Wednesday, 5 September 2018

मानसरोवर यात्रा पर राहुल 



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों मानसरोवर यात्रा पर हैं। ध्यान आता है कि आज से तकरीबन सौ साल पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू  ने अमरनाथ की यात्रा की थी। उन दिनों दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर यात्रा करना कष्टसाध्य था। रास्ते में सुविधाएं भी न्यून थीं फिर भी नेहरूजी ने यह यात्रा की। इसका सुंदर वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा 'मेरी कहानी' में किया है। बात निकल पड़ी है तो ध्यान आता है कि जब पंडित नेहरू नैनी जेल में कैद थे तब उन्होंने माघ स्नान के लिए जाते श्रद्धालुओं को लेकर गंगा के बारे में इंदिरा जी को एक रोचक पत्र लिखा था।

इसी तरह वे जब अहमदनगर जेल में बंद थे तब बुद्ध पूर्णिमा का चन्द्रमा देखकर उन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में एक संक्षिप्त लेकिन सटीक टिप्पणी लिखी थी। यह भी हमें पता है कि गीता उनके सिरहाने हमेशा रखी रहती थी और वे नियमित योगाभ्यास भी करते थे। शीर्षासन की मुद्रा में उनका फोटो बहुत ही दिलचस्प है। इलाहाबाद के पैतृक घर आनंद भवन के संग्रहालय में यह देखना दिलचस्प है कि नेहरू जी ने इंदिरा गांधी के जन्म पर उनकी कुंडली भी बनवाई थी। इन तथ्यों के आईने में अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक आस्थावान व्यक्ति थे। वे जड़ अर्थ में नास्तिक नहीं थे लेकिन उनकी रुचि तत्वज्ञान में अधिक थी, कर्मकांड में उनका विश्वास लगभग नहीं था और वे धर्म को निजी आस्था का विषय मानते थे।

सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी उनका अनुसरण कर रहे हैं? जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं लगता। लेकिन थोड़ी गहराई में जाएं तो कयास लगता है कि राहुल ने नेहरू परिवार की परंपरा को त्यागा नहीं है बल्कि कुछ अधिक उत्साह से उसे आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इसके पीछे क्या कारण हैं यह जानने की कोशिश हम करेंगे। मेरी समझ में तीन बिन्दु आते हैं- एक- पंडित नेहरू की तरह राहुल भी आस्थावान हैं। दो- उन्हें इंदिरा गांधी की तरह अपनी आस्तिकता का प्रदर्शन करने से संकोच नहीं है। तीन- वे जो ऐसा कर रहे हैं, आज के राजनीतिक माहौल में शायद उसकी आवश्यकता है।

एक समय था जब प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बनारस में पंडितों के पैर धोए थे और नेहरू जी ने उस पर आपत्ति दर्ज की थी। राजेन्द्र बाबू से इस पर उनका संवाद हुआ।  नेहरू जी का स्पष्ट मत था कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का जीवन व्यापार निजी नहीं होता इसलिए उन्हें अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। उनकी यही सोच थी जिस वजह से देश में एक बहुत बड़े वर्ग ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में सत्ताधारी नेताओं जैसे के.एम. मुंशी की सक्रिय भूमिका को नापसंद किया था। आगे चलकर जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देवरहा बाबा के मचान के नीचे खड़े होकर बाबा के चरणों तले अपना मस्तक रखा था तो वह दृश्य भी प्रबुद्ध समाज को नागवार गुजरा था। इसमें भविष्य में आने वाले खतरे की परछाई भी नजर आ रही थी।

मेरा मानना है कि कोई भी व्यक्ति आस्थाहीन नहीं होता। आवश्यक नहीं कि आपका विश्वास किसी अदृश्य शक्ति में हो। आस्था का केन्द्र जीवित या मृत, हाड़-मांस का कोई व्यक्ति भी हो सकता है, या फिर कोई अन्य वस्तु। आखिरकार संगठित धर्म का उदय होने के पहले प्राचीन युग का मनुष्य सूर्य, आकाश, चन्द्रमा, अग्नि- इन सबकी ही आराधना करता था। आज के दौर में हम जितना महत्व धर्मग्रंथों को देते हैं, कम से कम कहने के लिए, उतना ही महत्व देश के संविधान को देते हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद की ड्योढ़ी पर माथा टेका था तो क्या वे यही संदेश नहीं दे रहे थे कि संसद ही जनतंत्र का सर्वमान्य मंदिर है! इसके बाद उन्होंने क्या किया, उसकी चर्चा करने पर हम विषय से भटक जाएंगे। दरअसल वर्तमान समय जनतांत्रिक आकांक्षाओं का समय है और उसकी सार्थकता इसी में निहित है कि बेड़ियों में जकड़ने वाले धार्मिक कर्मकांड के बजाय प्रगति की दिशा में ले जाने वाली वैज्ञानिक सोच को हम अंगीकार करें।

