Wednesday, 30 May 2018

गोविंदलाल वोरा

                                               
मेरे एलबम में एक तस्वीर है।  शायद 1955-56 के आसपास की। इसमें बाबूजी (मायाराम सुरजन) अपने सहयोगियों को संबोधित कर रहे हैं। उनमें एक बीस-बाइस साल का युवक भी है, सुंदर सलोना चेहरा। ये गोविंद लाल वोरा हैं। बाबूजी उन दिनों नवभारत के तीनों संस्करणों नागपुर, जबलपुर, भोपाल का काम देखते थे और वोराजी रायपुर में पत्र के संवाददाता थे। मेरा उनके साथ परिचय अप्रैल 1964 में हुआ जब मैं स्थायी तौर पर रायपुर आ गया। यह संयोग है कि रायपुर आने के कुछ दिन बाद ही वोराजी के साथ न सिर्फ मुलाकात हुई बल्कि एक तीन दिनी यात्रा में हम लोग साथ रहे। दक्षिण-पूर्व रेलवे ने अपने विकास कार्यों की जानकारी देने के लिए एक प्रेस टूर आयोजित किया था जिसमें पी.आर. दासगुप्ता, मधुकर खेर, गोविंद लाल वोरा, मेघनाद बोधनकर, पद्माकर भाटे और मैं शामिल थे। रायपुर से भिलाई मार्शिलिंग यार्ड याने बीएमवाय चरौदा, भिलाईनगर, वहां से बिलासपुर के आगे कटनी लाइन पर चल रहा रेलपात दोहरीकरण आदि कार्य हमने देखे और लौटकर उनके बारे में रिपोर्ताज लिखे।
मेरा ख्याल है कि इस पहली मुलाकात में खेर साहब और वोरा जी ने मेरे बारे में कोई अच्छी राय नहीं बनाई होगी; एक तो मैं दल का सबसे कम उम्र सदस्य था; दूसरे जबलपुर से पढ़कर आया था तो स्वभाव में कुछ हेकड़बाजी थी; मैं तब सिगरेट भी पीता था और शुद्ध शाकाहारी नहीं था। यह सब उन्हें जमा नहीं और इसके लिए मुझे उनका उलाहना भी सुनना पड़ा। बहरहाल एक साल बाद ही एक चार दिवसीय यात्रा साथ-साथ करने का मौका पुन: आया। इस बार हम बैलाडीला गए। तब रायपुर से जगदलपुुर पहुंचने में ही दस घंटे से अधिक समय लग गया था। बैलाडीला में लौह अयस्क का उत्खनन प्रारंभ हो रहा था; डीबीके रेलवे लाइन बिछ रही थी; और बंगलादेश के विस्थापितों का दण्डकारण्य योजना के अंतर्गत पुनर्वास का काम चल रहा था। हम लोग नई-नई बिछ रही रेल लाइन को देखने ट्रॉली में बैठकर निकले। भांसी में तब बैलाडीला परियोजना का बेस कैम्प था। वहां रात को तंबुओं में सोए और इस तरह कुल मिलाकर चार दिन की कुछ-कुछ रोमांच भरी यात्रा पूरी हुई।
आज गोविंद लाल वोरा हमारे बीच नहीं हैं। जिस व्यक्ति को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा वह कुछ दिन की बीमारी के बाद ही एकाएक हमारे बीच से चला जाएगा यह कल्पनातीत था। मैंने उनके जैसे इस आयु में भी सक्रिय व्यक्ति बहुत कम देखे। ध्यान आता है कि इस समय वोरा जी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने 1950 के दशक में काम करना शुरू किया था और इस तरह साठ साल से कुछ अधिक समय तक उन्होंने पत्रकारिता की। काम करने का ऐसा सुदीर्घ अवसर बिरलों को ही प्राप्त हो पाता है। उन्होंने यद्यपि नवभारत से पत्रकारिता प्रारंभ की थी, लेकिन वे लंबे समय तक आकाशवाणी  के संवाददाता भी रहे। 1983-84 में उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय अमृत संदेश की स्थापना की। इसके साथ-साथ वे अनेकानेक सामाजिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे। मेरा आकलन है कि वे व्यवहार कुशल तो थे ही, व्यवसायिक बुद्धि के भी धनी थे, जिसका भरपूर परिचय उन्होंने अपने जीवन में दिया।
यह रोचक संयोग है कि जिस पत्र समूह में बाबूजी ने एक लंबे समय तक अपनी सेवाएं दीं, गोविंद लाल वोरा भी उससे करीब तीस वर्ष तक जुड़े रहे। दूसरा संयोग है कि जब बाबूजी ने रायपुर से अखबार निकालना तय किया तो ठीक उसी समय उनके भूतपूर्व नियोक्ताओं ने भी रायपुर से ही नया संस्करण प्रारंभ करना तय किया और गोविंद लाल वोरा उसके पहले प्रबंधक और संपादक बनाए गए। यूं तो हमारे और वोरा जी के बीच संबंध मधुर ही थे, लेकिन व्यवसायिक प्रतिस्पर्द्धा के चलते इन संबंधों में कई बार तनावपूर्ण स्थितियां भी निर्मित हुईं। लेकिन मैं समझता हूं कि बाबूजी के प्रति गोविंद लाल वोरा का आदरभाव कभी कम नहीं हुआ। वे सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे थे और बाबूजी का उनके प्रति प्रेमभाव भी कभी घटा नहीं। दरअसल, रायपुर में एक ऐसा ठिकाना था जहां लगभग नियमत: सुबह ग्यारह बजे के करीब बाबूजी, खेर साहब, बसंत तिवारी, वोराजी और कभी-कभी मैं चाय पर मिला करते थे। जगह थी बाबूलाल टाकीज जिसके कर्ताधर्ता  सतीश भैया याने सतीशचन्द्र जैन अत्यन्त प्रबुद्ध सामाजिक व्यक्ति थे। उनके कक्ष में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ देश-प्रदेश की राजनीति के अलावा पुस्तकों पर भी चर्चा होती थी।
