Wednesday, 31 October 2018

मेरा चुनावी घोषणापत्र

                                                 
जैसे तीज-त्योहार में कुछ रस्मों का पालन करना लगभग अनिवार्य माना जाता है, वैसे ही आम चुनावों के समय विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा घोषणापत्र जारी करना भी एक अनिवार्य कर्मकांड बन गया है। यह कोई अटपटी बात नहीं है। आम चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार है, तो उसके अनुरूप परिपाटियों का निर्वाह भी होना चाहिए। यह बात अलग है कि एक चुनाव सम्पन्न होने और अगले चुनाव सिर पर आ जाने के बीच का जो अंतराल है उसमें इन घोषणाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कथनी और करनी के इस फर्क को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी ओर से वैधानिकता भी प्रदान कर दी है। अमित शाह की स्वीकारोक्ति गौरतलब है कि चुनावी घोषणाएं जुमलेबाजी होती हैं। मुझे रहीम कवि का दोहा याद आ रहा है-
काज परै कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर।।
जैसे विवाह सम्पन्न होने के बाद मौर की उपयोगिता समाप्त हो जाती है वैसे ही चुनावों के बाद घोषणापत्र भी निरर्थक हो जाता है।  फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह एक बौद्धिक व्यायाम तो है ही। आम जनता से वोट बटोरने के लिए जो हथकंडे अपनाए जाते हैं वह एक अलग आख्यान है, किन्तु चुनावों के समय हर वर्ग को संतुष्ट करने की कोशिश राजनीतिक दल करते हैं और चुनावी घोषणापत्र की सीमित उपयोगिता इस संदर्भ में बन जाती है। अपने आपको प्रजातंत्र का प्रहरी मानने वाले बुद्धिजीवी राजनीतिक पार्टियों पर जोर डालते हैं कि वे आने वाले दिनों के लिए एक दृष्टिपत्र घोषित करें। इस वर्ग को खुश रखने के लिए नेतागण उनकी बात मान लेते हैं और बड़े-बड़े वायदे हो जाते हैं। गो कि आगे जो होना होता है वही होता है।
घोषणापत्र मुझ जैसों को आश्वस्त करता है कि जिसकी सरकार बनेगी वह अपने किए वायदों पर अमल करेगी और अगर नहीं करेगी तो उस पर वादाखिलाफी का अपराध सिद्ध किया जा सकेगा। लेकिन हाल के दिनों में यह विश्वास  टूटने लगा है। इसका प्रमाण हमें वर्तमान में चल रहे विधानसभा चुनावों के दौर में बखूबी मिल रहा है। दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा के नेता लगातार आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए  हैं। बड़े-बड़े नेता आते हैं, भाषण देकर चले जाते हैं। भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटाई जाती है, लेकिन कुल मिलाकर क्या होता है? एक-दूसरे पर छींटाकशी, व्यक्तिगत लांछन, सच्चे-झूठे आरोप, अभद्र भाषा का प्रयोग, गाली-गलौज तक की नौबत इसी में सारी मेहनत लग रही है। पत्रवार्ताएं होती हैं तो उनमें भी बुनियादी मुद्दों पर सवाल नहीं पूछे जाते। 
फिर भी मन है कि मानता नहीं। पत्रकार होने के नाते दूरदराज से जनता की आशा-आकांक्षा की तस्वीरें देखने मिलती हैं। उन्हें देखकर मन में विचार उठता है कि अगर मैं राजनीति में होता तो जनता के लिए क्या करता। दोनों पार्टियों के घोषणापत्रों में बहुत अच्छी-अच्छी बातें अवश्य होंगी जो बहुत जल्दी जुमलों में बदल जाएंगी, लेकिन आम जनता को अपने तईं भी सोचने की आवश्यकता है कि सुखी भविष्य के लिए उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? उसके लिए नितांत आवश्यक है कि वह तटस्थ भाव से परिस्थितियों का आकलन कर अपनी सामूहिक आकांक्षाओं को समेटते हुए एक ऐसा दृष्टिपत्र या रोडमैप तैयार करे जिस पर अमल करने के लिए वह किसी दिन अपने चुने हुए, लेकिन गुमराह हुक्मरानों को बाध्य कर सके।
अपने प्रदेश छत्तीसगढ़ के बारे में सोचते हुए मेरे ध्यान में निम्नलिखित बिन्दु आते हैं जो शायद ऐसे किसी एक मुकम्मल घोषणापत्र का हिस्सा बन सकें। इनमें से अनेक बिन्दु शायद अन्य राज्यों की जनता के भी काम में आएं! 
