Wednesday, 25 April 2018

नोटबंदी का दूसरा दौर

                                                   
मैं जब यह कॉलम लिख रहा हूं तब देश में नकदी का अभूतपूर्व संकट चल रहा है। संभव है कि कॉलम प्रकाशित होने के पहले ही संकट का निवारण हो जाए! सरकार के प्रवक्ताओं ने इसी आशय के आश्वासन दिए हैं। फिर भी यह सवाल तो अपनी जगह पर खड़ा हुआ है कि देश में आखिरकार ऐसी स्थिति क्यों बनी और इसकी जवाबदेही किस पर निर्धारित की जाए? भारतीय जनता पार्टी के प्रखर और निष्ठावान नेता अरुण जेटली विगत चार वर्षों से देश के वित्त मंत्री हैं। उनके बारे में कुछ हफ्ते पहले ही मैंने लिखा था कि वे शायद हमारे सबसे अधिक अलोकप्रिय वित्तमंत्री साबित हुए हैं। अभी पता चला है कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उन्हें डायलिसिस की आवश्यकता पड़ी है। वे व्यस्त भी बहुत हैं और प्रधानमंत्री के सर्वाधिक विश्वासपात्र हैं। उन्हें लगातार भारी-भरकम दायित्व संभालना पड़ रहे हैं। यह स्पष्ट है कि वित्त मंत्री पद की महती जिम्मेदारी संभालने के लिए उनके पास पर्याप्त समय नहीं है और न ही शक्ति। उनके ही वरिष्ठ पार्टी नेता जैसे यशवंत सिन्हा और सुब्रह्मण्यम स्वामी वित्तीय मामलों में उनकी समझ पर भी सवाल उठाते रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को विचार करना चाहिए कि श्री जेटली की सेवाएं किस रूप में जारी रखी जाएं।
इस संदर्भ में प्रधानमंत्री के सामने कुछ पुराने दृष्टांत मौजूद हैं। मोरारजी देसाई बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री पद से हटाकर केन्द्रीय मंत्री बनाए गए थे। यशवंत राव चव्हाण भी केन्द्रीय मंत्री बनने से पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। स्वयं नरेन्द्र मोदी ने मनोहर पार्रिकर को गोवा से दिल्ली बुला लिया था। हमारे कहने का आशय यह है कि आर्थिक मोर्चे पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। सरकार इसे माने या न माने, नोटबंदी के कारण आम जनता को बेहद तकलीफ के दौर से गुजरना पड़ा और उसका प्रभाव आज तक जारी है। इस दौरान ऐसे और भी फैसले लिए गए हैं जिनके कारण सरकार के इरादों पर जनता को शक होने लगा है। एक धारणा बलवती हो रही है कि मोदी जी के शासन में नवपूंजीवादी शक्तियां ही भारत की अर्थव्यवस्था को संचालित कर रही हैं। वर्तमान में जो संकट उत्पन्न हुआ है वह भी इस धारणा को पुष्ट करता है।
8 नवंबर 2016 को जब पूरे देश को सकते में डालते हुए विमुद्रीकरण किया गया था, तब उसके चार फायदे गिनाए गए थे। देखना मुश्किल नहीं है कि इनमें से एक भी फायदा फलीभूत नहीं हुआ। उस समय एक हजार के नोट प्रचलन से बाहर कर दिए गए, लेकिन उसके बदले दो हजार के नोट क्यों लाए गए, यह आज तक किसी की समझ में नहीं आया। उस समय अठारह लाख करोड़ की मुद्रा चलन में थी। वह सारी की सारी वापिस आ गई, लेकिन उसकी गिनती का काम शायद आज तक पूरा नहीं सका है और अभी भी पुराने नोटों के बंडल कहीं न कहीं से बरामद हो रहे हैं। फिर जब पुरानी मुद्रा वापिस आ गई याने ब्लैक मनी पूरी तरह खतम हो गई तो उसके बाद बैंक खातों की पड़ताल, दुनिया भर की पूछताछ, आयकर के छापे, कुल मिलाकर एक डर का वातावरण बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ना चाहिए थी और इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ?

बहरहाल अभी जो संकट उपस्थित हुआ है उसके कारणों की तलाश की जाए। रिजर्व बैंक की  एक पूर्व डिप्टी गर्वनर का बयान आया है कि विमुद्रीकरण के समय अठारह लाख करोड़ की मुद्रा प्रचलन में थी जो आज की परिस्थितियों में बढ़कर तेईस लाख करोड़ हो जाना चाहिए थी। मतलब यह कि देश में जितनी नकदी चाहिए उसमें पांच लाख करोड़  या लगभग पच्चीस प्रतिशत राशि कम उपलब्ध है। संकट का यह एक कारण हो सकता है। एक अन्य तकनीकी कारण सामने आया है कि रिजर्व बैंक ने दो सौ रुपए के नए नोट तो जारी कर दिए लेकिन अधिकतर एटीएम में इन नए नोटों को भरने और निकालने का प्रबंध नहीं किया गया। बैंक  अधिकारियों के एक संगठन के एक प्रवक्ता ने तो एक सनसनीखेज बात की है। उनका कहना है कि रिजर्व बैंक से या करेंसी चैस्ट से एटीएम में पैसा भरने का ठेका निजी कंपनियों को दिया गया है। वे सप्ताह में एक निर्धारित दिन रकम उठाते हैं और बिना किसी नियंत्रण के अपनी मनमर्जी से एटीएम में पैसा भरते हैं। 
हमें इनके अलावा एक बड़ा कारण समझ में आ रहा है। देश की जनता का विश्वास अपनी बैंकिंग व्यवस्था पर से उठता जा रहा है। एक तो बैंक घोटालों की खबरें जो सामने आई हैं उनसे जनता विचलित हो गई है। मोदी-माल्या की तो बात ही क्या, हर दिन अखबारों में बैंकों द्वारा ऋण वसूली के नोटिस छपते हैं। आम आदमी को लगता है कि उसकी गाढ़ी कमाई सरकार और बैंकों की मिलीभगत से लुटेरों के पास जा रही है। दूसरे, बैंकों ने कई-कई तरह के सेवाशुल्क आरोपित कर दिए हैं। जिन सेवाओं के लिए पहले कभी अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ता था वह ग्राहक के खाते से अपने आप काट लिया जाता है। बैंक को अपनी आमदनी दिए गए ऋण के ब्याज से करना चाहिए। यह सामान्य सोच है कि हमारी जमा रकम पर तो ब्याज मिलना चाहिए। अब ठीक उसका उल्टा हो रहा है।
यह बड़ी वजह है जिसके चलते अब आम आदमी बैंक में रकम जमा रखने से डरने लगा है। एक और कारण यह भी है कि मोदी सरकार चाहे जितनी कोशिश कर ले व्यापारिक लेन-देन पूरी तरह से मुद्राविहीन नहीं हो सकता। नोटबंदी के बाद सारी रकम वापिस आ जाने के बाद आज उससे कुछ ज्यादा राशि प्रचलन में आ चुकी है तो यह किस तथ्य का सूचक है? यही न कि व्यापारी वर्ग का नकदी लेन-देन बदस्तूर जारी है। ऐसा नहीं कि यह सारा लेन-देन दो नंबर का है। नकदी लेन-देन का एक व्यवहारिक पक्ष भी है। और अगर कोई समझता हो कि गांव से लेकर दिल्ली तक रिश्वत लेना बंद हो गया है तो वह शेखचिल्ली का सपना देख रहा है। औसत आमदनी वाले लोगों को भी नकदी लेन-देन में सुविधा प्रतीत होती है तथा गृहणियों को भी, इसीलिए मुद्राहीन कारोबार का जो समां बांधा गया था तथा छोटे-छोटे गांव से सब्जी के ठेले तक जो पीओएस मशीनें लगाई गई थीं वे एक-एक कर बंद हो रही हैं।
