यह अखबार और मैं स्वयं प्रारंभ से छोटी प्रशासनिक इकाईयों के पक्षधर रहे हैं। इसीलिए हमने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की वकालत की थी और आज भी हमारी राय है कि एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में यदि आज पचास प्रांत भी बन जाते हैं तो इससे बेहतर प्रशासन की उम्मीद की जा सकती है। इसी तरह हम छोटे जिलों के भी पक्षधर रहे हैं। जब छत्तीसगढ़ में कुल जमा सात जिले थे तब हमने कांकेर, धमतरी, बलौदाबाजार, कवर्धा, बेमेतरा इत्यादि नए जिले बनाने की दृष्टि से अनेक स्थानों पर प्रस्तावित जिलों के विकास सम्मेलन किए थे। यह तस्वीर का एक पक्ष हुआ। इसके दूसरी तरफ यह भी आवश्यक है कि प्रशासनिक इकाईयां बड़ी हों या छोटी, उनको अधिकतम सीमा तक स्वायत्तता दी जाए। यदि सरकारी तंत्र में विकेन्द्रीकरण के बजाय केन्द्रीकरण पर जोर होगा तो कभी भी सुचारु शासन संभव नहीं हो सकता।
हमारे सामने तमाम दुनिया के उदाहरण हैं। ग्रेट ब्रिटेन स्पष्ट तौर पर चार हिस्सों में विभाजित है और उनमें से हरेक को पर्याप्त स्वायत्तता हासिल है। हमारा सत्ताधारी वर्ग जिस अमेरिका को अपना चरम आदर्श मानता है वहां भी पचास में से हर राज्य संघीय गणराज्य का सदस्य तो है, लेकिन हर बात के लिए संघ पर निर्भर नहीं है। ऐसा ही कनाडा में है। फिनलैंड जैसे छोटे देश में दो भाषाएं आधिकारिक हैं और सिंगापुर में चीनी व मलय के साथ तमिल को बराबरी की भाषा का दर्जा हासिल है। भारत की संकल्पना भी संघीय गणराज्य के रूप में की गई है, लेकिन इस अवधारणा के पीछे जो बुनियादी सिद्धांत हैं उनका पालन करने में सत्ताधारी वर्ग की रुचि कुछ कम ही दिखाई देती है। भारत में दर्जनों क्षेत्रीय दलों का उभरना इस केन्द्रीकृत मानसिकता के विरोध का उदाहरण है।
मैं याद करना चाहता हूं कि 1980 में जब अर्जुन सिंह पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की स्थापना की थी। रामचन्द्र सिंहदेव और पवन दीवान के साथ मैं भी उसका सदस्य था। प्राधिकरण ने छत्तीसगढ़ के स्वायत्त विकास के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय उस समय लिए थे जिनकी लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है। मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने तो प्राधिकरण का कार्यालय रायपुर से हटाकर भोपाल ले जाया गया और स्वायत्तता के इस प्रयोग ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया। छत्तीसगढ़ राज्य बना और जब डॉ. रमन सिंह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बस्तर विकास प्राधिकरण तथा सरगुजा विकास प्राधिकरण गठित किए। वे स्वयं इनके अध्यक्ष हैं तथा नियमित रूप से इनकी बैठकें लेते हैं, लेकिन यह विचारणीय है कि इन प्राधिकरणों को कितनी स्वायत्ता है और किस हद तक ये प्रदेश की नौकरशाही का अंग हैं।
राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सदाशय का परिचय देते हुए देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के लिए कदम उठाए थे। उन्हीं के चलते तिरहत्तरवां और चौहत्तरवां संविधान संशोधन विधेयक पारित किए गए। एक आशा जगी कि जनता को नौकरशाही के चंगुल से मुक्ति मिलेगी। खासकर ग्रामीण व आदिवासी जनता को अपने प्रत्यक्ष अनुभवों व जमीनी सच्चाईयों से वाकिफ होने के कारण तर्कसंगत ढंग से एक बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था मिल सकेगी। राजीव गांधी और नरसिम्हा राव ने पहल तो ठीक की, लेकिन उसे जाने -अनजाने अधूरा छोड़ दिया। मालूम नहीं क्या सोचकर प्रावधान किया गया कि पंचायती राज लागू करने के लिए राज्य सरकारें उपयुक्त नियम -उपनियम बनाएंगी। एक तरह से गेंद राज्यों के पाले में फेंक दी गई।
