अमेरिकी पत्रकार थॉमस फ्रीडमैन की पुस्तक 'द वर्ल्ड इज फ्लैट' सन् 2005 में प्रकाशित हुई थी। देखते ही देखते लाखों प्रतियां बिक गई थीं। भारत में भी इस पुस्तक की खूब चर्चा हुई थी। थॉमस फ्रीडमैन के लेख हमारे कुछ अंग्रेजी अखबारों में नियमित रूप से छपने लगे थे। मोटे अर्थों में यह पुस्तक अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद और वैश्वीकरण की वकालत में लिखी गई थी। हम भारतीयों को पुस्तक शायद इसलिए कुछ अधिक अच्छी लगी थी कि इसकी शुरूआत फ्रीडमैन के बंगलौर दौरे, इंफोसिस के कारपोरेट दफ्तर के भ्रमण, और नंदन निलेकणी के साथ वार्तालाप से हुई थी। पुस्तक के शीर्षक से ध्वनित होता है कि दुनिया गोल न रहकर चपटी या सपाट हो गई है यानि यहां से वहां तक संबंधों के तार जोड़ना आसान हो गया है और यह कि विश्व समाज का व्यवहार इस संपर्क-सघनता पर ही आधारित होगा।
फ्रांसीस फुकुयामा की बहुचर्चित पुस्तक 'द एंड ऑफ हिस्ट्री' भी किन्हीं अर्थों में इसी अवधारणा पर लिखी गई थी। एक तरह से देखें तो अमेरिका में रीगन और इंग्लैंड में थैचर के आने के बाद वैश्विक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत हुई थी। ये दोनों तथा इन जैसी अनेक पुस्तकें इस नए दौर की कथित उपलब्धियों का गुणगान करने के लिए लिखी गईं। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने तथा उपनिवेशवाद से तीसरी दुनिया के अनेक देशों की मुक्ति के बाद दुनिया में जो नया माहौल बन रहा था उनका निषेध रीगन-थैचर युग में होना शुरू हो गया था। यह समय था जब न तो तीसरी दुनिया में जवाहरलाल नेहरू जैसा कोई नेता था, न अमेरिका में न्यू डील लाने वाला रूजवेल्ट जैसा राष्ट्रपति, और न रूस में ख्रुश्चेव जैसा संतुलन साधने वाला जनरल सेक्रेटरी, न इंग्लैंड में नेशनल हेल्थ सर्विस लाने वाला एन्युरिन बेवन जैसा दूरदर्शी मंत्री।
इस बीच तकनालॉजी में कल्पनातीत प्रगति हो रही थी। जनता को समझाया जा रहा था कि प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ हमारा यह विराट संसार एक विश्व ग्राम में बदल जाएगा और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर हम अपने लिए एक बेहतर संसार रच सकेंगे। कुछ अंशों में तकनालॉजी का विकास एक वरदान था, लेकिन हमें न तब समझ आया और न आज समझ आ रहा है कि आम आदमी तो सिर्फ उपभोक्ता है। तकनालॉजी का मालिकाना हक जिनके पास है वे अपने लिए एक नए संसार की रचना कर रहे हैं; जिसमें हमारे लिए तो कुछ हद तक झुनझुने हैं, और बाकी कभी न पूरे होने वाले सपने। इस तरह भारत ही नहीं, अनेकानेक देश एक व्यामोह में जकड़कर रह गए हैं।
भारत ने 1991 में पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के साथ ही सपनों की उस राह पर चलना शुरू कर दिया था जिसे रीगन-थैचर के समय में बिछाया गया था। लगभग तीन दशक पहले के उस वातावरण को याद करूं तो समझ आता है कि इस नए रास्ते को चुनने के दो कारण थे। एक तो शायद यह विश्वास था कि इस पर चलने से ही देश की आर्थिक प्रगति होगी और दूसरा शायद यह कि हमारे नीति निर्धारकों को कोई अन्य विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था। जो भी हो, उस समय से लेकर अब तक वैश्विक स्तर पर ऐसी आर्थिक नीतियां बनाई जा रही हैं जो जनता के बिल्कुल पल्ले नहीं पड़तीं। तथापि भारत सहित अनेक देश इन नीतियों को लागू करने के लिए वचनबद्ध व एक हद तक मजबूर दिखाई देते हैं।
वर्तमान की चर्चा करें तो दिखाई देता है कि हम अमेरिका और चीन इन दोनों की प्रतिस्पर्द्धा और महत्वाकांक्षा के बीच फंस गए हैं। यह अजीब विडंबना है कि एक ओर हम विश्व की चौथी-पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दंभ कर रहे हैैं और दूसरी ओर हमें समझ नहीं आ रहा कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्द्धा के बीच अपनी स्वाधीन हैसियत को कैसे बचाकर रखा जाए। वैश्विक राजनीति में नए-नए समीकरण बन रहे हैं जो दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी वह एकध्रुवीय हुई और फिर देखते ही देखते एक नया दूसरा ध्रुव उभर गया। पुराने वक्त में की गई संधियां अप्रासंगिक हो गईर्ं और जो नई संधियां बन रही हैं वे अनेक तरह की पेंचीदगियों से भरी हुई है। एक नई दिक्कत यह भी पेश आ रही है कि सार्वभौम सत्ताओं के बीच हुई संधियों का भी तिरस्कार किया जा रहा है।