1.     सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है।
2.     प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करना। 
3.     प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा, जिसका बड़ा हिस्सा प्राथमिक शिक्षा पर खर्च।
4.     तमाम प्राथमिक शालाएं सरकार के अधीन और उनमें पूर्णकालिक प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति।
5.     निजी स्कूलों को सरकार से किसी भी तरह की कोई रियायत नहीं। कोई भी मंत्री, अधिकारी निजी स्कूलों का कोई निमंत्रण स्वीकार नहीं करेंगे।
6.     प्रदेश में जितने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और उपकेन्द्रों की आवश्यकता होगी उतने खोले जाएंगे।
7.     स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत खर्च।
8.     हर ऐसे बड़े गांव में सरकारी कर्मचारियों के लिए आवासीय संकुल  जहां से वे अधिकतम पांच किलोमीटर की दूरी तक जाकर अपनी सेवाएं दे सकें। इन आवासीय संकुलों में उनके लिए सभी आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी ताकि वे शहर की ओर बार-बार भागने की न सोचें।

9.      डॉक्टरों की पदस्थापना में रोस्टर पद्धति का पालन  ताकि हर डॉक्टर अपनी आयु, अनुभव और आवश्यकता के अनुरूप उपस्वास्थ्य केंद्र से शुरू कर बड़े अस्पताल तक पहुंच कर अपनी सेवाएं दे सकें।
10.     शिक्षकों, डॉक्टरों और शिक्षा-स्वास्थ्य से जुड़े अन्य पदों पर रिक्त तमाम पदों पर प्राथमिकता के आधार पर भर्ती। 
11.     प्रदेश की नदियों व जलाशयों के सुचारु प्रबंध के लिए नदी पंचायत व अन्य संस्थाओं का गठन जिसमें जनता स्वयं जल संरक्षण, जल  संवर्धन व जल आपूर्ति के बारे में सूझबूझ के साथ खुद फैसले ले सके।
12.     जल के अविरल व निर्मल प्रवाह के लिए पांच-पांच, दस-दस किलोमीटर की दूरी पर बने स्टापडेम योजनाबद्ध तरीके से खत्म करना।
13.     जिन पर्वतों, पहाड़ियों से वर्षा जल नीचे उतरता है वहां प्राथमिकता से वृक्षारोपण। 
14.     जनता के साथ खुले संवाद के माध्यम से प्रदेश की खनिज सम्पदा व वन सम्पदा के दोहन की नई नीति।
15.     गांवों में स्थित चरागान आदि सामुदायिक भूमि तथा शहरों में तालाब, मैदान, बगीचे की भूमि किसी भी सूरत में अन्य उपयोग के लिए नहीं।
16.     प्रदेश में सार्वजनिक यातायात सेवा का अधिकतम विस्तार तथा निजी वाहनों की बढ़ती संख्या रोकने के लिए उचित उपाय।
17.     रोजगार के अधिकतम अवसर हेतु हाथकरघा व कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता के साथ संरक्षण।
18.     हमारा प्रदेश आदिवासी बहुल है। यहां कृषक और श्रमजीवी समुदाय की बहुतायत है। हर हाल में इनका हित संरक्षण।
19.     पंचायतीराज कानून व पेसा कानून को संविधान की भावना के अनुरूप लागू करना।
20.     हर ग्राम में धान भंडारण, पंचायत के माध्यम से धान की मिलिंग, जिससे किसान को उचित मूल्य मिल पाए।
21.     हर ग्राम में गौशाला परिसर का निर्माण। बायोगैस से बिजली उत्पादन व सड़कों पर आवारा मवेशियों पर रोक।
22. विश्वविद्यालयों को संपूर्ण स्वायत्तता।
यह घोषणापत्र आधा-अधूरा है। इसमें बहुत से बिन्दु अभी जोड़ना बाकी है। संभव है कि अगले लेख में उसके विवरण आएं! इस बीच पाठकगण भी अपने सुझाव भेज सकते हैं।
 देशबंधु में 01 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 24 October 2018

कन्फ़्यूज़न जारी है

                            
छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री और वर्तमान में जोगी कांग्रेस के सुप्रीमो अजीत जोगी ने विधानसभा चुनावों के काफी पहले जोर-शोर से घोषणा की थी कि वे राजनांदगांव क्षेत्र से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे।  लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि उन्होंने विधानसभा चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया। कारण यह बताया कि वे एक जगह बंधे रहने के बजाय पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर अपने उम्मीदवारों के लिए प्रचार करेंगे। इस दूसरी खबर की स्याही सूखी भी न थी कि उनके अपनी पुरानी सीट मरवाही से चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट  प्रारंभ हो गई। अब एक दिलचस्प स्थिति सामने है। पत्नी श्रीमती रेणु जोगी कोटा क्षेत्र से कांग्रेस टिकट की आस लगाए बैठी हैं। पुत्र और डीफैक्टो सुप्रीमो अमित जोगी के मनेन्द्रगढ़ से लड़ने की अटकलें लग रही हैं और पुत्रवधु ऋचा जोगी के अकलतरा से बसपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा हो चुकी है।
मैंने पिछले सप्ताह छत्तीसगढ़ के चुनावी मैदान में जिस भारी  कन्फ़्यूज़न का उल्लेख किया था वह इस प्रकरण से प्रमाणित हो रहा है। लेकिन यह कुहासा सिर्फ जोगीजी के कारण नहीं है और छत्तीसगढ़ तक सीमित भी नहीं है। छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस ने पहले चरण की बारह सीटों पर उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मीडिया के साथियों को लगा कि कांग्रेस ने बाजी मार ली है, किन्तु दो दिन बाद भारतीय जनता पार्टी ने एकमुश्त सतत्तर उम्मीदवार घोषित कर दिए तो क्या इसे भाजपा का बाजी मार लेना कहा जाएगा? क्योंकि कांग्रेस ने अभी तक दूसरे चरण के उम्मीदवारों की सूची प्रकट नहीं की है। यदि कांग्रेस ने पहले चरण में राजनांदगांव सीट पर ऐन मौके तक सस्पेंस बनाए रखा तो भाजपा के बारे में संशय बरकरार है कि बची बारह सीटों पर उसने अभी तक प्रत्याशियों के नाम रोककर क्यों रखे? कुल मिलाकर चुनावी विश्लेषकों के लिए भ्रम से भरपूर लेकिन रोचक स्थिति है।
खैर! जिन्हें दूर से बैठकर तमाशा देखना है उन्हें तो हर उथल-पुथल में मसाला मिल जाता है परन्तु जिनका राजनीतिक कॅरियर दांव पर लगा हो उनके लिए स्थितियां रोचक न होकर दुखदायी बन गई प्रतीत होती हैं। जैसे भाजपा के अधिकतर नेता और कार्यकर्ता अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं कि पार्टी ने प्रत्याशी चयन में अपेक्षित बेरहमी क्यों नहीं दिखाई या जुमलेबाजी का इस्तेमाल करूं तो सर्जिकल स्ट्राइक क्यों नहीं की? दो साल पहले दिल्ली के तीन नगर निगमों के चुनाव हुए थे तो भाजपा ने पूरे दो सौ सत्तर से अधिक उम्मीदवारों को बदल डाला था जिसका वांछित परिणाम भी विजय के रूप में उन्हें मिला। यही उम्मीद छत्तीसगढ़ में की जा रही थी, लेकिन ऐसा लगता है कि ऐन वक्त पर पार्टी नेतृत्व के हाथ-पैर कांप गए। उसे शायद लगा कि पुराने उम्मीदवारों पर भरोसा करना ही बेहतर होगा! कम से कम इससे पार्टी में बगावत नहीं होगी।
भाजपा छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में पन्द्रह साल से सत्तारूढ़ है। जहां गुड़ है वहां चींटे पहुंचेंगे ही। एक समय जो बात कांग्रेस के बारे में कही जाती थी वह अब भाजपा पर लागू हो रही है कि समर्पित कार्यकर्ता जीवनभर दरियां उठाते-बिछाते रहेंगे और चतुर लोग सेंधमारी कर खजाना पा जाएंगे। इधर राजनीतिक शब्दावली में एक नई संज्ञा प्रचलन में आ गई है। लोग विरोध जताने लगे हैं कि पैराशूट उम्मीदवार नहीं चलेगा। इन्हें पहले बाहर से थोपे हुए प्रत्याशी कहकर विरोध होता था। छत्तीसगढ़ भाजपा में फिलहाल ऐसे उम्मीदवारों को लेकर घमासान मचा है। साथ-साथ पार्टी के अनेक पुराने कार्यकर्ता भी जो आस लगाए बैठे थे अब कहीं दुख, तो कहीं क्रोध जाहिर कर रहे हैं। यह स्थिति मुझे भी अटपटी लगती है कि भाजपा अनेक सीटों पर जनता से खारिज किए गए, पिटे हुए मोहरों पर दांव क्यों लगा रही है। चुनाव न हुआ, कबड्डी का खेल हो गया कि जिसमें 'मरा' हुआ खिलाड़ी फिर जीवित हो जाता है। 
छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की शेष बहत्तर सीटों पर प्रत्याशियों की सूची आना बाकी है। उसके आने के बाद ही पता लगेगा कि चुनावी मुकाबला क्या  शक्ल लेता है। मैं समझता हूं कि असंतुष्टों की संख्या वहां भी कम नहीं होगी जिसकी कुछ-कुछ सुगबुगाहट अभी से सुनने मिल रही है। बस्तर में तो दंतेवाड़ा सीट पर मां देवती कर्मा के खिलाफ पुत्र छबिन्द्र कर्मा ताल ठोंक कर मैदान में आ गए हैं।  इसे प्रदेश भाजपा के एक बड़े नेता ने कांग्रेस की संस्कारहीनता निरूपित किया है। इन नेताजी को याद कर लेना चाहिए कि भाजपा की राष्ट्रीय नेता श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के विरोध में उनके सुपुत्र माधवराव सिंधिया खुलकर मैदान में आ गए थे और आज बुजुर्ग यशवंत सिन्हा एक तरह से अपने पुत्र के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। यह मामला पारिवारिक संस्कारों का नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छा, अवसर और प्राथमिकता का है। वैसे इतिहास के पन्ने पलटें तो ज्ञात होता है कि मेवाड़ के राजा व कुंभलगढ़ के निर्माता राणा कुंभा की हत्या उनके ही बेटे उदय सिंह ने मंदिर में पूजा करते समय कर दी थी। 
छत्तीसगढ़ के साथ-साथ थोड़ी बात मध्यप्रदेश की कर लें क्योंकि कन्फ़्यूज़न वहां भी कम नहीं है। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पिछले दिनों कार्यकर्ताओं के बीच खुली घोषणा की कि वे चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लेंगे क्योंकि उनके कारण कांग्रेस के वोट कटते हैं। इस कथन का क्या अर्थ निकाला जाए? मैंने एक बार पहले भी लिखा है कि दिग्विजय जो कहते हैं उसका अर्थ निकालना अक्सर संभव नहीं होता। वे इस बयान के माध्यम से एक सच को स्वीकार कर रहे थे, या अपनी पीड़ा को वाणी दे रहे थे कि उन्हें चुनाव प्रचार से दूर रखा गया है, या फिर चेतावनी दे रहे थे कि उनकी उपेक्षा हुई तो यह पार्टी के हित में नहीं होगा! उनके एक वाक्य के तीन अलग-अलग मतलब तो मैं निकाल रहा हूं। हो सकता है कि असली मंतव्य कुछ और हो। मुझे ध्यान आता है कि 1998 में दुबारा मुख्यमंत्री बने दिग्विजय सिंह स्वयं को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे थे। उनके बारे में मीडिया में तो कम से कम यही प्रचार होता था। उनके ताजा बयान को लेकर भी मीडिया का एक हिस्सा उनकी मदद के लिए सामने आ गया है। कहीं अखबार में, तो कहीं यू-ट्यूब पर विश्लेषण हो रहा है कि दरअसल राहुल गांधी ने ही उन्हें गुपचुप तरीके से कार्यकर्ताओं को संगठित करने और उनमें नए सिरे से उत्साह का संचार करने की जिम्मेदारी दी है। यह सच्चाई भी हो सकती है या शायद डेमेज कंट्रोल की कवायद भी। वैसे मध्यप्रदेश तो नहीं, छत्तीसगढ़ के अधिकतर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के अनुयायी हैं। राहुल गांधी ने उन्हें यहां का काम सौंपा होता तो उनके मार्गदर्शन में कांग्रेस को उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता। हो सकता है कि वे दूरसंचार से ही अपने साथियों का मनोबल बढ़ा रहे हों!
