Saturday, 14 April 2018

सिनेमा में कुछ अनोखे जीवन वृत्त

                                   
 
इस बार कुछ कहानियां। पहली कहानी- पांच साल का बच्चा परिवार से बिछुड़कर कलकत्ता पहुंच जाता है और वहां से एक विदेशी दंपत्ति द्वारा गोद लिए जाने के बाद आस्ट्रेलिया। पच्चीस साल बाद वह अपने घर और परिवार की तलाश में भारत लौटता है।  दूसरी कहानी- शीतयुद्ध के दौर में एक देश का नागरिक दूसरे देश में जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। एक वकील उसका मुकदमा लड़ता है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि उस वकील को शत्रु देशों के बीच कैदियों की अदला-बदली के लिए तलवार की धार पर चलने जैसी भूमिका निभानी पड़ती है। तीसरी कहानी- अमेरिका में रंगभेद के लगभग अंतिम दौर में तीन अश्वेत महिलाएं अपनी प्रतिभा, परिश्रम, संकल्प और संघर्षशीलता के बल पर अकल्पनीय सफलताएं अर्जित करती हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा उनमें से एक महिला के नाम पर 2016 में अपने एक नवनिर्मित केन्द्र का नामकरण करता है।  चौथी कहानी- नाजी तानाशाह हिटलर के दौर में एक जर्मन उद्योगपति अपने कारखाने में कार्यरत हजाऱों यहूदी कामगारों को गैस चेम्बर में झोंक दिए जाने से बचाता है। इसके लिए वह अपने जान-माल की परवाह नहीं करता।
ये चारों कहानियां चार फिल्मों की है। एक फिल्म आस्ट्रेलिया की, शेष तीन अमेरिका की। इन दिनों टीवी पर समाचार चैनल खोलकर देखने का मन नहीं होता। सीरियल तो पहले भी नहीं देखता था। हिन्दी के फिल्मी चैनलों पर दक्षिण भारत की हिंसा और क्रूरता से भरी वीभत्स फिल्में ही अधिकतर दिखाई जाती हैं। अंग्रेजी फिल्मों के चैनल भी सामान्यत: बाजारू फिल्में दिखाते हैं, लेकिन बीच-बीच में सुंदर, कलात्मक, भावपूर्ण और अर्थगंभीर फिल्में देखने का अवसर मिल जाता है। इस बार होली पर अखबार में दो दिन की छुट्टी थी सो मौका जुट गया कि कुछ बेहतरीन फिल्में देख लूं।
मैंने ऊपर जो चार कहानियां बताई हैं उन पर बनी फिल्मों को जीवनवृत्त अथवा आज की प्रचलित शब्दावली में बायोपिक कहा जाएगा। पहले आस्ट्रेलिया की फिल्म की बात करूं। इसलिए भी कि सामान्यत: हमें इस देश की फिल्में देखने नहीं मिलतीं। इस फिल्म का नाम है लॉयन याने शेर। कथानायक का नाम शेरू है लेकिन इसकी मां उसे सरु नाम से पुकारती है और यही बालक से युवक बने उस व्यक्ति का परिचित नाम बन जाता है। कहानी मध्यप्रदेश के खंडवा-बुरहानपुर के बीच में किसी गांव से शुरू होती है, जहां एक विधवा अपने दो बेटों का पालन-पोषण खदान में गिट्टी तोड़कर करती है। दोनों बेटे मालगाड़ी से कोयला चुराने का काम करने लगते हैं। हमारा कथानायक छोटा बेटा सरु किसी धोखे में रेल में बैठकर तब के कलकत्ता पहुंच जाता है। वहां पुलिस उसे अनाथालय भेज देती है। आस्ट्रेलिया के एक दंपत्ति बच्चे गोद दिलाने वाली एक संस्था के मार्फत उसे गोद ले लेते हैं। वे कुछ साल बाद भारत से एक और बालक को गोद लेते हैं। आस्ट्रेलियाई मां गर्भ धारण करने में सक्षम है, लेकिन पति-पत्नी सुविचारित निर्णय लेते हैं कि उन्हें उन बच्चों की परवरिश करना चाहिए जिनका भाग्य ने साथ नहीं