Wednesday 11 April 2018

बजट सत्र से उभरे कुछ संकेतक

                
संसद का बजट सत्र बीते शुक्रवार 6 अप्रैल को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। इस सत्र के दूसरे चरण में कोई कामकाज नहीं हुआ और दोनों सदनों का सारा समय शोर-शराबे और हंगामे में डूब गया। आम जनता ने मीडिया से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यही राय कायम की है। हम इससे अलग हटकर उन कुछ सूत्रों को पेश करना चाहेंगे जो बजट सत्र के दौरान हुई घटनाओं से हासिल हुए हैं। इन्हें क्रमवार रखा जा सकता है-
1. वित्त विधेयक याने कि बजट बिना किसी चर्चा के आनन-फानन में पारित हो गया। 2. विपक्ष के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, लेकिन सभापति ने उसे चर्चा के लिए मंजूर नहीं किया। 3. इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की सुगबुगाहट भी सुनाई दी। 4. राज्यसभा के मनोनीत सदस्य क्रिकेट के भगवान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर ने अपने कार्यकाल की समूची वेतन राशि राज्यसभा अध्यक्ष को वापिस भेज दी। 5. सत्तारूढ़ भाजपा ने तय किया कि जितने दिन काम नहीं हुआ उसके सांसद उतने दिनों का वेतन नहीं लेंगे। 6. फेक न्यूज़ या फर्जी खबरों पर रोक लगाने की दृष्टि से केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की, जो कथित तौर पर अगले ही दिन प्रधानमंत्री के निर्देश पर वापिस ले ली गई।
हम इन घटनाओं के प्रकाश में चर्चा को आगे बढ़ाएंगे। सरकार के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वित्त विधेयक को बिना चर्चा किए पारित किया जाता। गिलोटिन करने या खटाखट पारित करने की नौबत तब आती है जब समय की कमी हो अथवा जब सरकार विभागीय मांगों पर बहस से कतराना चाहती हो। वैसे तो बजट की प्रासंगिकता धीरे-धीरे कर खत्म हो रही है फिर भी एक स्वांग तो हर साल रचा ही जाता है। सदन में बजट जब पेश होता है तो देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं, संविधान के दिशानिर्देशों को लेकर भी गंभीर चर्चा के अवसर मिलते हैं। एक कल्याणकारी राज्य में सरकार की क्या भूमिका होना चाहिए, कैसी योजनाएं और कार्यक्रम बनना चाहिए- इन सब पर बात हो सकती है। चर्चा का अवसर न देने का यही अर्थ निकलता है कि सरकार मनमर्जी चलाएगी, विपक्ष से जो बने सो कर ले। ध्यान दीजिए कि सरकार ने बजट ऐसे समय पारित किया जब विपक्ष की ओर से हंगामे की कोई स्थिति नहीं थी। चर्चा शुरू होने के बाद हंगामा खड़ा होता तब सरकार के बजाय विपक्ष को दोष दिया जा सकता था। 
अविश्वास प्रस्ताव का पूरा प्रसंग अवास्तविक या अतिवास्तविक प्रतीत होता है। यह तो सब जानते थे कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की दूर-दूर तक आशंका नहीं थी। लेकिन इसके माध्यम से विपक्ष को एक अवसर मिलना था जब वह सरकार की नाकामियों, गलतियों और कमजोरियों को उजागर कर सकता था। उल्लेखनीय है कि लोकसभा में तेरह बार अविश्वास प्रस्ताव रखा गया और हर बार सभापति सुमित्रा महाजन ने उसे यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि शोर-शराबे के कारण निर्धारित न्यूनतम सांसदों की गिनती करना असंभव है। सुमित्रा ताई वरिष्ठ संसदवेत्ता हैं और सभी पक्षों की समादर की पात्र रही हैं, लेकिन उनका यह तर्क किसी की समझ में नहीं आया। आदर्श स्थिति में सभापति से तटस्थ रहने की उम्मीद की जाती है। यहां सवाल उठ रहा है कि क्या वे पार्टी की सोच से ऊपर नहीं उठ सकीं।  इस प्रसंग में एक और दिलचस्प तथ्य है कि जिन दलों ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था उनमें से दो-तीन दल खुद हंगामा करते रहे और इस तरह सभापति को मौका दे दिया कि वे प्रस्ताव को बहस के लिए स्वीकार न करें।