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ-साथ मिजोरम और तेलंगाना में भी चुनाव हो रहे हैं। यह दिलचस्प तथ्य है कि तेलंगाना में कांग्रेस, चन्द्राबाबू नायडू की टीडीपी और भाकपा याने सीपीआई ने संयुक्त मोर्चा बना लिया है। तेलंगाना में कभी केसीआर कांग्रेस के सहयोगी थे। राज्य बनने के बाद उम्मीद थी कि वे कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाएंगे, लेकिन वे तो देखते ही देखते कांग्रेस के दुश्मन बन गए। यह क्यों हुआ समझ नहीं पड़ता। यह अवश्य ध्यान आता है कि कांग्रेस द्वारा बनाए गए राज्यपाल ई.एस.एल. नरसिम्हन ऐसे अकेले राज्यपाल हैं जो मोदी सरकार में भी पिछले चार साल से बने हुए हैं। वे आज देश के सबसे वरिष्ठ राज्यपाल हैं। तेलंगाना जाने से पहले वे छत्तीसगढ़ में थे। यह भी ध्यान आता है कि आनंदीबेन पटेल मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ का प्रभार भी संभाल रही हैं। यह अनूठा संयोग है कि श्री नरसिम्हन आंध्र व तेलंगाना दोनों के राज्यपाल हैं और श्रीमती पटेल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की। इन दोनों प्रांतों में नए राज्यपाल क्यों नहीं नियुक्त हुए, इसका चुनाव से शायद कोई लेना-देना नहीं है!
 देशबंधु में 25 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 17 October 2018

जो हुकुम सरकार

                                            
आसन्न विधानसभा चुनावों के संदर्भ में अन्यत्र प्रकाशित इस टिप्पणी का जायजा लीजिए- ''इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले कांग्रेस पार्टी की साख दांव पर लगी है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस प्रतिपक्ष में है। यहां उसे अपनी ताकत सिद्ध करना होगी, अगर वह नहीं जीत पाती है तो उसके सितारे गर्दिश में चले जाएंगे। अगर इन राज्यों में भाजपा हारती है तो भी उसे कोई नुकसान नहीं होगा। 2019 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के सामने कोई चुनौती नहीं होगी।'' देश के एक प्रमुख अंग्रेजी समाचारपत्र में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने विधानसभा चुनावों को लेकर लगभग इन्हीं शब्दों में अपनी राय व्यक्त की है। यह शब्दश: अनुवाद नहीं है, लेकिन लेख की भावना यही है। मैंने विगत एक सप्ताह में इस टिप्पणी का सिर-पैर खोजने की खूब कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाया।
जो बात कुछ-कुछ पल्ले पड़ती है, वह बस इतनी ही कि विद्वान पत्रकार ने मोदीजी को पहले से क्लीन चिट दे दी है। कांग्रेस अगर जीते तो यह उसकी किस्मत पर उसका आगामी आम चुनावों में कोई असर नहीं पड़ेगा। यदि कांग्रेस हार जाए तो यह उसके नेतृत्व की विफलता होगी। मुझे दिल्ली में बैठे पत्रकारों द्वारा इस तरह से किए जा रहे विश्लेषणों को देखकर हैरान होना चाहिए लेकिन मैं हैरान नहीं हूं। आखिरकार बिहार में अपनी करारी हार को भारतीय जनता पार्टी ने दो साल बीतते न बीतते विजय में बदल लिया। गोवा में स्पष्ट रूप से हारने के बावजूद वहां भाजपा की सरकार बन गई और बच भी गई। गुजरात में पिछले पच्चीस