विश्व के स्वघोषित सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी की ऐसी छवि जनमानस में हाल के बरसों में बस गई थी मानो वह कार्टून कथा के जादूगर मैंड्रेक के जनाड़ू (xanadu) जैसा तीन लोक से न्यारा, कल्पना में न समाने वाला ऐसा कोई अजूबा हो जो दूर से देखने पर चमत्कृत करे, और पास चले गए तो उसकी भूल-भूलैया में भटक कर रह गए। वह एक ऐसे अभेद्य किले के रूप में सामने था जिस पर कितने भी तीर बरसें, कितनी भी तोपें चलें, कोई असर होने वाला नहीं है। वह एक ऐसा भव्य राजमहल था जो राहगीरों को बरबस अपनी ओर खींच लेता था। इस नए जनाडू के जादूगर मैंड्रेक के कारनामे भी ऐसे कि जो सुने दांतों तले उंगली दबा ले। उसे भारत की जनता ने इक्कीसवीं सदी का सिकंदर माना। ऐसा सिकंदर जो विश्व विजय पर निकला है और जिसके हाथ की लकीरों में सिर्फ जीत ही दर्ज है। लेकिन इस बीच ऐसा कुछ तो हुआ है कि यह छवि अब दरकती सी प्रतीत होने लगी है!
1984 में राजीव गांधी तीन चौथाई बहुमत लेकर आए थे। तीन साल बीतते न बीतते उनके प्रति जनमानस में अविश्वास की भावना बलवती होने लगी थी। उनके विश्वस्त साथियों ने भी उन्हें मंझधार में छोड़ दिया था और उन्हें 1989 के चुनावों में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। इसके तीस साल बाद 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला, लेकिन 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के ऐलान, फिर 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद मोदी सरकार के बारे में भी सवाल उठने लगे और अब 2018 में राफेल युद्धक विमानों की खरीद को लेकर एक बड़ा बवाल खड़ा हो गया है। तीस साल पहले बोफोर्स ने राजीव गांधी को जनता की आंखों में नीचे गिरा दिया था। आज का सवाल है कि क्या राफेल सौदे पर उठे सवालों के बाद नरेन्द्र मोदी अपनी प्रतिष्ठा को कायम रख पाएंगे। भाजपा पार्टी और सरकार इस कांड को लेकर कठघरे में तो आ ही गए हैं और बचाव की हर कोशिश नाकाफी सिद्ध हो रही है।
राफेल कांड में दो-तीन बातें गौरतलब हैं- एक तो फ्रांस के जिस राष्ट्रपति के कार्यकाल में इस डील पर हस्ताक्षर हुए, उन्हीं ओलान्द ने पलटवार करते हुए भारत सरकार को ही जिम्मेवार ठहरा दिया है। दूसरे, यह विचित्र है कि कभी कृषि राज्य मंत्री इस रक्षा सौदे के मामले में सरकार का बचाव करने सामने आते हैं, तो कभी किसी दूसरे विभाग का मंत्री, जबकि प्रधानमंत्री स्वयं खामोश बैठे हैं। तीसरे, जब रक्षा मंत्री सफाई देने सामने आती हैं तो अपनों अधीनस्थ संस्थानों और अधिकारियों को ही अक्षम ठहराने लगती हैं। सबसे हास्यास्पद तो भाजपा अध्यक्ष का तर्क है कि राहुल गांधी पाकिस्तान के साथ मिल गए हैं। कुल मिलाकर सत्तारूढ़ दल को समझ नहीं पड़ रहा है कि अपने ही बनाए जाल से बाहर कैसे निकला जाए!