गोविंद लाल वोरा के साथ मेरा संबंध सिर्फ पत्रकारिता तक सीमित नहीं था। वे रोटरी क्लब के पुराने सदस्य थे। मैं भी 1970 में सदस्य बन गया था। इस नाते भी हमारा नियमित संपर्क बना रहा। एक स्थिति ऐसी भी आई जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाकौशल) के चुनाव में वे और मैं आमने-सामने हो गए। उन्हें ओल्ड गार्ड का समर्थन हासिल था और मुझे युवा तुर्कों का। वे चुनाव जीते, मैं हारा। मुझे लगा कि मुझे जानबूझ कर हराया गया है। इसके चलते हमारे बीच अनबोलेपन तक की स्थिति बनी, लेकिन चार साल बाद जब मैं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर चुन लिया गया तब एक पल में तनाव दूर हो गया। मेरे साथियों ने हमारे घर पर ही प्रीतिभोज का आयोजन किया तो मैं वोराजी के घर गया और उन्हें साग्रह निमंत्रण देकर आया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद रोटरी ही नहीं, अनेक प्रसंगों में हम एक-दूसरे से सलाह-मशविरा करते रहे। एक नया संयोग इस बीच और जुड़ा। उनके पिता मोहन लाल वोरा और बाबूजी दोनों का निधन कुछ अंतराल से हुआ। वे दोनों रायपुर के प्राचीन गोकुल चन्द्रमा मंदिर के न्यासी थे। उनकी जगह पर हम लोगों को मनोनीत किया गया। वोराजी तो शायद उसमें बने रहे, लेकिन मुझे ट्रस्ट की रीति-नीति समझ नहीं आई तो मैं उसे जल्दी ही छोड़कर बाहर आ गया। 
आज वोराजी के बारे में लिखने बैठा हूं तो उनका शांत, सौम्य और सुंदर चेहरा बार-बार आंखों के सामने आ रहा है। मैं ही नहीं, उन्हें जानने वाले सभी लोग अचरज करते थे कि उम्र कैसे उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाई है। वे अपने ऑफिस नियमित रूप से जाते थे। देर शाम तक बैठते थे। उनको लोगों ने गुस्सा करते हुए शायद ही कभी देखा हो और एक पत्रकार के लिए उचित उनके संपर्क समाज के सभी वर्गों से थे।  कांग्रेसी हों या भाजपाई, कम्युनिस्ट हों या समाजवादी, वे सबके विश्वासभाजन थे। एक समय तो श्यामाचरण शुक्ल ने महाकौशल का भार भी उन पर डाल दिया था। यह एक अजूबा ही था कि एक ही व्यक्ति दो प्रतिस्पर्धी अखबारों को एक साथ संभाल रहा है। मधुकर खेर और गोविंद लाल वोरा ने एक समय ''नभ'' नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रारंभ किया था, लेकिन नियोक्ताओं की नाराजगी के चलते उसे जल्दी ही बंद कर देना पड़ा था। वैसे वोराजी में लोगों को पहचानने की क्षमता बखूबी थी। वे जानते थे कि कौन व्यक्ति कितने काम का है और वे ऐसे संबंधों में एक व्यवहारिक दृष्टि रखते थे। दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनको जीवन में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने मुक्त भाव से सहायता की। बातें बहुत सी हैं, कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक बेहद निजी प्रसंग का जिक्र मुझे करना चाहिए।
31 दिसंबर 1994 की रात भोपाल में बाबूजी का अकस्मात निधन हुआ। मैं सतना जाने के लिए सारनाथ एक्सप्रेस में बैठ चुका था। बिलासपुर स्टेशन पर खबर मिली तो किसी वाहन का प्रबंध कर तुरंत रायपुर लौटा। घर आया तो मालूम पड़ा कि आधी रात यह दुखद सूचना मिलते साथ घर पर सबसे पहले आने वाले व्यक्ति गोविंद लाल वोरा ही थे। ऐसे सहृदय और सदाशयी पारिवारिक मित्र तथा पत्रकारिता और रोटरी में वरिष्ठ साथी के जाने से मैं अपने जीवन में एक रिक्ति महसूस कर रहा हूँ। 
देशबंधु में 31 मई 2018 को प्रकाशित 

