कुछ दिन पहले दो दिन के लिए बिलासपुर जाना हुआ। रायपुर से बिलासपुर के एक सौ पन्द्रह किलोमीटर लम्बे रास्ते पर कुछ बातें नोट करने लायक लगीं। सड़क किनारे के अनेक गांवों के तालाब पानी से लबालब थे। आज से पन्द्रह-बीस बरस पहले भी जब छत्तीसगढ़ के गांवों में जाना होता था तो दो तरह के तालाब दिखाई देते थे। एक तो वे जिन्हें हमारे पुरखों ने सौ-दो सौ-चार सौ साल पहले बनाया होगा। इन तालाबों के चारों ओर आम, पीपल, डूमर इत्यादि छायादार वृक्ष निश्चित रूप से होते थे। किसी-किसी तालाब की पार पर गांव के इष्ट देवता की मढ़िया भी दिख जाती थी और इन तालाबों में जेठ-बैसाख की गर्मी में भी पानी बराबर भरा होता था जिससे गांव की जीवनचर्या चलती थी। दूसरे किस्म के तालाब वे जिन्हें सरकारी तालाब कहा जा सकता है। ये तालाब गर्मी आते-आते तक सूख जाते थे और एक तरह से गांव के परिदृश्य में उदासी भरते थे। अभी जिन तालाबों को लबालब देखा वे अधिकतर सरकारी तालाब ही थे। तालाब के पास बोर खोदकर उसका पानी इनमें भरा जाता है। इस अनुमान की पुष्टि एक-दो जानकारों ने की है। ठीक है कि अभी काम चल रहा है, लेकिन क्या इससे भूजल के स्तर में गिरावट नहीं आ रही होगी?
बिलासपुर में भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के अध्याय संयोजकों की सालाना बैठक आयोजित थी। संयोग से इस सभा में भी प्रदेश के तालाबों का सवाल उठा। यह तथ्य फिर सामने आया कि प्रदेश के तालाब धीरे-धीरे कर समाप्त हो रहे हैं। अनेक स्थानों पर जल संधारण के ये पारंपरिक स्रोत बस्ती के बीच में आ गए हैं जिसके चलते इन पर रीयल एस्टेट और भू-माफियाओं की नजर गड़ गई है। उनका लालच कहता है कि तालाब पाटकर व्यवसायिक परिसर आदि बना दें तो खासी कमाई हो जाएगी। लालच के त्रिभुज को जनप्रतिनिधि और अधिकारी पूरा करते हैं। सबको अपना-अपना हिस्सा मिलने की उम्मीद जो रहती है। लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। उक्त बैठक में इंटैक के दुर्ग-भिलाई अध्याय की प्रतिनिधि और लेखिका विद्या गुप्ता ने चिंता व्यक्त की कि मंदिरों का निर्माल्य और प्रतिमा विसर्जन आदि से भी बहुत से तालाब धीरे-धीरे कर पट गए हैं और इसके लिए कोई उपाय करने की आवश्यकता है।
एक तीसरा कारण और जोड़ा जा सकता है। सस्ती वाहवाही लूटने के चक्कर में हमारे नेतागण जगह-जगह पर तालाबों का सौन्दर्यीकरण कर रहे हैं। जिस तालाब में पानी भरा हो, जिसके घाट पर लोग-बाग आकर बैठते-बतियाते हों, वह अपने आप में एक सुंदर रचना है। उसे आप क्या खाक सुंदर बनाएंगे? बस इसके नाम पर लाखों रुपए की हेरा-फेरी अवश्य हो जाती होगी। मुझे अपने आत्मीय मित्र स्वर्गीय अनुपम मिश्र का स्मरण हो आता है जिन्होंने ''आज भी खरे हैं तालाब'' जैसी मूल्यवान पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की लाखों प्रतियां बिकीं और बंटीं, लेकिन अनुपम भाई ने कोई रायल्टी नहीं ली कि पुस्तक तो समाज के लिए लिखी गई है। अगर आज भी हम इसे पढ़ें और प्रेरणा लें तो तालाबों को बचाया जा सकता है।
इस संदर्भ में सबसे मार्के की बात यह है कि अभी कोई सौ बरस पहले तक गांव का समाज स्वप्रेरणा से तालाबों की सफाई करता था। सामूहिक श्रमदान से गाद निकाली जाती थी। उससे झिरें खुलती थीं और बिना बिजली की मोटर के तालाबों में ताजा पानी भरने लगता था। अब हम अपने श्रम और अपनी बुद्धि पर भरोसा करना छोड़ सरकार के मोहताज हो गए हैं। हमारी निगाहें टिकी रहती हैं कि मुख्यमंत्री या कोई और नेता, मंत्री, साहब आए और गांव को करोड़ों की सौगात देने की घोषणा करे। इस परजीवी सामाजिक प्रवृत्ति का एक अपवाद मैंने कुछ साल पहले डोंगरगांव के पास आदिवासी ग्राम कुमरदा में देखा था। युवा सामाजिक कार्यकर्ता रवि मानव की प्रेरणा, प्रयत्नों से गांव के लोग इकट्ठा होते थे और सामूहिक श्रमदान कर गांव के तालाब की गाद निकालकर उसे फिर उपयोगी बनाते थे। मालूम नहीं, प्रदेश का यह अनूठा प्रयोग अभी जारी है या नहीं और किसी दूसरे गांव ने इस प्रयोग को दोहराने का बीड़ा उठाया या नहीं। यदि अपने तालाबों को बचाने के लिए हम सामूहिक श्रमदान का संकल्प ले सकें तो एक नई शुरूआत हो सकती है।
