Wednesday 4 April 2018

एक्ज़ाम वारियर्स


जैसी कि जानकारी है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'एक्ज़ाम वारियर्स' शीर्षक से एक किताब लिखी है। अभी दो माह पहले 3 फरवरी 2018 को बड़ी धूमधाम से छात्रों की एक सभा के बीच इसका लोकार्पण हुआ।  यह पुस्तक दूकानों पर और ऑनलाइन धड़ल्ले से बिक रही है। मोदीजी के इस पुस्तक लेखन से कुछ नए बिन्दु प्रकट होते हैं। एक तो यह कि नरेन्द्र मोदी को लेखक मान लेना चाहिए जैसे कि हमने बड़ी आसानी से अटल बिहारी वाजपेयी को कवि मान लिया है। दूसरे, एक पुस्तक लेखक के रूप में नरेन्द्र मोदी ने अपना नाम डेल कार्नेगी, स्वेड मार्टेन, दीपक चोपड़ा, शिव खेड़ा और हरीश बिजूर जैसे व्यक्तियों की सूची में दर्ज करा लिया है जो आम लोगों को जीवन में सफल होनेे के गुर सिखाते हैं चाहे भाषण देकर, चाहे किताब लिखकर। मैंने जो आखिरी के दो-तीन नाम लिए वे मोटी फीस लेकर पांच सितारा होटलों में अज्ञानियों के लिए सेमीनार, वर्कशॉप वगैरह करते हैं। इन्हें रोटरी क्लब जैसी संस्थाएं भी अपने कार्यक्रमों में आवभगत के साथ बुलाती है। वैश्वीकरण की शब्दावली में इन्हें मोटीवेटर वगैरह कहकर बुलाया जाता है। मोदीजी अगर किसी दिन रिटायर हुए तो वे इस दिशा में व्यस्त रह सकते हैं।
प्रधानमंत्री की लिखी पुस्तक से यह भी पता चलता है कि वे परीक्षा को युद्ध मानते हैं और परीक्षार्थी को योद्धा। सवाल उठता है कि इस युद्ध में जो हार जाए उसे क्या कहेंगे? क्या माननीय प्रधानमंत्री फेल होने वाले छात्रों को युद्ध क्षेत्र का भगोड़ा मानेंगे? और जो बहुत से नवयुवा हताश होकर जीवन से हाथ धो बैठते हैं क्या उन्हें परीक्षा के रणक्षेत्र का शहीद माना जाएगा? इसके साथ-साथ यह प्रश्न भी उठता है कि जो लोग पर्चा लीक करते हैं, पास करवाने के लिए जोड़-तोड़ का सहारा लेते हैं, उन्हें क्या माना जाए? क्या वे देशद्रोही कहलाएंगे? यहां एक तर्क दिया जा सकता है कि युद्ध और प्रेम में सब जायज होता है। इस पुरानी कहावत को मान्य करें तो फिर व्यापम से लेकर सीबीएसई तक जो कुछ हुआ है वह सब जायज और स्वीकार्य है। उस पर किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए। शायद यही कारण है कि व्यापम के बारे में सवाल उठाने वाले लोग या तो मार दिए जाते हैं या मारे जाने के खतरे के बीच जीते हैं। जबकि जो इस युद्ध को साम, दाम, दंड, भेद सारी युक्तियां अपना कर जीत लेते हैं उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। और अगर होती है तो इतनी निष्प्रभावी कि वह कोई मिसाल नहीं बन पाती। उसे कोई याद भी नहीं कर पाता। 
नरेन्द्र मोदी की किताब पढ़ने की कोई जरूरत मैंने नहीं समझी, लेकिन शीर्षक से यह ध्वनित होता है कि प्रधानमंत्री शिक्षा पद्धति में परीक्षा को बहुत महत्व देते हैं। शायद यही कारण है कि उनकी सरकार ने पिछले चार सालों के दौरान शिक्षा के अधिकार कानून याने आरटीई को लगातार कमजोर करने के निर्णय लिए हैं। शिक्षकों और पालकों के एक वर्ग की मांग थी कि बिना परीक्षा लिए बच्चे की प्रतिभा और क्षमता का पता नहीं चलता। उनके इस तर्क को मानकर पांचवीं, आठवीं, दसवीं की जो परीक्षाएं आरटीई में बंद की जा रही थीं उन्हें नए सिरे से वापिस लागू कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं पड़ना चाहिए कि परीक्षा के माध्यम से प्रतिभा की परख करना एक अभिजातवर्गीय सोच है। इसमें अनेक कोटियों में विभक्त भारत की सामाजिक विषमता को ही पुष्ट करने का यत्न है। प्रसंगवश कहना उचित होगा कि एक एनजीओ द्वारा प्रतिवर्ष जो असर (एएसईआर) नामक रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है वह भी इसी अभिजात मानसिकता को प्रतिबिंबित करती है।
एक दौर था जब अभिजात वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे ही स्कूल जा पाते थे। बहुत से लोग आपको बताएंगे कि वे तो गांव के हिन्दी मीडियम वाले सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। इसमें कोई कमाल नहीं है। अमूमन सारे विद्यार्थी एक ही सामाजिक श्रेणी के होते थे और इन पाठशालाओं के दरवाजे समाज के एक बड़े वर्ग के नौनिहालों के लिए बंद थे। जैसे-जैसे जनतांत्रिक संविधान और कल्याणकारी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा का प्रसार होना शुरू हुआ, वैसे-वैसे निजी स्कूल खुलने लगे। अब तो हाल यह है कि कितने ही निजी स्कूलों में पहली कक्षा से ए.सी. लगे कमरों में बैठकर बच्चे पढ़ते हैं। इन स्कूलों की सालाना फीस लाखों में होती है। ये वे स्कूल हैं जिनमें आरटीई के तहत किए गए प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। एक तरफ ये पांच सितारा, चार सितारा, तीन सितारा, शालाएं हैं और दूसरी तरफ शासकीय विद्यालय जिनमें किसी तरह की सुविधाएं नहीं हैं। यहां तक कि शिक्षक भी नहीं हैं क्योंकि वर्ल्ड बैंक के आदेश से 1995-96 से शासकीय विद्यालयों में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति पर पाबंदी लगी हुई है। जहां ऐसी विषमता  हो वहां परीक्षा की कसौटी पर प्रतिभा को परखना सत्ताधारी वर्ग का पाखंड नहीं तो और क्या है?
