Friday 17 November 2017

मुक्तिबोध का अखबारी लेखन


 गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम लेते साथ अनायास ही चाँद का मुंह टेढ़ा है और अंधेरे में  जैसे उनकी कविताओं के शीर्षक आंखों के सामने आ जाते हैं। हम उन्हें प्रथमत: कवि के रूप में ही स्मरण करते हैं। फिर कामायनी: एक पुनर्विचारएक साहित्यिक की डायरी आदि के माध्यम से साहित्यिक आलोचना में उनके अप्रतिम योगदान का ध्यान आता है। वे अपने ढंग के एक अनूठे कथाशिल्पी थे, यह परिचय विपात्रब्रह्मराक्षस का शिष्यक्लाड ईथरली आदि रचनाओं से प्राप्त होता है। बीसवीं सदी का यह बहुविधा निष्णात लेखक एक सजग, सतर्क, विचारसम्पन्न पत्रकार भी था, इस तथ्य को अक्सर बिसरा दिया जाता है। वे नागपुर में नया खून नामक साप्ताहिक अखबार से जुड़े थे, इतना तो हमें शायद पता होता है, किंतु उनका अखबारी लेखन कैसा था, एक पत्रकार के रूप में उनका क्या अवदान था, इस पर जितनी चर्चा होना चाहिए थी, संयोगवश नहीं हो सकी है। यह सन्तोष का विषय है कि आज जब मुक्तिबोध जन्मशती मनाई जा रही है, तब कतिपय गंभीर अध्येताओं का ध्यान उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के इस पक्ष की ओर भी गया है।
मुक्तिबोध रचनावली के छठवें व अंतिम खंड में राजनैतिक व अन्य लेखन इस मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत मुक्तिबोधजी के जो लेख संकलित हैं, मुख्यत: वही उनका अखबारी लेखन है। इस संकलन पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं। एक तो यह पता चलता है कि मुक्तिबोध जी की आयु जब पूरे बीस साल भी नहीं थी, तब से उनके लेखों का प्रकाशन हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में होने लगा था। खंडवा से प्रकाशित कर्मवीर के 9 से 16 जनवरी 1937 के अंकों में अतीत  शीर्षक से दो किश्तों में लेख छपा। उन्हें तब उन्नीस साल पूरे किए तीन माह भी नहीं बीते थे। उल्लेखनीय है कि मूर्धन्य कवि माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर के संपादक थे। इस पहले लेख के अध्ययन से ही भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ व उनकी अद्भुत अध्ययनशीलता का परिचय तो मिलता ही है, यह भी हम देख पाते हैं कि देश, समाज, राजनीति को लेकर उनके विचारों में इस तरुणाई में ही वह प्रगल्भता व दिशाबोध आ गए थे, जो जीवन भर उनके साथ  रहे। 
दूसरा रोचक तथ्य यह प्रकट होता है कि मुक्तिबोधजी  के अनेक लेख या तो उनके नामोल्लेख बिना छपे या उन्होंने छद्मनामों का प्रयोग किया। इसकी आवश्यकता शायद इसलिए पड़ी कि वे आकाशवाणी में सेवारत थे और असली नाम से लिखने पर शासन के कोपभाजन बन सकते थे। उन्होंने यौगन्धरायण व अवंतीलाल गुप्त इन दो छद्मनामों को अपनाया था। अवंतीलाल गुप्त संभवत् इसलिए कि अवंती या कि उज्जैन से उनका गहरा नाता था और गुप्त का आशय तो स्पष्ट ही है। यौगन्धरायण नाम भी उन्होंने शायद इसीलिए लिया कि भास रचित संस्कृत महाकाव्यों प्रतिज्ञा यौगन्धरायण तथा स्वप्नवासवदत्ता में वह उज्जयिनी के राजा उदयन का महामंत्री है जिसमें विद्वता, विवेकशीलता, साहस व स्वामीभक्ति जैसे गुण कूट-कूटकर भरे हैं। मुक्तिबोध अपने मात्र सैंतालीस वर्ष के जीवन में अनेक स्थानों पर रहे, लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि उज्जैन को वे सदा साथ लेकर चलते रहे। नागपुर में रहकर उज्जैन का परिचय देने वाले छद्मनामों से लिखने का विचार उनके मन में अन्यथा क्यों आया होगा!