 

Sunday, 27 May 2018

बिलासपुर के रास्ते पर विरासत


जैसा कि सब जानते हैं स्थानीय और अंतर्देशीय दोनों तरह के यातायात में लगातार वृद्धि हो रही है। सड़कों पर हर तरह के वाहनों की संख्या बढ़ते जाने का एक परिणाम यह हुआ है कि गांव हो या शहर, उनका आंतरिक भूगोल बदलने लगा है। शहरों में निरंतर फ्लाई ओवर, रिंग रोड, आउटर में रिंग रोड बन रहे हैं। प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा करके फोरलेन और सिक्सलेन में परिवर्तित किया जा रहा है। कुछ सालों से एक्सप्रेस-वे की अवधारणा भी अमल में आने लगी है। कुछ समय पहले बनी फिल्म ट्रैफिक में प्रकारांतर से द्रुतगति परिवहन की चुनौतियों को ही दिखलाया गया है। भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के क्रमांक बदल दिए गए हैं। अब आपको अनेक स्थानों पर एनएच (नेशनल हाईवे) के साथ-साथ एएच (एशियन हाईवे) के संकेत पटल देखने मिलेंगे। इनका मतलब यह है कि भारत सारे एशिया को सड़क मार्ग से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण परियोजना में शामिल है।
रायपुर से आप चाहे नागपुर की तरफ जाएं, चाहे बस्तर की ओर, चाहे कोलकाता की दिशा पकड़ें या फिर बिलासपुर की- इन पर पड़ने वाले गांवों का भूगोल बदल गया है। छोटा गांव है तो बस्ती के बीच से गुजरने वाले राजमार्ग पर फ्लाई ओवर बन गया है ताकि लंबी दूरी के वाहन ऊपरी-ऊपरी निकल जाएं और गांव की दैनंदिन हलचल पर उसका असर न पड़े। जहां बड़े गांव हैं वहां बायपास बन रहे हैं। अभी रायपुर-बिलासपुर फोरलेन का काम चल रहा है और उसकी गति कुछ धीमी ही है, इसलिए दृश्य पूरा नहीं बदला है; लेकिन अगले चार-छह माह के भीतर जैसे ही काम पूरा होगा एक नया दृश्य तामीर हो जाएगा। धरसींवा का बायपास बन रहा है, आगे सिमगा का, फिर बैतलपुर और बिलासपुर शहर के बाहर भी बायपास या रिंग रोड बन रहे हैं। जिन्हें आगे जाना है उन्हें बस्ती के भीतर से गुजरने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
एक समय रायपुर से बिलासपुर की सड़क यात्रा साढ़े तीन-चार घंटे में पूरी होती थी। ट्रेन से जाना अधिक सुविधाजनक था। फिर सड़क टू लेन बनी तो ढाई घंटे लगने लगे। अभी निर्माणाधीन मार्ग पर तीन घंटे से कम नहीं लगते। काम पूरा होने के बाद एक सौ पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय करने में शायद उतने ही मिनट लगेंगे। इसमें एक बाधा अवश्य है। एक शहर में अपने गंतव्य से दूसरे शहर में निर्धारित स्थान में पहुंचने में शहरी क्षेत्र के भीड़ भरे यातायात में जो समय लग जाता है उनकी गणना नहीं की गई है। खैर! ये सारे बायपास बन जाने का एक परिणाम यह होगा कि इस रास्ते पर जो विशेष उल्लेखनीय अथवा दर्शनीय स्थान हैं वे काफी कुछ आंखों से ओझल हो जाएंगे। यूं तो कामकाजी लोगों को रास्ते में रुककर इन सबको देखने का समय कहां होता है, लेकिन अभी जो उड़ती निगाह से जो देख लेते थे वह भी आगे नहीं हो पाएगा। मौका लगा है तो ऐसे कुछ स्थानों की बात कर ली जाए।
रायपुर से मात्र अठारह किलोमीटर की दूरी पर चरौदा का शिव मंदिर है। शिवरात्रि के समय रायपुर से भारी संख्या में श्रद्धालु वहां एकत्र होते हैं। इस मंदिर का इतिहास पुराना होकर भी नया है। यहां दसवीं-ग्यारहवीं सदी का शिव मंदिर था, जो पूरी तरह भंग हो चुका था और समय के साथ मिट्टी के टीले के नीचे दब गया था। 1960-62 के आसपास बाबू खान यहां के सरपंच बने। उनका ध्यान टीले की ओर गया, खुदाई हुई, भग्नावशेष मिले। वहां से जरा सा हटकर एक नया शिव मंदिर बाबू खान के संकल्प से बना। ग्रामवासियों ने उसमें आर्थिक सहयोग के साथ-साथ श्रमदान भी किया। यह एक सुंदर शांतिदायक स्थान है, लेकिन शायद निर्माण संबंधी किसी चूक के कारण मंदिर जर्जर हो रहा है। इसे नए सिरे से बनाने के लिए गांव के वर्तमान सरपंच, अन्य ग्रामवासी और स्वर्गीय बाबू खान के बेटे उत्साह से जुटे हैं। विधायक द्वय देवजी पटेल और बृजमोहन अग्रवाल ने इसमें अपनी ओर से सहयोग की पहल की है। 