दिया है। मैं कहूंगा कि यह एक साहसिक निर्णय था। दूर देश के अनाथ बच्चों को अपना बनाकर खड़ा करना आसान काम तो नहीं! सरु के मानसपटल पर बचपन की कुछ स्मृतियां हैं। अपने गांव का भूगोल धुंधला सा उसे याद है। वह दोस्तों की सलाह पर गूगल अर्थ में जाकर भारत के नक्शे को बार-बार खंगालता है। अंतत: अपने गांव का नक्शा उसे मिल जाता है। वह अपने गांव गणेशतलाई लौटता है। भाई की मौत हो चुकी है, मां मिलती है। पूरा गांव इकट्ठा होता है। यह 2012 की सत्य घटना है। उसके आस्ट्रेलियाई माता-पिता भी गांव आते हैं। देवकी और यशोदा जैसी दोनों माताएं आपस में मिलती हैं। फिल्म समाप्त हो जाती है।
दूसरी कहानी ब्रिज ऑफ स्पाइज़ याने जासूसों का पुल की है। अमेरिका में रूस का एक व्यक्ति जासूसी के आरोप में कैद है। जेम्स डोनावन नामक अमेरिकी वकील उसकी पैरवी कर रहा है। इधर अमेरिका का एक टोही विमान यू-2 सोवियत सीमा में प्रवेश करते ही मार गिराया जाता है। पायलट गैरी पावर्स गिरफ्तार कर लिया जाता है। अमेरिका को डर है कि पकड़ा गया पायलट अमेरिका रक्षातंत्र के रहस्य सोवियत अधिकारियों के सामने न खोल दे। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई वकील डोनावन को जिम्मेदारी सौंपती है कि वह पूर्वी जर्मनी जाए और वहां इन दोनों कैदियों की अदला-बदली करवाए। डोनावन को देशहित में यह जोखिम भरा दायित्व उठाना पड़ता है। इस बीच बर्लिन की दीवार खड़ी हो रही है। पश्चिम बर्लिन में एक अमेरिकी छात्र अपनी मित्र से मिलने पूर्वी बर्लिन जाता है, लेकिन वह लौट नहीं पाता। पूर्वी जर्मनी की सरकार उसे जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है। वकील डोनावन को सिर्फ पायलट गैरी पावर्स को वापिस लाने की जिम्मेदारी है, किन्तु वह ठान लेता है कि इस निर्दोष छात्र को भी बचाकर लाना है। इस बिन्दु पर वह अमेरिकी सरकार की हिदायत की भी परवाह नहीं करता। अपनी तर्कशक्ति, धैर्य व साहस का परिचय देते हुए वह रूसी नागरिक के बदले दोनों अमेरिकी नागरिकों को छुड़ाने में कामयाब हो जाता है। वह चूंकि सीक्रेट मिशन पर है इसलिए पत्नी और बच्चे भी नहीं जानते कि वह कहां क्या करने गया है। उन्हें रेडियो पर समाचार से डोनावन के अद्भुत कारनामे की खबर मिलती है। अमेरिकी सरकार बाद के सालों में ऐसे एक और संकट के समय जेम्स डोनावन की सहायता लेती है।
पाठकों को स्मरण होगा कि 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो जाने से लेकर 1990 में बर्लिन की दीवार गिर जाने तक विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। पूंजीवादी देशों का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था और साम्यवादी देशों का सोवियत संघ। बर्लिन की स्थिति विचित्र थी। वहां हिटलर की फौजों को परास्त करने के लिए सबसे पहले सोवियत सेनाएं पहुंची थीं और पूर्वी बर्लिन उनके नियंत्रण में आ गया था। दूसरी ओर अमेरिका और ब्रिटेन की सेनाएं पश्चिम दिशा से आगे बढ़ रही थीं और उन्होंने बर्लिन के पश्चिमी हिस्से को अपने अधिकार में ले लिया था। युद्ध समाप्त हुआ। जर्मनी दो हिस्सों में बंटा। जीडीआर याने पूर्वी जर्मनी की राजधानी पूर्वी बर्लिन बनी, जबकि पश्चिमी जर्मनी ने अपनी राजधानी बॉन में बसाई। बर्लिन के दोनों हिस्सों के बीच दीवाल उठनी खड़ी हुई जो 9 नवम्बर 1989 को गिराई गई। यह फिल्म यह संकेत भी देती है कि यद्यपि जीडीआर सोवियत संघ के प्रभामंडल में था, लेकिन आमतौर पर जनता में इसके खिलाफ असंतोष था।