साल में सबसे कम अंतर से जीतने के बावजूद भाजपा के तेवरों में कमी नहीं आई। कर्नाटक में पराजय का सामना करना पड़ा। और हां, सबसे पहले तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने शिकस्त दी। इन सबसे अविचलित रहकर भाजपा की यात्रा कुछ इस तरह से चल रही है मानो भीड़ भरी तंग सड़क पर कोई बाइक सवार आजू-बाजू से किसी न किसी उपाय से पतली गली खोजकर दूसरों को पीछे छोड़ अपनी बाइक आगे निकाल ले जाए। इस दु:साहस के चलते किसी का सिर फूटे, किसी की गाड़ी टकराए, किसी पैदल चलते को चोट आए तो उसकी बला से। हम तो आगे निकल गए।
यह हम अपने अनुभव से जानते हैं कि सत्ताधीशों को जो पसंद न आए, वह बात नहीं लिखना चाहिए। राजनीति विचार केन्द्रित न होकर व्यक्ति केन्द्रित हो चुकी है। मैं इस बात को बार-बार दोहराता हूं यद्यपि इसका कोई लाभ नहीं है। आज की राजनीति में सत्ता पा लेना ही सर्वोपरि है और उसमें नेताओं की आलोचना करने के अलावा बाकी सब जायज है। अक्सर अंग्रेजी कहावत का हवाला दिया जाता है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है। पूछना चाहिए एकतरफा प्रेम या महज आकर्षण में जो कुछ किया जाता है क्या वह भी जायज है? फिर #मीटू जैसी धारणा क्यों जन्म लेती है? पूछना यह भी चाहिए कि क्या चुनावों की तुलना युद्ध से करना सही है? मीडिया ने तो शायद ऐसा ही मान रखा है। रणक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, महासंग्राम, रणभेरी जैसी संज्ञाओं का प्रयोग होता है फिर भले ही उसका मकसद टीआरपी बढ़ाना क्यों न हो। ध्यान दीजिए कि क्रिकेट के खेल में भी इसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि पत्रकारों के सामने भाषा का संकट है। वे नहीं जानते कि कैसे विषय के अनुकूल भाषा का निर्माण और शब्दों का प्रयोग करें।
खैर! जब चुनावों की तुलना युद्ध से करते हैं तो हमारे सोचने का नजरिया भी बदल जाता है। आज के सत्तालोलुप नेताओं को यह स्थिति बहुत रास आती है। उन्हें विरुदावलि गाने वालों की जरूरत पड़ती है। पृथ्वीराज चौहान के पास चंद बरदाई थे जिन्हें हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का प्रथम महाकवि माना जाता है। इस इक्कीसवीं सदी में जनता के वोटों से विजयी या पराजित नेताओं के दरबार में सामंतकालीन कवियों का स्थान पत्रकारों ने ले लिया है। उनमें से जो महाकवि बनने की योग्यता हासिल कर लेते हैं उन्हें या तो राज्यसभा में जगह मिल जाती है या फिर वे किसी नवरत्न कंपनी के डायरेक्टर, एडवाइजर वगैरह भी बन सकते हैं। जो नेता जितना बड़ा, उसके द्वारा दी गई मोतियों की लड़ी भी उतनी ही महंगी। जो इतने ऊंचे नहीं पहुंच पाते वे अपनी-अपनी काबिलियत के मुताबिक  इनाम- इकरार पा जाते हैं। जिन्हें ड्योढ़ी चढ़ना कबूल नहीं है, वे अपने घर में बैठे रहते हैं; सोशल मीडिया पर टिप्पणियां लिखकर अपने मन का गुबार हल्का कर लेते हैं। गो कि खतरा वहां भी कम नहीं है। जब युद्ध चल रहा है तो फिर जो हमारे साथ नहीं हैं वह हमारा दुश्मन ही तो कहलाएगा! रावण के दरबार से सगे भाई विभीषण को भी निकलना पड़ा था, फिर बाकी की तो बिसात ही क्या?
