मैं इस यात्रा को अधूरी ही कहूंगा क्योंकि जो कुछ मन में था वह मैं नहीं देख पाया। हनोई विमानतल से आना-जाना हुआ, लेकिन मात्र पैंतालीस किलोमीटर दूर स्थित न तो हनोई शहर को देख सका और न वियतनाम के राष्ट्रपिता हो ची मिन्ह की समाधि पर जा सका। सुदूर दक्षिण में स्थित सैगोन जिसे अब हो ची मिन्ह सिटी कहा जाता है को देखने का तो सवाल ही नहीं था। मैं यद्यपि मध्यपूर्व में स्थित क्वांग त्री प्रांत तक गया था, लेकिन देश के ऐन मध्य में स्थित चाम प्रांत की यात्रा करने का सुयोग नहीं जुटा पाया। इस चाम प्रांत को ही सुदूर अतीत में हम भारतीय चंपा देश के नाम से जानते थे और यहां दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का बना शिव मंदिर भारत और वियतनाम के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंधों की गवाही देता खड़ा है। बहरहाल जो कुछ देखा अच्छा ही देखा और ढेर सारी अच्छी स्मृतियां लेकर ही मैं वहां से लौटा। वियतनाम जाने का मन तो न जाने कब से था इसलिए जितना देख लिया उसमें ही संतोष करना ठीक है।
नवमी-दसवीं क्लास में पढ़ते समय लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम और इनके साथ विएन तिएन, लुआंग प्रवांग, नाम पेन्ह, हनोई जैसे नगरों के नाम बार-बार सुनने में आते थे। सुश्री कमला रत्नम आदि के इन देशों पर लिखे गए लेख उस समय की पत्रिकाओं में पढ़ने मिलते थे। कई बरस बाद 1994 में ताइवान जाते समय बैंकाक हवाई अड्डे पर कुछ देर रुका तो इन तमाम शहरों को जाने वाली फ्लाइट की सूचनाएं सुनने-देखने मिल रही थीं, तब कुछ पल के लिए मन बच्चों जैसा मचल गया था कि ताइवान छोड़कर इन्हीं देशों की तरफ निकल जाऊं। अपने मन से उड़ने की आजादी पक्षियों को है, कछुए और मछलियां भी सीमाओं की परवाह कहां करती हैं, लेकिन मनुष्य को तो पासपोर्ट और वीजा की औपचारिकताएं पूरी करना पड़ती हैं। ये प्रथम विश्वयुद्ध की मनुष्यता को सौगात हैं। इसके पहले पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। अब तो उसमें भी कितने सारे नए-नए प्रतिबंध लग गए हैं। आधार कार्ड की तरह बायोमीट्रिक पहचान अनिवार्य हो गई है।
मुझे 19 मई की दोपहर दक्षिण चीन सागर के तट पर बसे क्वांग त्री नगर पहुंच जाना था, लेकिन हनोई पहुंचने वाली फ्लाइट में विलंब हुआ, आगे की फ्लाइट चूक गई और करीब पांच घंटे विमानतल पर ही काटना पड़े। खैर! 19 मई की शाम आठ बजे के करीब मैं हनोई से व्हे विमानतल पर उतरा। व्हे वियतनाम की पुरानी राजधानी रही है। यहां से क्वांग त्री का लगभग अस्सी किलोमीटर का सफर सड़क मार्ग से तय करना था। रात हो गई थी, लेकिन रास्ते के गांवों में चहल-पहल थी। यह दिख रहा था कि अधिकतर घर एकमंजिले थे; खपरैल या टीन की छत वाले, दोमंजिले, तिमंजिले मकान बहुत कम देखने में आए। हमारा कुछ सफर हनोई से हो ची मिन्ह सिटी जाने वाले एशियन हाईवे एक पर हुआ, और करीब आधा सफर ग्रामीण रास्ते पर। हाईवे भी कहीं-कहीं ही फोरलेन था, लेकिन सड़क पर यातायात रात को भी काफी था। रास्ते में जगह-जगह एक के बाद एक ढाबे खुले हुए थे जिनसे अनुमान हुआ कि स्थानीय लोग बड़ी संख्या में यहां आकर खाना पसंद करते हैं।
क्वांग त्री में शहर से दूर समुद्र तट पर स्थित अपने होटल तक पहुंचने के लिए हम जिस सड़क से गुजरे वहां एक जगह यह देखकर प्रसन्नता हुई कि सड़क पर गायें निर्द्वंद्व विचरण कर रही थीं। भारत-वियतनाम की दोस्ती का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता था! मैं एक क्षण में मानो रायपुर वापिस पहुंच गया था। यह नजारा हमें एकाध जगह और देखने मिला, लेकिन इसे अपवाद ही मानना चाहिए और इस आधार पर वियतनाम के बारे में कोई राय बनाएंगे तो गलती करेंगे। सड़क यात्रा में मैंने पाया कि गाड़ियों के हार्न यदा-कदा ही बजते हैं, वे भी अधिकतर लंबी दूरी के बसों के ड्रायवर बजाते हैं। दूसरे, वियतनामी लोग जितने विनम्र हैं उतने ही परिश्रमी भी हैं। वे आपको कोई वस्तु देंगे या लेंगे तो दोनों हाथ से। यह शिष्टाचार मैंने अब तक सिर्फ जापान में देखा था।
