Friday 2 February 2018

आसियान देशों के साथ दोस्ती


 
इस साल 26 जनवरी को भारतीय गणतंत्र के अड़सठ साल पूरे हुए। इस अवसर पर दिल्ली में आयोजित पारंपरिक समारोह में दुनिया के दस देशों के राजप्रमुख एक साथ विशिष्ट अतिथि के तौर पर शरीक हुए। ये दसों देश दक्षिण पूर्व एशिया के हैं तथा आसियान के नाम से परिचित आर्थिक सहयोग संगठन के सदस्य हैं। हमारे गणतंत्र दिवस समारोह में इनकी उपस्थिति कई कारणों से महत्वपूर्ण थी। इन सभी देशों के साथ भारत के रिश्ते बहुत पुराने हैं। समय के साथ ये रिश्ते दृढ़ से दृढ़तर होने चाहिए थे किन्तु ऐसा न हो सका। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इनको आमंत्रित कर एक नई शुरूआत की है, जो स्वागत योग्य है और मेरी समझ में इसके दूरगामी परिणाम अच्छे निकलना चाहिए। श्री मोदी ने एक उम्दा पहल चुनाव जीतने के साथ अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राजप्रमुखों को आमंत्रित करके की थी। दुर्भाग्य से वह पहल सही ढंग से आगे नहीं बढ़ सकी। उल्टे पाकिस्तान, नेपाल और मालदीव के साथ हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हो गए। यह ठीक नहीं हुआ।
हम उम्मीद करना चाहेंगे कि अब की बार प्रधानमंत्री मोदी ने जो पहल की है उसे कायम रखा जाएगा और इन देशों के साथ हमारे सदियों पुराने संबंधों में मजबूती आएगी। आसियान देश और भारत के बीच के संबंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू यही है कि हमारी मैत्री का इतिहास बहुत लंबा है। इनके साथ हमारे रिश्ते कभी तनावपूर्ण भी नहीं रहे। इन सभी देशों पर प्राचीन भारतीय संस्कृति का किसी न किसी हद तक प्रभाव है। हमारी ही तरह इन्होंने भी उपनिवेशवाद के दौर में गुलामी झेली है तथा लड़कर स्वाधीनता पाई है। थाइलैंड को अपवाद माना जा सकता है जो प्रत्यक्ष रूप से कभी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं रहा। एक बड़ी खासियत भौगोलिक रूप से है। ये देश चीन के दक्षिण और भारत के पूर्व में है। याने एशिया के दो बड़े देशों की परछाई इन पर शताब्दियों से किसी न किसी रूप में पड़ती रही है। लाओस, वियतनाम और कंबोडिया के सकल क्षेत्र को तो इंडो-चाइना कहकर ही पहचाना जाता रहा है।
इन दस देशों में तीन की जनसंख्या मुस्लिम बहुल है। ये हैं- ब्रुनेई, मलेशिया, और इंडोनेशिया। इंडोनेशिया विश्व में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश है। यहां इस्लाम का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसे भारत में एक नजार की तरह पेश किया जाता है। कारण यह है कि इंडोनेशिया पर प्राचीन भारतीय संस्कृति का किसी समय बड़ा प्रभाव था। वहां व्यक्तियों और स्थानों के नामों पर संस्कृत की स्पष्ट झलक आज भी देख सकते हैं। वहां रामायण-महाभारत का भी मंचन होता है और बाली द्वीप में दीवाली भी मनाई जाती है। आशय यह कि इंडोनेशिया में इस्लाम का काफी देशीकरण हुआ है। इसे आदर्श मानकर भारत में मुसलमानों पर उंगली उठाने वाले अपनी सुविधा से अनदेखी कर देते हैं कि यहां भी इस्लाम का कितनी बड़ी सीमा तक भारतीयकरण हुआ है।
पता नहीं यही लोग जापान के बारे में क्या कहेंगे जहां हिन्दू देवी-देवताओं का पूरी तरह जापानीकरण कर दिया गया है! लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती को जापानी नाम दे दिए गए और उनकी मूर्तियां भी उन्हीं की शैली में बनने लग गईं। बहरहाल, आज याद रखने की बात यह है कि स्वतंत्र भारत ने पंडित नेहरू के दौर में इंडोनेशिया को डच गुलामी से मुक्त कराने में भरपूर मदद की थी। जब डच सेना ने जननेता सुकार्णो को नजरबंद कर दिया था तब नेहरू जी के निर्देश पर दु:साहसी विमान चालक और राजनेता बीजू पटनायक वहां जाकर उनको सुरक्षित निकाल लाए थे।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन में नेहरू, नासिर और टीटो के अलावा दो और प्रमुख स्तंभ थे अफ्रीकी देश घाना के क्वामे एनक्रूमा और इंडोनेशिया के सुकार्णो। नेहरूजी ने सुकार्णो को पहले गणतंत्र दिवस समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित भी किया था। 1946 में दिल्ली में आयोजित एशियाई सहयोग सम्मेलन के बाद 1955 में सुकार्णो ने दूसरे सम्मेलन की मेजबानी की थी जिसे बाडुंग सम्मेलन के नाम से हम जानते हैं और जहां पंचशील को राजनैतिक मान्यता दी गई थी। इसी सम्मेलन के दौरान सीआईए ने भारत के काश्मीर प्रिंसेस जहाज में बम विस्फोट कराया था। उसे गलत जानकारी थी कि चाउ एन लाई उस जहाज में थे। यह एक अलग कहानी है।
