मेरी जानकारी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने चंपारण सत्याग्रह पर विशेष परिशिष्ट आदि प्रकाशित किए हैं, रायपुर सहित अनेक नगरों में परिसंवाद आयोजित हुए हैं; और यहां मैं विशेष उल्लेख करना चाहूंगा पत्रकार अरविंद मोहन द्वारा इसी विषय पर लिखी तीन पुस्तकों का, जो इसी साल प्रकाशित हुई हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली में युवा समाजकर्मी संजय कुमार ने ये पुस्तकें भेंट कीं तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी। चंपारण सत्याग्रह पर बीते समय में कभी डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पुस्तक लिखी थी, इस पर अंग्रेजी में भी किताबें लिखी गईं हैं, गांधी पर केंद्रित विपुल साहित्य में भी इसका उल्लेख होना ही था, गांधी समग्र अथवा कलेक्टेड वक्र्स ऑफ गांधी में भी चंपारण का विस्तृत विवरण मिलता है। इन सबके बावजूद शताब्दी अवसर पर एक नहीं बल्कि तीन-तीन किताबें प्रकाशित हों तो आनंद का कारण बनता है। इसलिए भी कि लेखक एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं और पुस्तकें हिंदी में हैं। इससे मेरी यह शिकायत भी आंशिक तौर पर कम होती है कि विद्वतजन हिंदी में इतिहास आदि साहित्येतर विषयों पर नहीं लिखते।
अरविंद मोहन की दो पुस्तकें- चम्पारण: सत्याग्रह की कहानी तथा चम्पारण: सत्याग्रह के सहयोगी का प्रकाशन सस्ता साहित्य मंडल ने किया है, जबकि प्रयोग चम्पारण भारतीय ज्ञानपीठ से आई है। हम जानते हैं कि महात्मा गांधी द्वारा और उन पर लिखी गई पुस्तकों की संख्या सैकड़ों में नहीं, बल्कि हजारों में है। अरविंद मोहन की पुस्तकें पढऩे के बाद मैं कह सकता हूं कि उन्होंने इस खजाने को बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान किया है। दूसरी ओर हिंदी भाषा की भी सेवा उन्होंने सुंदर रूप में की है, जिसके लिए वे हमारी बधाई के हकदार बनते हैं। चंपारण : सत्याग्रह के सहयोगी की चर्चा मैं पहले करना चाहता हूं। इसलिए कि यह किताब हमें सत्याग्रह के कुछ लगभग अनछुए पहलुओं से अवगत कराती है। जैसा कि शीर्षक से ध्वनित होता है, यह पुस्तक उन व्यक्तियों पर केंद्रित है जो चम्पारण सत्याग्रह में बापू के सहयोगी बने।
राजकुमार शुक्ल का नाम इनमें सबसे पहला है। वे ही तो थे जो 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गांधीजी से मिले थे और उन्हें चम्पारण आने का न्यौता दे आए थे। घर लौटने के बाद भी वे गांधीजी से निरंतर पत्राचार करते रहे और उन्हें बुलाकर ही माने। जब गांधीजी का कार्यक्रम बन गया तो कलकत्ता से लेकर पटना, मुजफ्फरपुर और चम्पारण के गांवों तक उनकी व्यवस्था करने के लिए शुक्लजी उठापटक करते रहे। अरविंद मोहन का मानना है कि गांधीजी को महात्मा का विरुद भले ही कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने दिया है, उन्हें महात्मा कहकर संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति राजकुमार शुक्ल थे। लेखक इसे स्पष्ट भी करते हैं कि बिहार में किसी श्रद्धास्पद व्यक्ति को महात्मा कहकर पुकारने का चलन रहा है। पुस्तक में पहला लेख उचित ही राजकुमार शुक्ल पर है। वे नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज साहबों से कैसे त्रस्त थे, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी, आदि विवरण इस लेख से मिलते हैं। गिरते स्वास्थ्य के कारण काफी जल्दी 1929 में उनका निधन हो गया। उन्हें मुखाग्नि छोटी बेटी देवपति ने दी, जो उस दौर में एक असामान्य घटना थी। जिस साहब से शुक्लजी का झगड़ा था, उसी ने उनकी मृत्यु के बाद बड़े दामाद की नौकरी लगवाई, यह प्रसंग भी लेख में है।