आप होटल में जाएं, रेस्तरां में या बाजार में किसी दूकान पर, कदम-कदम पर इस विनम्रता का अनुभव करेंगे। स्त्री हो पुरुष, मेहनत करने में वे लाजवाब हैं। हम जिस होटल में ठहरे थे वहां स्वागत कक्ष याने रिसेप्शन पर जो लड़की बैठी थी वही कक्ष में और कक्ष के बाहर झाड़ू लगा रही थी। उनकी गिफ्ट शॉप मैं देखना चाहता था तो उसी लड़की ने आकर दूकान खोली और मुझे सामान दिखाया। इसी तरह आपने किसी को भी कोई काम कहा तो इंकार सुनने नहीं मिला। उनकी कार्यदक्षता का उदाहरण मैंने देखा जब 22 तारीख को हमारी कार्यशाला समाप्त होने के बाद आधा घंटे के भीतर पूरे हाल की सफाई हो गई जैसे किसी ने जादू की छड़ी चला दी हो। हां, होटल में, शहर में या एयरपोर्ट में घूमते हुए एक बड़ी अड़चन पेश आई कि उनका अंग्रेजी ज्ञान नहीं के बराबर है। गनीमत है कि वे वाटर कहने से पानी समझ लेते हैं, बाकी तो इशारों में बात समझानी पड़ती है।
वियतनाम में मुख्य तौर पर धान की ही खेती होती है। हमारी तरह वहां भी हार्वेस्टर चलन में आ गए हैं। इस वजह से अब वहां धान के बच गए ठूंठों या नरई को आग जलाकर खत्म करते हैं। उत्तर भारत में इस क्रिया को पराली के नाम से जानते हैं। खेतों में आग लगाने के कारण धुआं फैलता है और आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। वियतनाम में चिंता व्याप्त है कि इस प्रदूषण को कैसे रोका जाए। कुछ लोगों का मानना है कि जलाने से जो राख बनती है वह उत्तम खाद का काम करती है। एक और विशेषता पर मेरा ध्यान गया। लगभग हर घर में आंगन में या दो-तीन मंजिल का घर हुआ तो ऊपर एक छोटे से मंदिर का निर्माण अवश्य हुआ है। अधिकतर वियतनामी बौद्ध हैं। इस मंदिर में भगवान बुद्ध के साथ-साथ पुरखों की भी पूजा होती है, ऐसा मुझे बताया गया।
इधर घरों में छोटे-छोटे मंदिर हैं, तो उधर खेतों में समाधियां बनी हैं। कोई खेत ऐसा नहीं जिसमें कि एक-दो समाधियां न हों। इन समाधियों को काफी अच्छे से अलंकृत किया गया है। कई जगह पर समाधियों के आगे तोरणद्वार भी देखने में आए। यह दृश्य ग्रामीण क्षेत्र का है, लेकिन नगरीय क्षेत्र में ऐसा करना संभव नहीं है तो अब वहां खुली जगहों पर कब्रिस्तान बन गए हैं। जिनकी जतन के साथ देखभाल की जाती है। क्वांग त्री वियतनाम का शायद सबसे गरीब प्रांत है। वहां मुझे कोई बड़े कारखाने आदि नजर नहीं आए। हां, होटलों और ढाबों के साथ मोबाइल की दूकानें बड़ी संख्या में नजर आती हैं और इसके अलावा स्कूटर-बाइक रिपेयर की दूकानें। देश की मेहनतकश औरतें और आदमी सुबह चार बजे से अपनी-अपनी स्कूटी पर ढेर सारा सामान लाद कर पास के बाजार के लिए निकल पड़ते हैं।
यह दिलचस्प बात है कि अधिकतर वियतनामी अंग्रेजी भाषा नहीं जानते लेकिन उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है और वे रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं। कहते हैं कि कोई डेढ़ सौ साल पहले तक वहां मंदारिन या चीनी लिपि का प्रयोग होता था। जब वियतनाम पर फ्रांस का कब्जा था, तब कभी एक फ्रेंच सैन्य अधिकारी ने वियतनामी भाषा के लिए रोमन लिपि को कुछ सुधारों के साथ लागू किया और अब वही उनकी अपनी लिपि बन गई है। इसमें वियतनामी भाषा के विशिष्ट उच्चारणों के लिए लिपि में संशोधन किए गए हैं जिसे जानकार ही समझ सकते हैं। जैसे 'डी' का उच्चारण कब 'द' होगा और कब 'झ' इसे समझना हमारे लिए कठिन है। दूसरे भाषा और लिपि भले एक हो, लेकिन स्थान परिवर्तन के साथ उच्चारण परिवर्तन भी हो जाता है। मध्य और दक्षिण में जिसे क्वांग त्री कहते हैं उत्तर में वह क्वांग ची बन जाता है।
देशबंधु में 07 जून 2018 को प्रकाशित
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