मुक्तिबोध के अखबारी लेखन की बात उठने पर सबसे पहले नया खून की ही याद आती है, लेकिन पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र द्वारा स्थापित सारथी के लिए भी उन्होंने कई बरसों तक लिखा। दरअसल, नया खून और उसके संस्थापक-संपादक स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के साथ उनके प्रगाढ़ संबंध थे। नया खून में काम करते हुए ही उन्होंने अनेक युवा लेखक-पत्रकारों का मार्गदर्शन किया। मुझे इनमें से तीन नाम विशेषकर ख्याल आते हैं- लज्जाशंकर हरदेनिया, जो भोपाल में रहते हुए आज 85 वर्ष की आयु में भी निरंतर सजग भाव से पत्रकारिता कर रहे हैं; दूसरे शरद कोठारी जिन्होंने नागपुर से अपने गृहनगर राजनांदगांव लौटने के बाद सबेरा (बाद में सबेरा संकेत दैनिक) नामक साप्ताहिक पत्र स्थापित किया और दो व्यंग्य उपन्यासिकाओं की रचना की; तीसरे रमेश याज्ञिक जिन्होंने समर्थ कथाकार, यात्रा वृत्तांत व संस्मरण लेखक तथा अनुवादक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की। 
यहां स्वामी कृष्णानंद सोख्ता का उल्लेख करना भी आवश्यक होगा। स्वामीजी अपनी पदवी के अनुरूप एक धर्मगुरु ही थे, लेकिन इस बाने को उन्होंने जल्दी ही उतार फेंका होगा। स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सत्यभक्त की परंपरा में उनकी गणना करना शायद गलत नहीं होगा। विराट व्यक्तित्व व ओजस्वी वाणी के धनी सोख्ताजी पुराने मध्यप्रदेश की एक जानी-मानी हस्ती थे। वे कांग्रेस के नेता थे और नागपुर में तो खैर उनका दबदबा ही था। उन्होंने नया खून प्रारंभ कर उसे एक निर्भीक साप्ताहिक पत्र के रूप में स्थापित किया। वे स्वयं एक अच्छे कवि थे तथा कलामे सोख्ता के नाम से उनके मुक्तकों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ था, जिसका व्यंग्य चुटीला एवं मारक था। उनका निधन हुआ तब तक मुक्तिबोध राजनांदगांव आ चुके थे। 1960 में प्रकाशित नया खून के श्रृद्धांजलि अंक में आत्मीयता के अखंड स्रोत : स्वामीजी शीर्षक से मुक्तिबोधजी ने उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित की जिसमें उन्होंने स्वामीजी को बंधनहीन मानवतावादी निरूपित किया।  उन्होंने लिखा- स्वामीजी एक अजीब आदमी थे- एकदम फक्कड़, बहुत दिलदार, पूरे इंसान और ताकतवर।
रचनावली में संकलित पहले लेख अतीत (1937) से लेकर इस अंतिम लेख (1960) तक का अनुशीलन करने से स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध के अखबारी लेखन का फलक अत्यन्त व्यापक था। इसमें यदि वसुधा, कल्पना इत्यादि में प्रकाशित स्तंभ व लेखों को भी शामिल कर लें तो व्यापकता और बढ़ जाती है। यही नहीं, वे जिस विषय पर लिखते हैं, उसका निर्वाह अधिकारपूर्वक और प्रामाणिकता के साथ करते हैं। सोख्ताजी को दी गई श्रृद्धाजंलि एक अनुपम व्यक्ति-चित्र है। इसमें स्वामीजी की चारित्रिक विशेषताओं का बेहद बारीकी और सूझबूझ के साथ अंकन हुआ है। उन्होंने स्वामीजी और अपने पारस्परिक संबंधों को भी अकुंठ सादगी के साथ उकेरा है। दूसरी ओर 1958-59 सत्र में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित लेख है। कॉलेज की पत्रिका में छपे लेख को अखबारी लेखन तो नहीं माना जाएगा, लेकिन अचरज की बात है कि विद्यार्थियों के हित में उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा पर एक विस्तृत लेख लिखा, जबकि वे हिंदी के अध्यापक थे। जिस रॉकेट साइंस की जटिलता आज एक अंग्रेजी मुहावरा बन गई है, उसी विषय पर उन्होंने सरल और बोधगम्य भाषा में एक लंबा लेख लिख दिया। यह काम वही व्यक्ति कर सकता था जो खुद अपार अध्ययनशील हो और जिसने पढ़े हुए को गुना भी हो।