पिछले तीस-चालीस साल के दौरान सत्ता प्रतिष्ठान में यह सोच मजबूत हुई है कि विदेश नीति सिर्फ राजनीतिक भलमनसाहत से नहीं चलती, देशों के बीच आर्थिक संबंधों पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है। अमेरिका और चीन दोनों की विदेश नीति में इसे देखा जा सकता है। अपने अध्ययन से हम अमेरिका के बारे में जानते हैं कि उसने हमेशा अपने देश के पूंजीपति वर्ग को ध्यान में ही अन्य देशों के साथ संबंध बनाए या तोड़े। शीतयुद्ध के दिनों में सोवियत संघ की नीति इसके बिल्कुल विपरीत थी, वह बहुत पुरानी बात हो गई है। चीन कहने को साम्यवादी देश है, किन्तु वैदेशिक संबंध निभाने में उसका रवैया अमेरिका नीति से बहुत अलग नहीं है।
भारत की दुविधा यह है कि वह किसके साथ जाए और कितनी दूर तक जाए। हमारे प्रभुत्वशाली वर्ग की मानसिकता अमेरिकापरस्त है और इस वजह से हमारे सत्ताधीश आंख मूंदकर अमेरिका का अनुसरण करना चाहते हैं। ऐसा करने से देश को क्या लाभ-हानि होगी इसकी चिंता भी वे नहीं करते। इसलिए हम फिलीस्तीन का साथ देना छोड़ देते हैं, इजराइल को सगे भाई से बढ़कर मान देते हैं, इरान के साथ किए गए समझौतों का उल्लंघन करने में संकोच नहीं करते, फिर बीच-बीच में संतुलन साधने के लिए नए-नए उपाय खोजते हैं। इस अमेरिकापरस्त विदेश नीति का नुकसान हमें घरेलू मोर्चे पर कई तरह से उठाना पड़ता है। जैसे अगर आज हम इरान से कच्चा तेल लेना बंद कर दें जैसा कि अमेरिका चाहता है तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह अभी समझ नहीं आ रहा है।
चीन के साथ संबंधों का निर्वाह कैसे किया जाए यह एक जटिल प्रश्न है। 1962 की कड़वी यादों से हम अभी तक उबर नहीं पाए हैं। चीन का वैभव हमें लुभाता है। उसने जो आर्थिक तरक्की की है उससे हम चकित हैं। दूसरी तरफ चीन को लेकर एक संशय हमेशा बना रहता है। हमारे पड़ोसी देशों के साथ, फिर एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के साथ चीन ने जो व्यापारिक रिश्ते कायम किए हैं वे भी हमें परेशान करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि चीन हमारा पड़ोसी देश है जबकि अमेरिका हमसे सात समंदर पार है। यह तथ्य रेखांकित करना चाहिए कि दो सौ साल की गुलामी में भारत हर तरह से कमजोर हुआ जबकि चीन में प्रारंभ से उद्यमशीलता का वातावरण था जिसके कारण वह देश हमसे कभी भी पीछे नहीं था।
आज की स्थिति यह है कि कुछ ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच है जिन पर हम अमेरिका के साथ हैं, तो कुछ ऐसे भी मंच हैं जहां भारत और चीन साथ बैठते हैं याने संतुलन साधने की कोशिश तो है, लेकिन एक अस्पष्टता बनी हुई है। मुझे मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद का ध्यान आता है। जब 1997 में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई थी तब अकेला मलेशिया ही उस संकट से बच सका था। महातिर मोहम्मद प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मलेशियाई मुद्रा पर सट्टेबाजी नहीं होने दी थी। अब जब वे दुबारा प्रधानमंत्री बने हैं तो उन्होंने चीन से भारी-भरकम योजनाओं के लिए कर्ज लेने से इंकार कर दिया है। आशय यह कि हमारे नीति-निर्धारकों को खासकर विदेश नीति बनाने वालों को निर्णय लेने में साहस और स्पष्टवादिता का परिचय देना चाहिए।
देशबंधु में 20 सितम्बर 2018 को प्रकाशित
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