मेरे एलबम में एक तस्वीर है। शायद 1955-56 के आसपास की। इसमें बाबूजी (मायाराम सुरजन) अपने सहयोगियों को संबोधित कर रहे हैं। उनमें एक बीस-बाइस साल का युवक भी है, सुंदर सलोना चेहरा। ये गोविंद लाल वोरा हैं। बाबूजी उन दिनों नवभारत के तीनों संस्करणों नागपुर, जबलपुर, भोपाल का काम देखते थे और वोराजी रायपुर में पत्र के संवाददाता थे। मेरा उनके साथ परिचय अप्रैल 1964 में हुआ जब मैं स्थायी तौर पर रायपुर आ गया। यह संयोग है कि रायपुर आने के कुछ दिन बाद ही वोराजी के साथ न सिर्फ मुलाकात हुई बल्कि एक तीन दिनी यात्रा में हम लोग साथ रहे। दक्षिण-पूर्व रेलवे ने अपने विकास कार्यों की जानकारी देने के लिए एक प्रेस टूर आयोजित किया था जिसमें पी.आर. दासगुप्ता, मधुकर खेर, गोविंद लाल वोरा, मेघनाद बोधनकर, पद्माकर भाटे और मैं शामिल थे। रायपुर से भिलाई मार्शिलिंग यार्ड याने बीएमवाय चरौदा, भिलाईनगर, वहां से बिलासपुर के आगे कटनी लाइन पर चल रहा रेलपात दोहरीकरण आदि कार्य हमने देखे और लौटकर उनके बारे में रिपोर्ताज लिखे।
मेरा ख्याल है कि इस पहली मुलाकात में खेर साहब और वोरा जी ने मेरे बारे में कोई अच्छी राय नहीं बनाई होगी; एक तो मैं दल का सबसे कम उम्र सदस्य था; दूसरे जबलपुर से पढ़कर आया था तो स्वभाव में कुछ हेकड़बाजी थी; मैं तब सिगरेट भी पीता था और शुद्ध शाकाहारी नहीं था। यह सब उन्हें जमा नहीं और इसके लिए मुझे उनका उलाहना भी सुनना पड़ा। बहरहाल एक साल बाद ही एक चार दिवसीय यात्रा साथ-साथ करने का मौका पुन: आया। इस बार हम बैलाडीला गए। तब रायपुर से जगदलपुुर पहुंचने में ही दस घंटे से अधिक समय लग गया था। बैलाडीला में लौह अयस्क का उत्खनन प्रारंभ हो रहा था; डीबीके रेलवे लाइन बिछ रही थी; और बंगलादेश के विस्थापितों का दण्डकारण्य योजना के अंतर्गत पुनर्वास का काम चल रहा था। हम लोग नई-नई बिछ रही रेल लाइन को देखने ट्रॉली में बैठकर निकले। भांसी में तब बैलाडीला परियोजना का बेस कैम्प था। वहां रात को तंबुओं में सोए और इस तरह कुल मिलाकर चार दिन की कुछ-कुछ रोमांच भरी यात्रा पूरी हुई।
आज गोविंद लाल वोरा हमारे बीच नहीं हैं। जिस व्यक्ति को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा वह कुछ दिन की बीमारी के बाद ही एकाएक हमारे बीच से चला जाएगा यह कल्पनातीत था। मैंने उनके जैसे इस आयु में भी सक्रिय व्यक्ति बहुत कम देखे। ध्यान आता है कि इस समय वोरा जी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने 1950 के दशक में काम करना शुरू किया था और इस तरह साठ साल से कुछ अधिक समय तक उन्होंने पत्रकारिता की। काम करने का ऐसा सुदीर्घ अवसर बिरलों को ही प्राप्त हो पाता है। उन्होंने यद्यपि नवभारत से पत्रकारिता प्रारंभ की थी, लेकिन वे लंबे समय तक आकाशवाणी के संवाददाता भी रहे। 1983-84 में उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय अमृत संदेश की स्थापना की। इसके साथ-साथ वे अनेकानेक सामाजिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे। मेरा आकलन है कि वे व्यवहार कुशल तो थे ही, व्यवसायिक बुद्धि के भी धनी थे, जिसका भरपूर परिचय उन्होंने अपने जीवन में दिया।
यह रोचक संयोग है कि जिस पत्र समूह में बाबूजी ने एक लंबे समय तक अपनी सेवाएं दीं, गोविंद लाल वोरा भी उससे करीब तीस वर्ष तक जुड़े रहे। दूसरा संयोग है कि जब बाबूजी ने रायपुर से अखबार निकालना तय किया तो ठीक उसी समय उनके भूतपूर्व नियोक्ताओं ने भी रायपुर से ही नया संस्करण प्रारंभ करना तय किया और गोविंद लाल वोरा उसके पहले प्रबंधक और संपादक बनाए गए। यूं तो हमारे और वोरा जी के बीच संबंध मधुर ही थे, लेकिन व्यवसायिक प्रतिस्पर्द्धा के चलते इन संबंधों में कई बार तनावपूर्ण स्थितियां भी निर्मित हुईं। लेकिन मैं समझता हूं कि बाबूजी के प्रति गोविंद लाल वोरा का आदरभाव कभी कम नहीं हुआ। वे सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे थे और बाबूजी का उनके प्रति प्रेमभाव भी कभी घटा नहीं। दरअसल, रायपुर में एक ऐसा ठिकाना था जहां लगभग नियमत: सुबह ग्यारह बजे के करीब बाबूजी, खेर साहब, बसंत तिवारी, वोराजी और कभी-कभी मैं चाय पर मिला करते थे। जगह थी बाबूलाल टाकीज जिसके कर्ताधर्ता सतीश भैया याने सतीशचन्द्र जैन अत्यन्त प्रबुद्ध सामाजिक व्यक्ति थे। उनके कक्ष में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ देश-प्रदेश की राजनीति के अलावा पुस्तकों पर भी चर्चा होती थी।
