आई भी समय पर और पटना के कुछ पहले तक समय पर ही चलती रही; फिर न जाने किस वजह से लगभग दो घंटे लेट हो गई। डिब्बे के परिचारक से पूछा कि अच्छी चाय कहां मिलेगी तो उसका जवाब था- राउरकेला के आगे झारखंड/बिहार में प्रवेश के बाद।  उसने सच कहा था। शाम और सुबह बिहार के स्टेशनों पर चाय बहुत अच्छी तो नहीं, फिर भी अच्छी मिली। क्या इसलिए कि बिहार में दूध की गुणवत्ता बेहतर थी? बिहार में रेल लाइन के किनारे गांवों में पटना पहुंचने तक लगभग हर घर में मवेशी बंधे दिखे, जिससे अनुमान हुआ कि दुग्ध उत्पादन इस प्रदेश की एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है। पटना से सड़क मार्ग से बक्सर जाते हुए भी रास्ते में पेड़ों की अनेक दूकानें मिलीं।
धारवाड़ (कर्नाटक) और मथुरा के पेड़े तो विख्यात हैं, लेकिन बिहार के पेड़ों की ख्याति अभी बाहर पहुंचना बाकी है। क्षमा कीजिए, यहां मैं भटक कर आगे चला आया। वापिस रायपुर लौटना पड़ेगा। मैं एक लंबे अरसे बाद दिन के समय ट्रेन से कोलकाता की दिशा में जा रहा था। रायपुर से बाहर निकलते साथ कारखानों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है- मांढर, बैकुंठ, फिर शिवनाथ के पुल के पार; उधर बिलासपुर के आगे दोनों तरफ कारखानों की चारदीवारियाँ और चिमनियाँ।  भूपदेवपुर, किरोड़ीमल नगर, रायगढ़, कोतरलिया के आसपास की तस्वीर तो पूरी तरह बदल चुकी है, छत्तीसगढ़ की सीमा पार करने के बाद भी बेलपहाड़, हिमगिर के आगे काफी दूर तक यह सिलसिला जारी रहता है। यहां सिर्फ कारखाने ही स्थापित नहीं हुए हैं, रेल लाइनों का विस्तार कार्य भी चल रहा है। साल के बेशकीमती जंगल धीरे-धीरे कर नष्ट हो रहे हैंं। जहां संयंत्र चालू हैं, वहां धुएं के बादलों के पार कुछ दिखाई नहीं देता।
 छत्तीसगढ़, ओडिशा,   झारखंड का यह इलाका खनिज संपदा का धनी है। जो बेतहाशा माइनिंग हाल के बरसों में हुई है, उससे जंगल तो कटे ही, हाथी व अन्य वन्य प्राणियों की रिहाइशें भी खत्म हो गईं। आज जशपुर से लेकर अंबिकापुर और इधर सिरपुर तक हाथी आ रहे हैं, उसका प्रमुख कारण यही है। विकास की कीमत हम इस तरह चुका रहे हैं और शायद आगे भी चुकाते रहेंगे!!  ट्रेन में यही सोचते-सोचते जो नींद आई तो सुबह बिहार के किसी गांव के आसपास खुली। धान के खेतों में पानी लबालब भरा था। अनुमान लगा कि यहां बारिश पर्याप्त हो चुकी है।
पटना स्टेशन पर रंगकर्मी, पत्रकार अनीश अंकुर लेने आ गए थे। शहर में वरिष्ठ लेखक खगेंद्र ठाकुर और पत्रकार प्रमोद कुमार भी साथ आ गए। बक्सर का लगभग 140 किमी का सफर तय करने में साढ़े चार घंटे लगे। एक तो सड़क को फोरलेन करने का काम चल रहा था, दूसरे यातायात बहुत अधिक था। लेकिन बातचीत करते सफर मजे में कट गया। रास्ते में सकड्डी चौक नामक स्थान पर चाय-नाश्ते के लिए जिस ढाबे में रुके उसका नाम था-''तिलंगाजी का मशहूर पेड़ा दूकान"।  ये तिलंगाजी वर्तमान होटल मालिक के दादाजी थे। चलते-चलते आसपास नजर दौड़ाई तो देखा कि इसी नाम की यहां कम से कम पांच और ढाबे थे। समझ पड़ा कि वंशजों में बंटवारा होने से सबने अपनी-अपनी दूकानें खोल ली होंगी। जैसे मथुरा में विश्रामघाट पर ''गोसाईं जी के पेड़े'' की कोई एक दर्जन  दूकानें मेरे देखते-देखते पिछले पचास साल में खुल गई हैं।
सकड्डी चौक के थोड़ा पहले हमने सोन नदी पार की थी। अमरकंटक से निकली सोन का स्वरूप यहां समुद्र के समान था- दूर-दूर तक जल ही जल। सोन पर पहला पुल यहीं 1865 के आसपास बना था और इसमें इंजीनियरिंग का जो कमाल है, उसकी सराहना किए बिना नहीं रहा जाता। आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तामीर पुल एक किमी से अधिक लंबा है, दुमंजिला है, नीचे सड़क, ऊपर रेल चलती है और पुल निरंतर सेवारत है। अब पास में एक नए सेतु का निर्माण प्रारंभ हो गया है। बूढ़े बाबा पता नहीं कब तक साथ दें? इस पुल के पास स्थित गांव का नाम कवित्वमय है- कोइलवर। 