बैंकिंग व्यवस्था के जानकार यह भी बता रहे हैं कि मुद्रारहित लेन-देन के लिए इतने अधिक विकल्प दे दिए गए हैं कि जनता उन्हें देखकर भ्रम में पड़ गई है। प्रधानमंत्री जी का प्रिय पेटीएम तो है ही, इसके अलावा और दर्जन भर ऐप बाजार में आ गए हैं। किसे अपनाएं, किसे छोड़ दें, कुछ समझ नहीं आता। हर जगह पर हर ऐप स्वीकार भी नहीं होता। ऐसे में लेन-देन नकदी में ही करने की व्यवस्था हो जाती है। एटीएम से पैसा निकालने में सुविधा अवश्य है, लेकिन उसमें ठगी की वारदातें लगातार बढ़ रही हैं। लूटमार भी साथ-साथ होने लगी है। इतना ही नहीं, यदि तकनीकी खराबी के कारण कोई दिक्कत पेश आए तो उसका समाधान लगभग असंभव हो जाता है। बैंक कर्मचारी वैसे ही काम के बोझ से इतने दबे हुए हैं कि ग्राहकों की छोटी-मोटी शिकायत पर ध्यान देने का उन्हें समय ही नहीं मिलता।
सबसे अहम बात तो यह है कि संकट एक दिन में तो पैदा हुआ नहीं है। स्थिति धीरे-धीरे कर बिगड़ रही थी, लेकिन वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ने समय रहते उस पर ध्यान नहीं दिया। पांच सौ के नोट मंगलवार सत्रह अप्रैल से जो छपना शुरू हुए वह काम पन्द्रह दिन पहले भी हो सकता था। मैंने सुना है कि दो हजार के नोटों की छपाई बंद कर दी गई है। इसका क्या औचित्य था? सरकारी प्रवक्ता  बहाने तो बहुत से बना रहे हैं लेकिन उनमें से एक भी विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जो स्थिति इन्हीं दिनों पिछले साल पैदा नहीं हुई यह इस साल क्यों? सबसे पते की बात तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की। उन्हें इसमें विरोधियों की साजिश नज़र आई। गनीमत है कि उन्होंने संघ की रीति-नीति के अनुरूप जवाहरलाल नेहरू को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया।

 देशबंधु में 26 अप्रैल 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 18 April 2018

कठुआ कांड के गहरे निहितार्थ


इन चार सालों में सुनते-सुनते कान पक गए कि जो सत्तर साल में नहीं हुआ वह अब हो रहा है। प्रधानमंत्री ने यह बात कम से कम चार हजार बार कही होगी तो उनके पार्टीजन और भक्तजनों ने चार अरब बार इसे मंत्र की तरह उच्चारित किया होगा। आज मैं कहना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री जी! हां, जो पिछले सत्तर साल में नहीं हुआ वह आज हो रहा है। कठुआ में जो कुछ हुआ वह इस बात का वीभत्स प्रमाण है। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था कि भारत में किसी स्त्री के साथ बलात्कार हो और उसकी अनुगूंज संयुक्त राष्ट्र संघ तक सुनाई दे। वह एक ऐसी भयावह चीख हो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव तक को बयान देने की नौबत आ जाए जिसमें भारत से उम्मीद की जाए कि इस दरिंदगी और वहशीपन को अंजाम देने वालों को कानून के दायरे में लाकर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। हमें याद नहीं आता कि एंटोनियो गुट्टारेस या उनके पूर्व के किसी महासचिव ने किसी सदस्य देश के बारे में सामान्य शांति के दौर में ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त की हो।
भारत तो संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के कारण विश्व समाज में उसने अलग प्रतिष्ठा कायम की है। तीसरी दुनिया के देशों में तो उसे एक आदर्श ही माना जाता रहा है। भारत की जनता भी अपनी सैकड़ों कमियों के बावजूद अपनी बहुलतावादी संस्कृति पर गर्व करती आई है। इसके बाद अगर आज हमें विश्व बिरादरी के मुखिया से नसीहत मिल रही है और हम शर्म से सिर झुकाए खड़े हैं तो यह हमारे लिए गहरे आत्ममंथन का समय है। राष्ट्रीय शर्मिन्दगी के इस क्षण को सोशल मीडिया पर ऊलजलूल टिप्पणियां कर या मौनव्रत धारण कर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। इस समय दो घटनाएं चर्चा में हैं जिन्होंने सभ्य समाज को आंदोलित कर रखा है। एक घटना उन्नाव की है जिसने उत्तरप्रदेश की शासन व्यवस्था, सत्ताधारी वर्ग का अहंकार, और ऐसे कई सवाल खड़े किए हैं, लेकिन मैं सोचता हूं कि कठुआ की त्रासदी स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपनी तरह की सबसे अधिक विचलित कर देने वाली शर्मनाक घटना है जिसकी बहुत सी परतें हैं। 
यह तथ्य याद रखने की आवश्यकता है कठुआ में जिस बच्ची के साथ बलात्कार हुआ उसकी आयु मात्र आठ वर्ष थी। लड़की का नाम आसिफा था याने वह अल्पसंख्यक समुदाय से थी। उस नन्ही बालिका को हिन्दू-मुसलमान का फर्क भी मालूम नहीं रहा होगा। यह भी याद रखना होगा कि जिन नरपिशाचों ने यह अपराध किया उसके लिए उन्होंने एक मंदिर को चुना। जिस मंदिर में वे पूजा करने जाते होंगे उस पूजा-स्थल को उन्होंने एक पाप-स्थल में बदल दिया। जिस नराधम ने यह षड़यंत्र रचा उसने अपने नाबालिग रिश्तेदारों को भी इस पाप का भागीदार बनने के लिए बुलाया। इसमें पुलिस का कोई अधिकारी भी शरीक था। यह हमारी व्यवस्था के बारे में एक शोचनीय संकेत है। इससे बढ़कर फिर हम जानते हैं कि लगभग तीन महीने तक पूरे मामले को दबा कर रखा गया। मीडिया ने कोई संज्ञान इसका नहीं लिया। जिन्हें मालूम पड़ा वे भी चुप रहे, और जब मामला खुलने लगा तो अपराधियों पर कार्रवाई होने के बदले उनके संरक्षण में लोग सामने आ गए।