सत्याग्रह के सहयोगियों में विभिन्न पृष्ठभूमियों के लोग थे। मौलाना मजहरुल हक इंग्लैंड के दिनों से गांधीजी के मित्र थे, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, बृजकिशोर प्रसाद, आचार्य कृपलानी, अनुग्रह नारायण सिंह इत्यादि, जिन्होंने आगे चलकर प्रसिद्धि पाई, से उनका ठीक-ठीक परिचय चम्पारण प्रवास के समय ही हुआ। कस्तूरबा, देवदास भाई, दीनबंधु एंड्रूज, हेनरी पोलक, महादेव भाई भी उनके साथ रहे। इन सबका परिचय देना यहां आवश्यक नहीं है। पीर मुहम्मद मूनिस, हरबंश सहाय, प्रजापति मिश्र, शेख गुलाब, शीतल राय, खेन्धर राय जैसे स्थानीय व्यक्तियों से भी लेखक हमें परिचित कराते हैं, जिन्होंने सत्याग्रह को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री मूनिस पत्रकार थे और गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार 'प्रताप’ के लिए लिखते थे। उन्होंने एक दुखी आत्मा के छद्म नाम से नील विभ्राट शीर्षक से नील की खेती के बारे में लिखा था और इस विषय पर संभवत: यह पहला लेख था। मूनिस बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक सदस्य थे। उन्होंने चम्पारण का इतिहास नामक किताब भी लिखी। शीतल राय और शेख गुलाब दो साहसी व्यक्ति थे, जो 1908-09 से ही निलहा साहबों के अत्याचार व शोषण के विरुद्ध जनजागृति करने में लग गए थे। पुस्तक में तीस सहयोगियों के संक्षिप्त जीवन वृत्त दिए गए हैं, ये मर्मस्पर्शी विवरण आम जनता के लिए सत्याग्रह के इतिहास में रह गई कमी को पूरा करते हैं।
प्रयोग चम्पारण व चम्पारण : सत्याग्रह की कहानी की विषयवस्तु लगभग समान है। मैंने संयोगवश प्रयोग चम्पारण पहले पढ़ ली, इसलिए दूसरी किताब पढऩे में अधिक रस नहीं मिला। दोनों में यदि फर्क है तो विशेषत: इसलिए कि प्रयोग चम्पारण में कुछेक महत्वपूर्ण दस्तावेज 10-12 पृष्ठों के परिशिष्ट में समेट लिए गए हैं, जबकि चम्पारण: सत्याग्रह की कहानी में लगभग सत्तर पृष्ठ इन ऐतिहासिक दस्तावेजों के लिए दिए गए हैं। प्रयोग चम्पारण में आठ अध्याय हैं। ये पहले के गांधी से शुरू होकर बाकी रहा गांधी का सुगंध तक फैले हैं। लेखक ने पंद्रह-सोलह पृष्ठ की दीर्घ भूमिका भी लिखी है। इसमें हम अरविंद मोहन के पत्रकार रूप को कहीं-कहीं लेखक पर हावी होते देखते हैं। वे संचार माध्यमों की प्रभावशीलता पर कुछ विस्तार से ही बात करते हैं और गांधी को एक श्रेष्ठ कम्युनिकेटर होने का विशेषण देते हैं। वे कहते भी हैं कि इस पुस्तक में गांधी के चम्पारण सत्याग्रह के कम्युनिकेशन वाले इसी पक्ष पर ध्यान देने की कोशिश की गई है। किंतु मेरा मानना है कि पुस्तक का यह एक छोटा पक्ष है। उन्होंने भूमिका में सबसे पते की जो बात लिखी है वह है- जो संभवत: सबसे बड़ी चीज चम्पारण और मुल्क को मिली वह थी गोरी चमड़ी और शासन से डर की विदाई।
