Wednesday 20 June 2018

वियतनाम : विश्व शांति के लिए एक पहल

                               
 
वियतनाम शांति एवं विकास फाउंडेशन वियतनाम का एक प्रमुख और प्रभावशाली सिविल सोसायटी संगठन है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह संगठन विश्व शांति और शांति के माध्यम से विकास के लिए काम करता है। वियतनाम की अप्रतिम स्वाधीनता सेनानी और आगे चलकर देश की उपराष्ट्रपति बनी मदाम न्गुएन थी बिन्ह इसकी अध्यक्ष हैं। अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन में मदाम बिन्ह का नाम अत्यन्त सम्मान के साथ लिया जाता है।  वियतनाम के मुक्ति संग्राम में तो उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया ही, अपने देश को नवनिर्माण के पथ पर ले जाने में तथा विश्व समाज में देश की प्रतिष्ठा कायम करने की दिशा में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया। यह उनकी ही सोच थी कि वर्तमान समय को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जन एकजुटता को प्रगाढ़ करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया जाए।  मैं इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वियतनाम की संक्षिप्त यात्रा पर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन अर्थात (एप्सो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल का सदस्य होने के नाते उसका प्रतिनिधि बनकर गया था। 
जैसा कि पूर्व विवरण से पाठकों को ज्ञात होगा कि यह आयोजन मध्यपूर्व वियतनाम में दक्षिण चीन सागर के तट पर क्वांग त्री नगर के पास एक गांव में किया गया था। मदाम बिन्ह का क्वांग त्री प्रदेश से गहरा नाता रहा है और मुक्ति संघर्ष में क्वांग त्री प्रदेश की बड़ी भूमिका रही है।  शायद यही सोचकर स्थान का चयन किया गया था। इस आयोजन को नाम दिया गया था- शांति, सुरक्षा एवं स्थायी विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय जन एकजुटता के मुद्दों की पहचान हेतु कार्यशाला। शीर्षक लंबा-चौड़ा है, लेकिन कुल मिलाकर भावना यही थी कि किसी भी देश और समाज का विकास तभी हो सकता है जब असुरक्षा का भय न हो और शांति का माहौल हो। कार्यक्रम को पूर्व से लेकर पश्चिम तक से शांति संगठनों और शांति आंदोलनों का अनुमोदन प्राप्त हुआ। विश्व शांति परिषद के कार्यकारी सचिव इराक्लीस ग्रीस से आए; अफ्रो एशियाई जन एकजुटता संगठन, जिसका मुख्यालय इजिप्त की राजधानी काहिरा में है, के अध्यक्ष डॉ. हेल्मी हदीदी स्वयं आए।  वे अपने देश के एक प्रसिद्ध अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं।  शिक्षा मंत्री भी रह चुके हैं। वे एक लंबी यात्रा कर क्वांग त्री पहुंचे। 
इनके अलावा अमेरिका, क्यूबा, फ्रांस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, लाओस, कम्बोडिया इत्यादि से भी शांति संगठनों के  प्रमुख नेताओं ने भागीदारी की। शांति और विकास के लिए काम कर रही कुछ अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधि भी आए जिनमें जर्मनी की रोजा लक्जेमबर्ग फाउंडेशन का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। वियतनाम के प्रतिनिधि तो खैर थे ही। तीन दिनों तक कार्यशाला की थीम पर खूब बातचीत हुई।  सभाकक्ष में ही नहीं, खाने की मेज पर भी, बस में यात्रा करते हुए भी और समुद्र तट पर भी। इस चर्चा मंडली में अनुभवी पूर्व राजदूत थे, वकील थे, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता थे, पत्रकार थे, मानवाधिकार  कार्यकर्ता थे और थे अनेक युवजन। वैसे तो मदाम बिन्ह को कार्यशाला का औपचारिक शुभारंभ अपने स्वागत वक्तव्य के साथ करना था, लेकिन अस्वस्थता के कारण वे स्वयं नहीं आ सकीं। उनकी एवज में संस्था के उपाध्यक्ष राजदूत चुआंग ने स्वागत भाषण पढ़ा।
विचार गोष्ठियों में बहुत सारे मुद्दों पर बातें हुईं, खुलकर बातें हुईं जिनमें साठ से अधिक प्रतिभागियों  ने शिरकत की। कुछ बड़े मुद्दे प्रमुखता के साथ उभरकर सामने आए।  इनमें पहला मुद्दा फिलिस्तीन का था। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ना चाहिए कि अमेरिकी संरक्षण में इजराइल लगातार फिलिस्तीनी भूमि पर जबरन कब्जा किए जा रहा है। उसे न तो विश्व जनमत की परवाह है और न संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों की। लगभग सौ वर्ष पूर्व यह तय हुआ था कि फिलिस्तीन का जो भू-भाग था उसमें इजराइल नाम से यहूदियों का अपना देश बसेगा और साथ-साथ स्वतंत्र सार्वभौम फिलिस्तीन भी बसेगा। वैसे अपने आप में यह साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा लादा गया फार्मूला था जिसे फिलिस्तीनी जनता ने मन मार कर स्वीकार कर लिया था किन्तु इजराइल ने इसे लागू करने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद तो इजराइल के हौसले और बुलंद हो गए हैं।