यहां से हम आगे बढ़ते हैं तो कूंरा या कुंवरगढ़ में आज भी जीवित पचास से अधिक तालाब दिखाई देते हैं। कुछ किलोमीटर आगे जाने पर तरपोंगी या भूमिया होकर सोमनाथ पहुंचते हैं जहां खारून और शिवनाथ का संगम है और घना जंगल जैसा है जिसमें पेड़ काटने की मनाही है। यहां लोग पिकनिक मनाने आते हैं और सुंदर स्थान पर कचरा फेंक कर चले जाते हैं। सिमगा नगर के तुरंत बाद सड़क के दोनों तरफ दूधी या कुटज के फूलों का जंगल है। बरसात में इनके फूलों की सुगंध मन मोह लेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अशोक और शिरीष के अलावा कुटज पर भी ललित निबंध लिखा था। फिर आता है कबीरपंथियों का अत्यन्त महत्वपूर्ण मठ दामाखेड़ा। उसी के पास धोबनी गांव में चितावरी देवी का पुरातात्विक मंदिर है। नांदघाट पुल आने के थोड़ा पहले विश्रामपुर में छत्तीसगढ़ का पहला गिरजाघर है जो लगभग डेढ़ सौ साल पहले बना था। इसके प्राचीन स्वरूप की रक्षा करने के बजाय नया रूप दे दिया गया है।
नांदघाट के बाद बैतलपुर है जहां कोई सवा सौ साल पहले ईसाई मिशनरियों ने प्रदेश का पहला कुष्ठ रोग अस्पताल प्रारंभ किया था। यहां का गिरजाघर भी एक सौ दस साल पुराना है। बैतलपुर से ही मदकू द्वीप का रास्ता जाता है जहां ईसाई और सनातन धर्म दोनों की उपस्थिति है और साथ में है शिवनाथ नदी का मनोहारी दृश्य। आगे सरगांव में अकबर खान की महलनुमा पुरानी हवेली के अस्थिपंजर हैं जबकि मुख्यमार्ग से कुछ ही दूर पर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित तेरहवीं सदी का शिव मंदिर है। मजेदार तथ्य यह है कि धूमेश्वर महादेव की पूजा स्थानीय निवासी धूमेश्वरी दाई के नाम पर करते हैं। सरगांव के आगे मनियारी नदी पार कर आप ताला जा सकते हैं जिसकी देश दुनिया में चर्चा है, लेकिन सरकार की ओर से इसका प्रबंध बिल्कुल भी ठीक नहीं है। 
अगर आप पर्यटन प्रेमी हैं तो इस लेख की कतरन संभाल कर रख लीजिए। फोरलेन सड़क जब बन जाए तो बायपास छोड़ कर रास्ते के इन गांवों में जाइए और देखिए कि छत्तीसगढ़ प्रदेश प्राकृतिक और निर्मित दोनों तरह की विरासत के मामले में कितना धनी है। इन स्थानों पर आपको प्रदेश के साम्प्रदायिक सौहार्द्र के दर्शन भी होंगे। याने कुल मिलाकर मन की सुख शांति के लिए एक अच्छा अनुभव होगा। अब मैं आपको बिलासपुर में एक जगह और ले जाना चाहता हूं। वह एक रिहायशी मकान है और मैं उम्मीद करता हूं कि उस घर में रहने वाले आपका स्वागत भी करेंगे। लेकिन बिलासपुर में प्रवेश करने से पहले उल्टी दिशा में रायपुर-नागपुर रास्ते पर देवरी के एक घर की चर्चा भी क्यों न कर लें! करीब चालीस साल पहले बना यह घर मुझे आज भी लुभाता है। इसकी छत सीधी सपाट न होकर विभिन्न कोणों पर है और इस घर को पर्यावरण अनुकूल होने के नाते राष्ट्रीय स्तर पर कोई पुरस्कार भी मिल चुका है।
एक अनोखा घर रायपुर में भी है। रायपुर मेडिकल कॉलेज के भूतपूर्व डीन और सेवाभावी शल्य चिकित्सक डॉ. अशोक शर्मा ने बहुत प्रेम से यह घर बनाया है। मैंने रायपुर क्या, छत्तीसगढ़ में इससे अनूठा कोई घर अब तक नहीं देखा था। बिलासपुर के जिस घर की बात मैं कर रहा हूं वह एक अद्भुत प्रयोग है। वास्तुशिल्पी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रथमेश मिश्र ने अपना दुमंजिला घर मिट्टी, पत्थर, लकड़ी और बांस से बनाया है। वे सुप्रसिद्ध गांधीवादी वास्तुशिल्पी लॉरी बेकर से प्रभावित हैं कि पांच किलोमीटर के दायरे में जो सामग्री मिले उसी से घर बनना चाहिए। इस घर की दीवारें मिट्टी की हैं, खपरैल की छत है, पुराने दरवाजे हैं, फर्श कच्चा है, हर पन्द्रह दिन में गोबर से लिपाई होती है। गोंड कलाकारों ने आकर यहां दीवारों पर चित्र बनाए हैं। इस घर में कुछ समय बिताते हुए आप मानो सपनों के संसार में खो जाते हैं। यह घर रहने में सुविधाजनक है और देखने में भी कौतूहल भरी प्रसन्नता होती है। प्रथमेश के पिता हरदेव मिश्र देशबन्धु के सुधी पाठक हैं। उन्होंने कहा कि बहुत दिनों से आपका कोई यात्रा वृतांत नहीं पढ़ा। आज का यह लेख उनके लिए है।
देशबंधु में 24 मई 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 17 May 2018