जनतंत्र बहुमत से चलता है, लेकिन बहुमतवाद से नहीं। किसी संगठित धर्म के प्रति निष्ठा निजी आचरण का विषय हो सकता है, तथापि जनतांत्रिक राजनीति में वह इस मायने में अनर्थ है कि तब अल्पमत की निष्ठा और विश्वास का तिरस्कार होने लगता है। इसीलिए अमेरिका जैसे अग्रणी देश में भी जहां शपथ ईश्वर के नाम पर ली जाती है किन्तु राजकारण में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है। इसका उल्लंघन होता है तो ऐसा करने वाले को दंडित भी होना पड़ता है। यही वातावरण इंग्लैंड और यूरोप के अनेक देशों में है। फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, इटली ऐसे तमाम देशों में अल्पसंख्यक समुदाय को सिर्फ शरण ही नहीं, बल्कि नागरिकता और नागरिक अधिकार भी दिए गए हैं। वहां यदा- कदा संकीर्ण मतवाद को लेकर संघर्ष होते हैं, किन्तु उस कारण से राज्य की जनतांत्रिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होता।

पंडित नेहरू और उनके लगभग सभी साथी- सहयोगी भी स्वतंत्र भारत में इन जनतांत्रिक विश्वासों को पुष्ट करना चाहते थे। पाठकों को शायद ध्यान हो कि हर साल 3 जनवरी को इंडियन साइंस कांग्रेस का प्रारंभ होता है जिसमें प्रधानमंत्री उद्घाटनकर्ता होते हैं। यह परंपरा पंडित नेहरू ने ही प्रारंभ की थी। 1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सर्वोच्च सम्मान देना प्रारंभ हुआ तो प्रथम तीन व्यक्तियों- चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और डॉ. राधाकृष्णन के साथ महान वैज्ञानिक सी.वी. रमन को यह सम्मान मिला। इससे वैज्ञानिक सोच के प्रति तत्कालीन सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर होती है। ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक विश्वास को लेकर नेहरू जी से सरदार पटेल व राजेन्द्र बाबू के बीच मतभेद भले रहे हों, लेकिन शासन स्तर पर उन्होंने कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया जिससे अन्य धर्मों के मतावलंबियों को कोई आघात पहुंचता हो।

उस युग की चर्चा चलने पर मुझे बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रबोध कुमार सान्याल का फिर स्मरण हो आता है। उन्होंने 'हुस्नबानो' उपन्यास लिखा था जिसमें पूर्व और पश्चिम, हिन्दू और मुस्लिम के द्वैत से हटकर बंगाल की सांस्कृतिक एकता पर बल दिया गया था। यह उपन्यास धर्मनिरपेक्षता की पुरजोर वकालत करता है। मजे की बात है कि इन्हीं प्रबोध कुमार सान्याल ने दो बार हिमालय की सुदीर्घ यात्राएं कीं। उनके यात्रा विवरण 'देवतात्मा हिमालय' और 'महाप्रस्थान के पथ पर' इन दो ग्रंथों में संकलित हैं। एक व्यक्ति अपने निजी धार्मिक विश्वासों के बावजूद कैसे धर्म की संकीर्णता से उबर सकता है श्री सान्याल उसका प्रबल प्रमाण हैं। उस दौर में वे ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं थे। सच कहें तो सारे देश का माहौल कुछ इसी तरह का था कि धरम-करम घर तक सीमित रखो, और सार्वजनिक जीवन में संकीर्ण मतवाद से दूर रहो। हमने तो रायपुर में देखा है कि गणेश उत्सव और नवरात्रि के समय पंडालों में सार्वजनिक महत्व के विषयों पर भाषण व वाद विवाद आदि कार्यक्रम होते थे और उनमें विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, कॉलेज के प्राचार्य, पत्रकार, कलाकार इत्यादि बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उनमें तब आज जैसा धार्मिक आस्था का भौंडा प्रदर्शन नहीं होता था।

आज है कि समूचा बाजार, जिसमें मीडिया भी शामिल है, सारे माहौल को बहुसंख्यक धार्मिकता के मद में डूबा देने के लिए हरसंभव युक्तियां कर रहा है। इसी के बीच से  राहुल गांधी को अपना रास्ता निकालना है। उन्हें शायद लगता है कि अपनी साख कायम करने और अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उन्हें अपनी आस्था का खुलकर प्रदर्शन करना चाहिए। यह एक फौरी रणनीति हो सकती है, लेकिन राहुल गांधी की असली परीक्षा तो इसी में है कि वे भारतीय जनमानस को संकीर्णता और जड़वाद से मुक्त कर कैसे वैज्ञानिक चेतना से लैस होने के लिए प्रेरित कर पाते हैं।

#देशबंधु में 06 सितंबर 2018 को प्रकाशित

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