वे कौन लोग थे जो अपराधियों के बचाव में सामने आए? यह अनकथ विडंबना है कि जिन वकीलों को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है जिनसे मानवाधिकार, मानवीय गरिमा, न्याय, संविधान-इन सबके संरक्षण की उम्मीद की जाती है वे खुलकर गुनहगारों का साथ देने लगे। कठुआ की बार एसोसिएशन और जम्मू की बार एसोसिएशन ने बड़ी होशियारी से उनके पक्ष में वक्तव्य जारी किए।  पुलिस की अपराध शाखा के बजाय सीबीआई से जांच करवाने का मुद्दा उठाकर वे सड़कों पर आ गए। जिस महिला वकील ने आसिफा का मुकदमा हाथ में लिया उसे बार रूम में पानी तक नहीं पीने दिया और सीजेएम के सामने मुकदमा पेश करने के रास्ते में तमाम बाधाएं पहुंचाईं। यही नहीं, एक कोई कथित हिन्दू सेना अपराधियों के पक्ष में सामने आ गई और प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के मंत्रियों ने उसमें खुलकर भागीदारी की। 
प्रश्न है कि यह सब क्यों हुआ? आसिफा घूमंतू बकरवाल कबीले से थी। ये लोग शीतकाल में पहाड़ों से नीचे उतर आते हैं। आसिफा का परिवार भी इसी कारण कठुआ आया था। यह वह समाज था जिसके लोगों ने पूर्व में पाकिस्तानी घुसपैठियों के बारे में भारतीय सुरक्षाबलों को एकाधिक बार सचेत किया है जिनके कारण समय रहते जवाबी कार्रवाई होने से पाकिस्तान की घुसपैठ नाकाम कर दी गई। कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानने वाले और अपने आपको गर्व से हिन्दू कहने वालों ने इस समाज को उसकी देशभक्ति के बदले में यह तोहफा दिया है। इसके बाद भी इन्हें कोई शर्म या ग्लानि नहीं है। संघ और भाजपा के बड़े नेता राम माधव अभी भी अपने मंत्रियों को निर्दोष होने का प्रमाण दे रहे हैं। 
यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोशिशें एक लंबे अरसे से चल रही है। देश में बहुसंख्यक हिन्दू और अल्पसंख्यकों के बीच खाई पैदा करने की कोशिशें लगातार जारी हैं। कठुआ कांड में एक बहुआयामी वर्चस्ववाद हमें दिखाई देता है जो असीम घृणा पर आधारित है। देश में सांप्रदायिक वारदातें पहले भी हुई हैं। बलात्कार की घटनाओं से भी देश का कोई इलाका अछूता नहीं है, लेकिन इस कांड ने सारी हदें तोड़ दी हैं। आठ साल की एक मासूम के साथ बलात्कार क्षणिक उत्तेजना के कारण नहीं हुआ है। यह घिनौना अपराध किसी सांप्रदायिक दंगे या युद्ध के बीच उपजी पाशविकता के कारण भी नहीं हुआ है। इसके विपरीत योजना बनाकर, सोच-विचारकर इसे अंजाम दिया गया है। इससे पता चलता है कि मुख्य अपराधी और उसके साथियों के रोम-रोम से कैसी घृणा फूट रही होगी जो हमने पहले कभी नहीं देखी।
 यह कांड सबसे पहले तो हिन्दुत्ववादी वर्चस्व बोध को दर्शाता है और संकेत करता है कि अगर इन शक्तियों को मौका मिला तो आगे वे क्या कर सकते हैं।  इसमें वह पितृसत्तात्मक पुरुषवादी वर्चस्व भी है, जो औरत को अपनी जागीर समझता है और उससे हर तरह की खिलवाड़ करने को अपना हक। फिर जब राज्य सरकार के दो मंत्री अपराधियों के पक्ष में सामने आते हैं तो सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व भी स्पष्ट दिखाई देता है। एक खानाबदोश गरीब घर की लड़की के साथ बलात्कार और उसकी हत्या से सम्पन्न समाज का वर्चस्वबोध भी प्रकट होता है। इस प्रकरण में वकीलों की जो भूमिका सामने आई वह भी समाज के शिक्षित वर्ग के वर्चस्व को प्रदर्शित करता है जिसमें शेष समाज को अपने से हेय मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, उनकी पार्टी, उनकी सरकार, मीडिया और वृहतर समाज- इन सबका जो रोल प्रारंभ में रहा वह बहुत चिंता उपजाता है।
यह कांड जनवरी का है। प्रदेश सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं थी। फिर इतने दिनों तक महबूबा मुफ्ती क्या कर रही थीं? अगर उनकी सरकार का कामकाज इतना ही ढीला-ढाला है तो क्या उन्हें पद पर रहने का अधिकार है? सारा खुलासा हो जाने के बाद भी उन्होंने कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली। क्या उन्हें सत्ता का इतना मोह है कि प्रदेश में भाजपा के इरादे और गतिविधियों को देखने के बाद भी वे एक अप्राकृतिक गठजोड़ को बनाए हुए हैं। भाजपा के दो मंत्रियों ने इस्तीफे तो दिए लेकिन बड़ी अनिच्छा से। एक ने तो कहा कि वे पार्टी के निर्देश पर विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए थे। लेकिन भाजपा भी कोई नैतिक दायित्व स्वीकार करने तैयार नहीं था। और देश की जनता को क्या हुआ है? यदि राहुल गांधी आधी रात को मोमबत्ती जुलूस नहीं निकालते तो न तो शायद उन्नाव के अपराधी गिरफ्तार होते और न कठुआ के, और जनता भी शायद खामोश रही आती। यह अलग बात है कि राहुल गांधी को बात समझ में आई तो सही, लेकिन देर से। 
 देशबंधु में 19 अप्रैल 2018 को प्रकाशित 

Saturday, 14 April 2018

सिनेमा में कुछ अनोखे जीवन वृत्त

                                   
 
इस बार कुछ कहानियां। पहली कहानी- पांच साल का बच्चा परिवार से बिछुड़कर कलकत्ता पहुंच जाता है और वहां से एक विदेशी दंपत्ति द्वारा गोद लिए जाने के बाद आस्ट्रेलिया। पच्चीस साल बाद वह अपने घर और परिवार की तलाश में भारत लौटता है।  दूसरी कहानी- शीतयुद्ध के दौर में एक देश का नागरिक दूसरे देश में जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। एक वकील उसका मुकदमा लड़ता है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि उस वकील को शत्रु देशों के बीच कैदियों की अदला-बदली के लिए तलवार की धार पर चलने जैसी भूमिका निभानी पड़ती है। तीसरी कहानी- अमेरिका में रंगभेद के लगभग अंतिम दौर में तीन अश्वेत महिलाएं अपनी प्रतिभा, परिश्रम, संकल्प और संघर्षशीलता के बल पर अकल्पनीय सफलताएं अर्जित करती हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा उनमें से एक महिला के नाम पर 2016 में अपने एक नवनिर्मित केन्द्र का नामकरण करता है।  चौथी कहानी- नाजी तानाशाह हिटलर के दौर में एक जर्मन उद्योगपति अपने कारखाने में कार्यरत हजाऱों यहूदी कामगारों को गैस चेम्बर में झोंक दिए जाने से बचाता है। इसके लिए वह अपने जान-माल की परवाह नहीं करता।
