Tuesday, 25 September 2018

हिंदी दिवस पर एक हिंदी सेवक से मुलाक़ात


               
आज मैं आपकी मुलाकात सुरेन्द्र प्रसाद जी से करवाना चाहता हूं। श्री प्रसाद जमशेदपुर में रहते हैं। टाटा स्टील के वित्त विभाग में उच्च अधिकारी थे। सेवा से अवकाश लिए काफी अरसा गुजर चुका है। होम्योपैथी के जानकार हैं। जमशेदपुर के होम्योपैथी कॉलेज में अध्यापन कर चुके हैं इसलिए नाम के आगे डॉक्टर उपाधि भी जुड़ी हुई है। वनस्पतिशास्त्र में दिलचस्पी रखते हैं, पेड़-पौधों का अच्छा ज्ञान है, डाक टिकट संग्रह में गहरी रुचि है। इतना परिचय पा लेने के बाद यह भी जान लीजिए कि श्री प्रसाद इस 14 सितंबर को ब्यानवे साल की आयु पूरी कर तिरानबे साल की दहलीज पर दस्तक दे रहे हैं। इस रोचक संयोग पर ध्यान दीजिए कि उनकी जन्म तारीख 14 सितंबर है। ऐसा कौन सा हिन्दी प्रेमी होगा जिसे यह तारीख याद न रहे! सितंबर की यह तिथि जो कभी एक दिन के राजभाषा दिवस या हिन्दी दिवस के रूप में मनाई जाती थी, उसने अपने अधिकार का विस्तार एक तारीख से 30 तारीख तक पूरे महीने तक कर लिया है।
मैं श्री प्रसाद का उल्लेख सिर्फ उनकी जन्मतिथि के लिए नहीं कर रहा हूं बल्कि इसलिए कि वे एक विचारशील हिन्दीसेवी हैं जिन्होंने बढ़ती आयु के बावजूद अपनी सक्रियता बनाए रखी है। इसका प्रमाण है कि उन्होंने अब तक अपनी छह पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इनमें एक उपन्यास है, दो लघुकथा संग्रह और तीन कहानी संकलन। ये सारी पुस्तकें उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद लिखी हैं और इनमें उनके जीवन के अनुभवों की छाप स्पष्टत: देखी जा सकती है। जॉगर्स पार्क की कहानियां नामक पुस्तक की भूमिका में वे अपने बारे में लिखते हैं कि-
मैं वृद्धावस्था के अवकाश का सदुपयोग करने के लिए लेख और कहानियां लिखने लगा जो कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। उस समय मुझे एक कहावत याद आयी - 'चलता आदमी और दौड़ता घोड़ा कभी बूढ़ा नहीं होता। बस फिर क्या था मैंने ठान लिया कि अंत समय तक लिखने का काम करता रहूंगा।'
लेखक का विचार सराहनीय है और अनुकरणीय भी कि वह वृद्धावस्था को अपने ऊपर हावी न होने देकर जीवन की संध्या को रचनात्मकता के एक नए रास्ते पर ले जाने का साहस कर सका है। मैं कहना चाहूंगा कि हिन्दी को श्री प्रसाद जैसे सच्चे प्रेमियों की आवश्यकता है जो बिना लाभ-लोभ के भाषा की उन्नति में योगदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। श्री प्रसाद की भावना उन्हें स्वघोषित हिन्दीप्रेमियों के एक बहुत बड़े समुच्चय से अलग कर अलग धरातल पर स्थापित कर देती है। श्री प्रसाद से मेरा परिचय लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व हुआ जब वे अपनी रायपुर निवासी बेटी श्रीमती सुनीता गुप्ता के घर आए थे और फिर नाती राकेश को लेकर मुझसे मिलने के लिए पधारे थे। उन्होंने तब डाक टिकटों के बारे में कुछ लेख लिखे थे। वे लेख मैंने देखे, रोचक प्रतीत हुए, मुझे लगा कि देशबन्धु के पाठक इन लेखों को पसंद करेंगे। वहां से एक सिलसिला शुरू हुआ। डाक टिकटों के बाद पेड़-पौधों पर भी उन्होंने छोटे-छोटे लेख लिखे जिनका देशबन्धु में धारावाहिक प्रकाशन हुआ।