बक्सर में भी तीन स्थान दर्शनीय हैं। एक तो यहां का पांच सौ साल पुराना किला है जो गंगा किनारे है। किला लगभग नष्ट हो चुका है या कर दिया गया है। अब किले की जगह सरकारी अधिकारियों के लिए भव्य विश्रामगृह बन गया है। कहीं-कहीं किले के खंडहर बचे हैं। इसके चारों ओर कई फीट चौड़ी, कई फीट गहरी खाई थी, वह भी शनै:-शनै: पाट दी गई है। कुछ प्राचीन वृक्ष अवश्य बच गए हैं। पीपल का एक वृक्ष देखकर मैं चमत्कृत रह गया। इतना मोटा तना और इतनी ऊंची फुनगी। पेड़ शायद दो सौ साल पुराना होगा! किले के बाहर ही सीताराम उपाध्याय संग्रहालय है जिसे राज्य सरकार संचालित करती है। श्री उपाध्याय ने अपनी निजी रुचि से आसपास से पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं का संग्रह व संरक्षण बिना सरकारी मदद के प्रारंभ किया था। उन्हें दूसरे तो क्या, स्वजन भी खब्ती समझते थे। आज उनका वह संग्रह एक बेशकीमती खजाने के रूप में हमारे सामने है, जिसमें ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व की मूर्तियां व अन्य सामग्रियां हैं। किले से मैं दुखी मन बाहर निकला था, म्यूजियम देखकर दुख दूर हुआ।
बक्सर में तीसरा दर्शनीय स्थान हैं- कतकौली का मैदान। यहां अक्टूबर 1764 में ब्रिटिश सेनाओं ने अवध व बंगाल के नवाब की सेना को निर्णायक रूप से परास्त कर समूचे पूर्वी भारत पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था। अंग्रेजों ने यहां हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी व उर्दू में अपनी जीत की घोषणा के प्रस्तर-फलक लगाने के साथ एक विजय स्तंभ भी खड़ा किया था। विजय स्तंभ कालांतर में क्षतिग्रस्त हुआ होगा, लेकिन न जाने कब किसने वहीं एक नया विजय स्तंभ खड़ा कर दिया गया जिस पर मोज़ेक टाइल्स जड़े गए थे! वे टाइल्स एक-एक उखड़ रहे हैं, लेकिन अंग्रेजों की जीत का स्तंभ नये सिरे से खड़े करने की बुद्धिमानी हमने क्यों दिखाई? लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता नागेंद्रनाथ झा ने सांसद निधि से स्मारक की चारदीवारी बनवा दी थी कि अतिक्रमण न हो। वह एक समझदारी का काम था। लेकिन आसपास अवैध कब्जे बदस्तूर हो रहे हैं। एक दिन हम भूल जाएंगे कि इस जगह पर भारत का एक बड़ा भूभाग दो सौ साल के लिए गुलाम बना लिया गया था। मेरे गाइड युवा पत्रकार पंकज भारद्वाज ने रास्ते में मुझे वह नहर भी दिखाई, जिसमें कभी स्टीमर चला करते थे, लेकिन जिसे पाट कर अब मकान बन रहे हैं।
आचार्य शिवपूजन सहाय की जयंती पर आयोजित दो-दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने से मुझे बहुत संतोष मिला। सबसे अधिक प्रसन्नता की बात यह थी कि नौजवानों ने आयोजन में बढ़-चढ़कर शिरकत की। 10 तारीख को शहीद कुंवरसिंह की प्रतिमा से प्रारंभ हो शहीद भगतसिंह की प्रतिमा तक विश्व शांति, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी के लिए दो किमी का मार्च निकला, उसमें भी युवजन बड़ी संख्या में शामिल हुए।
मैंने उनके साथ करीब दो-ढाई घंटे तक खुली बातचीत की तो समझ आया कि ये युवा राजनीतिक रूप से बेहद सजग हैं, देश व दुनिया के प्रश्नों में उनकी गहरी दिलचस्पी है और वे हिंदी साहित्य के उत्कट अध्येता भी हैं। सभा स्थल पर पुस्तकों की दो दूकानें लगी थीं और सभी लोग रुचि के साथ किताबें खरीद रहे थे। बिहार को हम सदा से एक साहित्यप्रेमी समाज के रूप में जानते आए हैं, यह आयोजन उसका प्रत्यक्ष उदाहरण था। ट्रेन में विलंब होने के कारण मैं कार्यक्रम में दो घंटे देर से पहुंचा था, लेकिन सब धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। शाम सात बजे के आसपास कार्यक्रम समाप्त हुआ, लेकिन श्रोतागण ने कोई उकताहट या उत्साहहीनता नहीं दिखाई।
इस संक्षिप्त प्रवास से मैं अनेक मीठी यादें लेकर लौटा।  साथ-साथ बक्सर की सोनपापड़ी मिठाई का एक डिब्बा भी दीपकजी ने रख दिया था। बक्सर की यह मिठाई बिहार में बहुत प्रसिद्ध है।
देशबंधु में 05 अक्टूबर को प्रकाशित