केयूर भूषण अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में सोचते हुए मुझे अनायास देशबन्धु के साप्ताहिक पृष्ठ मड़ई का ध्यान आता है। यह नाम उन्होंने ही दिया था। वैसे तो देशबन्धु में 1968 से छत्तीसगढ़ी में एक साप्ताहिक स्तंभ प्रकाशित होता था, जिसकी शुरूआत बाबूजी के कॉलेज के दिनों के मित्र टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा ने की थी; किन्तु यह केयूर भूषण का ही परामर्श और प्रेरणा थी कि अखबार में छत्तीसगढ़ी भाषा में सप्ताह में कम से कम एक दिन पूरे पन्ने की सामग्री दी जाए। मुझे उनकी यह सलाह तुरंत जंच गई थी और इस तरह देश के किसी भी अखबार में संभवत: पहली बार जनपदीय भाषा को सम्मान के साथ स्थान मिला। केयूर भूषण जी ने सिर्फ सलाह ही नहीं दी; उन्होंने इस स्तंभ के लिए काफी नियमितता के साथ लेख इत्यादि भी लिखे। मड़ई की संपादक सुधा वर्मा ने बीते रविवार को इस बारे में विस्तार से लिखा है।
केयूर भूषण स्वाध्यायी व्यक्ति थे। उनकी औपचारिक शिक्षा कितनी हुई यह मुझे नहीं पता किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में उन्होंने पर्याप्त लेखन किया है। स्मरण आता है कि एक समय दिल्ली के नवभारत टाइम्स में समसामयिक विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। देशबन्धु में भी संपादकीय पृष्ठ पर उनके विचारपूर्ण लेख लगातार प्रकाशित होते रहे। हमने जब सांध्य दैनिक हाईवे चैनल का प्रकाशन प्रारंभ किया तो केयूर भूषण जी को उसका मानसेवी विशेष संवाददाता मनोनीत किया था। मैं आज जहां बैठता हूं, उसी कमरे में हाईवे चैनल के प्रधान संपादक प्रभाकर चौबे और विशेष संवाददाता केयूर भूषण की टेबलें साथ-साथ लगी थीं। यह अलग बात है कि उनकी रुचि बंधकर काम करने में नहीं थी, इसलिए वे नियमित रूप से तो नहीं, जब जैसा मन हुआ पत्र के लिए रिपोर्टिंग करते रहे।
यह सर्वविदित है कि केयूर भूषण ने अनेक पुस्तकों की रचना की है। उन्होंने कविताएं लिखीं, कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखा और इस तरह छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने में भरसक भूमिका निभाई। लेकिन मेरा मानना है कि कविता, कहानी में उनकी उतनी रुचि नहीं थी, अपितु वे एक अच्छे निबंधकार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर अंतर्दृष्टि के साथ लिखा। देश की राजनीतिक परिदृश्य पर भी उनकी बराबर नज़र रहती थी, और वैश्विक राजनीति की भी उन्हें परख थी। उनके इन निबंधों का कोई संकलन संभवत: अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है! कह सकते हैं कि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में अपने समकालीन राजनेताओं में इस मामले में वे एक अपवाद थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के अल्पज्ञात स्वाधीनता सेनानियों पर भी शोध करके काफी सामग्री जुटाई तथा उनकी गौरव गाथा को पहली बार जनता के समक्ष रखा। यद्यपि उनके आकलन में कुछ ऐसे नाम भी जुड़ गए जो संभवत: इस सूची में स्थान पाने योग्य नहीं थे!
