जैसा कि सब जानते हैं स्थानीय और अंतर्देशीय दोनों तरह के यातायात में लगातार वृद्धि हो रही है। सड़कों पर हर तरह के वाहनों की संख्या बढ़ते जाने का एक परिणाम यह हुआ है कि गांव हो या शहर, उनका आंतरिक भूगोल बदलने लगा है। शहरों में निरंतर फ्लाई ओवर, रिंग रोड, आउटर में रिंग रोड बन रहे हैं। प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा करके फोरलेन और सिक्सलेन में परिवर्तित किया जा रहा है। कुछ सालों से एक्सप्रेस-वे की अवधारणा भी अमल में आने लगी है। कुछ समय पहले बनी फिल्म ट्रैफिक में प्रकारांतर से द्रुतगति परिवहन की चुनौतियों को ही दिखलाया गया है। भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के क्रमांक बदल दिए गए हैं। अब आपको अनेक स्थानों पर एनएच (नेशनल हाईवे) के साथ-साथ एएच (एशियन हाईवे) के संकेत पटल देखने मिलेंगे। इनका मतलब यह है कि भारत सारे एशिया को सड़क मार्ग से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण परियोजना में शामिल है।
रायपुर से आप चाहे नागपुर की तरफ जाएं, चाहे बस्तर की ओर, चाहे कोलकाता की दिशा पकड़ें या फिर बिलासपुर की- इन पर पड़ने वाले गांवों का भूगोल बदल गया है। छोटा गांव है तो बस्ती के बीच से गुजरने वाले राजमार्ग पर फ्लाई ओवर बन गया है ताकि लंबी दूरी के वाहन ऊपरी-ऊपरी निकल जाएं और गांव की दैनंदिन हलचल पर उसका असर न पड़े। जहां बड़े गांव हैं वहां बायपास बन रहे हैं। अभी रायपुर-बिलासपुर फोरलेन का काम चल रहा है और उसकी गति कुछ धीमी ही है, इसलिए दृश्य पूरा नहीं बदला है; लेकिन अगले चार-छह माह के भीतर जैसे ही काम पूरा होगा एक नया दृश्य तामीर हो जाएगा। धरसींवा का बायपास बन रहा है, आगे सिमगा का, फिर बैतलपुर और बिलासपुर शहर के बाहर भी बायपास या रिंग रोड बन रहे हैं। जिन्हें आगे जाना है उन्हें बस्ती के भीतर से गुजरने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
एक समय रायपुर से बिलासपुर की सड़क यात्रा साढ़े तीन-चार घंटे में पूरी होती थी। ट्रेन से जाना अधिक सुविधाजनक था। फिर सड़क टू लेन बनी तो ढाई घंटे लगने लगे। अभी निर्माणाधीन मार्ग पर तीन घंटे से कम नहीं लगते। काम पूरा होने के बाद एक सौ पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय करने में शायद उतने ही मिनट लगेंगे। इसमें एक बाधा अवश्य है। एक शहर में अपने गंतव्य से दूसरे शहर में निर्धारित स्थान में पहुंचने में शहरी क्षेत्र के भीड़ भरे यातायात में जो समय लग जाता है उनकी गणना नहीं की गई है। खैर! ये सारे बायपास बन जाने का एक परिणाम यह होगा कि इस रास्ते पर जो विशेष उल्लेखनीय अथवा दर्शनीय स्थान हैं वे काफी कुछ आंखों से ओझल हो जाएंगे। यूं तो कामकाजी लोगों को रास्ते में रुककर इन सबको देखने का समय कहां होता है, लेकिन अभी जो उड़ती निगाह से जो देख लेते थे वह भी आगे नहीं हो पाएगा। मौका लगा है तो ऐसे कुछ स्थानों की बात कर ली जाए।
रायपुर से मात्र अठारह किलोमीटर की दूरी पर चरौदा का शिव मंदिर है। शिवरात्रि के समय रायपुर से भारी संख्या में श्रद्धालु वहां एकत्र होते हैं। इस मंदिर का इतिहास पुराना होकर भी नया है। यहां दसवीं-ग्यारहवीं सदी का शिव मंदिर था, जो पूरी तरह भंग हो चुका था और समय के साथ मिट्टी के टीले के नीचे दब गया था। 1960-62 के आसपास बाबू खान यहां के सरपंच बने। उनका ध्यान टीले की ओर गया, खुदाई हुई, भग्नावशेष मिले। वहां से जरा सा हटकर एक नया शिव मंदिर बाबू खान के संकल्प से बना। ग्रामवासियों ने उसमें आर्थिक सहयोग के साथ-साथ श्रमदान भी किया। यह एक सुंदर शांतिदायक स्थान है, लेकिन शायद निर्माण संबंधी किसी चूक के कारण मंदिर जर्जर हो रहा है। इसे नए सिरे से बनाने के लिए गांव के वर्तमान सरपंच, अन्य ग्रामवासी और स्वर्गीय बाबू खान के बेटे उत्साह से जुटे हैं। विधायक द्वय देवजी पटेल और बृजमोहन अग्रवाल ने इसमें अपनी ओर से सहयोग की पहल की है।