बहरहाल, इस ताजा बिलासपुर यात्रा में मैंने एक तरफ तो यह देखा कि रास्ते के तमाम वृक्ष काटे जा चुके हैं और दूसरी ओर बिलासपुर शहर का तापमान रायपुर से अधिक रहने लगा है। राजमार्ग के पेड़ इसलिए कटे क्योंकि सड़क को फोरलेन बनाया जा रहा है। मैं मानता हूं कि देश में सभी तरफ बेहतर सड़कों की आवश्यकता है। देश के भीतर परिवहन की गति और सुरक्षा दोनों बढ़ाने की आवश्यकता है। भारत वैश्विक अर्थतंत्र का हिस्सा है और उसकी भी यही मांग है। रूपक रचना हो तो कहूंगा कि रॉकेट युग में बैलगाड़ी की रफ्तार से चलना अब वांछित नहीं है। इसके विस्तृत कारणों में नहीं जाऊंगा। लेकिन ध्यान आता है कि जब रायपुर नगर से विमानतल के रास्ते के सैकड़ों वृक्षों को बचाने के लिए योजना बन सकती है तो क्या बिलासपुर के मार्ग पर लगे ऊंचे घने पेड़ों को बचाना संभव नहीं था? हमारे देश में गर्मियां लंबी होती हैं। तीखी धूप का सामना कई महीनों तक करना पड़ता है। ये सड़क किनारे के पेड़ राहगीरों को सुकून पहुंचाते थे। इस बारे में सड़क बनाने वाले विभागों ने ध्यान नहीं दिया, इसकी तारीफ नहीं की जा सकती।
मैं इस वृक्षहीन निचाट राजपथ पर यात्रा करते हुए यह भी देख रहा था कि रास्ते में पड़ने वाली जिन बरसाती नदियों, जिन्हें हम नाला कहते हैं, में पानी की एक बूंद नहीं थी। हमने पहले रपटे बनाए; बरसात में रपटों पर पानी आ जाता था; इसलिए छोटे पुल बनाए; और अब फोरलेन राजमार्ग पर उसकी गरिमा के अनुसार ऊंचे पुल बना रहे हैं। लेकिन अफसोस, पानी लगातार सूखते जा रहा है। रायपुर शहर के बाहर धनेली के पास छोकरा नाला में थोड़ा पानी था लेकिन कुछ आगे धरसींवा के बाद कोल्हान नाला पूरी तरह सूखा हुआ था और यह स्थिति बिलासपुर तक हर जगह थी। इन नालों के दोनों किनारों पर स्थानीय भाषा में कौहा अर्थात अर्जुन के वृक्षों की कतारें हुआ करती थीं, वे भी अब देखने नहीं मिलतीं। बुद्धिमान लोगों ने नदियों और नालों तक का अतिक्रमण कर जमीनें हथिया लीं हैं।
बिलासपुर के निकट सीपत में जब एनटीपीसी का ताप विद्युत संयंत्र लगने जा रहा था तभी आशंका जतलाई गई थी कि इससे बिलासपुर की आबोहवा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उस समय इस बारे में की गई आपत्तियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था। मुझे रायपुर में बैठकर लगता था कि एनटीपीसी सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है इसलिए वह पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। उन्होंने इस संबंध में जो कुछ भी किया हो, बिलासपुर की आम जनता को लगता है कि बिजलीघर के कारण शहर का तापमान बढ़ गया है। यही नहीं, बिलासपुर में भी सड़कों को विस्तृत करने और ऐसी ही योजनाओं के कारण बड़ी संख्या में पेड़ काट दिए गए। आम, नीम, इमली के दो-दो सौ साल पुराने पेड़ कथित विकास की बलि चढ़ गए हैं। यूं तो कोई भी योजना, कोई भी प्रकल्प प्रारंभ करने से पहले उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए, लेकिन हमारे प्रदेश में इस बारे में जागरूकता नहीं के बराबर है।
बिलासपुर के साथ-साथ कुछ बात रायपुर की भी क्यों न कर लें। सब जानते हैं कि रायपुर के दक्षिण-पूर्व में नया रायपुर नाम का एक नया शहर आकार ले रहा है। प्रदेश का मंत्रालय, बहुत सारे निदेशालय और मुख्यालय यहां शिफ्ट हो चुके हैं। आगे-पीछे राज्यपाल, मुख्यमंत्री वगैरह के राजप्रासाद भी यहीं बनेंगे। खूब चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं, बाग-बगीचे हैं, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है, जंगल सफारी है तो भाई! हॉकी स्टेडियम भी वहीं बना लेते, दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर आडिटोरियम भी वहीं बन जाता, और भी जो आपको करना था सब वहीं कर लेते। रायपुर के साइंस कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, आयुर्वेदिक कॉलेज के मैदानों को नष्ट कर इमारतें खड़ी करने में आपको कौन सा सुख मिल रहा है और रायपुर की जनता के लिए इनका क्या उपयोग है? आपकी उदारता धन्य है कि हमें बिना मांगे ही सौगातें दिए जा रहे हैं।
देशबंधु में 17 मई 2018 को प्रकाशित
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