ये चारों कहानियां चार फिल्मों की है। एक फिल्म आस्ट्रेलिया की, शेष तीन अमेरिका की। इन दिनों टीवी पर समाचार चैनल खोलकर देखने का मन नहीं होता। सीरियल तो पहले भी नहीं देखता था। हिन्दी के फिल्मी चैनलों पर दक्षिण भारत की हिंसा और क्रूरता से भरी वीभत्स फिल्में ही अधिकतर दिखाई जाती हैं। अंग्रेजी फिल्मों के चैनल भी सामान्यत: बाजारू फिल्में दिखाते हैं, लेकिन बीच-बीच में सुंदर, कलात्मक, भावपूर्ण और अर्थगंभीर फिल्में देखने का अवसर मिल जाता है। इस बार होली पर अखबार में दो दिन की छुट्टी थी सो मौका जुट गया कि कुछ बेहतरीन फिल्में देख लूं।
मैंने ऊपर जो चार कहानियां बताई हैं उन पर बनी फिल्मों को जीवनवृत्त अथवा आज की प्रचलित शब्दावली में बायोपिक कहा जाएगा। पहले आस्ट्रेलिया की फिल्म की बात करूं। इसलिए भी कि सामान्यत: हमें इस देश की फिल्में देखने नहीं मिलतीं। इस फिल्म का नाम है लॉयन याने शेर। कथानायक का नाम शेरू है लेकिन इसकी मां उसे सरु नाम से पुकारती है और यही बालक से युवक बने उस व्यक्ति का परिचित नाम बन जाता है। कहानी मध्यप्रदेश के खंडवा-बुरहानपुर के बीच में किसी गांव से शुरू होती है, जहां एक विधवा अपने दो बेटों का पालन-पोषण खदान में गिट्टी तोड़कर करती है। दोनों बेटे मालगाड़ी से कोयला चुराने का काम करने लगते हैं। हमारा कथानायक छोटा बेटा सरु किसी धोखे में रेल में बैठकर तब के कलकत्ता पहुंच जाता है। वहां पुलिस उसे अनाथालय भेज देती है। आस्ट्रेलिया के एक दंपत्ति बच्चे गोद दिलाने वाली एक संस्था के मार्फत उसे गोद ले लेते हैं। वे कुछ साल बाद भारत से एक और बालक को गोद लेते हैं। आस्ट्रेलियाई मां गर्भ धारण करने में सक्षम है, लेकिन पति-पत्नी सुविचारित निर्णय लेते हैं कि उन्हें उन बच्चों की परवरिश करना चाहिए जिनका भाग्य ने साथ नहीं दिया है। मैं कहूंगा कि यह एक साहसिक निर्णय था। दूर देश के अनाथ बच्चों को अपना बनाकर खड़ा करना आसान काम तो नहीं! सरु के मानसपटल पर बचपन की कुछ स्मृतियां हैं। अपने गांव का भूगोल धुंधला सा उसे याद है। वह दोस्तों की सलाह पर गूगल अर्थ में जाकर भारत के नक्शे को बार-बार खंगालता है। अंतत: अपने गांव का नक्शा उसे मिल जाता है। वह अपने गांव गणेशतलाई लौटता है। भाई की मौत हो चुकी है, मां मिलती है। पूरा गांव इकट्ठा होता है। यह 2012 की सत्य घटना है। उसके आस्ट्रेलियाई माता-पिता भी गांव आते हैं। देवकी और यशोदा जैसी दोनों माताएं आपस में मिलती हैं। फिल्म समाप्त हो जाती है।
दूसरी कहानी ब्रिज ऑफ स्पाइज़ याने जासूसों का पुल की है। अमेरिका में रूस का एक व्यक्ति जासूसी के आरोप में कैद है। जेम्स डोनावन नामक अमेरिकी वकील उसकी पैरवी कर रहा है। इधर अमेरिका का एक टोही विमान यू-2 सोवियत सीमा में प्रवेश करते ही मार गिराया जाता है। पायलट गैरी पावर्स गिरफ्तार कर लिया जाता है। अमेरिका को डर है कि पकड़ा गया पायलट अमेरिका रक्षातंत्र के रहस्य सोवियत अधिकारियों के सामने न खोल दे। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई वकील डोनावन को जिम्मेदारी सौंपती है कि वह पूर्वी जर्मनी जाए और वहां इन दोनों कैदियों की अदला-बदली करवाए। डोनावन को देशहित में यह जोखिम भरा दायित्व उठाना पड़ता है। इस बीच बर्लिन की दीवार खड़ी हो रही है। पश्चिम बर्लिन में एक अमेरिकी छात्र अपनी मित्र से मिलने पूर्वी बर्लिन जाता है, लेकिन वह लौट नहीं पाता। पूर्वी जर्मनी की सरकार उसे जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है। वकील डोनावन को सिर्फ पायलट गैरी पावर्स को वापिस लाने की जिम्मेदारी है, किन्तु वह ठान लेता है कि इस निर्दोष छात्र को भी बचाकर लाना है। इस बिन्दु पर वह अमेरिकी सरकार की हिदायत की भी परवाह नहीं करता। अपनी तर्कशक्ति, धैर्य व साहस का परिचय देते हुए वह रूसी नागरिक के बदले दोनों अमेरिकी नागरिकों को छुड़ाने में कामयाब हो जाता है। वह चूंकि सीक्रेट मिशन पर है इसलिए पत्नी और बच्चे भी नहीं जानते कि वह कहां क्या करने गया है। उन्हें रेडियो पर समाचार से डोनावन के अद्भुत कारनामे की खबर मिलती है। अमेरिकी सरकार बाद के सालों में ऐसे एक और संकट के समय जेम्स डोनावन की सहायता लेती है।
पाठकों को स्मरण होगा कि 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो जाने से लेकर 1990 में बर्लिन की दीवार गिर जाने तक विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। पूंजीवादी देशों का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था और साम्यवादी देशों का सोवियत संघ। बर्लिन की स्थिति विचित्र थी। वहां हिटलर की फौजों को परास्त करने के लिए सबसे पहले सोवियत सेनाएं पहुंची थीं और पूर्वी बर्लिन उनके नियंत्रण में आ गया था। दूसरी ओर अमेरिका और ब्रिटेन की सेनाएं पश्चिम दिशा से आगे बढ़ रही थीं और उन्होंने बर्लिन के पश्चिमी हिस्से को अपने अधिकार में ले लिया था। युद्ध समाप्त हुआ। जर्मनी दो हिस्सों में बंटा। जीडीआर याने पूर्वी जर्मनी की राजधानी पूर्वी बर्लिन बनी, जबकि पश्चिमी जर्मनी ने अपनी राजधानी बॉन में बसाई। बर्लिन के दोनों हिस्सों के बीच दीवाल उठनी खड़ी हुई जो 9 नवम्बर 1989 को गिराई गई। यह फिल्म यह संकेत भी देती है कि यद्यपि जीडीआर सोवियत संघ के प्रभामंडल में था, लेकिन आमतौर पर जनता में इसके खिलाफ असंतोष था।