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की चर्चा तो खूब हुई, लेकिन वह पेश नहीं हुआ। इस बीच बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने प्रस्ताव तक पारित कर दिया कि जो सांसद-वकील महाभियोग पर दस्तखत करेंगे उन्हें सर्वोच्च न्यायाधीश के इजलास में पैरवी नहीं करने दी जाएगी। बीसीआई का यह निर्णय वकीलों पर बंधनकारी होता, लेकिन यहां तो प्रस्ताव आया ही नहीं। यदि महाभियोग लाया जाता तो देश के संसदीय इतिहास की यह एक दुर्भाग्यजनक घटना होती। यह तो सब जान रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। मेरी समझ में तो न्यायमूर्ति मिश्रा को नैतिक आधार पर उसी दिन त्यागपत्र दे देना चाहिए था जिस दिन उनके साथी चार वरिष्ठ जजों ने बाकायदा पत्रवार्ता लेकर उन पर आरोप लगाए थे। न्यायमूर्ति चलमेश्वर ने बीते शनिवार न्यायमूर्ति मिश्रा से हुई असहमतियों को नए सिरे से दर्ज किया है। कुल मिलाकर यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, जिसमें देश की न्यायपालिका का प्रमुख ही आरोपों के घेरे में खड़ा कर दिया गया हो। सुना यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस पार्टी को इस दिशा में आगे बढ़ने से रोक दिया। यह उनकी गरिमापूर्ण छवि के अनुकूल था।
राज्यसभा के मनोनीत सदस्य सचिन तेंदुलकर ने सदन की गतिविधियों में छह साल लंबी अवधि के दौरान कोई भागीदारी नहीं की। वे चाहते तो देश की युवा नीति और खेल नीति के बारे में अपने अनुभवों के आधार पर बातें कर सकते थे और शायद मनवा भी सकते थे। उन्होंने छह साल की वेतन राशि राज्यसभा के अध्यक्ष को भेजकर अपनी अकर्मण्यता की ग्लानि से मुक्त होना चाहा है। मेरा मानना है कि कांग्रेस ने सचिन और रेखा इन दोनों को राज्यसभा में भेजकर बुद्धिहीनता का परिचय दिया था। लेकिन स्वयं सचिन को सोचना चाहिए था कि जिस पद के साथ वे न्याय नहीं कर सकते उसे क्यों स्वीकार करें। अगर वे मना करते तो उस जगह पर शायद कोई दूसरा विद्वान या विशेषज्ञ बैठता, जिससे सदन और देश दोनों को लाभ होता। हमें तो भारतीय जनता पार्टी का वेतन वापसी का निर्णय भी समझ नहीं आया। यदि आपने एक माह का वेतन वापिस कर भी दिया तो इससे क्या फर्क पड़ता है। मजे की बात है कि पार्टी के ही मुखर नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस निर्णय को मानने से इंकार कर दिया है। भाजपा अपने इस फैसले पर खुद अपनी पीठ थपथपा सकती है, लेकिन फिर तो उसे 2004 से 2014 की अवधि में लिए गए वेतन-भत्ते लौटा देना चाहिए, जब भाजपा ने संसद को ठप कर रखा था। उसके नेता तब कहते थे कि सदन को चलाना सरकार का काम है। अब जब टोपी इनके सिर पर आ गई है तो इस तरह का प्रहसन खेला जा रहा है।
संसद के इसी सत्र के दौरान कैम्ब्रिज एनालिटिका का प्रकरण उछला। इसी के साथ-साथ फेक न्यूज याने फर्जी खबरें फैलने-फैलाने के बारे में भी हर तरफ चिंता व्यक्त की गई। सरकार ने आनन-फानन में अधिसूचना जारी कर दी जिसमें पत्रकारों के अधिकार व उन्हें प्राप्त सुविधाओं पर बंदिश लगाने का प्रावधान किया गया था। इसके जारी होते साथ मीडिया जगत में हड़कंप मच गया। पत्रकारों को  राजीव गांधी के समय 1986 में लाए गए प्रेस विधेयक की नए सिरे से याद आई। उस समय पूरे देश में पत्रकारों ने एकजुट होकर विधेयक का विरोध किया था। जगह-जगह पर जुलूस, प्रदर्शन और आंदोलन हुए थे और विधेयक वापिस ले लिया गया था। शायद ऐसा ही वातावरण इस बार भी बनता। सरकार के चहेते चैनल, अखबार और पत्रकार इस अधिसूचना के खिलाफ सामने आ गए थे। सरकार ने शायद आसन्न चुनावों को देखते हुए अपने कदम वापिस खींच लिए हैं। लेकिन मामला अंतिम रूप से खत्म नहीं हुआ है। रविवार को ही भाजपा सांसद पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता ने अपने एक लेख में दलील दी है कि फेक न्यूज तो पहले भी होते थे। आशय यह कि पत्रकारों को सतर्क रहना होगा।
इस बीच एक ऐसा मामला सामने आया है जो मीडिया की चिंतनीय स्थिति को सामने लाता है। रियाज़ अहमद नाम के सज्जन हैं जो ट्विटर पर शायद कांग्रेस के पक्ष में पोस्ट करते रहते हैं। टाइम्स नाउ चैनल ने उनका प्रोफाइल एक ट्वीट जारी किया कि ये राहुल गांधी की ट्रोल आर्मी के सदस्य हैं। इस पर बवाल मचा। रियाज़ जिस कंपनी में काम करते हैं उन्हें वहां से निकाल दिया गया। चैनल ने उनके निजता के अधिकार का हनन किया और प्रकारांतर से उनकी रोजी-रोटी छीनी वे अब चैनल पर मुकदमा दायर करने जा रहे हैं। इसमें उन्हें भारी समर्थन मिल रहा है। एक तरफ स्मृति ईरानी पत्रकारों के अधिकार छीनने का कदम उठाती हैं, दूसरी तरफ भाजपा समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया इस तरह के गैरजिम्मेदाराना काम करते हैं। इनसे सतर्क रहने की आवश्यकता है।
 देशबंधु में 12 अप्रैल 2018 को प्रकाशित 

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