Wednesday, 27 June 2018

प्रभाकर चौबे : खत्म न होने वाली यादें



प्रभाकर चौबे अब हमारे बीच नहीं हैं, इस निर्मम सच्चाई को स्वीकार करने के लिए मन एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी तैयार नहीं है। कितनी यादें उमड़-घुमड़कर आ  रही हैं। कहने-लिखने बैठूं तो एक पोथा भर जाए। आखिरकार, सत्तावन साल की अंतरंग दोस्ती की कथा को आसानी से तो नहीं समेटा जा सकता। हम लोगों ने साथ-साथ अनगिनत यात्राएं कीं, प्रदेश में और देश में; अनेक संस्थाओं में साथ रहे; कितने ही मंच साझा किए; और संयोगवश कई सालों तक निकट पड़ोसी भी बने रहे। पत्नी माया ने याद दिलाया कि 1970 में जब हम विवेकानंद नगर छोड़ चौबे कॉलोनी में दूसरे किराए के घर में रहने पहुंचे तो सबसे पहले प्रभाकर और भाभी से ही मिलने गए, जो हमसे कुछ पहले वहीं रहने आ गए थे। आज बाबूजी के नाम पर जो मायाराम सुरजन शास. उच्च. माध्यमिक विद्यालय चौबे कॉलोनी में है, उसका नाम तब शास. प्राथमिक शाला डंगनिया (ब) था। हम दोनों मित्रों ने अपने बच्चों को चार टूटे-फूटे कमरों वाली उसी शाला में दाखिल करवाया; और प्रधान पाठक बोधनलाल पांडे तथा छविराम वर्मा के साथ कॉलोनी के अलावा आसपास के इलाके में घर-घर जाकर चंदा मांगा कि इस शाला को एक आदर्श स्कूल बनाने के लिए साधन जुटाए जा सकें। प्रभाकर और मैंने पच्चीस साल से अधिक समय तक शाला विकास समिति का काम संभाला, नागरिकों का सहयोग लिया, शिक्षकों की हौसला अफजाई की और एक सरकारी स्कूल को ऐसा रूप देने में सहायक बने कि शिक्षा जगत में उसकी धूम मच गई। यह प्रभाकर चौबे की समाज सक्रियता की एक मिसाल है।
हम लोगों ने साथ-साथ जो यात्राएं कीं, उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इन यात्राओं में गुरुजी (डॉ. हरिशंकर शुक्ल) अक्सर साथ होते थे। अनेक बार ठाकुर भैया (स्व. भगवान सिंह ठाकुर एडवोकेट) भी। मैंने अपने यात्रा-वृत्तांतों की एक पुस्तक इन्हीं तीन अग्रज साथियों को समर्पित की है। हम कहां-कहां साथ नहीं गए! दिल्ली, गुवाहाटी, हैदराबाद, द्वारिका, भोपाल, ग्वालियर, इलाहाबाद, सागर, सतना, विशाखापट्टनम, कटक, भुवनेश्वर, संबलपुर, कहां तक याद करूं। प्रभाकर बाबूजी के साथ भी बहुत घूमे, चित्रकूट, और कुरुक्षेत्र से बंबई, गोवा और त्रिवेंद्रम तक। अगर मेरी स्मरणशक्ति धोखा नहीं दे रही है तो 1964 की मई में सबसे पहले हम रायपुर से बस में बैठकर राजनांदगांव गए थे। स्वनामधन्य पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का सार्वजनिक अभिनंदन था। देर रात हम फिर किसी ट्रेन से वापिस लौटे थे। उसके शायद साल भर बाद ही कल्याण कॉलेज भिलाई के परिसर में छत्तीसगढ़ विभागीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। दो या तीन दिन के कार्यक्रम में तब हम साथ रहे थे। हमने प्रदेश में भी अनेक यात्राएं कीं। कभी पवन दीवान और कृष्णारंजन के बुलावे पर राजिम जा रहे हैं; कभी किसी और मित्र के निमंत्रण पर धमतरी तो कभी मुंगेली। सभा-सम्मेलनों-शिविरों में सरगुजा से बस्तर तक और रायगढ़ से कवर्धा तक दौड़ लगाई।
देशबन्धु में स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए 74-75 में ''पड़ाव'' नामक कार्यक्रम शुरु किया था। प्रभाकर चौबे इसके सूत्रधार बने। भाटापारा, मुंगेली, धमतरी, इत्यादि स्थानों पर वे जाते थे। दिनभर की साहित्यिक गोष्ठी होती थी। वे रचनाएं सुनते थे, सुझाव देते थे, प्रकाशन योग्य समझी गई रचनाओं को लेकर लौटते थे। फिर संपादन होकर एक विशेष परिशिष्ट में उनका प्रकाशन होता था। साहित्य के प्रति ऐसी लगन, नवोदित लेखकों का मनोबल बढ़ाने का ऐसा उपक्रम, स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाने की ऐसी सोच विरल मानी जाएगी। हम दोनों रायपुर में न जाने कितनी बार स्कूल-कॉलेज की भाषण, वाद-विवाद इत्यादि प्रतियोगिताओं में साथ-साथ निर्णायक की भूमिका में रहे। इनके माध्यम से जिन प्रतिभाओं में निखार आया, उनमें से कुछ आज भी हमें याद कर लेते हैं। राजिम से कुछ किलोमीटर दूर स्थित कोमा गांव हम छह नवोदित कवियों को प्रोत्साहन देने गए थे, जो शायद उस समय ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा के छात्र थे! छह में से एक एकांत श्रीवास्तव ने न्यौता दिया था और हमने उसे तत्परता से स्वीकार कर लिया था। भावना वही रहती थी कि प्रदेश और देश में साहित्य और समाज के बीच का रिश्ता कैसे मजबूत बने।
