जैसे तीज-त्योहार में कुछ रस्मों का पालन करना लगभग अनिवार्य माना जाता है, वैसे ही आम चुनावों के समय विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा घोषणापत्र जारी करना भी एक अनिवार्य कर्मकांड बन गया है। यह कोई अटपटी बात नहीं है। आम चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार है, तो उसके अनुरूप परिपाटियों का निर्वाह भी होना चाहिए। यह बात अलग है कि एक चुनाव सम्पन्न होने और अगले चुनाव सिर पर आ जाने के बीच का जो अंतराल है उसमें इन घोषणाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कथनी और करनी के इस फर्क को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी ओर से वैधानिकता भी प्रदान कर दी है। अमित शाह की स्वीकारोक्ति गौरतलब है कि चुनावी घोषणाएं जुमलेबाजी होती हैं। मुझे रहीम कवि का दोहा याद आ रहा है-
काज परै कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर।।
काज परै कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर।।
जैसे विवाह सम्पन्न होने के बाद मौर की उपयोगिता समाप्त हो जाती है वैसे ही चुनावों के बाद घोषणापत्र भी निरर्थक हो जाता है। फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह एक बौद्धिक व्यायाम तो है ही। आम जनता से वोट बटोरने के लिए जो हथकंडे अपनाए जाते हैं वह एक अलग आख्यान है, किन्तु चुनावों के समय हर वर्ग को संतुष्ट करने की कोशिश राजनीतिक दल करते हैं और चुनावी घोषणापत्र की सीमित उपयोगिता इस संदर्भ में बन जाती है। अपने आपको प्रजातंत्र का प्रहरी मानने वाले बुद्धिजीवी राजनीतिक पार्टियों पर जोर डालते हैं कि वे आने वाले दिनों के लिए एक दृष्टिपत्र घोषित करें। इस वर्ग को खुश रखने के लिए नेतागण उनकी बात मान लेते हैं और बड़े-बड़े वायदे हो जाते हैं। गो कि आगे जो होना होता है वही होता है।
घोषणापत्र मुझ जैसों को आश्वस्त करता है कि जिसकी सरकार बनेगी वह अपने किए वायदों पर अमल करेगी और अगर नहीं करेगी तो उस पर वादाखिलाफी का अपराध सिद्ध किया जा सकेगा। लेकिन हाल के दिनों में यह विश्वास टूटने लगा है। इसका प्रमाण हमें वर्तमान में चल रहे विधानसभा चुनावों के दौर में बखूबी मिल रहा है। दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा के नेता लगातार आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए हैं। बड़े-बड़े नेता आते हैं, भाषण देकर चले जाते हैं। भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटाई जाती है, लेकिन कुल मिलाकर क्या होता है? एक-दूसरे पर छींटाकशी, व्यक्तिगत लांछन, सच्चे-झूठे आरोप, अभद्र भाषा का प्रयोग, गाली-गलौज तक की नौबत इसी में सारी मेहनत लग रही है। पत्रवार्ताएं होती हैं तो उनमें भी बुनियादी मुद्दों पर सवाल नहीं पूछे जाते।
फिर भी मन है कि मानता नहीं। पत्रकार होने के नाते दूरदराज से जनता की आशा-आकांक्षा की तस्वीरें देखने मिलती हैं। उन्हें देखकर मन में विचार उठता है कि अगर मैं राजनीति में होता तो जनता के लिए क्या करता। दोनों पार्टियों के घोषणापत्रों में बहुत अच्छी-अच्छी बातें अवश्य होंगी जो बहुत जल्दी जुमलों में बदल जाएंगी, लेकिन आम जनता को अपने तईं भी सोचने की आवश्यकता है कि सुखी भविष्य के लिए उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? उसके लिए नितांत आवश्यक है कि वह तटस्थ भाव से परिस्थितियों का आकलन कर अपनी सामूहिक आकांक्षाओं को समेटते हुए एक ऐसा दृष्टिपत्र या रोडमैप तैयार करे जिस पर अमल करने के लिए वह किसी दिन अपने चुने हुए, लेकिन गुमराह हुक्मरानों को बाध्य कर सके।
अपने प्रदेश छत्तीसगढ़ के बारे में सोचते हुए मेरे ध्यान में निम्नलिखित बिन्दु आते हैं जो शायद ऐसे किसी एक मुकम्मल घोषणापत्र का हिस्सा बन सकें। इनमें से अनेक बिन्दु शायद अन्य राज्यों की जनता के भी काम में आएं!
1. सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है।
2. प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करना।
3. प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा, जिसका बड़ा हिस्सा प्राथमिक शिक्षा पर खर्च।
4. तमाम प्राथमिक शालाएं सरकार के अधीन और उनमें पूर्णकालिक प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति।
5. निजी स्कूलों को सरकार से किसी भी तरह की कोई रियायत नहीं। कोई भी मंत्री, अधिकारी निजी स्कूलों का कोई निमंत्रण स्वीकार नहीं करेंगे।
6. प्रदेश में जितने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और उपकेन्द्रों की आवश्यकता होगी उतने खोले जाएंगे।
7. स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत खर्च।
8. हर ऐसे बड़े गांव में सरकारी कर्मचारियों के लिए आवासीय संकुल जहां से वे अधिकतम पांच किलोमीटर की दूरी तक जाकर अपनी सेवाएं दे सकें। इन आवासीय संकुलों में उनके लिए सभी आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी ताकि वे शहर की ओर बार-बार भागने की न सोचें।
9. डॉक्टरों की पदस्थापना में रोस्टर पद्धति का पालन ताकि हर डॉक्टर अपनी आयु, अनुभव और आवश्यकता के अनुरूप उपस्वास्थ्य केंद्र से शुरू कर बड़े अस्पताल तक पहुंच कर अपनी सेवाएं दे सकें।
9. डॉक्टरों की पदस्थापना में रोस्टर पद्धति का पालन ताकि हर डॉक्टर अपनी आयु, अनुभव और आवश्यकता के अनुरूप उपस्वास्थ्य केंद्र से शुरू कर बड़े अस्पताल तक पहुंच कर अपनी सेवाएं दे सकें।
10. शिक्षकों, डॉक्टरों और शिक्षा-स्वास्थ्य से जुड़े अन्य पदों पर रिक्त तमाम पदों पर प्राथमिकता के आधार पर भर्ती।
11. प्रदेश की नदियों व जलाशयों के सुचारु प्रबंध के लिए नदी पंचायत व अन्य संस्थाओं का गठन जिसमें जनता स्वयं जल संरक्षण, जल संवर्धन व जल आपूर्ति के बारे में सूझबूझ के साथ खुद फैसले ले सके।
12. जल के अविरल व निर्मल प्रवाह के लिए पांच-पांच, दस-दस किलोमीटर की दूरी पर बने स्टापडेम योजनाबद्ध तरीके से खत्म करना।
13. जिन पर्वतों, पहाड़ियों से वर्षा जल नीचे उतरता है वहां प्राथमिकता से वृक्षारोपण।
14. जनता के साथ खुले संवाद के माध्यम से प्रदेश की खनिज सम्पदा व वन सम्पदा के दोहन की नई नीति।
15. गांवों में स्थित चरागान आदि सामुदायिक भूमि तथा शहरों में तालाब, मैदान, बगीचे की भूमि किसी भी सूरत में अन्य उपयोग के लिए नहीं।
16. प्रदेश में सार्वजनिक यातायात सेवा का अधिकतम विस्तार तथा निजी वाहनों की बढ़ती संख्या रोकने के लिए उचित उपाय।
17. रोजगार के अधिकतम अवसर हेतु हाथकरघा व कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता के साथ संरक्षण।
18. हमारा प्रदेश आदिवासी बहुल है। यहां कृषक और श्रमजीवी समुदाय की बहुतायत है। हर हाल में इनका हित संरक्षण।
19. पंचायतीराज कानून व पेसा कानून को संविधान की भावना के अनुरूप लागू करना।
20. हर ग्राम में धान भंडारण, पंचायत के माध्यम से धान की मिलिंग, जिससे किसान को उचित मूल्य मिल पाए।
21. हर ग्राम में गौशाला परिसर का निर्माण। बायोगैस से बिजली उत्पादन व सड़कों पर आवारा मवेशियों पर रोक।
22. विश्वविद्यालयों को संपूर्ण स्वायत्तता।
यह घोषणापत्र आधा-अधूरा है। इसमें बहुत से बिन्दु अभी जोड़ना बाकी है। संभव है कि अगले लेख में उसके विवरण आएं! इस बीच पाठकगण भी अपने सुझाव भेज सकते हैं।
देशबंधु में 01 नवंबर 2018 को प्रकाशित