अभी इसी मई माह में अमेरिका ने भी दादागिरी दिखाते हुए जेरुसलम में अपना दूतावास खोल लिया है। इसके लिए दुनिया के तमाम देशों को निमंत्रण भेजे गए थे। अधिकतम ने निमंत्रण ठुकरा दिया। भारत की मोदी सरकार ने भी फिलिस्तीन के साथ अपने पुराने संबंधों को याद रखा और अमेरिकी दूतावास के उद्घाटन में भाग नहीं लिया। क्वांग त्री की हमारी कार्यशाला में इस बारे में लंबी बात हुई। हम सब एक राय थे कि स्वतंत्र सार्वभौम फिलिस्तीन देश की स्थापना होना चाहिए जिसकी राजधानी पूर्वी जेरुसलम में हो। हम सबकी सोच थी कि इजराइल के उद्दंड आचरण से विश्व शांति को लगातार खतरा पहुंच रहा है। सैन्य ताकत और अमेरिका की शह पर इजराइल जो कुछ कर रहा है वह मानवता के लिए कलंक है और उसके दुष्परिणाम तो सामने आ रहे हैं, दूरगामी प्रभाव भी घातक ही होंगे।
कार्यशाला का दूसरा मुख्य मुद्दा विश्व के समुद्रों और महासागरों के बारे में था। पाठक जानते हैं कि अमेरिका एक लंबे अरसे से समूची दुनिया के समुद्री क्षेत्र पर अपनी धाक जमाकर तटीय देशों को अपने काबू में रखना चाहता है। उसके जहाजी बेड़े सातों महासागरों में घूमते रहते हैं, कितने सारे द्वीपों पर उसने अपने सैन्य अड्डे बना रखे हैं।  हम भारतीयों को बंगलादेश मुक्ति संग्राम की याद है जब अमेरिकी सातवां बेड़ा भारत को धमकाने के अंदाज में आगे बढ़ रहा था। दियागो गार्सिया द्वीप पर उसने साठ के दशक में सैन्य अड्डा स्थापित किया था जिस पर भारत में बवाल मचा था। भूतकाल की कुछ औपनिवेशिक ताकतों ने भी दूरदराज के द्वीपों पर अपने सैनिक अड्डे बना रखे हैं। इधर चीन विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। उसे लेकर भी कई बार संदेह का वातावरण निर्मित होता है। 
चीन, भारत, जापान, वियतनाम ये सब एशियाई देश हैं। याने एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। यह हर शांतिप्रिय नागरिक चाहेगा कि एशिया में शांति का वातावरण बना रहे। इस दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि हिन्द महासागर हो या प्रशांत महासागर, लाल सागर हो या बंगाल की खाड़ी या दक्षिण चीन समुद्र या मलक्का जल डमरूमध्य- इस पूरे जल क्षेत्र में किसी तरह की कोई सैनिक हलचल न हो। यदि दो महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच एशिया के समुद्रों में सैनिक अड्डे आदि बनते हैं तो उससे इन एशियाई देशों के अनिष्ट की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इस परिदृश्य पर गौर करते हुए कार्यशाला में एकमतेन स्वीकार किया गया कि ये जलराशियां मानवता की साझी धरोहर हैं और इनमें किसी भी तरह की सामरिक गतिविधियां होना अवांछित है तथा इन्हें सदा के लिए शांति का क्षेत्र बने रहना चाहिए।
तीन दिवसीय कार्यक्रम में इन दो प्रमुख मुद्दों के अलावा परमाणु निशस्त्रीकरण, आतंकवाद, अमेरिका की बढ़ती हुई दादागिरी जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई। दूसरी ओर दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया के बीच तनाव कम करने के जो प्रयत्न हो रहे हैं इन पर संतोष व्यक्त किया गया। ट्रंप-किम वार्ता को लेकर उस समय ऊहापोह की स्थिति थी, फिर भी अपेक्षा की गई कि शिखर वार्ता होगी और उसके परिणाम शायद अच्छे ही निकलेंगे। यह सभी प्रतिभागियों का मानना था कि तीसरी दुनिया के देशों ने उपनिवेशवाद के दौर में अपनी-अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी उसमें सभी देशों की शांतिकामी जनता ने अपना नैतिक समर्थन दिया था। आज भी जब विश्व में वर्चस्ववाद कायम करने की कोशिश हो रही है तब आवश्यकता इस बात की है सभी देशों की जनता के बीच भाई-चारे का सूत्र प्रगाढ़ हो और एक-दूसरे को मैत्रीपूर्ण नैतिक समर्थन देते हुए सभी देश स्थायी शांति की दिशा में कदम बढ़ाएं।
देशबंधु में 21 2018 को प्रकाशित 

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