राफेल का मामला अभी चलते रहेगा। सरकार ने विपक्ष को वार करने के लिए एक बड़ा मौका दे दिया है। लेकिन सुनने में यह भी आ रहा है कि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के भीतर ही परस्पर संशय का वातावरण बन गया है और महत्वाकांक्षी नेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए खबरें बाहर पहुंचा रहे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी मंत्रिमंडल में नहीं हैं, लेकिन वे अपना असंतोष जब-तब प्रकट करते रहते हैं। वित्त मंत्री से तो वे खासे नाराज प्रतीत होते हैं। उन्हें शायद लगता है कि इस पद के असली हकदार वही थे। जब उन्होंने अपनी एक सदस्यीय जनता पार्टी का विलय भाजपा में किया था, क्या तब उन्हें कोई आश्वासन मिला था जिससे बाद में प्रधानमंत्री मुकर गए? वैसे वित्त मंत्री अरुण जेटली भी इन दिनों कुछ अप्रसन्न दिखाई देते हैं। ऐसी चर्चाएं होती हैं कि आर्थिक मामलों में उनसे बिना राय लिए ,उन्हें बिना विश्वास में लिए फैसले थोप दिए जाते हैं जिनका बाद में उन्हें विवश होकर औचित्य सिद्ध करना पड़ता है।
हमारे प्रधानमंत्री की एक खूबी है कि उनके पास अंधसमर्थकों की एक बड़ी फौज है। विरोधी पक्ष उन्हें भक्त की संज्ञा देता है। यह वर्ग मोदीजी के कहे को अंतिम सत्य मानकर चलता है। फिर वे भले ही बिना तथ्यों व तर्कों की परवाह किए जब जैसा मन में आए कह दें। जैसे अभी उन्होंने सिक्किम में सगर्व बताया कि उनके चार साल के राज में पैंतीस नए विमानतल सेवा के लिए चालू हो गए हैं। हकीकत में यह संख्या सिर्फ सात है। विपक्षी उनके इन उद्गारों को संकलित कर सोशल मीडिया पर खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकते। अब तो प्रधानमंत्री के निकट माने जाने वाले चैनल और पत्रकार भी कहने लगे हैं कि प्रधानमंत्री के पास अनुभवी, जानकार और बुद्धिमान लोगों का अभाव है। जो स्तंभकार मोदीजी की प्रशंसा करते थकते नहीं थे, वे अब दबी जुबान से सलाह देने लगे हैं कि उन्हें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए।
इधर राज्यों के हालात भी भाजपा के लिए चिंता उपजाने वाले हैं। राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह नाराज हैं, यह खबर पुरानी है और जैसा कि जनता ने देखा वसुंधरा राजे यहां अमित शाह पर भारी पड़ गईं। विधानसभा चुनावों में इस आपसी लड़ाई का चाहे जो परिणाम निकले। राजस्थान के बाद गोवा में भी पार्टी के भीतर संकट स्पष्ट दिख रहा है। यहां भाजपा ने हर तरह के हथकंडे अपना कर कांग्रेस के हाथ में आते-आते सत्ता छीन ली थी। मनोहर पर्रिकर का मन दिल्ली में नहीं लग रहा था, वे मुख्यमंत्री बनकर लौटे, लेकिन स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया। हैरानी की बात है कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे वे मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं, लेकिन उनके दो अन्य बीमार मंत्रियों को बाहर कर दिया गया है। क्या इसलिए कि भाजपा के पास गोवा में पर्रिकर के अलावा और अन्य कोई नेता नहीं हैं और उन्हें हटाया तो कांग्रेस को वहां सरकार बनाने का मौका मिल जाएगा।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुखमंडल की उत्फुल्लता अब मद्धिम पड़ गई प्रतीत होती है। उनकी सभाओं में अब पहले जैसी भीड़ नहीं उमड़ती। उन्हें जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ रहा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस में नवजीवन का संचार किया है। आए दिन भाजपा के नेता अपने पितृदल को छोड़कर कांग्रेस का रुख कर रहे हैं। चार साल की अवधि में कांग्रेस छोड़कर जो भाजपा में चले आए वे अब परेशान नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री की मध्यप्रदेश यात्रा की एक तस्वीर को लेकर काफी चर्चा हुई। शिवराज सिंह लंबी सी मुस्कान खींचकर नरेन्द्र मोदी को फूल भेंट कर रहे हैं और मोदीजी प्रत्युत्तर में श्री चौहान को आंखें तरेर कर देख रहे हैं। लगातार यात्राएं करते-करते प्रधानमंत्रीजी भी शायद थक जाते हैं। यह शायद ऐसा ही अवसर रहा हो!
छत्तीसगढ़ में भी चुनाव सन्निकट हैं। यहां कहा जा रहा है कि मायावती जी और जोगीजी के बीच भाजपा की प्रेरणा से ही गठबंधन हुआ है, लेकिन इतने मात्र से भाजपा को खुश नहीं होना चाहिए। बिलासपुर में, जो मंत्री अमर अग्रवाल का क्षेत्र है, वहां कांग्रेसियों पर जिस तरह से पुलिस ने लाठियां बरसाईं वह सत्ता के अहंकार को ही दर्शाता है। महासमुंद, बिलासपुर, जगदलपुर के प्रकरण सत्तारूढ़ दल के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। सीडी कांड में सीबीआई द्वारा आरोप पत्र दाखिल करने का समय भी शंकाओं को जन्म देता है। भाजपा के दो बड़े नेताओं की प्रतिद्वंद्विता इस मामले में सामने आई है। वहीं भूपेश बघेल ने जमानत न लेकर राजनैतिक कौशल का परिचय तो दिया ही है, अपना कद भी ऊंचा कर लिया है। देश-प्रदेश में कहने के लिए बातें और भी बहुत हैं, जिनसे ध्वनित होता है कि अब पहले वाला माहौल नहीं है।
देशबंधु में 27 सितम्बर 2018 को प्रकाशित
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