हिडन फिगर्स या छुपे हुए अंक की कथा और अद्भुत है। 1960-61 में अमेरिका में रंगभेद-विरोधी आंदोलन जोरों पर था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर की लोकप्रियता चरम पर थी। अमेरिका के अनेक राज्यों में रंगभेद-विरोधी कानून लागू हो चुके थे। लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी थे जो बदलाव के लिए तैयार नहीं थे। उन्हीं में से एक राज्य था वेस्ट वर्जीनिया। इसी प्रांत में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का एक प्रमुख केन्द्र संचालित था। यहां काम करने आती हैं तीन अश्वेत महिलाएं जो स्कूल-कॉलेज में मेधावी छात्राएं मानी जाती थीं। विशेषकर गणित में उन्हें महारत हासिल थी। इन्हें नौकरी मिल तो जाती है, लेकिन कार्यालय में इन्हें हर तरह से रंगभेद और नस्लभेद का सामना करना पड़ता है। इनसे काम तो खूब लिया जाता है, परंतु क्षमता के अनुसार अवसर और पद नहीं दिए जाते। नासा के विशाल कैम्पस में इनके लिए बाथरूम भी दूर किसी कोने में था। गौरांग सहयोगियों के लिए जिस केटली में चाय बनती थी उसे उन्हें छूने का भी हक नहीं था। लेकिन इन महिलाओं की हिम्मत की दाद देनी होगी। इस भेदभाव के खिलाफ वे लगातार लड़ती हैं, अपनी क्षमताओं का निरंतर विकास करती हैं और बहुत धीमी रफ्तार से सही, कार्यालय में अपना लोहा मनवाकर रहती हैं।
उन दिनों सोवियत रूस और अमेरिका दोनों के बीच अंतरिक्ष में जाने की होड़ लगी थी। सबसे पहले सोवियत संघ ने यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेज कर बाजी मारी थी। अमेरिका अब कैसे पीछे रहता? वह भी उपग्रह से अंतरिक्ष में यात्रियों को भेजना चाहता है। इसमें ये तीनों अश्वेत महिलाएं महत्वपूर्ण ही नहीं, केन्द्रीय भूमिका निभाती हैं। अंतरिक्ष यात्री जॉन ग्लैन उस वक्त तक उड़ान भरने के लिए तैयार नहीं होते जब तक अंतरिक्ष में जाने और लौटने के गणितीय सूत्रों की पुष्टि कैथरीन जॉनसन नहीं कर देती। वे इन तीन महिलाओं में से एक थीं और गणित विशेषज्ञ थीं; डोरोथी वॉन स्वाध्याय से कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनती हैं; और मैरी जैक्सन वेस्ट वर्जीनिया की अदालत में लड़कर प्री-इंजीनियरिंग पढ़ाई करने का हक हासिल करती हैं, वह भी ऐसे स्कूल में जहां सिर्फ श्वेत पुरुष पढ़ते हैं। इस तरह ये तीनों एक नया इतिहास रचती हैं। राष्ट्रपति ओबामा ने कैथरीन जॉनसन को 97 साल की आयु में अमेरिका के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया और नासा ने उनके सम्मान में केन्द्र का नामकरण किया।
चौथी कहानी इन सबसे ज्यादा मार्मिक है। शिन्डलर्स लिस्ट शीर्षक फिल्म को बने काफी समय बीत गया है। उसकी खूब चर्चाएं भी हुई हैं। इसमें ऑस्कर शिन्डलर नामक जर्मन उद्योगपति की कथा है जो हिटलर की नाजी पार्टी का सदस्य है। वह नाजी अधिकृत पोलैण्ड में कारखाना खोलता है। नाजी सैन्य अधिकारियों को लगातार रिश्वत देकर वह अपने कारखाने में जानबूझकर हजारों यहूदी कामगारों को भर्ती करता है और इस तरह उन्हें नाजियों के हाथ मारे जाने से बचाता है। जब सोवियत फौजें पोलैण्ड व जर्मनी में नाजी फौजों को हटाकर मुक्त कर देती हैं तब तमाम यहूदी कामगार अपने हस्ताक्षर से एक प्रमाण पत्र शिन्डलर को देते हैं कि उसने हमारी जान बचाई है ताकि विजयी मित्र राष्ट्रों की सेना उसे युद्धबंदी न बना लें।
मैंने इन सारी फिल्मों का जिक्र क्यों किया? एक तो मुझे लगा कि कुछ अच्छी फिल्में देखी हैं तो उनकी संक्षिप्त जानकारी पाठकों के साथ साझा करूं। अगर उन्होंने ये फिल्में न देखी हों तो शायद देखने का मन हो जाए! लेकिन अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ये बायोपिक होकर भी बायोपिक नहीं हैं। इनमें से हरेक फिल्म जिस कालखंड का चित्रण करती हैं उसके इतिहास, भूगोल और राजनीति की झलक इनसे हमें मिलती है। एक मायने में ये हमारे यहां बनी बायोपिक जैसे पानसिंह तोमर, मिल्खा सिंह आदि से भिन्न हो जाती हैं। पहली फिल्म लॉयन उदात्त मानवीय चरित्र की गाथा है। लेकिन साथ-साथ यह भारत की तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति से रुबरू कराती है। अनाथालय में बच्चों के साथ दुव्र्यवहार और अनाचार, फर्जी समाजसेवी संस्था के कारनामे, ग्रामीण जीवन का दैन्य, यह सब भी इस फिल्म में संकेतों में व्यक्त हुआ है। दूसरी फिल्म अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर कैसी चालें चली जाती हैं इसका परिचय देती हैं। यू-2 टोही विमान का गिराया जाना और पायलट गैरी पावर्स की गिरफ्तारी अपने समय की बहुत बड़ी घटना थी जिसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भूचाल ला दिया था। यह आमतौर पर लोग नहीं जानते कि उसका पटाक्षेप कैसे हुआ। वकील जेम्स डोनावन के रूप में हम एक ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो एक सामान्य कामकाजी व्यक्ति है, लेकिन अचानक आई भीषण परिस्थिति में वह सूझबूझ और अपार धैर्य के साथ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। तीसरी फिल्म में अमेरिका में व्याप्त रंगभेद का बेहद प्रभावी वर्णन है। इसे देखकर भारत में दलितों और आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की वर्तमान स्थिति का ध्यान आ जाना स्वाभाविक है। जिस दुष्चक्र को अब तक टूट जाना चाहिए था वह दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। यह हमारे सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है। शिन्डलर लिस्ट में शिन्डलर को विदाई देते समय मजदूर उसे एक बिल्ला देते हैं जिस पर यहूदी धर्म सूत्र तालमुद की पंक्ति अंकित है- जो एक व्यक्ति की प्राणरक्षा करता है वह संपूर्ण मानवता की रक्षा करता है। शिन्डलर ने यही तो किया था। यह कथा भी भारत की वर्तमान परिस्थिति की ओर बरबस हमारा ध्यान खींचती है जहां विधर्मी को बचाने की बजाय उसे मारना अब ज्यादा श्रेयस्कर बल्कि पुण्यकार्य समझा जाने लगा है।  
अक्षर पर्व अप्रैल 2018 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday, 11 April 2018

बजट सत्र से उभरे कुछ संकेतक

                
संसद का बजट सत्र बीते शुक्रवार 6 अप्रैल को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। इस सत्र के दूसरे चरण में कोई कामकाज नहीं हुआ और दोनों सदनों का सारा समय शोर-शराबे और हंगामे में डूब गया। आम जनता ने मीडिया से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यही राय कायम की है। हम इससे अलग हटकर उन कुछ सूत्रों को पेश करना चाहेंगे जो बजट सत्र के दौरान हुई घटनाओं से हासिल हुए हैं। इन्हें क्रमवार रखा जा सकता है-