हिडन फिगर्स या छुपे हुए अंक की कथा और अद्भुत है। 1960-61 में अमेरिका में रंगभेद-विरोधी आंदोलन जोरों पर था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर की लोकप्रियता चरम पर थी। अमेरिका के अनेक राज्यों में रंगभेद-विरोधी कानून लागू हो चुके थे। लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी थे जो बदलाव के लिए तैयार नहीं थे। उन्हीं में से एक राज्य था वेस्ट वर्जीनिया। इसी प्रांत में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का एक प्रमुख केन्द्र संचालित था। यहां काम करने आती हैं तीन अश्वेत महिलाएं जो स्कूल-कॉलेज में मेधावी छात्राएं मानी जाती थीं। विशेषकर गणित में उन्हें महारत हासिल थी। इन्हें नौकरी मिल तो जाती है, लेकिन कार्यालय में इन्हें हर तरह से रंगभेद और नस्लभेद का सामना करना पड़ता है। इनसे काम तो खूब लिया जाता है, परंतु क्षमता के अनुसार अवसर और पद नहीं दिए जाते। नासा के विशाल कैम्पस में इनके लिए बाथरूम भी दूर किसी कोने में था। गौरांग सहयोगियों के लिए जिस केटली में चाय बनती थी उसे उन्हें छूने का भी हक नहीं था। लेकिन इन महिलाओं की हिम्मत की दाद देनी होगी। इस भेदभाव के खिलाफ वे लगातार लड़ती हैं, अपनी क्षमताओं का निरंतर विकास करती हैं और बहुत धीमी रफ्तार से सही, कार्यालय में अपना लोहा मनवाकर रहती हैं।
उन दिनों सोवियत रूस और अमेरिका दोनों के बीच अंतरिक्ष में जाने की होड़ लगी थी। सबसे पहले सोवियत संघ ने यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेज कर बाजी मारी थी। अमेरिका अब कैसे पीछे रहता? वह भी उपग्रह से अंतरिक्ष में यात्रियों को भेजना चाहता है। इसमें ये तीनों अश्वेत महिलाएं महत्वपूर्ण ही नहीं, केन्द्रीय भूमिका निभाती हैं। अंतरिक्ष यात्री जॉन ग्लैन उस वक्त तक उड़ान भरने के लिए तैयार नहीं होते जब तक अंतरिक्ष में जाने और लौटने के गणितीय सूत्रों की पुष्टि कैथरीन जॉनसन नहीं कर देती। वे इन तीन महिलाओं में से एक थीं और गणित विशेषज्ञ थीं; डोरोथी वॉन स्वाध्याय से कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनती हैं; और मैरी जैक्सन वेस्ट वर्जीनिया की अदालत में लड़कर प्री-इंजीनियरिंग पढ़ाई करने का हक हासिल करती हैं, वह भी ऐसे स्कूल में जहां सिर्फ श्वेत पुरुष पढ़ते हैं। इस तरह ये तीनों एक नया इतिहास रचती हैं। राष्ट्रपति ओबामा ने कैथरीन जॉनसन को 97 साल की आयु में अमेरिका के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया और नासा ने उनके सम्मान में केन्द्र का नामकरण किया।