तालाब सुखाने और पेड़ काटने का सुख


कुछ दिन पहले दो दिन के लिए बिलासपुर जाना हुआ। रायपुर से बिलासपुर के एक सौ पन्द्रह किलोमीटर लम्बे रास्ते पर कुछ बातें नोट करने लायक लगीं। सड़क किनारे के अनेक गांवों के तालाब पानी से लबालब थे। आज से पन्द्रह-बीस बरस पहले भी जब छत्तीसगढ़ के गांवों में जाना होता था तो दो तरह के तालाब दिखाई देते थे। एक तो वे जिन्हें हमारे पुरखों ने सौ-दो सौ-चार सौ साल पहले बनाया होगा। इन तालाबों के चारों ओर आम, पीपल, डूमर इत्यादि छायादार वृक्ष निश्चित रूप से होते थे। किसी-किसी तालाब की पार पर गांव के इष्ट देवता की मढ़िया भी दिख जाती थी और इन तालाबों में जेठ-बैसाख की गर्मी में भी पानी बराबर भरा होता था जिससे गांव की जीवनचर्या चलती थी। दूसरे किस्म के तालाब वे जिन्हें सरकारी तालाब कहा जा सकता है। ये तालाब गर्मी आते-आते तक सूख जाते थे और एक तरह से गांव के परिदृश्य में उदासी भरते थे। अभी जिन तालाबों को लबालब देखा वे अधिकतर सरकारी तालाब ही थे। तालाब के पास बोर खोदकर उसका पानी इनमें भरा जाता है। इस अनुमान की पुष्टि एक-दो जानकारों ने की है। ठीक है कि अभी काम चल रहा है, लेकिन क्या इससे भूजल के स्तर में गिरावट नहीं आ रही होगी? 
बिलासपुर में भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के अध्याय संयोजकों की सालाना बैठक आयोजित थी। संयोग से इस सभा में भी प्रदेश के तालाबों का सवाल उठा। यह तथ्य फिर सामने आया कि प्रदेश के तालाब धीरे-धीरे कर समाप्त हो रहे हैं। अनेक स्थानों पर जल संधारण के ये पारंपरिक स्रोत बस्ती के बीच में आ गए हैं जिसके चलते इन पर रीयल एस्टेट और भू-माफियाओं की नजर गड़ गई है। उनका लालच कहता है कि तालाब पाटकर व्यवसायिक परिसर आदि बना दें तो खासी कमाई हो जाएगी। लालच के त्रिभुज को जनप्रतिनिधि और अधिकारी पूरा करते हैं। सबको अपना-अपना हिस्सा मिलने की उम्मीद जो रहती है। लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। उक्त बैठक में इंटैक के दुर्ग-भिलाई अध्याय की प्रतिनिधि और लेखिका विद्या गुप्ता ने चिंता व्यक्त की कि मंदिरों का निर्माल्य और प्रतिमा विसर्जन आदि से भी बहुत से तालाब धीरे-धीरे कर पट गए हैं और इसके लिए कोई उपाय करने की आवश्यकता है।
एक तीसरा कारण और जोड़ा जा सकता है। सस्ती वाहवाही लूटने के चक्कर में हमारे नेतागण जगह-जगह पर तालाबों का सौन्दर्यीकरण कर रहे हैं। जिस तालाब में पानी भरा हो, जिसके घाट पर लोग-बाग आकर बैठते-बतियाते हों, वह अपने आप में एक सुंदर रचना है। उसे आप क्या खाक सुंदर बनाएंगे? बस इसके नाम पर लाखों रुपए की हेरा-फेरी अवश्य हो जाती होगी। मुझे अपने आत्मीय मित्र स्वर्गीय अनुपम मिश्र का स्मरण हो आता है जिन्होंने ''आज भी खरे हैं तालाब'' जैसी मूल्यवान पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की लाखों प्रतियां बिकीं और बंटीं, लेकिन अनुपम भाई ने कोई रायल्टी नहीं ली कि पुस्तक तो समाज के लिए लिखी गई है। अगर आज भी हम इसे पढ़ें और प्रेरणा लें तो तालाबों को बचाया जा सकता है।
इस संदर्भ में सबसे मार्के की बात यह है कि अभी कोई सौ बरस पहले तक गांव का समाज स्वप्रेरणा से तालाबों की सफाई करता था। सामूहिक श्रमदान से गाद निकाली जाती थी। उससे झिरें खुलती थीं और बिना बिजली की मोटर के तालाबों में ताजा पानी भरने लगता था। अब हम अपने श्रम और अपनी बुद्धि पर भरोसा करना छोड़ सरकार के मोहताज हो गए हैं। हमारी निगाहें टिकी रहती हैं कि मुख्यमंत्री या कोई और नेता, मंत्री, साहब आए और गांव को करोड़ों की सौगात देने की घोषणा करे।  इस परजीवी सामाजिक प्रवृत्ति का एक अपवाद मैंने कुछ साल पहले डोंगरगांव के पास आदिवासी ग्राम कुमरदा में देखा था। युवा सामाजिक कार्यकर्ता रवि मानव की प्रेरणा, प्रयत्नों से गांव के लोग इकट्ठा होते थे और सामूहिक श्रमदान कर गांव के तालाब की गाद निकालकर उसे फिर उपयोगी बनाते थे। मालूम नहीं, प्रदेश का यह अनूठा प्रयोग अभी जारी है या नहीं और किसी दूसरे गांव ने इस प्रयोग को दोहराने का बीड़ा उठाया या नहीं। यदि अपने तालाबों को बचाने के लिए हम सामूहिक श्रमदान का संकल्प ले सकें तो एक नई शुरूआत हो सकती है।