यहां से हम आगे बढ़ते हैं तो कूंरा या कुंवरगढ़ में आज भी जीवित पचास से अधिक तालाब दिखाई देते हैं। कुछ किलोमीटर आगे जाने पर तरपोंगी या भूमिया होकर सोमनाथ पहुंचते हैं जहां खारून और शिवनाथ का संगम है और घना जंगल जैसा है जिसमें पेड़ काटने की मनाही है। यहां लोग पिकनिक मनाने आते हैं और सुंदर स्थान पर कचरा फेंक कर चले जाते हैं। सिमगा नगर के तुरंत बाद सड़क के दोनों तरफ दूधी या कुटज के फूलों का जंगल है। बरसात में इनके फूलों की सुगंध मन मोह लेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अशोक और शिरीष के अलावा कुटज पर भी ललित निबंध लिखा था। फिर आता है कबीरपंथियों का अत्यन्त महत्वपूर्ण मठ दामाखेड़ा। उसी के पास धोबनी गांव में चितावरी देवी का पुरातात्विक मंदिर है। नांदघाट पुल आने के थोड़ा पहले विश्रामपुर में छत्तीसगढ़ का पहला गिरजाघर है जो लगभग डेढ़ सौ साल पहले बना था। इसके प्राचीन स्वरूप की रक्षा करने के बजाय नया रूप दे दिया गया है।
नांदघाट के बाद बैतलपुर है जहां कोई सवा सौ साल पहले ईसाई मिशनरियों ने प्रदेश का पहला कुष्ठ रोग अस्पताल प्रारंभ किया था। यहां का गिरजाघर भी एक सौ दस साल पुराना है। बैतलपुर से ही मदकू द्वीप का रास्ता जाता है जहां ईसाई और सनातन धर्म दोनों की उपस्थिति है और साथ में है शिवनाथ नदी का मनोहारी दृश्य। आगे सरगांव में अकबर खान की महलनुमा पुरानी हवेली के अस्थिपंजर हैं जबकि मुख्यमार्ग से कुछ ही दूर पर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित तेरहवीं सदी का शिव मंदिर है। मजेदार तथ्य यह है कि धूमेश्वर महादेव की पूजा स्थानीय निवासी धूमेश्वरी दाई के नाम पर करते हैं। सरगांव के आगे मनियारी नदी पार कर आप ताला जा सकते हैं जिसकी देश दुनिया में चर्चा है, लेकिन सरकार की ओर से इसका प्रबंध बिल्कुल भी ठीक नहीं है।
अगर आप पर्यटन प्रेमी हैं तो इस लेख की कतरन संभाल कर रख लीजिए। फोरलेन सड़क जब बन जाए तो बायपास छोड़ कर रास्ते के इन गांवों में जाइए और देखिए कि छत्तीसगढ़ प्रदेश प्राकृतिक और निर्मित दोनों तरह की विरासत के मामले में कितना धनी है। इन स्थानों पर आपको प्रदेश के साम्प्रदायिक सौहार्द्र के दर्शन भी होंगे। याने कुल मिलाकर मन की सुख शांति के लिए एक अच्छा अनुभव होगा। अब मैं आपको बिलासपुर में एक जगह और ले जाना चाहता हूं। वह एक रिहायशी मकान है और मैं उम्मीद करता हूं कि उस घर में रहने वाले आपका स्वागत भी करेंगे। लेकिन बिलासपुर में प्रवेश करने से पहले उल्टी दिशा में रायपुर-नागपुर रास्ते पर देवरी के एक घर की चर्चा भी क्यों न कर लें! करीब चालीस साल पहले बना यह घर मुझे आज भी लुभाता है। इसकी छत सीधी सपाट न होकर विभिन्न कोणों पर है और इस घर को पर्यावरण अनुकूल होने के नाते राष्ट्रीय स्तर पर कोई पुरस्कार भी मिल चुका है।
एक अनोखा घर रायपुर में भी है। रायपुर मेडिकल कॉलेज के भूतपूर्व डीन और सेवाभावी शल्य चिकित्सक डॉ. अशोक शर्मा ने बहुत प्रेम से यह घर बनाया है। मैंने रायपुर क्या, छत्तीसगढ़ में इससे अनूठा कोई घर अब तक नहीं देखा था। बिलासपुर के जिस घर की बात मैं कर रहा हूं वह एक अद्भुत प्रयोग है। वास्तुशिल्पी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रथमेश मिश्र ने अपना दुमंजिला घर मिट्टी, पत्थर, लकड़ी और बांस से बनाया है। वे सुप्रसिद्ध गांधीवादी वास्तुशिल्पी लॉरी बेकर से प्रभावित हैं कि पांच किलोमीटर के दायरे में जो सामग्री मिले उसी से घर बनना चाहिए। इस घर की दीवारें मिट्टी की हैं, खपरैल की छत है, पुराने दरवाजे हैं, फर्श कच्चा है, हर पन्द्रह दिन में गोबर से लिपाई होती है। गोंड कलाकारों ने आकर यहां दीवारों पर चित्र बनाए हैं। इस घर में कुछ समय बिताते हुए आप मानो सपनों के संसार में खो जाते हैं। यह घर रहने में सुविधाजनक है और देखने में भी कौतूहल भरी प्रसन्नता होती है। प्रथमेश के पिता हरदेव मिश्र देशबन्धु के सुधी पाठक हैं। उन्होंने कहा कि बहुत दिनों से आपका कोई यात्रा वृतांत नहीं पढ़ा। आज का यह लेख उनके लिए है।
देशबंधु में 24 मई 2018 को प्रकाशित
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