गोविंद लाल वोरा के साथ मेरा संबंध सिर्फ पत्रकारिता तक सीमित नहीं था। वे रोटरी क्लब के पुराने सदस्य थे। मैं भी 1970 में सदस्य बन गया था। इस नाते भी हमारा नियमित संपर्क बना रहा। एक स्थिति ऐसी भी आई जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाकौशल) के चुनाव में वे और मैं आमने-सामने हो गए। उन्हें ओल्ड गार्ड का समर्थन हासिल था और मुझे युवा तुर्कों का। वे चुनाव जीते, मैं हारा। मुझे लगा कि मुझे जानबूझ कर हराया गया है। इसके चलते हमारे बीच अनबोलेपन तक की स्थिति बनी, लेकिन चार साल बाद जब मैं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर चुन लिया गया तब एक पल में तनाव दूर हो गया। मेरे साथियों ने हमारे घर पर ही प्रीतिभोज का आयोजन किया तो मैं वोराजी के घर गया और उन्हें साग्रह निमंत्रण देकर आया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद रोटरी ही नहीं, अनेक प्रसंगों में हम एक-दूसरे से सलाह-मशविरा करते रहे। एक नया संयोग इस बीच और जुड़ा। उनके पिता मोहन लाल वोरा और बाबूजी दोनों का निधन कुछ अंतराल से हुआ। वे दोनों रायपुर के प्राचीन गोकुल चन्द्रमा मंदिर के न्यासी थे। उनकी जगह पर हम लोगों को मनोनीत किया गया। वोराजी तो शायद उसमें बने रहे, लेकिन मुझे ट्रस्ट की रीति-नीति समझ नहीं आई तो मैं उसे जल्दी ही छोड़कर बाहर आ गया।
आज वोराजी के बारे में लिखने बैठा हूं तो उनका शांत, सौम्य और सुंदर चेहरा बार-बार आंखों के सामने आ रहा है। मैं ही नहीं, उन्हें जानने वाले सभी लोग अचरज करते थे कि उम्र कैसे उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाई है। वे अपने ऑफिस नियमित रूप से जाते थे। देर शाम तक बैठते थे। उनको लोगों ने गुस्सा करते हुए शायद ही कभी देखा हो और एक पत्रकार के लिए उचित उनके संपर्क समाज के सभी वर्गों से थे। कांग्रेसी हों या भाजपाई, कम्युनिस्ट हों या समाजवादी, वे सबके विश्वासभाजन थे। एक समय तो श्यामाचरण शुक्ल ने महाकौशल का भार भी उन पर डाल दिया था। यह एक अजूबा ही था कि एक ही व्यक्ति दो प्रतिस्पर्धी अखबारों को एक साथ संभाल रहा है। मधुकर खेर और गोविंद लाल वोरा ने एक समय ''नभ'' नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रारंभ किया था, लेकिन नियोक्ताओं की नाराजगी के चलते उसे जल्दी ही बंद कर देना पड़ा था। वैसे वोराजी में लोगों को पहचानने की क्षमता बखूबी थी। वे जानते थे कि कौन व्यक्ति कितने काम का है और वे ऐसे संबंधों में एक व्यवहारिक दृष्टि रखते थे। दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनको जीवन में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने मुक्त भाव से सहायता की। बातें बहुत सी हैं, कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक बेहद निजी प्रसंग का जिक्र मुझे करना चाहिए।
31 दिसंबर 1994 की रात भोपाल में बाबूजी का अकस्मात निधन हुआ। मैं सतना जाने के लिए सारनाथ एक्सप्रेस में बैठ चुका था। बिलासपुर स्टेशन पर खबर मिली तो किसी वाहन का प्रबंध कर तुरंत रायपुर लौटा। घर आया तो मालूम पड़ा कि आधी रात यह दुखद सूचना मिलते साथ घर पर सबसे पहले आने वाले व्यक्ति गोविंद लाल वोरा ही थे। ऐसे सहृदय और सदाशयी पारिवारिक मित्र तथा पत्रकारिता और रोटरी में वरिष्ठ साथी के जाने से मैं अपने जीवन में एक रिक्ति महसूस कर रहा हूँ।
देशबंधु में 31 मई 2018 को प्रकाशित