चौथी कहानी इन सबसे ज्यादा मार्मिक है। शिन्डलर्स लिस्ट शीर्षक फिल्म को बने काफी समय बीत गया है। उसकी खूब चर्चाएं भी हुई हैं। इसमें ऑस्कर शिन्डलर नामक जर्मन उद्योगपति की कथा है जो हिटलर की नाजी पार्टी का सदस्य है। वह नाजी अधिकृत पोलैण्ड में कारखाना खोलता है। नाजी सैन्य अधिकारियों को लगातार रिश्वत देकर वह अपने कारखाने में जानबूझकर हजारों यहूदी कामगारों को भर्ती करता है और इस तरह उन्हें नाजियों के हाथ मारे जाने से बचाता है। जब सोवियत फौजें पोलैण्ड व जर्मनी में नाजी फौजों को हटाकर मुक्त कर देती हैं तब तमाम यहूदी कामगार अपने हस्ताक्षर से एक प्रमाण पत्र शिन्डलर को देते हैं कि उसने हमारी जान बचाई है ताकि विजयी मित्र राष्ट्रों की सेना उसे युद्धबंदी न बना लें।
मैंने इन सारी फिल्मों का जिक्र क्यों किया? एक तो मुझे लगा कि कुछ अच्छी फिल्में देखी हैं तो उनकी संक्षिप्त जानकारी पाठकों के साथ साझा करूं। अगर उन्होंने ये फिल्में न देखी हों तो शायद देखने का मन हो जाए! लेकिन अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ये बायोपिक होकर भी बायोपिक नहीं हैं। इनमें से हरेक फिल्म जिस कालखंड का चित्रण करती हैं उसके इतिहास, भूगोल और राजनीति की झलक इनसे हमें मिलती है। एक मायने में ये हमारे यहां बनी बायोपिक जैसे पानसिंह तोमर, मिल्खा सिंह आदि से भिन्न हो जाती हैं। पहली फिल्म लॉयन उदात्त मानवीय चरित्र की गाथा है। लेकिन साथ-साथ यह भारत की तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति से रुबरू कराती है। अनाथालय में बच्चों के साथ दुव्र्यवहार और अनाचार, फर्जी समाजसेवी संस्था के कारनामे, ग्रामीण जीवन का दैन्य, यह सब भी इस फिल्म में संकेतों में व्यक्त हुआ है। दूसरी फिल्म अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर कैसी चालें चली जाती हैं इसका परिचय देती हैं। यू-2 टोही विमान का गिराया जाना और पायलट गैरी पावर्स की गिरफ्तारी अपने समय की बहुत बड़ी घटना थी जिसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भूचाल ला दिया था। यह आमतौर पर लोग नहीं जानते कि उसका पटाक्षेप कैसे हुआ। वकील जेम्स डोनावन के रूप में हम एक ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो एक सामान्य कामकाजी व्यक्ति है, लेकिन अचानक आई भीषण परिस्थिति में वह सूझबूझ और अपार धैर्य के साथ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। तीसरी फिल्म में अमेरिका में व्याप्त रंगभेद का बेहद प्रभावी वर्णन है। इसे देखकर भारत में दलितों और आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की वर्तमान स्थिति का ध्यान आ जाना स्वाभाविक है। जिस दुष्चक्र को अब तक टूट जाना चाहिए था वह दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। यह हमारे सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है। शिन्डलर लिस्ट में शिन्डलर को विदाई देते समय मजदूर उसे एक बिल्ला देते हैं जिस पर यहूदी धर्म सूत्र तालमुद की पंक्ति अंकित है- जो एक व्यक्ति की प्राणरक्षा करता है वह संपूर्ण मानवता की रक्षा करता है। शिन्डलर ने यही तो किया था। यह कथा भी भारत की वर्तमान परिस्थिति की ओर बरबस हमारा ध्यान खींचती है जहां विधर्मी को बचाने की बजाय उसे मारना अब ज्यादा श्रेयस्कर बल्कि पुण्यकार्य समझा जाने लगा है।  
अक्षर पर्व अप्रैल 2018 अंक की प्रस्तावना 

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