अभी कुछ दिन पूर्व सुनीता जी मेरे दफ्तर आईं और अपने पिता द्वारा लिखी छह पुस्तकों का सेट मुझे प्रदान किया। उस दिन से मेरे मन में विचार उठ रहा था कि प्रसाद जी और उनके रचना कर्म से पाठकों को परिचित कराऊं। वे स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में क्या कहते हैं इसे लघुकथा संग्रह अजनबी की भूमिका से उनके ही शब्दों में जानिए-
'पुराने जमाने की तुलना में आज लगभग सभी लोग बहुत अधिक और अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। मैंने अपनी लघुकथाओं में इन समस्याओं को उजागर कर, उनका समाधान ढूंढने में पाठकों की सहायता करने की चेष्टा की है। उन्हें कुछ भी लाभ हुआ तो अपना प्रयास सार्थक समझूंगा।' 
यह बात तो उन्होंने कथावस्तु के बारे में की है, भाषा शैली के बारे में उनके विचार क्या हैं यह इसी प्रस्तावना की निम्नलिखित पंक्तियों से जानिए-
'आज के युग में आज के लोगों के बीच रहता हूं और उनके लिए ही लिखता हूं। इसलिए अधिकांश जनता द्वारा बोली जाने वाली सरल हिन्दी में ही लिखना पसंद करता हूं जिससे कम पढ़े-लिखे तथा गैर हिन्दी भाषी लोग भी आसानी से पढ़ और समझ सकें और लाभ उठाएं।'
साहित्यिक आलोचना के प्रतिमानों पर श्री प्रसाद की रचनाएं एकआयामी और सपाट प्रतीत होती हैं लेकिन विषयवस्तु की दृष्टि से चर्चा करें तो इन कहानियों में आज के समय के ढेर सारे प्रश्न उठाए गए हैं। लेखक के हृदय में स्त्रियों के प्रति गहरी सहानुभूति है जो अनेक कहानियों में परिलक्षित हुई है। पार्क का माली शीर्षक कहानी में लेखक माली को सलाह देता है कि बेटी को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाने के बाद ही उसकी शादी के बारे में सोचना। इसी तरह हाशिए के समाज के प्रति भी लेखक के मन में सहानुभूति अनेक रचनाओं में प्रकट हुई है। पर्यावरण की चिंता, बेरोजगारी, टूटे परिवार,  सांप्रदायिक सद्भाव, नई पीढ़ी के स्वप्न जैसे विविध विषयों पर लेखक ने अपनी कलम चलाई है। इन्हें पढ़ते हुए यह धारणा बनती है कि लेखक ने जीवन स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन किया है। मैं सुरेन्द्र प्रसाद जी को उनकी सजग लेखनी और सामाजिक पक्षधरता के लिए साधुवाद देता हूं। मेरा उनसे परिचय होना एक संयोग था, लेकिन कितना अच्छा हो कि हम अपने आसपास ऐसे सुधीजनों की तलाश करें, उनके साथ संवाद करें और इस तरह हिन्दी को और समृद्ध बनाने के उपक्रम में एक नए तरीके से सहभागी बनें।
हिन्दी दिवस के सिलसिले में मैं एक और प्रसंग पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। कुछ दिन पहले इंदौर में कुछ साहित्यकार मित्रों ने वहां से प्रकाशित कतिपय समाचारपत्रों की सार्वजनिक रूप से होली जलाई। उनका आक्रोश इस बात पर था कि इन अखबारों में बेवजह अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल कर हिन्दी के साथ खिलवाड़ और उसका निरादर किया जा रहा है। मित्रों ने जो मुद्दा उठाया उसे मेरा पूरा समर्थन है। लेकिन पुस्तक, पत्र-पत्रिका इनको जलाकर विरोध प्रकट करने से मैं सहमत नहीं हूं। इसके बरक्स दूसरा प्रसंग रांची में घटित हुआ जहां आदिवासी समाज ने कुछ अखबारों का सार्वजनिक तौर पर बहिष्कार करने की घोषणा की। मेरी राय में यह दूसरा तरीका बेहतर है। पुस्तक हो या अखबार, होली जलाने या फाड़कर फेंकने से आप गुस्सा तो जाहिर कर सकते हैं लेकिन ऐसा करके हम स्वयं अपनी मर्यादा भंग करते हैं।