जहां तक योद्धाओं की बात है तो हम याद करना चाहेंगे कि परीक्षा में हर तरह से उत्तीर्ण होने की चाहत लंबे समय से चली आ रही है। वह इसीलिए कि परीक्षा में उत्तीर्ण होने को ही छात्र के बुद्धि का पर्याय मान लिया गया है। यह साठ के दशक की बात है जब लोकप्रिय पत्रिका सरिता में एक दुष्यंत की हत्या या ऐसी ही कुछ शीर्षक से एक कहानी छपी थी जिसमें एक छात्र नकल रोकने वाले शिक्षक की हत्या कर देता है। तब कोई एक साल तक इस कहानी पर चर्चा होती रही थी। तब से अब तक स्थितियां बहुत बदल गई हैं। परीक्षा पद्धति में चाहे जितने परिवर्तन कर लें, नकल रोकना असंभव सा हो गया है। दो साल पहले बिहार के किसी स्कूल की तस्वीर छपी थी जिसमें तीन मंजिल के स्कूल भवन में दीवार पर चढ़कर नकल करवाई जा रही थी। मोबाइल फोन इत्यादि के कारण भी नकल करना आसान हो गया है। यहीं यह भी ध्यान देने योग्य है कि न कॉलेजों में शिक्षक हैं, न स्कूलों में। सरकार ने भर्ती पर पाबंदी जो लगा रखी है। इस स्थिति में परीक्षा कक्ष में इनविजिलेटरों का भी टोटा पड़ जाता है। जो शिक्षक हैं भी वे परीक्षा ड्यूटी करने से कतराते हैं कि बैठे ठाले मुसीबत क्यों मोल ली जाए। परिचित डॉक्टर ऐसे समय काम आते हैं और मेडिकल सर्टीफिकेट दे देते हैं। 
विगत कुछ दिनों से सीबीएसई के जो परीक्षार्थी दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं और इसके पहले मध्यप्रदेश में व्यापम, छत्तीसगढ़ में मेडिकल भर्ती घोटाला, दिल्ली में एमएससी परीक्षा का घपला- ये सब एक गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं और उनकी जड़ में जाने की जरूरत है। केन्द्रीय शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप का बयान खेदजनक और किसी सीमा तक आपत्तिजनक है कि परीक्षाओं में नकल रोकना किसी के वश का नहीं है। दूसरी तरफ केन्द्रीय शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कथन कि हम व्यवस्था को सुधारेंगे, एक खोखले वायदे के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मेरा मानना है कि अब तक जितने उपाय किए गए हैं उनमें समस्या की जड़ की तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया है। मेरा आरोप है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था जिस कुलीनतंत्र और अभिजात मानसिकता की गिरफ्त में है उसकी कोई रुचि समस्या के निदान में नहीं है। उसका ध्यान तो शिक्षा के निजीकरण की ओर है। जितने जल्दी हमारे स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, कारपोरेट घरानों के हवाले किए जा सके उतने जल्दी अपने सिर से बला टले।  सरकारी शिक्षण संस्थाओं की अरबों-खरबों की रीयल एस्टेट मिट्टी के मोल पूंजीपतियों को देने की तैयारी है इसमें किसके कितने वारे-न्यारे होंगे, कल्पना करना कठिन नहीं है।
यदि सरकार की मंशा सचमुच शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने की है तो उसे तीन-चार कदम फौरी तौर पर उठाना चाहिए। अव्वल तो पूरे देश में हर स्तर पर शिक्षकों की पूर्णकालिक नियुक्तियां होना लाजमी है। उनके चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता लाना होगी। मुझे कहने में संकोच नहीं है कि आज शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की रुचि विद्यार्थियों का भविष्य गढ़ने में नहीं है। इस पर शिक्षक संगठनों को विचार करना पड़ेगा। दूसरे, शिक्षा का अधिकार कानून सही तरह से लागू करना आवश्यक है। उसमें परीक्षा पद्धति को लेकर जो प्रावधान किए गए हैं उन्हें बदलने के बजाय सही भावना से लागू करना होगा। इस हेतु शिक्षकों की मानसिकता भी बदलना पड़ेगी। तीसरे, पाठ्यक्रम में इतना लचीलापन होना चाहिए कि बच्चे की जिन विषयों में रुचि हो वह उन्हें पढ़ सके। चौथे, परीक्षाओं का विकेन्द्रीकरण होना परम आवश्यक है। अगर अकेले महाराष्ट्र में चार माध्यमिक शिक्षा मंडल हो सकते हैं तो वहीं विकेन्द्रीकृत व्यवस्था पूरे देश में लागू क्यों नहीं हो सकती? पांचवे, कोचिंग स्कूलों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। फिलहाल, इतना ही।
देशबंधु में 05 अप्रैल 2018 को प्रकाशित 

 

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