1. वित्त विधेयक याने कि बजट बिना किसी चर्चा के आनन-फानन में पारित हो गया। 2. विपक्ष के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, लेकिन सभापति ने उसे चर्चा के लिए मंजूर नहीं किया। 3. इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की सुगबुगाहट भी सुनाई दी। 4. राज्यसभा के मनोनीत सदस्य क्रिकेट के भगवान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर ने अपने कार्यकाल की समूची वेतन राशि राज्यसभा अध्यक्ष को वापिस भेज दी। 5. सत्तारूढ़ भाजपा ने तय किया कि जितने दिन काम नहीं हुआ उसके सांसद उतने दिनों का वेतन नहीं लेंगे। 6. फेक न्यूज़ या फर्जी खबरों पर रोक लगाने की दृष्टि से केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की, जो कथित तौर पर अगले ही दिन प्रधानमंत्री के निर्देश पर वापिस ले ली गई।
हम इन घटनाओं के प्रकाश में चर्चा को आगे बढ़ाएंगे। सरकार के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वित्त विधेयक को बिना चर्चा किए पारित किया जाता। गिलोटिन करने या खटाखट पारित करने की नौबत तब आती है जब समय की कमी हो अथवा जब सरकार विभागीय मांगों पर बहस से कतराना चाहती हो। वैसे तो बजट की प्रासंगिकता धीरे-धीरे कर खत्म हो रही है फिर भी एक स्वांग तो हर साल रचा ही जाता है। सदन में बजट जब पेश होता है तो देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं, संविधान के दिशानिर्देशों को लेकर भी गंभीर चर्चा के अवसर मिलते हैं। एक कल्याणकारी राज्य में सरकार की क्या भूमिका होना चाहिए, कैसी योजनाएं और कार्यक्रम बनना चाहिए- इन सब पर बात हो सकती है। चर्चा का अवसर न देने का यही अर्थ निकलता है कि सरकार मनमर्जी चलाएगी, विपक्ष से जो बने सो कर ले। ध्यान दीजिए कि सरकार ने बजट ऐसे समय पारित किया जब विपक्ष की ओर से हंगामे की कोई स्थिति नहीं थी। चर्चा शुरू होने के बाद हंगामा खड़ा होता तब सरकार के बजाय विपक्ष को दोष दिया जा सकता था। 
अविश्वास प्रस्ताव का पूरा प्रसंग अवास्तविक या अतिवास्तविक प्रतीत होता है। यह तो सब जानते थे कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की दूर-दूर तक आशंका नहीं थी। लेकिन इसके माध्यम से विपक्ष को एक अवसर मिलना था जब वह सरकार की नाकामियों, गलतियों और कमजोरियों को उजागर कर सकता था। उल्लेखनीय है कि लोकसभा में तेरह बार अविश्वास प्रस्ताव रखा गया और हर बार सभापति सुमित्रा महाजन ने उसे यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि शोर-शराबे के कारण निर्धारित न्यूनतम सांसदों की गिनती करना असंभव है। सुमित्रा ताई वरिष्ठ संसदवेत्ता हैं और सभी पक्षों की समादर की पात्र रही हैं, लेकिन उनका यह तर्क किसी की समझ में नहीं आया। आदर्श स्थिति में सभापति से तटस्थ रहने की उम्मीद की जाती है। यहां सवाल उठ रहा है कि क्या वे पार्टी की सोच से ऊपर नहीं उठ सकीं।  इस प्रसंग में एक और दिलचस्प तथ्य है कि जिन दलों ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था उनमें से दो-तीन दल खुद हंगामा करते रहे और इस तरह सभापति को मौका दे दिया कि वे प्रस्ताव को बहस के लिए स्वीकार न करें।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की चर्चा तो खूब हुई, लेकिन वह पेश नहीं हुआ। इस बीच बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने प्रस्ताव तक पारित कर दिया कि जो सांसद-वकील महाभियोग पर दस्तखत करेंगे उन्हें सर्वोच्च न्यायाधीश के इजलास में पैरवी नहीं करने दी जाएगी। बीसीआई का यह निर्णय वकीलों पर बंधनकारी होता, लेकिन यहां तो प्रस्ताव आया ही नहीं। यदि महाभियोग लाया जाता तो देश के संसदीय इतिहास की यह एक दुर्भाग्यजनक घटना होती। यह तो सब जान रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। मेरी समझ में तो न्यायमूर्ति मिश्रा को नैतिक आधार पर उसी दिन त्यागपत्र दे देना चाहिए था जिस दिन उनके साथी चार वरिष्ठ जजों ने बाकायदा पत्रवार्ता लेकर उन पर आरोप लगाए थे। न्यायमूर्ति चलमेश्वर ने बीते शनिवार न्यायमूर्ति मिश्रा से हुई असहमतियों को नए सिरे से दर्ज किया है। कुल मिलाकर यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, जिसमें देश की न्यायपालिका का प्रमुख ही आरोपों के घेरे में खड़ा कर दिया गया हो। सुना यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस पार्टी को इस दिशा में आगे बढ़ने से रोक दिया। यह उनकी गरिमापूर्ण छवि के अनुकूल था।
राज्यसभा के मनोनीत सदस्य सचिन तेंदुलकर ने सदन की गतिविधियों में छह साल लंबी अवधि के दौरान कोई भागीदारी नहीं की। वे चाहते तो देश की युवा नीति और खेल नीति के बारे में अपने अनुभवों के आधार पर बातें कर सकते थे और शायद मनवा भी सकते थे। उन्होंने छह साल की वेतन राशि राज्यसभा के अध्यक्ष को भेजकर अपनी अकर्मण्यता की ग्लानि से मुक्त होना चाहा है। मेरा मानना है कि कांग्रेस ने सचिन और रेखा इन दोनों को राज्यसभा में भेजकर बुद्धिहीनता का परिचय दिया था। लेकिन स्वयं सचिन को सोचना चाहिए था कि जिस पद के साथ वे न्याय नहीं कर सकते उसे क्यों स्वीकार करें। अगर वे मना करते तो उस जगह पर शायद कोई दूसरा विद्वान या विशेषज्ञ बैठता, जिससे सदन और देश दोनों को लाभ होता। हमें तो भारतीय जनता पार्टी का वेतन वापसी का निर्णय भी समझ नहीं आया। यदि आपने एक माह का वेतन वापिस कर भी दिया तो इससे क्या फर्क पड़ता है। मजे की बात है कि पार्टी के ही मुखर नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस निर्णय को मानने से इंकार कर दिया है। भाजपा अपने इस फैसले पर खुद अपनी पीठ थपथपा सकती है, लेकिन फिर तो उसे 2004 से 2014 की अवधि में लिए गए वेतन-भत्ते लौटा देना चाहिए, जब भाजपा ने संसद को ठप कर रखा था। उसके नेता तब कहते थे कि सदन को चलाना सरकार का काम है। अब जब टोपी इनके सिर पर आ गई है तो इस तरह का प्रहसन खेला जा रहा है।