आज सिद्धांत रूप में तो सारे देश में पंचायती राज लागू हैं, लेकिन उसका व्यवहारिक पक्ष बहुत कमजोर और लचर है। जिस स्वायत्तता की कल्पना की गई थी वह एक सिरे से नदारद है। इसके अलावा विसंगतियां भी बहुतेरी हैं। कहीं पार्टी आधार पर चुनाव हो रहे हैं, तो कहीं गैर पार्टी आधार पर; कहीं सरपंच और महापौर का प्रत्यक्ष निर्वाचन है, तो कहीं अप्रत्यक्ष; कहीं एक हजार की जनसंख्या पर पंचायत है, तो कहीं पांच हजार पर; कहीं महापौर का कार्यकाल एक साल का है, तो कहीं पांच साल का। दुर्भाग्य यह है कि अनियमितता और भ्रष्टाचार की शिकायत मिले तो उसका ठीकरा निर्वाचित प्रतिनिधियों पर फोड़ा जाता है। सरकारी अमले का बाल बांका नहीं होता। मध्यप्रदेश के एक वाचाल मुख्यमंत्री ने रायपुर की एक सभा में कहा था कि पंचायती राज लागू होने से भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हो गया है। उन्हें इसमें क्या खुशी मिल रही थी, मैं नहीं समझ पाया।
अभी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में कुनकुरी के आसपास पत्थरगड़ी की जो घटनाएं सामने आयी है उसका विश्लेषण इस वृहत्तर परिपेक्ष्य में करने से ही बात संभलेगी। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने सहज संवेदनशील स्वभाव के अनुरूप कहा है कि जब तक संविधान के विपरीत कोई काम नहीं होता तब तक वे इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं देखते। हमें उनकी बात सुनकर आश्वस्त होना चाहिए, लेकिन एक संशय बना रहता है कि क्या प्रदेश का सत्ता वर्ग उनकी भावना के अनुरूप चलने हेतु प्रस्तुत है? यह प्रश्न सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसके मित्र संगठनों से भी है और राज्य के प्रशासन तंत्र से भी। बीते सप्ताह ही हमने सुना कि पत्थरगड़ी के खिलाफ भाजपा द्वारा एक प्रदर्शन किया गया। प्रशासनिक अमला वहां मौजूद था और उसकी उपस्थिति में आदिवासी समाज द्वारा गाड़े गए शिलालेख को क्षतविक्षत किया गया। लगभग एक माह पूर्व झारखंड के कुछ गांवों से पत्थरगड़ी अभियान अचानक प्रारंभ हुआ। जशपुर जिले में उसका ही अनुकरण हुआ है। झारखंड का आदिवासी समाज राजनीतिक दृष्टि से काफी सजग है। वहां राजनीति से इतर साहित्य, संस्कृति, उच्च शिक्षा, पत्रकारिता आदि में भी उनकी सक्रिय भागीदारी है।
इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ कुछ कमजोर था। फिर भी छत्तीसगढ़ और झारखंड इन दोनों राज्यों के गठन के समय आदिवासी समाज की आकांक्षा प्रज्वलित हुई थी कि वे अब अपने भाग्यविधाता स्वयं बनेंगे। ऐसा हो नहीं पाया। बावजूद इसके कि झारखंड में रघुवर दास के पहले का हर मुख्यमंत्री आदिवासी ही था। छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के बाद जो स्थितियां निर्मित हुई उनसे यहां भी आदिवासियों का एक तरह से मोह भंग हुआ। यहां पिछली पीढ़ी के आदिवासी नेता एक के बाद एक हाशिए पर डाल दिए गए, इससे भी एक निराशाजनक तस्वीर निर्मित हुई।
झारखंड में पेसा का कितनी ईमानदारी के साथ पालन हो रहा है यह जानकारी मुझे नहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ के बारे में स्पष्ट कहा जा सकता है कि यहां सरकार की रुचि स्थानीय स्वशासन को ईमानदारी से लागू करने में बिल्कुल नहीं है। फिर बात चाहे नगर निगमों की हो या नगर पंचायतों की। पेसा क्षेत्र में हालात बदतर है। बस्तर में एक तरफ छठवीं अनुसूची लागू करने की मांग उठती है, तो दूसरी ओर पांचवी अनुसूची भी ठीक से लागू नहीं है। राज्यपाल पांचवी अनुसूची के इलाके में आदिवासी मंत्रणा परिषद की सलाह पर सीधे निर्णय ले सकते हैं, लेकिन जब स्वयं मुख्यमंत्री परिषद का अध्यक्ष हो तो फिर परिषद और सरकार के बीच क्या अंतर रह जाता है? राज्यपाल भी तो सत्तारूढ़ दल से टकराव मोल नहीं लेना चाहते।
इन सारी स्थितियों को देखते हुए मेरा मानना है कि पत्थरगड़ी आंदोलन के बारे में सरकार को पूर्वाग्रह और जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिए। न्यस्त स्वार्थ इसे ईसाई बनाम हिन्दू और आदिवासी बनाम गैर आदिवासी का मसला बना रहे हैं वह भी ठीक नहीं है। जिस पत्थरगड़ी की पूजा भाजपा के नंदकुमार साय जैसे वरिष्ठ नेता ने की हो तो उन जैसे नेता क्या सोच रहे हैं यह भी तो समझ लें। कुल मिलाकर यह मामला स्वायत्त शासन का है, विकेन्द्रीकरण का है। उस पर ईमानदारी से अमल होना चाहिए।
देशबंधु में 03 मई 2018 को प्रकाशित
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