यह सिर्फ संयोग नहीं कि रायपुर में इसी जुलाई में आयोजित एक वृहत कार्यक्रम में सारे वक्ताओं ने भय से मुक्त करवाने को ही गांधी के सत्याग्रह की सबसे प्रमुख देन बताया था। गांधी के संदर्भ में अन्यत्र भी यही विचार सामने आता है। उन्होंने भयमुक्त होने का मंत्र तो नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका में ही सिद्ध कर लिया था, किंतु भारत की जनता को उसका प्रत्यक्ष परिचय पहले-पहल चंपारण में हुआ, ऐसा मानना गलत नहीं होगा। लेखक ने एक अन्य महत्वपूर्ण और सटीक टिप्पणी की है कि गांधी ने अहिंसा को अपनाया और इसे एक राजनैतिक औजार बनाया पर न तो उनकी अहिंसा को अकेले बुद्ध-महावीर से जोड़ा जा सकता है और न पश्चिम के नॉन -वायलेंस से। मेरा अपना प्रारंभ से मानना रहा है कि गांधी की अहिंसा एक राजनैतिक अस्त्र थी, जिसका कौशलपूर्वक इस्तेमाल उन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध किया। लेकिन पश्चिम के नॉन-वायलेंस से लेखक का क्या आशय है, मैं ठीक से नहीं समझ पाया। मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ज्वलंत उदाहरण सामने है जिनका समूचा आंदोलन गांधी दर्शन से प्रेरित था।
चंपारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि समझने के लिए पुस्तक का दूसरा अध्याय पहले का चम्पारण पढऩा अत्यन्त आवश्यक है। इस अध्याय में चंपारण क्षेत्र के भूगोल, इतिहास व सामाजिक स्थितियों का सम्यक परिचय मिलता है। हम सामान्य तौर पर जानते हैं कि सत्याग्रह नील की खेती करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ था, लेकिन लेखक स्पष्ट करता है कि 1916 आते-आते तक नील की खेती में रुचि घटने लगी थी, क्योंकि जर्मनी में रासायनिक नील का आविष्कार हो गया था। किसानों को पहले ही फसल का उचित दाम नहीं मिलता था, अब जब उन्होंने नील छोड़कर अन्य फसलें उगाने की सोची तो दमनकारी गोरों ने उन पर तरह-तरह की दुश्वार शर्तें लगा दीं, जिससे किसानों का जीवन और दुखदायी हो गया। इसका वर्णन लेखक ने विस्तार से किया है। उसने नील की खेती और नील बनाने के कारखानों का भी चित्रण बहुत बारीकी से किया है। यह बतलाता है कि चंपारण इलाके में तीस-पैंतीस हजार मजदूर उस जमाने में नील उत्पादन में संलग्न थे। उन्हें यदि सही मजदूरी मिलती तो चंपारण स्वर्ग बन गया होता।
दूसरे अध्याय में ही अरविंद मोहन ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। वे बताते हैं कि 1911 की जनगणना के मुताबिक संयुक्त बिहार-उड़ीसा प्रांत में 2700 गोरे थे, जिनमें से मात्र दो सौ चंपारण में थे, लेकिन भय, आतंक व दमन के बल पर इन मुठ्ठी भर लोगों ने जनता का जीना हराम कर रखा था। इस भय से मुक्ति दिलाने का काम ही तो गांधीजी ने किया। लेकिन उन्होंने एक चमत्कार और किया। शेख गुलाब और शीतल राय जैसे लोग उनके आने के पूर्व गोरों का विरोध हिंसक तरीकों से करते थे। वे गांधी के अनुयायी बनकर अहिंसाव्रती हो गए। लेखक ने जॉन बीम्स नामक अंग्रेज अफसर का जिक्र किया है जो 1867 के आसपास नवगठित चंपारण जिले के प्रथम कलेक्टर बनकर आए थे। नील कारोबारी गोरों ने उनकी आवभगत कर उन्हें अपने में शामिल करने की कोशिश की। उसमें सफलता नहीं मिली तो श्री बीम्स का तबादला जल्दी ही उड़ीसा कर दिया गया। भाषाविज्ञान के विद्यार्थी जॉन बीम्स को भारोपीय भाषाओं का व्याकरण लिखने के लिए जानते हैं। लेकिन उड़ीसा में पदस्थ होने के बाद उन्होंने ओडिय़ा भाषा को मान्यता दिलाने के लिए जो सफल प्रयत्न किए, उससे उड़ीसा के सांस्कृतिक परिदृश्य का ही कायाकल्प हो गया।