संसद के इसी सत्र के दौरान कैम्ब्रिज एनालिटिका का प्रकरण उछला। इसी के साथ-साथ फेक न्यूज याने फर्जी खबरें फैलने-फैलाने के बारे में भी हर तरफ चिंता व्यक्त की गई। सरकार ने आनन-फानन में अधिसूचना जारी कर दी जिसमें पत्रकारों के अधिकार व उन्हें प्राप्त सुविधाओं पर बंदिश लगाने का प्रावधान किया गया था। इसके जारी होते साथ मीडिया जगत में हड़कंप मच गया। पत्रकारों को  राजीव गांधी के समय 1986 में लाए गए प्रेस विधेयक की नए सिरे से याद आई। उस समय पूरे देश में पत्रकारों ने एकजुट होकर विधेयक का विरोध किया था। जगह-जगह पर जुलूस, प्रदर्शन और आंदोलन हुए थे और विधेयक वापिस ले लिया गया था। शायद ऐसा ही वातावरण इस बार भी बनता। सरकार के चहेते चैनल, अखबार और पत्रकार इस अधिसूचना के खिलाफ सामने आ गए थे। सरकार ने शायद आसन्न चुनावों को देखते हुए अपने कदम वापिस खींच लिए हैं। लेकिन मामला अंतिम रूप से खत्म नहीं हुआ है। रविवार को ही भाजपा सांसद पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता ने अपने एक लेख में दलील दी है कि फेक न्यूज तो पहले भी होते थे। आशय यह कि पत्रकारों को सतर्क रहना होगा।
इस बीच एक ऐसा मामला सामने आया है जो मीडिया की चिंतनीय स्थिति को सामने लाता है। रियाज़ अहमद नाम के सज्जन हैं जो ट्विटर पर शायद कांग्रेस के पक्ष में पोस्ट करते रहते हैं। टाइम्स नाउ चैनल ने उनका प्रोफाइल एक ट्वीट जारी किया कि ये राहुल गांधी की ट्रोल आर्मी के सदस्य हैं। इस पर बवाल मचा। रियाज़ जिस कंपनी में काम करते हैं उन्हें वहां से निकाल दिया गया। चैनल ने उनके निजता के अधिकार का हनन किया और प्रकारांतर से उनकी रोजी-रोटी छीनी वे अब चैनल पर मुकदमा दायर करने जा रहे हैं। इसमें उन्हें भारी समर्थन मिल रहा है। एक तरफ स्मृति ईरानी पत्रकारों के अधिकार छीनने का कदम उठाती हैं, दूसरी तरफ भाजपा समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया इस तरह के गैरजिम्मेदाराना काम करते हैं। इनसे सतर्क रहने की आवश्यकता है।
 देशबंधु में 12 अप्रैल 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 4 April 2018

एक्ज़ाम वारियर्स


जैसी कि जानकारी है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'एक्ज़ाम वारियर्स' शीर्षक से एक किताब लिखी है। अभी दो माह पहले 3 फरवरी 2018 को बड़ी धूमधाम से छात्रों की एक सभा के बीच इसका लोकार्पण हुआ।  यह पुस्तक दूकानों पर और ऑनलाइन धड़ल्ले से बिक रही है। मोदीजी के इस पुस्तक लेखन से कुछ नए बिन्दु प्रकट होते हैं। एक तो यह कि नरेन्द्र मोदी को लेखक मान लेना चाहिए जैसे कि हमने बड़ी आसानी से अटल बिहारी वाजपेयी को कवि मान लिया है। दूसरे, एक पुस्तक लेखक के रूप में नरेन्द्र मोदी ने अपना नाम डेल कार्नेगी, स्वेड मार्टेन, दीपक चोपड़ा, शिव खेड़ा और हरीश बिजूर जैसे व्यक्तियों की सूची में दर्ज करा लिया है जो आम लोगों को जीवन में सफल होनेे के गुर सिखाते हैं चाहे भाषण देकर, चाहे किताब लिखकर। मैंने जो आखिरी के दो-तीन नाम लिए वे मोटी फीस लेकर पांच सितारा होटलों में अज्ञानियों के लिए सेमीनार, वर्कशॉप वगैरह करते हैं। इन्हें रोटरी क्लब जैसी संस्थाएं भी अपने कार्यक्रमों में आवभगत के साथ बुलाती है। वैश्वीकरण की शब्दावली में इन्हें मोटीवेटर वगैरह कहकर बुलाया जाता है। मोदीजी अगर किसी दिन रिटायर हुए तो वे इस दिशा में व्यस्त रह सकते हैं।
प्रधानमंत्री की लिखी पुस्तक से यह भी पता चलता है कि वे परीक्षा को युद्ध मानते हैं और परीक्षार्थी को योद्धा। सवाल उठता है कि इस युद्ध में जो हार जाए उसे क्या कहेंगे? क्या माननीय प्रधानमंत्री फेल होने वाले छात्रों को युद्ध क्षेत्र का भगोड़ा मानेंगे? और जो बहुत से नवयुवा हताश होकर जीवन से हाथ धो बैठते हैं क्या उन्हें परीक्षा के रणक्षेत्र का शहीद माना जाएगा? इसके साथ-साथ यह प्रश्न भी उठता है कि जो लोग पर्चा लीक करते हैं, पास करवाने के लिए जोड़-तोड़ का सहारा लेते हैं, उन्हें क्या माना जाए? क्या वे देशद्रोही कहलाएंगे? यहां एक तर्क दिया जा सकता है कि युद्ध और प्रेम में सब जायज होता है। इस पुरानी कहावत को मान्य करें तो फिर व्यापम से लेकर सीबीएसई तक जो कुछ हुआ है वह सब जायज और स्वीकार्य है। उस पर किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए। शायद यही कारण है कि व्यापम के बारे में सवाल उठाने वाले लोग या तो मार दिए जाते हैं या मारे जाने के खतरे के बीच जीते हैं। जबकि जो इस युद्ध को साम, दाम, दंड, भेद सारी युक्तियां अपना कर जीत लेते हैं उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। और अगर होती है तो इतनी निष्प्रभावी कि वह कोई मिसाल नहीं बन पाती। उसे कोई याद भी नहीं कर पाता। 
नरेन्द्र मोदी की किताब पढ़ने की कोई जरूरत मैंने नहीं समझी, लेकिन शीर्षक से यह ध्वनित होता है कि प्रधानमंत्री शिक्षा पद्धति में परीक्षा को बहुत महत्व देते हैं। शायद यही कारण है कि उनकी सरकार ने पिछले चार सालों के दौरान शिक्षा के अधिकार कानून याने आरटीई को लगातार कमजोर करने के निर्णय लिए हैं। शिक्षकों और पालकों के एक वर्ग की मांग थी कि बिना परीक्षा लिए बच्चे की प्रतिभा और क्षमता का पता नहीं चलता। उनके इस तर्क को मानकर पांचवीं, आठवीं, दसवीं की जो परीक्षाएं आरटीई में बंद की जा रही थीं उन्हें नए सिरे से वापिस लागू कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं पड़ना चाहिए कि परीक्षा के माध्यम से प्रतिभा की परख करना एक अभिजातवर्गीय सोच है। इसमें अनेक कोटियों में विभक्त भारत की सामाजिक विषमता को ही पुष्ट करने का यत्न है। प्रसंगवश कहना उचित होगा कि एक एनजीओ द्वारा प्रतिवर्ष जो असर (एएसईआर) नामक रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है वह भी इसी अभिजात मानसिकता को प्रतिबिंबित करती है।
