श्रीमती इंदिरा गांधी की जन्मशती आई और चली गई। आधुनिक भारत के इतिहास की एक महान नायिका की सौंवी जयंती पर उन्हें स्मरण करने के लिए कोई खास यत्न दिखाई नहीं दिए। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इंदिरा गांधी की उपेक्षा करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन कांग्रेस को क्या हो गया है? जवाहर लाल नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती पड़ी तब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने औपचारिकता निभाने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम आयोजित किया था, किन्तु उसमें भी उत्साह का अभाव साफ-साफ परिलक्षित हो रहा था (देखिए देशबन्धु में मेरा कॉलम 27 नवंबर 2014- 'कांग्रेस का नेहरू को याद करना')। मैंने तब अपने आपको यह सोचकर दिलासा दी थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की राजनीतिक समझ शायद इंदिराजी के पहले नहीं जाती, लेकिन आज यदि इंदिरा शताब्दी का स्वरूप भी फीका हो तो किसे क्या कहा जाए!
मुझे आश्चर्य है कि तथाकथित राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों में भी इस अवसर पर कोई विशेष सामग्री नहीं आई। इंदिरा गांधी की राजनीति से सहमति रखना या न रखना अलग मुद्दा है, लेकिन उनके पन्द्रह वर्ष के सुदीर्घ कार्यकाल में देश ने क्या पाया या खोया इस पर सुचिंतित बहस होने की अपेक्षा स्वाभाविक थी। टी.वी. चैनल तो पूरी तरह से सस्ते फूहड़ मनोरंजन और फर्जी बहसों में लगे हैं इसलिए उनसे तो कोई उम्मीद थी नहीं। मैं जहां रहता हूं उस रायपुर के अखबारों ने भी इंदिरा गांधी को किसी भी रूप में स्मरण करना मुनासिब नहीं समझा। यह जानना दिलचस्प है कि एक तरफ उसी दिन संघ परिवार ने रानी लक्ष्मी बाई की जयंती जोर-शोर से मनाई और दूसरी ओर अखबारों के पहले पन्ने पर मिस वर्ल्ड-2017 मानुषी छिल्लर छाई रहीं। मुझ जैसे कुछ सिरफिरों ने ही सोशल मीडिया पर 19 नवंबर को इंदिरा गांधी को याद किया, कुछ ने पोस्ट देखकर नमन कर छुट्टी पा ली, कुछ ने पोस्ट शेयर भी की।
मेरी चिंता इसलिए नहीं है कि इंदिरा गांधी की जन्म शताब्दी अपेक्षा के अनुरूप नहीं मनाई गई, चिंता इस बात को लेकर है कि एक तरफ पुरोगामी शक्तियां इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए उसका पुनर्लेखन कर रही हैं, एक पूरी तरह से गढ़े गए इतिहास को जबरन जनता के गले उतारा जा रहा है; दूसरी तरफ देश के स्वाधीनता संग्राम और देश के नवनिर्माण में जिनकी असंदिग्ध प्रभावशाली और निर्णयकारी भूमिका रही उसे किसी न किसी उपाय से भुलाने की कोशिश होती रही है। इसका यह अर्थ होता है कि अपने इतिहास से सबक लेने के अवसर जानबूझ कर मिटाए जा रहे हैं। ऐसे में ये खतरा विद्यमान है कि भारत नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम फिर से न बन जाए। विगत सौ वर्षों में तेल समृद्ध पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका के देशों में इतिहास की विस्मृति के चलते जो दुर्दशा हुई है उसे हमने देखा है। इन षड़यंत्रकारियों से लड़ने के लिए जिनसे प्रेरणा मिल सकती है, वे नायक ही लुप्त हो जाएंगे तो प्रेरणा के नए स्रोत कहां से मिलेंगे?