बहरहाल अभी जो चुनाव होने जा रहे हैं उनके परिप्रेक्ष्य में मुझे रामायण का कम, महाभारत का ज्यादा ध्यान आ रहा है। रामायण में मोटे तौर पर राम और रावण दोनों के पक्षों का विभाजन लगभग स्पष्ट था। जबकि महाभारत में शुरू से, बोलचाल की भाषा में कहूं तो, भारी कन्फ्यूजन था। पहले तो अर्जुन ही रणक्षेत्र में उतरने को तैयार नहीं थे; फिर कृष्ण एक तरफ और उनकी सेना दूसरी तरफ; मद्र देश से नकुल-सहदेव के मामा शल्य भांजों की मदद के लिए आ रहे थे तो दुर्योधन ने उन्हें रास्ते में ही छेंककर अपने पक्ष में लड़ने का वचन ले लिया, उसके आगे का किस्सा शल्य-कर्ण संवाद में है; भीष्म पितामह लड़ रहे थे कौरवों की तरफ से, लेकिन अंत समय में उपदेश सुनाने का पल आया तो वहां अर्जुन उपस्थित थे। आजकल के चुनावों में इसी तरह के दृश्य देखने मिलते हैं।
2014 के लोकसभा चुनावों के ऐन वक्त पर  कांग्रेस के कितने ही धुरंधर नेता भाजपा में चले गए थे। गोवा विधानसभा चुनावों में भी वही हुआ, मेघालय में भी, और तेलंगाना की कहानी क्या कम रोचक है। मैं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बैठकर अपने आसपास देखता हूं तो समझ नहीं आता कि क्या हो रहा है। मैं अपनी ही बात क्या करूं, हमारे प्रदेश के मतदाता भी उलझन में हैं कि माजरा क्या है? फिल्म ''जाने भी दो यारो'' का वह दृश्य मुझे याद आता है जब चलते नाटक के बीच अफरातफरी मच जाती है और नेत्रहीन पात्र बार-बार पूछता है- कोई बताएगा मुझे, क्या हो रहा है? मैं अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए कुछ बिन्दु सामने रखना चाहता हूं जो विभिन्न वर्गों के लोगों से चर्चा करने के बाद समझ पड़े हैं-
1.     मतदाता चाहता है कि रमन सिंह मुख्यमंत्री बने रहें, लेकिन भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार जाए। पन्द्रह साल के राज से जनता थक  गई है।
2.     कांग्रेस चुनाव जीत जाए, लेकिन मुख्यमंत्री कौन हो, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है। विद्वान, विश्लेषक कहते हैं कि कांग्रेस के पास रमन सिंह के मुकाबले में कोई चेहरा नहीं है। लेकिन क्या 2003 में भाजपा के पास अजीत जोगी के मुकाबले कोई चेहरा था?
3.    'आप' पार्टी किस इरादे से मैदान में उतरी है और उसके रहने से किसे लाभ होगा? युवा 'आप' नेता संकेत ठाकुर की हालिया जेल यात्रा के पीछे भी क्या कोई योजना थी?
4.     अजीत जोगी किसके लिए लड़ रहे हैं? खुद के लिए, परिवार के सदस्यों के लिए, कांग्रेस के बुनियादी मूल्यों को बचाने के लिए या भाजपा की मदद करने के लिए?
5.     जोगी कांग्रेस और बसपा का गठबंधन किन शर्तों पर हुआ है और किसकी प्रेरणा या दबाव से हुआ है?
6.     जोगी कांग्रेस और सीपीआई के गठजोड़ की क्या उपयोगिता है? सीपीआई के सैकड़ों कार्यकर्ता जिस पुलिस अधिकारी के हाथों प्रताड़ित हुए वह तो जोगीजी के लिए पुत्रवत था। फिर क्या हुआ?
7.     रामदयाल उइके को कैसे प्रेरणा मिली कि उन्हें घर वापिस आ जाना चाहिए?