दो-तीन यात्राओं का विशेषकर उल्लेख करना चाहूंगा। 1976 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में बाबूजी अध्यक्ष पद ग्रहण करने वाले थे। इस कारण सारे प्रदेश में उत्साह का वातावरण था। छत्तीसगढ़ से हम कोई पचास-साठ प्रतिनिधि नई-नई चली छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से एक साथ रवाना हुए। ट्रेन तब भोपाल तक ही जाती थी। भोपाल से बस से विदिशा पहुंचे। भीषण गर्मी के दिन, ठहरने-खाने के प्रबंध में थोड़ी अव्यवस्था फिर भी गजब का माहौल। हम चार-पांच लोग नहाने के लिए नगर के बाहर एक खेत तक पहुंचे, वहां नलकूप की मोटी धार के नीचे नहाए। दिन के भोजन के समय बाजू में बुंदेली के समर्थ कवि बालकृष्ण गुरु (शायद यही नाम था!) बैठे थे। परिचय हुआ तो हुलस उठे, भोजन बीच में छोड़कर उठे, कविता की डायरी ले आए कि हम उनकी रचनाएं सुन लें। रात को सार्वजनिक कवि सम्मेलन में एक सौ से अधिक कवि, मंच पर तिलमात्र जगह नहीं। हम लोगों ने खूब हूटिंग भी की। लेकिन मुख्य अतिथि बाबू जगजीवन राम का अर्थगंभीर, ओजस्वी व्याख्यान आज भी याद आता है। 
दूसरा प्रसंग सतना का है। म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अधिवेशन सतना में 1976 में ही हुआ। इसमें भी छत्तीसगढ़ से हम बहुत सारे लेखक मित्र एक साथ सतना गए। बिलासपुर और कटनी में ट्रेन बदली। वहां मुझे अपनी बेटी के अचानक गंभीर रूप से अस्वस्थ होने की सूचना मिली। ज्ञानरंजन ने फोन सुना था। उन्होंने आकर कहा- आई थिंक यू मस्ट गो इमीडियेटली। रात बारह बजे काशी एक्सपे्रस में कंडक्टर की सहानुभूति से बैठने लायक जगह पाकर जबलपुर पहुंचे। देशबन्धु के स्थानीय संपादक राजेंद्र अग्रवाल को घर जाकर उठाया। उन्होंने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं थी। सुबह जबलपुर से राज्य परिवहन की बस पकड़ शाम ढले रायपुर लौटे। दुश्चिंता के बीच की गई इस यात्रा में प्रभाकर चौबे मेरे साथ ही रायपुर लौट आए। मुझे अकेले नहीं आने दिया।
अनेक बरस बाद सतना में ही एक दूसरा प्रसंग घटित हुआ। प्रभाकर, गुरुजी और मैं सम्मेलन द्वारा आयोजित वृंदावन लाल वर्मा शताब्दी समारोह में भाग लेने गए थे। यहां गुरुजी की माताजी के निधन की सूचना मिली। हम तीनों किसी ट्रेन से कटनी पहुंचे, वहां उत्कल एक्सप्रेस पकड़ी। ट्रेन बीच के किसी स्टेशन पर एक घंटा रुकी रही। ड्राइवर, गार्ड सभी पास में कहीं टीवी पर महाभारत देखने चले गए थे। विलंब से बिलासपुर और फिर किसी अन्य साधन से रायपुर ऐन वक्त पर पहुंचे जब अम्मा की अर्थी उठने ही वाली थी। एक अन्य निजी प्रसंग मुझसे जुड़ा हुआ है। 31 दिसंबर 1994 को बाबूजी का भोपाल में निधन हुआ। 2 जनवरी को अस्थि संकलन करना था। मैं श्मशान घाट पहुंच गया था कि उसी समय ट्रेन से उतरकर प्रभाकर और ठाकुर भैया भी वहां पहुंच गए। उनका आ जाना उस समय मेरे लिए बहुत बड़ा संबल था। प्रभाकर चौबे, चाहे हमारे घर में सुख-दु:ख का कोई प्रसंग हो; प्रेस के सहज या कठिन दिन हों;  किसी संस्था के कार्यक्रम अथवा योजना का विषय हो, हर समय इसी तरह मेरा संबल बन जाते थे। और यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं है। उनमें संबंधों को निभाने की एक अपूर्व सिफत थी। सब काहू से दोस्ती, न काहू से बैर मानों उनका मूलमंत्र था।
हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन, छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन, भारत सोवियत मैत्री संघ, देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष, मायाराम सुरजन फाउंडेशन जैसी कुछ संस्थाएं थीं, जिनमें हमने मिलकर काम किया। वे ट्रेड यूनियन कौंसिल तथा शिक्षक संघ आदि से भी जुड़े थे। 1978 से 1980 के बीच छत्तीसगढ़ में हमने म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले लगातार युवा रचना शिविरों का आयोजन किया। पहिला शिविर 4,5,6 मार्च 1978 को चंपारन में हुआ जो तब एक लगभग निर्जन स्थान था। इसके बाद बतौली (सरगुजा), कुरुद (धमतरी), जशपुरनगर, दल्लीराजहरा, कवर्धा, महासमुंद, कांकेर आदि अनेक स्थानों पर तीन दिवसीय शिविर हुए। इन शिविरों से प्रलेस की एक मुकम्मल पहचान कायम हुई, अगर मैं यह दावा करूं तो गलत नहीं हो। प्रभाकर चाहते तो इनके माध्यम से अपनी निजी छवि बना सकते थे, लेकिन वे प्रचारप्रियता और गुटबाजी से कोसों दूर थे। लगभग चालीस साल बाद उनके योगदान का मूल्यांकन हुआ, जब 2016 के बिलासपुर राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष मंडल का सदस्य चुना गया। अभी राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन ने उचित निर्णय लिया है कि आगामी माह पटना में आयोजित राष्ट्रीय कार्यक्रम के सभास्थल का नाम प्रभाकर चौबे भवन रखा जाएगा।
प्रभाकर लंबे समय तक मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रबंधकारिणी के सदस्य रहे, छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के तो वे संस्थापक सदस्य तथा संरक्षक थे। इसी 29-30 मार्च को म.प्र. सम्मेलन का शताब्दी समारोह मनाया गया तो सभी साथियों की राय बनी कि उद्घाटन के लिए प्रभाकर चौबे से उत्तम कोई अन्य मुख्य अतिथि नहीं हो सकता। सम्मेलन ने लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर सार्वजनिक अभिनंदन किया था जिसमें कोई सौ-पचास संगठन उनका सम्मान करने आगे आए थे। सम्मेलन का मायाराम सुरजन स्मृति लोकचेतन अलंकरण भी उन्हें प्रदान किया गया, यद्यपि वे स्वयं सदस्य होने के नाते इसे नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने साहित्य सेवा के लिए दो-तीन बार सम्मान स्वीकार किए लेकिन वे सिर्फ किसी लेखक, साहित्यकार के हाथों ही सम्मान लेने तैयार होते थे। जिनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं, जो किताबें नहीं पढ़ते, जो लेखक को जानते भी नहीं, उनके ''करकमलों'' से सम्मान क्यों लिया जाए? वे हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थायी समिति के सदस्य थे, उसके वार्षिक अधिवेशनों में भाग लेने के लिए सदा उत्साहित रहते थे और समिति की बैठकों में भी भरसक शामिल होते थे। शनिवार 23 जून को प्रयाग में उनके शोक में एक दिन अवकाश रख सम्मान प्रकट किया गया।
अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो)की गतिविधियों में भी प्रभाकर गहरी दिलचस्पी रखते थे। मध्यप्रदेश के दिनों में रायपुर में प्रादेशिक अधिवेशन करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई; क्यूबा, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका व बांग्लादेश के जनतांत्रिक आंदोलनों के समर्थन में रायपुर में आयोजित कार्यक्रमों में वे हमेशा आगे रहते थे, एप्सो के तीन राज्य सम्मेलन तो उनकी प्रेरणा से ही संभव हो पाए। इन सारे संगठनों के आयोजनों में भाग लेने के लिए हमने एक साथ दूर-दूर की यात्राएं कीं। आयोजनों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। ये निठल्लेपन की यात्राएं नहीं थीं। हम लोग किताबों पर बात करते थे, राजनीति और दीगर मुद्दों पर बहस कहते थे; बस में, ट्रेन में सहयात्री चकित होकर हमारी चर्चाएं सुनते थे, और कई बार उनमें शामिल भी हो जाते थे। पं. नेहरू ने विजयलक्ष्मी पंडित को एक पत्र में लिखा था- चाहे जीवन यात्रा हो, या साधारण यात्रा, हमेशा कम बोझ लेकर चलना चाहिए। प्रभाकर ने मानों इस सीख का ही अनुकरण करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूरी कर ली।
देशबंधु में 28 जून 2018 को प्रकाशित 

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