अपने पहले लेख याने अतीत में मुक्तिबोध एक दार्शनिक जिज्ञासा में तैरते दिखाई देते हैं। 19 वर्षीय  लेखक का आत्मविश्वास यहां स्पष्ट झलकता है मानों उसके पास सब प्रश्नों के उत्तर हैं। वह लिखता है- अतीत हमारी समालोचना है, वर्तमान हमारा गतिमान काव्य है; और भविष्य हमारी आशा है । इस लेख में लोकप्रिय मराठी मासिक किर्लोस्कर में प्रकाशित एक लेख का संदर्भ है, जो मुक्तिबोधजी की किशोरवय में ही विकसित अध्ययन वृत्ति को सूचित करती है। वे आगे वर्ड्सवर्थ  की कविता ओड ऑन इम्मॉर्टेलिटी  का भी उल्लेख करते हैं। मैं अनुमान लगाता हूं कि कॉलेज के शिक्षक रमाशंकर शुक्ल इत्यादि उनकी इस रुचि को बढ़ाने में प्रेरक हुए होंगे। 1938-39 में ही तो मुक्तिबोधजी ने शुक्लजी के निधन पर भावभीनी श्रृद्धांजलि दी थी (देखें अक्षर पर्व मुक्तिबोध विशेषांक जून 2017)। इसकी अंतिम पंक्ति में इलैक्ट्रॉन, प्रोटॉन  के आसपास विद्युत बरसने का जिक्र है। गोया 1938-39 से लेकर जीवन के अंतिम समय तक मुक्तिबोध विज्ञान के सूक्ष्म रहस्यों व मानव चेतना पर उनके प्रभावों का अध्ययन करने में जिज्ञासु भाव से जुटे हुए थे। कहना न होगा कि वे वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए सदैव चिंतित और व्याकुल रहे, जैसा कि ये लेख दर्शाते हैं।
मुक्तिबोध की कविताओं में एक तरफ साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, युद्ध का विरोध एवं दूसरी ओर विश्व शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, नवस्वतंत्र देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों के बीच मैत्री, अन्याय, अत्याचार, शोषण का खात्मा होने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त होती है। इसके विस्तार में जाना यहां आवश्यक नहीं है। जैसा कि स्वाभाविक है कविता में उनका जीवन दर्शन बिंबों और प्रतीकों के सहारे प्रकट हुआ है। इसके बरक्स वे अपने राजनैतिक लेखों में सुदृढ़ तर्कों और पूरी स्पष्टता के साथ सीधी सपाट भाषा में अपने विचार सामने रखते हैं। वे देश-विदेश के घटनाचक्र पर सामयिक हस्तक्षेप करने को एक लेखक का नागरिक दायित्व मानते हैं। कर्मवीर में अप्रैल 39 में प्रकाशित एक अन्य लेख में वे कहते हैं-
मैं सच कहता हूं कि दिन-दिन मैं अपने व्यक्तित्व में विस्तार लाना चाहता हूं। हम एक व्यक्ति को प्यार कर संसार से अलग क्यों हटें, हमें अपना अनुराग दुखी संसार पर बिखेर देना चाहिए। इसी लेख की अंतिम पंक्ति विशेषकर ध्यान देने योग्य है इसलिए कि मात्र इक्कीस साल के तरुण से सामान्यत: ऐसी  सोच की अपेक्षा नहीं की जाती और न इसे वयसुलभ रूमान कहकर खारिज किया जा सकता, क्योंकि मुक्तिबोध का भावी जीवन (थोड़ा ही सही) कार्य (बहुत) करने में बीता- जीवन थोड़ा है, कार्य बहुत है और शक्ति अत्यन्त कम है, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार है
नौजवान का रास्ता  व  जिंदगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार  जैसे लेखों में दुखी संसार पर अनुराग बिखेरने की भावना के सूत्र खुलते हैं। उन्हें यह देखकर पीड़ा होती है कि नौजवानों के सामने विकास के लक्ष्य गुम हैं, इसलिए वह अपनी खाली जेब, भूख की यंत्रणा, दुर्भाग्य को चवन्नी-छाप एक्ट्रेसों की सूरत देखकर दो मिनिट के लिए भुलाना चाहता है। लेकिन वे इसके आगे चेतावनी देते हैं कि उसे गलत न समझा जाए। हमारा नौजवान बेहद सच्चा है। और बेहद अच्छा है।  उसमें बड़ी आग है और बहुत मिठास है। (नौजवान का रास्ता)। नागपुर में उत्सवों का भौंडापन देखकर भी उन्हें क्लेश होता है, लेकिन फिर वे उसका विश्लेषण करते हैं कि यह गरीबों की संस्कृति है। ये उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं। उनकी अंधेरी के ये सर्वोच्च क्षण हैं। आगे वे कहते हैं कि उनके सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुधार होना चाहिए। उनके पास उत्तम मानसिक खाद्य पहुंचाने की जरूरत है।  परंतु केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों से वह बात नहीं बनती जो जिंदगी की परिस्थितियां बदल देने से होती है। यह क्या होगा, इसके लिए वे मध्यवर्ग का आह्वान करते हैं कि वह नवीन सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाए। ( ज़िन्दगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार)