मलेशिया के साथ भी हमारे संबंध बहुत पुराने हैं। प्रसंगवश जानकारी देना उचित होगा कि इंडोनेशिया और मलेशिया दोनों अनेक द्वीपों से मिलकर  बने देश हैं। मलेशिया वह देश हैं जिसने मुस्लिम बहुल होते हुए भी पहले 1965 फिर 1971 के बंगलादेश मुक्ति संग्राम में भारतीय पक्ष का खुलकर समर्थन किया था। उस समय टुंकु अब्दुल रहमान प्रधानमंत्री थे। अभी उनके बेटे टुन अब्दुल रज्जाक प्रधानमंत्री हैं। वैसे ही जैसे पड़ोसी सिंगापुर में लीक क्वान यू के बेटे ली लुंग प्रधानमंत्री हैं। मलेशिया पर भी भारतीय संस्कृति का गहरा प्रभाव है। वहां एक बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग निवास करते हैं। इनमें अधिकतर तमिल हैं जो अंगे्रजी राज के दौरान रबर बागानों में मजदूरी करने के लिए ले जाए गए थे। आज की पीढ़ी मलेशिया को मुख्यत: एक पर्यटन स्थल या टूरिस्ट डेस्टिनेशन के रूप में ही जानती है। वजह यह है कि मलेशिया ने इसी दिशा में हाल के वर्षों में बहुत ध्यान दिया है और जमकर मार्केटिंग की है।
सिंगापुर की कहानी मलेशिया से बहुत अलग नहीं है। ये दोनों एक साथ स्वतंत्र हुए थे। दोनों ने मिलकर एक संघ भी बनाया था। वह प्रयोग ज्यादा दिन नहीं चला। सिंगापुर आकार और आबादी में छोटा देश है, लेकिन उसकी आबादी मलेशिया की ही तरह वैविध्यपूर्ण है। फर्क यह है कि मलेशिया में चीनी मूल के लोगों को कुछ अविश्वास से देखा जाता है जबकि सिंगापुर में उनका ही प्रभुत्व है। सिंगापुर में छह या आठ प्रतिशत आबादी भारतीय मूल के लोगों की है। वहां तमिल को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है तथा अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्जा देने के लिए राष्ट्रपति पद पर तमिल मूल के व्यक्ति को ही अधिकतर चुना जाता है। सिंगापुर भारतीयों के लिए पर्यटन का केन्द्र भी है, शापिंग का भी तथा अनेक भारतीय वहां नागरिकता लेकर व्यवसाय कर रहे हैं अथवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्यरत हैं। आसियान के देशों में सिंगापुर भारत का दूसरा सबसे बड़ा वाणिज्यिक भागीदार है। पहले नंबर इंडोनेशिया है जहां से हम पेट्रोलियम खरीदते हैं।
इंडो-चाइना के तीनों देशों का राजनैतिक इतिहास बहुत उथल-पुथल का रहा है। कंबोडिया को पोल पॉट के शासन में भयानक नरसंहार से गुजरना पड़ा। जबकि वियतनाम ने अमेरिका से एक लंबी लड़़ाई लड़कर आजादी हासिल की।  उसे चीन के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। वियतनाम, कंबोडिया और लाओस इन तीनों देशों पर भारत की सनातनी और बौद्ध दोनों परपंराओं का गहरा प्रभाव रहा है। अभी इन सभी देशों में कम्युनिस्ट शासन है, लेकिन चीन की ओर से वे हमेशा सावधान रहते हैं। ब्रुनेई में तेल के भंडार हैं और वहां के सुल्तान विश्व के अरबपतियों में एक हैं। थाइलैंड, बर्मा याने म्यांमार के साथ हमारा अनेक स्तरों पर निरंतर संपर्क बना हुआ है। फिलीपींस पर लंबे समय तक अमेरिका का नियंत्रण रहा है और आज भी है। भारत की इन सारे देशों के साथ एक बड़ी समानता यह भी है कि ये सब धान उत्पादक देश हैं।
इन देशों के साथ हमारे प्राचीन समय से चले आ रहे संबंधों को जितना सुदृढ़ किया जा सके उतना अच्छा होगा। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने लुक ईस्ट का आह्वान किया था। मोदीजी ने एक्ट ईस्ट की बात कही है। अपने इन पड़ोसी देशों के साथ, जो हमारे स्वाभाविक मित्र हैं, बेहतर संबंध होने का सीधा मतलब है कि सबके आर्थिक स्तर में सुधार और आम जनता के जीवन में बेहतरी। यूरोप में कई देशों के बीच वीजा की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। भारत इसी तरह सार्क और आसियान देशों के बीच कुछ ऐसी पहल कर सके तो सबके हित में होगा। चीन हमारा बड़ा पड़ोसी है। सबसे अधिक शक्तिशाली भी। उसके साथ भी हमारा व्यापार बढ़ रहा है। आसियान के राजप्रमुखों की भारत यात्रा पर उसने सकारात्मक टिप्पणी की है जिसका हम स्वागत करते हैं। आज का दौर आर्थिक रिश्तों को मजबूत करने का है। उसी से स्थितियां सामान्य होंगी। युद्ध का वातावरण शांति के वातावरण में बदलेगा। मोदीजी अपनी पहल को तर्कपूर्ण निष्पत्ति तक पहुंचा सकें, हम फिलहाल यही उम्मीद करना चाहेंगे।
देशबंधु में 01 फरवरी 2018 को प्रकाशित 

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