मेरी समझ में इंदिरा गांधी की जन्मशती एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर था जब भारत की आंतरिक नीति, विदेश नीति, वैश्विक संबंध, सामरिक नीति, आर्थिक नीति इन सबका वस्तुपरक विश्लेषण किया जा सकता था। इंदिरा गांधी की आलोचना करने के लिए अनेक बिन्दु हैं जैसे 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी, 1967 में रुपए का अवमूल्यन, आपातकाल, ऑपरेशन ब्लू स्टार इत्यादि। दूसरी तरफ उनकी सराहना करने के लिए भी बहुत कुछ है- हरित क्रांति, प्रिवीपर्स का खात्मा, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बंगलादेश का उदय, 1974 का आणविक परीक्षण, गुटनिरपेक्ष आंदोलन, प्रोजेक्ट टाइगर, वन संरक्षण इत्यादि। इनमें से लगभग हर विषय पर बहुत लोगों ने अपने विचार प्रकट किए हैं, पुस्तकें भी आई हैं, लेकिन आज यह मौका है कि जब इंदिराजी को हमारे बीच से गए तैंतीस वर्ष हो चुके हैं तब समय के इस लंबे अंतराल का लाभ लेकर इन सभी मुद्दों पर तटस्थ भाव से चर्चा की जा सके। इस मौके को गंवा कर हम अपना नुकसान कर रहे हैं।
मेरा अनुमान है कि गांधी, नेहरू और राष्ट्रपति केनेडी को छोड़कर विश्व के किसी भी राजनेता पर उतनी किताबें नहीं लिखी गईं जितनी इंदिरा गांधी पर। बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर दर्जनों किताबें हैं और उनमें इंदिरा गांधी का रोल स्वाभाविक रूप से चित्रित हुआ है। इसी तरह आपातकाल को लेकर भी शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। इंदिराजी पर लिखी गई पुस्तकों की लंबी सूची इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने विश्व रंगमंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यहां मैं उन कुछ पुस्तकों का उल्लेख करना चाहूंगा जो इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के निर्माण और विकास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने में हमारी मदद कर सकती थीं। सबसे पहले तो पिता-पुत्री के बीच जो पत्राचार हुआ है वह अत्यन्त रोचक और पठनीय है। सोनिया गांधी ने 'टू अलोन, टू टूगेदर' अर्थात 'दो अकेले, दो साथ-साथ' शीर्षक से दो खंडों में इसका संपादन किया है।
यह पुस्तक काफी बाद में आई, किन्तु इंदिराजी पर लिखी पहली पुस्तक जो ध्यान में आती है वह उनकी छोटी बुआ कृष्णा हथीसिंह द्वारा लिखित संस्मरणात्मक पुस्तक है- 'डियर टू बिहोल्ड'। इसका हिन्दी अनुवाद कई बरस पूर्व हो चुका है। इलाहाबाद के पत्रकार पी.डी. टंडन की पुस्तक में भी रोचक संस्मरण हैं। इनके अलावा इंदिराजी की सामाजिक संबंध सचिव उषा भगत द्वारा लिखित 'इंदिरा : थ्रू माइ आइज' से भी उनके जीवन की अंतरंग झलकियां मिलती हैं। इंदिरा गांधी के राजनैतिक व्यक्तित्व का काफी तटस्थ भाव से चित्रण वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने 'इंदिरा[ शीर्षक से लिखी वृहदाकार जीवनी में किया है। मेरी राय में इंदिराजी के राजनैतिक निर्णयों को समझने में यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। एक अन्य किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वह है जयराम रमेश की 'इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर[। यह पुस्तक इंदिराजी की जन्म शताब्दी पर ही छपी है।
इंदिरा गांधी के कुछ निर्णयों की चर्चा मैंने संक्षेप में ऊपर की है। माना जाता है कि इंदिराजी के कहने पर ही केरल की नम्बूदरीपाद सरकार को अपदस्थ किया था। इसे गैरजनतांत्रिक कदम माना गया था। उस समय के दस्तावेज बताते हैं कि भारत-चीन संबंधों में जो खटास 1949-1950 में ही आना शुरू हो गई थी, उसे देखते हुए स्वयं पंडित नेहरू भारतीय कम्युनिस्टों के इरादों से सशंकित थे; खासकर तब जबकि पी.सी. जोशी जैसे उदारवादी को हटाकर बी.टी. रणदेवे और ई.एम.एस. जैसे रूढ़िवादी पार्टी पर काबिज हो गए थे इसलिए यह गैरलोकतांत्रिक, लेकिन कठोर निर्णय लेना पड़ा। बहरहाल इंदिरा तब प्रधानमंत्री नहीं थीं। उन्होंने 1967 में रुपए का अवमूल्यन किया वह भी अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते जिसमें कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्वों का भी साथ था। इंदिरा जी ने इसके बाद कभी अमेरिका पर विश्वास नहीं किया।
मेरी दृष्टि में इंदिरा गांधी के जीवन में परीक्षा का सबसे बड़ा क्षण इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के समय आया था। इंदिरा के खिलाफ यह फैसला एक बहुत छोटे तकनीकी आधार पर दिया गया था। निर्णय सही था या गलत यह अलग बात थी, लेकिन मुझे लगता है कि 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने अपनी सहजात बुद्धि को छोड़कर शायद सलाहकारों पर भरोसा कर प्रधानमंत्री बने रहने का गलत निर्णय ले लिया। वे यदि उस दिन त्यागपत्र दे देतीं और अपने काबिल सहयोगी जगजीवन राम को उत्तराधिकारी घोषित कर देतीं तो देश का इतिहास कुछ और ही होता। बंगलादेश मुक्ति संग्राम की एक बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी थी। युद्ध के भार से देश की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई थी इसका लाभ घोर दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतों ने उठाया। जयप्रकाश नारायण इंदिरा-विरोधी आंदोलन में भावुकतावश शामिल हो गए और फिर उसकी परिणति आपातकाल लगने में हुई जिसका इतिहास हमारे सामने है।
इस कॉलम का सीमित स्थान मुझे यहीं रुकने का संकेत दे रहा है, लेकिन इस सब पर आगे बात होना चाहिए।
देशबंधु में 23 नवंबर 2017 को प्रकाशित
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