स्पष्टत: मुक्तिबोधजी लोकशिक्षण को एक अनिवार्य कर्म मानते हैं। वे वैश्विक घटनाचक्र पर लिखने के लिए कलम उठाते हैं तब भी उनके मन में यही भावना होती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का लंबा दौर प्रारंभ हुआ, इसके आर्थिक, सामरिक, कारकों को वे बखूबी पहचानते हैं। हिंदचीन  (वियतनाम, लाओस, कंबोडिया) में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतें कैसे षड़यंत्र रच रही थीं,  इनका खुलासा करने के लिए वे अनेक लेख लिखते हैं। भारत में विदेशी पूंजी निवेश पर चिंता करते हुए भी उन्होंने कई लेख लिखे। इजाप्त में स्वेज नहर पर आधिपत्य व मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) के तेल भंडारों पर कब्जा बनाए रखने के लिए अमेरिका-यूरोप ही नवसाम्राज्यवादी देशों ने कैसे-कैसे खेल रचे, मुक्तिबोध सजग दृष्टि से उसका भी अवलोकन कर रहे थे। वे नेहरू-नासिर-टीटो की त्रिमूर्ति के नेतृत्व में उभरे गुटनिरपेक्ष आंदोलन को प्रशंसा भाव से देखते और उसे अपना समर्थन देते हैं। दूसरी ओर वे स्टालिन के दौर में विश्व साम्यवाद की जो हानि हुई, उसका भी संज्ञान लेते हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि 1956 में ही उन्होंने सोवियत संघ को चेतावनी दी थी कि अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर दृढ़ हो जाने के बाद उसे अपने और अन्य साम्यवादी देशों में जनतंत्र मजबूत करने के लिए वैचारिक युद्ध में कूदना पड़ेगा। 
इन राजनैतिक लेखों के अध्ययन से यह भी समझ आता है कि मुक्तिबोध यद्यपि देश में कांग्रेस सरकार की आर्थिक-सामाजिक नीतियों से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन पंडित नेहरू के प्रति उनके मन में अगाध विश्वास था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की भूमिका को वे विश्व इतिहास की नई रेखा निरूपित करते हैं। स्वेज नहर के मसले पर उनका मानना था कि केवल तटस्थ राष्ट्र याने गुटनिरपेक्ष आंदोलन ही इजाप्त को आसन्न संकट से उबार सकता है। इसे वे आंदोलन को अपना पैर जमाने, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक जबर्दस्त नया मौका भी मानते हैं। पंडित नेहरू 1956 में पश्चिम जर्मनी की यात्रा पर जाते हैं। वहां उनका भव्य स्वागत होता है। तत्कालीन राजधानी बॉन में एक प्रमुख सड़क का नाम महात्मा गांधी पर रखा जाता है, इसे वे भारत का सम्मान बढ़ना कहते हैं। इस सबको मुक्तिबोध प्रशंसा भाव से देखते हैं। दून घाटी में नेहरू  यह लेख विशेष रूप से पठनीय है। अप्रैल 1957 में नेहरूजी एक सप्ताह की छुट्टियां बिताने देहरादून जा रहे थे। मुक्तिबोध लेख में नेहरूजी की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वे जिस जिम्मेदारी के काम पर हैं, उसमें आराम करना भी एक कर्तव्य है, ताकि वे लंबे समय तक हमारे बीच रह सकें। 
मुक्तिबोधजी ने दीपमालिका शीर्षक से संपादकीय लिखते हुए कामना की कि भारत को स्वर्गलोक बनाने के लिए शोषण और अत्याचार के पहाड़ों को चीरकर अपार श्रम से नई प्राणधारा बहाना होगी। वे हुएन-सांग की डायरी शीर्षक से एक रूपक रचते हैं जो काव्यमय भाषा में है। हुएन-सांग मुग्ध मन से चर्चा करता है कि नालंदा के वातावरण में कला, साहित्य, दर्शन और तर्कशास्त्र की चर्चाओं से दिन-रात गूंजता है। उसे छोड़कर जाने का मन नहीं है, लेकिन अंत में वह कहता है- पर मुझे चीन तो लौटना ही है।  यह लेख 1958 में छपा था। रायपुर के पास सिरपुर का उत्खनन तब तक प्रारंभ हो चुका था, लेकिन वहां के बौद्ध विहार तब तक प्रकाश में नहीं आए थे। अन्यथा कौन जाने कि मुक्तिबोध हुएन-सांग की सिरपुर यात्रा पर भी लिखते!