बहरहाल, इस ताजा बिलासपुर यात्रा में मैंने एक तरफ तो यह देखा कि रास्ते के तमाम वृक्ष काटे जा चुके हैं और दूसरी ओर बिलासपुर शहर का तापमान रायपुर से अधिक रहने लगा है। राजमार्ग के पेड़ इसलिए कटे क्योंकि सड़क को फोरलेन बनाया जा रहा है। मैं मानता हूं कि देश में सभी तरफ बेहतर सड़कों की आवश्यकता है। देश के भीतर परिवहन की गति और सुरक्षा दोनों बढ़ाने की आवश्यकता है। भारत वैश्विक अर्थतंत्र का हिस्सा है और उसकी भी यही मांग है। रूपक रचना हो तो कहूंगा कि रॉकेट युग में बैलगाड़ी की रफ्तार से चलना अब वांछित नहीं है। इसके विस्तृत कारणों में नहीं जाऊंगा। लेकिन ध्यान आता है कि जब रायपुर नगर से विमानतल के रास्ते के सैकड़ों वृक्षों को बचाने के लिए योजना बन सकती है तो क्या बिलासपुर के मार्ग पर लगे ऊंचे घने पेड़ों को बचाना संभव नहीं था? हमारे देश में गर्मियां लंबी होती हैं। तीखी धूप का सामना कई महीनों तक करना पड़ता है। ये सड़क किनारे के पेड़ राहगीरों को सुकून पहुंचाते थे। इस बारे में सड़क बनाने वाले विभागों ने ध्यान नहीं दिया, इसकी तारीफ नहीं की जा सकती।
मैं इस वृक्षहीन निचाट राजपथ पर यात्रा करते हुए यह भी देख रहा था कि रास्ते में पड़ने वाली जिन बरसाती नदियों, जिन्हें हम नाला कहते हैं, में पानी की एक बूंद नहीं थी। हमने पहले रपटे बनाए; बरसात में रपटों पर पानी आ जाता था; इसलिए छोटे पुल बनाए; और अब फोरलेन राजमार्ग पर उसकी गरिमा के अनुसार ऊंचे पुल बना रहे हैं। लेकिन अफसोस, पानी लगातार सूखते जा रहा है। रायपुर शहर के बाहर धनेली के पास छोकरा नाला में थोड़ा पानी था लेकिन कुछ आगे धरसींवा के बाद कोल्हान नाला पूरी तरह सूखा हुआ था और यह स्थिति बिलासपुर तक हर जगह थी। इन नालों के दोनों किनारों पर स्थानीय भाषा में कौहा अर्थात अर्जुन के वृक्षों की कतारें हुआ करती थीं, वे भी अब देखने नहीं मिलतीं। बुद्धिमान लोगों ने नदियों और नालों तक का अतिक्रमण कर जमीनें हथिया लीं हैं।
बिलासपुर के निकट सीपत में जब एनटीपीसी का ताप विद्युत संयंत्र लगने जा रहा था तभी आशंका जतलाई गई थी कि इससे बिलासपुर की आबोहवा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उस समय इस बारे में की गई आपत्तियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था। मुझे रायपुर में बैठकर लगता था कि एनटीपीसी सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है इसलिए वह पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। उन्होंने इस संबंध में जो कुछ भी किया हो, बिलासपुर की आम जनता को लगता है कि बिजलीघर के कारण शहर का तापमान बढ़ गया है। यही नहीं, बिलासपुर में भी सड़कों को विस्तृत करने और ऐसी ही योजनाओं के कारण बड़ी संख्या में पेड़ काट दिए गए। आम, नीम, इमली के दो-दो सौ साल पुराने पेड़ कथित विकास की बलि चढ़ गए हैं। यूं तो कोई भी योजना, कोई भी प्रकल्प प्रारंभ करने से पहले उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए, लेकिन हमारे प्रदेश में इस बारे में जागरूकता नहीं के बराबर है।
बिलासपुर के साथ-साथ कुछ बात रायपुर की भी क्यों न कर लें। सब जानते हैं कि रायपुर के दक्षिण-पूर्व में नया रायपुर नाम का एक नया शहर आकार ले रहा है। प्रदेश का मंत्रालय, बहुत सारे निदेशालय और मुख्यालय यहां शिफ्ट हो चुके हैं। आगे-पीछे राज्यपाल, मुख्यमंत्री वगैरह के राजप्रासाद भी यहीं बनेंगे। खूब चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं, बाग-बगीचे हैं, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है, जंगल सफारी है तो भाई! हॉकी स्टेडियम भी वहीं बना लेते, दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर आडिटोरियम भी वहीं बन जाता, और भी जो आपको करना था सब वहीं कर लेते।  रायपुर के साइंस कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, आयुर्वेदिक कॉलेज के मैदानों को नष्ट कर इमारतें खड़ी करने में आपको कौन सा सुख मिल रहा है और रायपुर की जनता के लिए इनका क्या उपयोग है? आपकी उदारता धन्य है कि हमें बिना मांगे ही सौगातें दिए जा रहे हैं।  


देशबंधु में 17 मई 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 10 May 2018

केयूर भूषण

                                   
 