एक दौर था जब अभिजात वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे ही स्कूल जा पाते थे। बहुत से लोग आपको बताएंगे कि वे तो गांव के हिन्दी मीडियम वाले सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। इसमें कोई कमाल नहीं है। अमूमन सारे विद्यार्थी एक ही सामाजिक श्रेणी के होते थे और इन पाठशालाओं के दरवाजे समाज के एक बड़े वर्ग के नौनिहालों के लिए बंद थे। जैसे-जैसे जनतांत्रिक संविधान और कल्याणकारी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा का प्रसार होना शुरू हुआ, वैसे-वैसे निजी स्कूल खुलने लगे। अब तो हाल यह है कि कितने ही निजी स्कूलों में पहली कक्षा से ए.सी. लगे कमरों में बैठकर बच्चे पढ़ते हैं। इन स्कूलों की सालाना फीस लाखों में होती है। ये वे स्कूल हैं जिनमें आरटीई के तहत किए गए प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। एक तरफ ये पांच सितारा, चार सितारा, तीन सितारा, शालाएं हैं और दूसरी तरफ शासकीय विद्यालय जिनमें किसी तरह की सुविधाएं नहीं हैं। यहां तक कि शिक्षक भी नहीं हैं क्योंकि वर्ल्ड बैंक के आदेश से 1995-96 से शासकीय विद्यालयों में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति पर पाबंदी लगी हुई है। जहां ऐसी विषमता  हो वहां परीक्षा की कसौटी पर प्रतिभा को परखना सत्ताधारी वर्ग का पाखंड नहीं तो और क्या है?
जहां तक योद्धाओं की बात है तो हम याद करना चाहेंगे कि परीक्षा में हर तरह से उत्तीर्ण होने की चाहत लंबे समय से चली आ रही है। वह इसीलिए कि परीक्षा में उत्तीर्ण होने को ही छात्र के बुद्धि का पर्याय मान लिया गया है। यह साठ के दशक की बात है जब लोकप्रिय पत्रिका सरिता में एक दुष्यंत की हत्या या ऐसी ही कुछ शीर्षक से एक कहानी छपी थी जिसमें एक छात्र नकल रोकने वाले शिक्षक की हत्या कर देता है। तब कोई एक साल तक इस कहानी पर चर्चा होती रही थी। तब से अब तक स्थितियां बहुत बदल गई हैं। परीक्षा पद्धति में चाहे जितने परिवर्तन कर लें, नकल रोकना असंभव सा हो गया है। दो साल पहले बिहार के किसी स्कूल की तस्वीर छपी थी जिसमें तीन मंजिल के स्कूल भवन में दीवार पर चढ़कर नकल करवाई जा रही थी। मोबाइल फोन इत्यादि के कारण भी नकल करना आसान हो गया है। यहीं यह भी ध्यान देने योग्य है कि न कॉलेजों में शिक्षक हैं, न स्कूलों में। सरकार ने भर्ती पर पाबंदी जो लगा रखी है। इस स्थिति में परीक्षा कक्ष में इनविजिलेटरों का भी टोटा पड़ जाता है। जो शिक्षक हैं भी वे परीक्षा ड्यूटी करने से कतराते हैं कि बैठे ठाले मुसीबत क्यों मोल ली जाए। परिचित डॉक्टर ऐसे समय काम आते हैं और मेडिकल सर्टीफिकेट दे देते हैं। 
विगत कुछ दिनों से सीबीएसई के जो परीक्षार्थी दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं और इसके पहले मध्यप्रदेश में व्यापम, छत्तीसगढ़ में मेडिकल भर्ती घोटाला, दिल्ली में एमएससी परीक्षा का घपला- ये सब एक गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं और उनकी जड़ में जाने की जरूरत है। केन्द्रीय शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप का बयान खेदजनक और किसी सीमा तक आपत्तिजनक है कि परीक्षाओं में नकल रोकना किसी के वश का नहीं है। दूसरी तरफ केन्द्रीय शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कथन कि हम व्यवस्था को सुधारेंगे, एक खोखले वायदे के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मेरा मानना है कि अब तक जितने उपाय किए गए हैं उनमें समस्या की जड़ की तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया है। मेरा आरोप है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था जिस कुलीनतंत्र और अभिजात मानसिकता की गिरफ्त में है उसकी कोई रुचि समस्या के निदान में नहीं है। उसका ध्यान तो शिक्षा के निजीकरण की ओर है। जितने जल्दी हमारे स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, कारपोरेट घरानों के हवाले किए जा सके उतने जल्दी अपने सिर से बला टले।  सरकारी शिक्षण संस्थाओं की अरबों-खरबों की रीयल एस्टेट मिट्टी के मोल पूंजीपतियों को देने की तैयारी है इसमें किसके कितने वारे-न्यारे होंगे, कल्पना करना कठिन नहीं है।
यदि सरकार की मंशा सचमुच शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने की है तो उसे तीन-चार कदम फौरी तौर पर उठाना चाहिए। अव्वल तो पूरे देश में हर स्तर पर शिक्षकों की पूर्णकालिक नियुक्तियां होना लाजमी है। उनके चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता लाना होगी। मुझे कहने में संकोच नहीं है कि आज शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की रुचि विद्यार्थियों का भविष्य गढ़ने में नहीं है। इस पर शिक्षक संगठनों को विचार करना पड़ेगा। दूसरे, शिक्षा का अधिकार कानून सही तरह से लागू करना आवश्यक है। उसमें परीक्षा पद्धति को लेकर जो प्रावधान किए गए हैं उन्हें बदलने के बजाय सही भावना से लागू करना होगा। इस हेतु शिक्षकों की मानसिकता भी बदलना पड़ेगी। तीसरे, पाठ्यक्रम में इतना लचीलापन होना चाहिए कि बच्चे की जिन विषयों में रुचि हो वह उन्हें पढ़ सके। चौथे, परीक्षाओं का विकेन्द्रीकरण होना परम आवश्यक है। अगर अकेले महाराष्ट्र में चार माध्यमिक शिक्षा मंडल हो सकते हैं तो वहीं विकेन्द्रीकृत व्यवस्था पूरे देश में लागू क्यों नहीं हो सकती? पांचवे, कोचिंग स्कूलों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। फिलहाल, इतना ही।
देशबंधु में 05 अप्रैल 2018 को प्रकाशित