मुक्तिबोधजी ने भाषा नीति पर भी कुछ लेख लिखे हैं। वे हिंदी के महत्व को रेखांकित करते हैं किंतु वे कदम-ब-कदम और मंज़िल-दर-मंज़िल आगे बढ़ने पर जोर देते हैं। वे इस पदावली को दोहराते भी हैं। उनके बेहद रोचक लेख साहित्य के काठमांडू का नया राजा  का उल्लेख किए बिना मेरा लेख अधूरा रहेगा।
अविभाजित मध्यप्रदेश (मध्यप्रांत और बरार) के गोंदिया नगर में 1955 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। इसमें पं. रविशंकर शुक्ल की सरकार में वित्तमंत्री विदर्भ केसरी बृजलाल बियाणी सम्मेलन के नए अध्यक्ष चुने गए थे। उन्होंने गीतांजली के अनुगायक, सुप्रसिद्ध गीतकार एवं लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार, जबलपुर के महापौर पं. भवानीप्रसाद तिवारी को पराजित किया था। मुक्तिबोध बियाणीजी की खुलकर आलोचना करते हुए तल्खी से पूछते हैं कि लेखक के रूप में आपने क्या साहित्य सेवा की है। इस लेख के अंतिम पैराग्राफ को पूरा का पूरा उद्धृत करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। 
कहने दीजिए कि हि.सा.स. का जनता से कोई ताल्लुक नहीं। भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्य के नाम पर चलनेवाली वह एक नकली साहित्य संस्था है। हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनांदगांव, रायपुर, नरसिंहपुर, छिन्दवाड़ा, खण्डवा, बुरहानपुर, आदि-आदि छोटी-छोटी जगहों के अन्याय-पीड़ित जीवन बितानेवाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आह्वान करते हैं कि वे 'जनता के लिए साहित्य' का आंदोलन उठाएं और म्युनिसिपल कन्दील के नीचे, बरगद के तले, और जहां-जहां उन्हें जगह मिल सके, वे आपस में मिलें और यह तय करें कि उन्हें जनता का जीवन चित्रण करना है। कहानी, नाटक, उपन्यास, लोक-गीत, मुक्तक-गीत, खण्डकाव्य, लेख, निबन्ध, रिपोर्ताज, स्केच, आदि लिखें और सुनायें और इस प्रक्रिया के दौरान में जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें, संवारें और निखारें, तथा नेमाड़ी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी आदि मध्यप्रदेशीय लोक भाषाओं के पुनरुत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहे। कवि-सम्मलेनों में जनता की वाणी में जनता की चीखें गूंज उठें। साथ ही, शीघ्र ही किसी प्रकार सारे प्रान्त के जन-सेवी जन-द्रष्टा लेखकों की एक छोटी-सी परिषद बुलाई जाय, जिसमें निर्णयात्मक रूप से मध्यप्रदेश साहित्यिक आन्दोलन की दिशा को मोड़ दी जा सके।
कुल मिलाकर हम देखते हैं कि मुक्तिबोध के समूचे साहित्य में लोक शिक्षण और लोकहित ही सर्वोपरि है और उनका यह लोक भारत में नहीं बल्कि जापान से अमेरिका तक फैला हुआ है।             
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जनसंस्कृति मंच द्वारा भिलाई में 3-4 नवंबर को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत व  देशबंधु अवकाश अंक 12 नवंबर में प्रकाशित 

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