केयूर भूषण अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में सोचते हुए मुझे अनायास देशबन्धु के साप्ताहिक पृष्ठ मड़ई का ध्यान आता है। यह नाम उन्होंने ही दिया था। वैसे तो देशबन्धु में 1968 से छत्तीसगढ़ी में एक साप्ताहिक स्तंभ प्रकाशित होता था, जिसकी शुरूआत बाबूजी के कॉलेज के दिनों के मित्र टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा ने की थी; किन्तु यह केयूर भूषण का ही परामर्श और प्रेरणा थी कि अखबार में छत्तीसगढ़ी भाषा में सप्ताह में कम से कम एक दिन पूरे पन्ने की सामग्री दी जाए। मुझे उनकी यह सलाह तुरंत जंच गई थी और इस तरह देश के किसी भी अखबार में संभवत: पहली बार जनपदीय भाषा को सम्मान के साथ स्थान मिला। केयूर भूषण जी ने सिर्फ सलाह ही नहीं दी; उन्होंने इस स्तंभ के लिए काफी नियमितता के साथ लेख इत्यादि भी लिखे। मड़ई की संपादक सुधा वर्मा ने बीते रविवार को इस बारे में विस्तार से लिखा है।
केयूर भूषण स्वाध्यायी व्यक्ति थे। उनकी औपचारिक शिक्षा कितनी हुई यह मुझे नहीं पता किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में उन्होंने पर्याप्त लेखन किया है। स्मरण आता है कि एक समय दिल्ली के नवभारत टाइम्स में समसामयिक विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। देशबन्धु में भी संपादकीय पृष्ठ पर उनके विचारपूर्ण लेख लगातार प्रकाशित होते रहे। हमने जब सांध्य दैनिक हाईवे चैनल का प्रकाशन प्रारंभ किया तो केयूर भूषण जी को उसका मानसेवी विशेष संवाददाता मनोनीत किया था। मैं आज जहां बैठता हूं, उसी कमरे में हाईवे चैनल के प्रधान संपादक प्रभाकर चौबे और विशेष संवाददाता केयूर भूषण की टेबलें साथ-साथ लगी थीं। यह अलग बात है कि उनकी रुचि बंधकर काम करने में नहीं थी, इसलिए वे नियमित रूप से तो नहीं, जब जैसा मन हुआ पत्र के लिए रिपोर्टिंग करते रहे।
यह सर्वविदित है कि केयूर भूषण ने अनेक पुस्तकों की रचना की है। उन्होंने कविताएं लिखीं, कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखा और इस तरह छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने में भरसक भूमिका निभाई।  लेकिन मेरा मानना है कि कविता, कहानी में उनकी उतनी रुचि नहीं थी, अपितु वे एक  अच्छे निबंधकार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर अंतर्दृष्टि के साथ लिखा। देश की राजनीतिक परिदृश्य पर भी उनकी बराबर नज़र रहती थी, और वैश्विक राजनीति की भी उन्हें परख थी। उनके इन निबंधों का कोई संकलन संभवत: अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है! कह सकते हैं कि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में अपने समकालीन राजनेताओं में इस मामले में वे एक अपवाद थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के अल्पज्ञात स्वाधीनता सेनानियों पर भी शोध करके काफी सामग्री जुटाई तथा उनकी गौरव गाथा को पहली बार जनता के समक्ष रखा। यद्यपि उनके आकलन में कुछ ऐसे नाम भी जुड़ गए जो संभवत: इस सूची में स्थान पाने योग्य नहीं थे!
केयूर भूषण ने एक किशोर स्वाधीनता सेनानी के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी। अंग्रेजों के राज में उन्हें कृष्ण मंदिर में कुछ समय बिताना पड़ा था। इसके बाद उनका झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर हो गया था। मुझे नहीं पता कि वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे या नहीं। आगे चलकर वे कांग्रेस में आ गए थे। यहां उनकी दिलचस्पी सत्ता या चुनाव की राजनीति में नहीं थी। वे गांधीवाद से प्रभावित थे और रचनात्मक कार्यक्रम की ओर उनका झुकाव हो गया था। इस कारण जनता के बीच उनकी पहचान एक सर्वोदयी कार्यकर्ता की बन गई थी। वे इस दौर में हरिजन सेवक संघ से जुड़े और जीवन भर जुड़े रहे।
यह जानना दिलचस्प है कि एक कांग्रेसी-सर्वोदयी केयूर भूषण और दूसरे कम्युनिस्ट रामसहाय तिवारी, इन दो द्विजों ने जात-पांत, छुआ-छूत, प्रचलित रूढ़ियां इन सब का निषेध करते हुए प्रदेश में दलित समाज को मानवीय गरिमा और न्यायपूर्ण व्यवहार दिलवाने के लिए आजीवन संघर्ष किया। संभव है कि इस दिशा में काम करने के लिए उन्हें पंडित सुंदरलाल शर्मा के जीवन वृत्त से प्रेरणा मिली हो! केयूर भूषण ने इस मिशन पर काम करते हुए तरह-तरह की बाधाएं झेलीं। यहां तक कि दो बार उन्होंने अपनी जान खतरे में डाली। यह 1986 का प्रकरण है जब उन्होंने राजस्थान में स्थित वैष्णव तीर्थ नाथद्वारा में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन किया था। उसके कुछ समय बाद केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ के पांडातराई के एक शिव मंदिर में दलितों के प्रवेश की मुहिम की अगुवाई की थी और इसमें वे बुरी तरह घायल हो गए थे।
दरअसल केयूर भूषण ने सार्वजनिक जीवन में हमेशा एक सक्रिय भूमिका निभाई। वे घर पर बैठकर बयान जारी करने वाले फर्जी नेता नहीं थे। दलित समाज के प्रति उनके मन में सच्ची और गहरी संवेदना थी और अन्य वंचित समुदायों के प्रति भीकुल मिलाकर सर्वहारा के प्रति उनकी यही सोच थी। ट्रेड यूनियन में काम करने वाले पुराने मित्र बताते हैं कि केयूर भूषण ने उनके आंदोलनों को बढ़-चढ़ कर अपना समर्थन दिया। इसके पीछे उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं थी। सिविल सोसायटी के साथी भी केयूर भूषण को इसीलिए सम्मान के भाव से देखते हैं। छत्तीसगढ़ में जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर उन्होंने सरकारी नीतियों का सदैव मुखर विरोध किया। उनके स्वास्थ्य ने जब तक साथ दिया वे ऐसे मंचों पर शिरकत करते रहे जहां जनता के हक में आवाज उठाई जाती हो।
छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुड़ूम प्रारंभ हुआ और उसमें होने वाली ज्यादतियों की खबरें सामने आईं तो केयूर भूषण उससे विक्षुब्ध हुए। दिल्ली से एक नागरिक जांच समिति बस्तर जाने के लिए रायपुर आई।  उसमें छत्तीसगढ़ में ही जन्मे, पले-बढ़े, स्वामी अग्निवेश भी थे। रायपुर के टाउन हाल में उनका कार्यक्रम रखा गया। केयूर भूषण इस सभा के अध्यक्ष थे। कुछ सरकार समर्थक तत्वों ने इस सभा में गड़बड़ करने की कोशिश की। उत्तेजित केयूर भूषण खड़े होकर सामने आ गए कि मैं खड़ा हूं जिसे जो करना है कर ले। तब मैं श्रोताओं के बीच से उठकर मंच पर गया और उनके व उपद्रवकारियों के बीच खड़ा हो गया ताकि हमारे इस बुजुर्ग नेता को कोई शारीरिक क्षति न पहुंचे। गनीमत थी कि बात आगे नहीं बढ़ी, लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने का ऐसा कृत्य रायपुर में हो सकता है, वह भी केयूर भूषण के साथ, यह सोचकर आज भी मन कड़वा हो जाता है।
केयूर भूषण ने शायद कभी इच्छा नहीं की होगी कि वे किसी दिन देश की संसद में बैठेंगे। 1980 में जब उन्हें कांग्रेस ने रायपुर लोकसभा सीट पर उम्मीदवार बनाया तो यह शायद उनके लिए भी अचरज भरी खबर थी। इंदिरा गांधी ने उन्हें टिकट दिया था। वे शायद हरिजन सेवक संघ में केयूर जी के काम से परिचित रही होंगी। शायद इंदिरा जी की विश्वस्त और सर्वोदय आंदोलन की प्रमुख नेत्री निर्मला देशपांडे ने उनका नाम सुझाया हो या फिर अर्जुन सिंह ने। जो भी हो, केयूर भूषण ने लोकसभा में अपनी पहली पारी पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाई व इंदिरा जी के विश्वास की रक्षा की। इसे जानकर ही पार्टी में राजीव गांधी व अर्जुन सिंह ने उन पर दुबारा भरोसा जताया और दूसरी बार भी उन्होंने सक्षम भूमिका निभाई।
केयूर भूषण के बारे में उनके दस साल के संसदीय जीवन में और उसके बाद भी कोई अपवाद नहीं उठा। वे सायकिल पर चलते थे और जब तक शरीर ने साथ दिया सायकिल की ही सवारी की। अगर उनके वश में होता तो स्वर्गलोक भी वे शायद सायकिल से ही जाना पसंद करते! मैं उन्हें अपनी और देशबन्धु परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
देशबंधु में 10 मई 2018 को प्रकाशित 