पुस्तक में लेखक ने दो रोचक प्रसंगों की चर्चा की है, जिन्हें उद्धृत करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। एक तो मुजफ्फरपुर पहुंचने पर गांधीजी प्रो. मलकानी के घर ठहरे। वहां नारियल का एक वृक्ष था। आचार्य कृपलानी ने गांधीजी के लिए नारियल तोडऩे हेतु पेड़ पर चढऩे की कोशिश की तो जांघ छिल गई। फिर वे कुछ दिनों तक लंगड़ाते रहे। दूसरा प्रसंग सीधे गांधीजी से संबंधित है। अंग्रेज सरकार गांधीजी द्वारा की जा रही जांच में सहयोग देने तैयार हो गई। प्रशासन ने पूछा- आपको क्या सहयोग चाहिए। गांधीजी ने कहा- एक मेज और दो कुर्सियां। प्रशासन के प्रतिनिधि ने कहा- हमारा भी एक आदमी आपके साथ रहेगा। गांधीजी का उत्तर था- एक कुर्सी और भेज दीजिए। इसके बाद बैलगाड़ी पर लादकर एक मेज, तीन कुर्सियां गांधीजी के डेरे पर भेज दी गईं। इससे यह भी पता चलता है कि वे कितने धीरज, चातुरी और विनोदवृत्ति से अपना काम साध लेते थे। एकाधिक स्थान पर लेखक ने गोरों द्वारा गांधीजी के भोजन में जहर मिलाकर मारने के षडय़ंत्र का उल्लेख किया है। वह कहता है कि राजेंद्र बाबू ने स्वयं इसे कई लोगों के समक्ष बयान किया था। किंतु इस बारे में इसके पहले हमने कोई चर्चा नहीं सुनी, और न कहीं पढ़ा।
अब तक के विवरण से स्पष्ट है कि अरविंद मोहन की पुस्तकें न सिर्फ राजनैतिक इतिहास के अध्येताओं के लिए, बल्कि जनसामान्य के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। किंतु मेरा मानना है कि पुस्तकों का संपादन भली-भांति नहीं हुआ है। क्या ऐसा पुस्तक शीघ्रता में प्रकाशित करने के कारण हुआ? मैं नहीं जानता। लेखक ने संदर्भ सामग्री के रूप में अनेक पुस्तकों का एकमुश्त उल्लेख तो किया है, लेकिन प्रसंग विशेष में कहां, किस स्रोत से जानकारी उठाई है, यह संकेत नहीं दिया है। एक शोधकार्य होने की दृष्टि से ये विवरण देना उपयुक्त होता। दूसरे, लेखक ने अपने कम्युनिस्ट विरोध का अनावश्यक प्रदर्शन कुछ जगहों पर किया है। जब वे अक्टूबर क्रांति के विफल होने की बात कहते हैं तो फिर यह भी बताना चाहिए था कि चंपारण सत्याग्रह की परिणति भारत में क्यों और कैसी हुई। वे एक जगह पर गांधीवादी धर्मपाल का उल्लेख करते हैं। मैं नहीं जानता कि दादाभाई नौरोजी और आरसी दत्त की पुस्तकों से आंकड़े उठाने वाले धर्मपाल किस तरह के गांधीवादी थे। गांधी के प्रभाव का जिक्र करते हुए उन्हें न मार्टिन लूथर किंग जूनियर याद आते और न नेल्सन मंडेला। दूसरी ओर वे फिलिस्तीनियों के संघर्ष को गांधी से प्रेरित बताते हैं।
भूमिका में वे किसी नामी इतिहासकार का उल्लेख करते हैं जिसने चंपारण सत्याग्रह को गांधी की नौटंकी करार दिया था। अरविंद मोहन ने शोधपरक काम किया है, इस नाते उन्हें कथित इतिहासकार का नाम उजागर करने में संकोच नहीं होना चाहिए था। एक स्थान पर महर्षि धोंडो केशव कर्वे का नामोल्लेख प्रो. कार्वे लिखकर किया गया है। बिहारी नामक अखबार के संपादक महेश्वर प्रसाद को पीडि़त किसानों का पक्ष लेने के कारण नौकरी खोना पड़ी, यह एक मार्मिक प्रसंग है। किंतु इसकी कुछ पंक्तियों बाद महान संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी को क्या-क्या भोगना पड़ा, कहते हुए वे चम्पारण सत्याग्रह से उसका क्या संबंध था, यह नहीं बताते।
अरविंद मोहन स्वयं गुणी पत्रकार हैं। अगर वे थोड़ा ध्यान पुस्तकों के संपादन पर दे पाते तो इन त्रुटियों से बचा जा सकता था। बहरहाल, उन्हें व प्रकाशक द्वय को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए हार्दिक बधाई।
अक्षर पर्व अक्टूबर 2017 अंक की प्रस्तावना
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