केयूर भूषण ने एक किशोर स्वाधीनता सेनानी के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी। अंग्रेजों के राज में उन्हें कृष्ण मंदिर में कुछ समय बिताना पड़ा था। इसके बाद उनका झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर हो गया था। मुझे नहीं पता कि वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे या नहीं। आगे चलकर वे कांग्रेस में आ गए थे। यहां उनकी दिलचस्पी सत्ता या चुनाव की राजनीति में नहीं थी। वे गांधीवाद से प्रभावित थे और रचनात्मक कार्यक्रम की ओर उनका झुकाव हो गया था। इस कारण जनता के बीच उनकी पहचान एक सर्वोदयी कार्यकर्ता की बन गई थी। वे इस दौर में हरिजन सेवक संघ से जुड़े और जीवन भर जुड़े रहे।
यह जानना दिलचस्प है कि एक कांग्रेसी-सर्वोदयी केयूर भूषण और दूसरे कम्युनिस्ट रामसहाय तिवारी, इन दो द्विजों ने जात-पांत, छुआ-छूत, प्रचलित रूढ़ियां इन सब का निषेध करते हुए प्रदेश में दलित समाज को मानवीय गरिमा और न्यायपूर्ण व्यवहार दिलवाने के लिए आजीवन संघर्ष किया। संभव है कि इस दिशा में काम करने के लिए उन्हें पंडित सुंदरलाल शर्मा के जीवन वृत्त से प्रेरणा मिली हो! केयूर भूषण ने इस मिशन पर काम करते हुए तरह-तरह की बाधाएं झेलीं। यहां तक कि दो बार उन्होंने अपनी जान खतरे में डाली। यह 1986 का प्रकरण है जब उन्होंने राजस्थान में स्थित वैष्णव तीर्थ नाथद्वारा में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन किया था। उसके कुछ समय बाद केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ के पांडातराई के एक शिव मंदिर में दलितों के प्रवेश की मुहिम की अगुवाई की थी और इसमें वे बुरी तरह घायल हो गए थे।
दरअसल केयूर भूषण ने सार्वजनिक जीवन में हमेशा एक सक्रिय भूमिका निभाई। वे घर पर बैठकर बयान जारी करने वाले फर्जी नेता नहीं थे। दलित समाज के प्रति उनके मन में सच्ची और गहरी संवेदना थी और अन्य वंचित समुदायों के प्रति भी, कुल मिलाकर सर्वहारा के प्रति उनकी यही सोच थी। ट्रेड यूनियन में काम करने वाले पुराने मित्र बताते हैं कि केयूर भूषण ने उनके आंदोलनों को बढ़-चढ़ कर अपना समर्थन दिया। इसके पीछे उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं थी। सिविल सोसायटी के साथी भी केयूर भूषण को इसीलिए सम्मान के भाव से देखते हैं। छत्तीसगढ़ में जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर उन्होंने सरकारी नीतियों का सदैव मुखर विरोध किया। उनके स्वास्थ्य ने जब तक साथ दिया वे ऐसे मंचों पर शिरकत करते रहे जहां जनता के हक में आवाज उठाई जाती हो।
छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुड़ूम प्रारंभ हुआ और उसमें होने वाली ज्यादतियों की खबरें सामने आईं तो केयूर भूषण उससे विक्षुब्ध हुए। दिल्ली से एक नागरिक जांच समिति बस्तर जाने के लिए रायपुर आई। उसमें छत्तीसगढ़ में ही जन्मे, पले-बढ़े, स्वामी अग्निवेश भी थे। रायपुर के टाउन हाल में उनका कार्यक्रम रखा गया। केयूर भूषण इस सभा के अध्यक्ष थे। कुछ सरकार समर्थक तत्वों ने इस सभा में गड़बड़ करने की कोशिश की। उत्तेजित केयूर भूषण खड़े होकर सामने आ गए कि मैं खड़ा हूं जिसे जो करना है कर ले। तब मैं श्रोताओं के बीच से उठकर मंच पर गया और उनके व उपद्रवकारियों के बीच खड़ा हो गया ताकि हमारे इस बुजुर्ग नेता को कोई शारीरिक क्षति न पहुंचे। गनीमत थी कि बात आगे नहीं बढ़ी, लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने का ऐसा कृत्य रायपुर में हो सकता है, वह भी केयूर भूषण के साथ, यह सोचकर आज भी मन कड़वा हो जाता है।
केयूर भूषण ने शायद कभी इच्छा नहीं की होगी कि वे किसी दिन देश की संसद में बैठेंगे। 1980 में जब उन्हें कांग्रेस ने रायपुर लोकसभा सीट पर उम्मीदवार बनाया तो यह शायद उनके लिए भी अचरज भरी खबर थी। इंदिरा गांधी ने उन्हें टिकट दिया था। वे शायद हरिजन सेवक संघ में केयूर जी के काम से परिचित रही होंगी। शायद इंदिरा जी की विश्वस्त और सर्वोदय आंदोलन की प्रमुख नेत्री निर्मला देशपांडे ने उनका नाम सुझाया हो या फिर अर्जुन सिंह ने। जो भी हो, केयूर भूषण ने लोकसभा में अपनी पहली पारी पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाई व इंदिरा जी के विश्वास की रक्षा की। इसे जानकर ही पार्टी में राजीव गांधी व अर्जुन सिंह ने उन पर दुबारा भरोसा जताया और दूसरी बार भी उन्होंने सक्षम भूमिका निभाई।
केयूर भूषण के बारे में उनके दस साल के संसदीय जीवन में और उसके बाद भी कोई अपवाद नहीं उठा। वे सायकिल पर चलते थे और जब तक शरीर ने साथ दिया सायकिल की ही सवारी की। अगर उनके वश में होता तो स्वर्गलोक भी वे शायद सायकिल से ही जाना पसंद करते! मैं उन्हें अपनी और देशबन्धु परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
देशबंधु में 10 मई 2018 को प्रकाशित
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