Thursday, 3 May 2018

पत्थरगड़ी, पेसा और स्वायत्त शासन


 
यह अखबार और मैं स्वयं प्रारंभ से छोटी प्रशासनिक इकाईयों के पक्षधर रहे हैं। इसीलिए हमने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की वकालत की थी और आज भी हमारी राय है कि एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में यदि आज पचास प्रांत भी बन जाते हैं तो इससे बेहतर प्रशासन की उम्मीद की जा सकती है। इसी तरह हम छोटे जिलों के भी पक्षधर रहे हैं। जब छत्तीसगढ़ में कुल जमा सात जिले थे तब हमने कांकेर, धमतरी, बलौदाबाजार, कवर्धा, बेमेतरा इत्यादि नए जिले बनाने की दृष्टि से अनेक स्थानों पर प्रस्तावित जिलों के विकास सम्मेलन किए थे। यह तस्वीर का एक पक्ष हुआ। इसके दूसरी तरफ यह भी आवश्यक है कि प्रशासनिक इकाईयां बड़ी हों या छोटी, उनको अधिकतम सीमा तक स्वायत्तता दी जाए। यदि सरकारी तंत्र में विकेन्द्रीकरण के बजाय केन्द्रीकरण पर जोर होगा तो कभी भी सुचारु शासन संभव नहीं हो सकता।
हमारे सामने तमाम दुनिया के उदाहरण हैं। ग्रेट ब्रिटेन स्पष्ट तौर पर चार हिस्सों में विभाजित है और उनमें से हरेक को पर्याप्त स्वायत्तता हासिल है। हमारा सत्ताधारी वर्ग जिस अमेरिका को अपना चरम आदर्श मानता है वहां भी पचास में से हर राज्य संघीय गणराज्य का सदस्य तो है, लेकिन हर बात के लिए संघ पर निर्भर नहीं है। ऐसा ही कनाडा में है। फिनलैंड जैसे छोटे देश में दो भाषाएं आधिकारिक हैं और सिंगापुर में चीनी व मलय के साथ तमिल को बराबरी की भाषा का दर्जा हासिल है। भारत की संकल्पना भी संघीय गणराज्य के रूप में की गई है, लेकिन इस अवधारणा के पीछे जो बुनियादी सिद्धांत हैं उनका पालन करने में सत्ताधारी वर्ग की रुचि कुछ कम ही दिखाई देती है। भारत में दर्जनों क्षेत्रीय दलों का उभरना इस केन्द्रीकृत मानसिकता के विरोध का उदाहरण है।
मैं याद करना चाहता हूं कि 1980 में जब अर्जुन सिंह पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की स्थापना की थी। रामचन्द्र सिंहदेव और पवन दीवान के साथ मैं भी उसका  सदस्य था। प्राधिकरण ने छत्तीसगढ़ के स्वायत्त विकास के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय उस समय लिए थे जिनकी लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है। मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने तो प्राधिकरण का कार्यालय रायपुर से हटाकर भोपाल ले जाया गया और स्वायत्तता के इस प्रयोग ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया। छत्तीसगढ़ राज्य बना और जब डॉ. रमन सिंह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बस्तर विकास प्राधिकरण तथा सरगुजा विकास प्राधिकरण गठित किए। वे स्वयं इनके अध्यक्ष हैं तथा नियमित रूप से इनकी बैठकें लेते हैं, लेकिन यह विचारणीय है कि इन प्राधिकरणों को कितनी स्वायत्ता है और किस हद तक ये प्रदेश की नौकरशाही का अंग हैं।
राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सदाशय का परिचय देते हुए देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था  लागू करने के लिए कदम उठाए थे। उन्हीं के चलते तिरहत्तरवां और चौहत्तरवां संविधान संशोधन विधेयक पारित किए गए। एक आशा जगी कि जनता को नौकरशाही के चंगुल से मुक्ति मिलेगी। खासकर ग्रामीण व आदिवासी जनता को अपने प्रत्यक्ष अनुभवों व जमीनी सच्चाईयों से वाकिफ होने के कारण तर्कसंगत ढंग से एक बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था मिल सकेगी। राजीव गांधी और नरसिम्हा राव ने पहल तो ठीक की, लेकिन उसे जाने -अनजाने अधूरा छोड़ दिया। मालूम नहीं क्या सोचकर प्रावधान किया गया कि पंचायती राज लागू करने के लिए राज्य सरकारें उपयुक्त नियम -उपनियम बनाएंगी। एक तरह से गेंद राज्यों के पाले में फेंक दी गई।
आज सिद्धांत रूप में तो सारे देश में पंचायती राज लागू हैं, लेकिन उसका व्यवहारिक पक्ष बहुत कमजोर और लचर है। जिस स्वायत्तता की कल्पना की गई थी वह एक सिरे से नदारद है। इसके अलावा विसंगतियां भी बहुतेरी हैं। कहीं पार्टी आधार पर चुनाव हो रहे हैं, तो कहीं गैर पार्टी आधार पर; कहीं सरपंच और महापौर का प्रत्यक्ष निर्वाचन है, तो कहीं अप्रत्यक्ष; कहीं एक हजार की जनसंख्या पर पंचायत है, तो कहीं पांच हजार पर; कहीं महापौर का कार्यकाल एक साल का है, तो कहीं पांच साल का। दुर्भाग्य यह है कि अनियमितता और भ्रष्टाचार की शिकायत मिले तो उसका ठीकरा निर्वाचित प्रतिनिधियों पर फोड़ा जाता है। सरकारी अमले का बाल बांका नहीं होता। मध्यप्रदेश के एक वाचाल मुख्यमंत्री ने रायपुर की एक सभा में कहा था कि पंचायती राज लागू होने से भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हो गया है। उन्हें इसमें क्या खुशी मिल रही थी, मैं नहीं समझ पाया।
अभी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में कुनकुरी के आसपास पत्थरगड़ी की जो घटनाएं सामने आयी है उसका विश्लेषण इस वृहत्तर परिपेक्ष्य में करने से ही बात संभलेगी। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने सहज संवेदनशील स्वभाव के अनुरूप कहा है कि जब तक संविधान के विपरीत कोई काम नहीं होता तब तक वे इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं देखते। हमें उनकी बात सुनकर आश्वस्त होना चाहिए, लेकिन एक संशय बना रहता है कि क्या प्रदेश का सत्ता वर्ग उनकी भावना के अनुरूप चलने हेतु प्रस्तुत है? यह प्रश्न सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसके मित्र संगठनों से भी है और राज्य के प्रशासन तंत्र से भी। बीते सप्ताह ही हमने सुना कि पत्थरगड़ी के खिलाफ भाजपा द्वारा एक प्रदर्शन किया गया। प्रशासनिक अमला वहां मौजूद था और उसकी उपस्थिति में आदिवासी समाज द्वारा गाड़े गए शिलालेख को क्षतविक्षत किया गया। लगभग एक माह पूर्व झारखंड के कुछ गांवों से पत्थरगड़ी अभियान अचानक प्रारंभ हुआ। जशपुर जिले में उसका ही अनुकरण हुआ है। झारखंड का आदिवासी समाज राजनीतिक दृष्टि से काफी सजग है। वहां राजनीति से इतर साहित्य, संस्कृति, उच्च शिक्षा, पत्रकारिता आदि में भी उनकी सक्रिय भागीदारी है।
इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ कुछ कमजोर था। फिर भी छत्तीसगढ़ और झारखंड इन दोनों राज्यों के गठन के समय आदिवासी समाज की आकांक्षा प्रज्वलित हुई थी कि वे अब अपने भाग्यविधाता स्वयं बनेंगे। ऐसा हो नहीं पाया। बावजूद इसके कि झारखंड में रघुवर दास के पहले का हर मुख्यमंत्री  आदिवासी ही था। छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के बाद जो स्थितियां निर्मित हुई उनसे यहां भी आदिवासियों का एक तरह से मोह भंग हुआ। यहां पिछली पीढ़ी के आदिवासी नेता एक के बाद एक हाशिए पर डाल दिए गए, इससे भी एक निराशाजनक तस्वीर निर्मित हुई।
झारखंड में पेसा का कितनी ईमानदारी के साथ पालन हो रहा है यह जानकारी मुझे नहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ के बारे में स्पष्ट कहा जा सकता है कि यहां सरकार की रुचि स्थानीय स्वशासन को ईमानदारी से लागू करने में बिल्कुल नहीं है। फिर बात चाहे नगर निगमों की हो या नगर पंचायतों की। पेसा क्षेत्र में हालात बदतर है। बस्तर में एक तरफ छठवीं अनुसूची लागू करने की मांग उठती है, तो दूसरी ओर पांचवी अनुसूची भी ठीक से लागू नहीं है। राज्यपाल पांचवी अनुसूची के इलाके में आदिवासी मंत्रणा परिषद की सलाह पर सीधे निर्णय ले सकते हैं, लेकिन जब स्वयं मुख्यमंत्री परिषद का अध्यक्ष हो तो फिर परिषद और सरकार के बीच क्या अंतर रह जाता है? राज्यपाल भी तो सत्तारूढ़ दल से टकराव मोल नहीं लेना चाहते।
इन सारी स्थितियों को देखते हुए मेरा मानना है कि पत्थरगड़ी आंदोलन के बारे में सरकार को पूर्वाग्रह और जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिए। न्यस्त स्वार्थ इसे ईसाई बनाम हिन्दू और आदिवासी बनाम गैर आदिवासी का मसला बना रहे हैं वह भी ठीक नहीं है। जिस पत्थरगड़ी की पूजा भाजपा के नंदकुमार साय जैसे वरिष्ठ नेता ने की हो तो उन जैसे नेता क्या सोच रहे हैं यह भी तो समझ लें। कुल मिलाकर यह मामला स्वायत्त शासन का है, विकेन्द्रीकरण का है। उस पर ईमानदारी से अमल होना चाहिए।

देशबंधु में 03 मई 2018 को प्रकाशित