मैं मानता हूं कि हिन्दी के अनेक अखबार पिछले कुछ सालों से जानबूझ कर भाषा को भ्रष्ट करने का पाप कर रहे हैं। यह सोचना आवश्यक है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। आदिवासियों द्वारा अखबार का बहिष्कार करने से पता चलता है कि वे आदिवासी हितों के विरुद्ध लेखन कर रहे हैं। वहां भी यह समझना आवश्यक है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। इसके उत्तर में एक बात स्पष्ट है कि मीडिया का पूरी तरह कार्पोरेटीकरण हो चुका है। जो पत्र और चैनल पूंजीवादी समाज के द्वारा उसके हितरक्षण के लिए चलाए जा रहे हैं उनसे व्यापक हित में काम करने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। दूसरी बात गौरतलब है कि आज बाजार में और सामाजिक जीवन में किस तरह की भाषा का प्रयोग हो रहा है। क्या अखबारों की भाषा वही नहीं है जिसका चलन दैनिक जीवन में लगातार बढ़ते जा रहा है?
यह विचार करके देखिए कि हिन्दी के लिए इतने चिंतित हमने अपने परिवार में, विशेषकर नई पीढ़ी के सदस्यों में, अपनी भाषा के प्रति अनुराग उत्पन्न करने के लिए अब तक क्या किया है। एक दौर था जब हिन्दी की कुछ पत्रिकाएं घर-घर में पढ़ी जाती थीं। उनमें परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ पठनीय होता था। वे पत्रिकाएं बंद हो गईं।  मेरा सोचना शायद गलत नहीं होगा कि अधिकतर लेखक अपनी मां, पत्नी, भाई, बहन या बच्चों के साथ अपनी रचनाओं के बारे में भी बात नहीं करते। एक मिनट के लिए इस तर्क को छोड़कर एक नए बिन्दु पर बात करते हैं।
यह तय है कि जिस भाषा में रोजी-रोटी का इंतजाम हो सके उसी में पढ़ाई-लिखाई करना बेहतर होता है। अगर अंग्रेजी पढऩे से नौकरी मिलती है तो बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना चाहिए। इसमें कोई उज्र नहीं। लेकिन अंग्रेजी माध्यम में पढऩे वाले बच्चों के साथ क्या घर पर हिन्दी में वार्तालाप नहीं हो सकता। उन्हें हिन्दी के श्रेष्ठ लेखन से परिचित कौन करवाएगा? सब जानते हैं कि युवा वर्ग अखबारों का एक बड़ा पाठक है। वह बाजार में एक महत्वपूर्ण उपभोक्ता भी है। दूसरी तरफ अखबार एक व्यवसाय है। वह अपने युवा पाठक बनाम उपभोक्ता को ललचाने के लिए अगर भ्रष्ट हिन्दी का प्रयोग करता है तो उसके लिए हम स्वयं किसी हद तक दोषी हैं या नहीं?
मैं जानता हूं कि बहुत सारे मित्र अभी हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में यहां-वहां से आमंत्रण की प्रतीक्षा में होंगे। अपना भाषण तैयार कर रहे होंगे किन्तु इसके साथ-साथ वे अगर अपने उच्चासन से थोड़ा नीचे उतरने का कष्ट करें और हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए क्या नई युक्तियां अपनाई जाएं इस पर विचार करें तो शायद उसका कोई लाभ आगे चलकर मिल सके।
अक्षर पर्व सितम्बर 2018 अंक की प्रस्तावना 
 

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