8.     एक बात जो लोग खुलकर कह रहे हैं कि भाजपा पानी की तरह पैसे बहाएगी जबकि कांग्रेस  के सामने अर्थ संकट है। इस कॉलम के छपने तक प्रथम चरण के चुनाव के टिकट शायद घोषित हो जाएंगे लेकिन इन सवालों के जवाब इतने जल्दी नहीं मिलेंगे। इसलिए हम जैसे पत्रकारों के लिए यही उचित है कि चुनाव यदि युद्ध है तो वर्तमान सत्ता के विरुद्ध न लिखें। मतदाता जिस दिन निर्णय कर देगा उस दिन हम भी निश्चिंत होकर विश्लेषण करेंगे। 
 देशबंधु में 18 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित 

Sunday, 14 October 2018

लछमनिया का चूल्हा: आदिवासी जीवन की प्रामाणिक कवितायेँ

             
छत्तीसगढ़ के बारे में मशहूर है कि यहां का बयालीस प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित है। इस आंकड़े पर हम अभी बहस नहीं करेंगे। यह भी सर्वविदित है कि यहां की लगभग बत्तीस प्रतिशत आबादी विभिन्न जनजातियों की है। उनमें विलुप्तप्राय जनजातियां यथा- बैगा, कमार, पहाड़ी कोरवा आदि भी हैं। नागर दृष्टि के लिए आदिवासी समाज कौतुक का विषय है या फिर हाल के वर्षों में भय का। एक समय था जब बस्तर या तो कालापानी था या आदिम वासना का उत्सव। प्रदेश का दक्षिणी भाग याने बस्तर अनेक कारणों से चर्चा में रहा है, लेकिन आदिवासी तो प्रदेश की चारों दिशाओं में बसे हुए हैं। उत्तर छत्तीसगढ़ अर्थात सरगुजा, जशपुर के आदिवासी जनजीवन पर जिज्ञासुओं का ध्यान बहुत अधिक नहीं गया है। यद्यपि राजनैतिक कारणों से उसके बारे में भी चर्चाएं होती रहती हैं।
साहित्य जगत में बस्तर को स्थापित करने में महती भूमिका निभाई सुप्रसिद्ध कथाकार शानी ने। वे बस्तर के ही रहने वाले थे। उनका लघु उपन्यास कस्तूरी 1961 में पॉकेट बुक की शक्ल में प्रकाशित हुआ था। बाद में किसी और शीर्षक से उसका नया संस्करण भी छपा। लेकिन कस्तूरी से ज्यादा, बल्कि उनकी कहानियों से ज्यादा शानी को जो ख्याति मिली वह उनके उपन्यास शाल वनों का द्वीप और काला जल के कारण। दूसरी ओर सरगुजा अंचल को केन्द्र में रखकर तेजिंदर ने अपना उपन्यास काला पादरी लिखा। इस उपन्यास की भी पर्याप्त चर्चा हुई। कुछ ही समय पहले तेजिंदर की असमय मृत्यु के बाद इस उपन्यास पर पाठकों का ध्यान फिर गया है। दिलचस्प तथ्य है कि शानी और तेजिंदर दोनों गैर-आदिवासी हैं। यह उनकी गहरी संवेदना और दृष्टि थी जिसने उन्हें अपने प्रदेश के आदिवासी समाज का अध्ययन करने प्रेरित किया।
यहीं आकर एक बड़ी कमी खटकती है कि क्या आदिवासी बहुल प्रदेश में एक भी आदिवासी लेखक नहीं हुआ! यह एक सच्चाई है। पड़ोसी आदिवासी प्रदेश झारखंड को देखते हैं तो यह कमी और शिद्दत से उभर कर सामने आती है। कहना शायद गलत नहीं होगा कि लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में न राजनीति, न अर्थचिंतन, न शिक्षा जगत, न पत्रकारिता और न साहित्य में ही आदिवासी समुदायों से कोई प्रखर प्रतिनिधि सामने आया। लेकिन स्थितियां बदल रही हैं। अन्य क्षेत्रों की चर्चा करना यहां शायद प्रासंगिक न हो, किन्तु यह देखकर प्रसन्नता होती है कि साहित्य के क्षेत्र में आदिवासी प्रतिभाएं अपनी पहचान कायम कर रही हैं। झारखंड में वंदना टेटे, निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन जैसे नाम विगत कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित और स्थापित हुए हैं। छत्तीसगढ़ में भी कम से कम दो नाम मेरे देखने-पढऩे में आए हैं।
अन्ना माधुरी तिर्की की कविताएं कविता छत्तीसगढ़ शीर्षक संग्रह में संकलित हैं। सतीश जायसवाल द्वारा संपादित यह संकलन 2011 में प्रकाशित हुआ था। इसमें सुश्री तिर्की की दस कविताएं ली गई हैं। यह स्वयं मेरे लिए अचरज का विषय है कि मैंने उनकी कोई कविता इस संकलन के आने के पहले नहीं पढ़ी थी। मैं उनके नाम से भी परिचित नहीं था। वे शायद लंबे समय से भोपाल निवासी हैं इसलिए भी उन्हें शायद कभी जानने का मौका नहीं मिला। उनकी कविताओं में मुझे अच्छी संभावनाएं दिखी थीं, लेकिन इसे मैं अपनी ही कमी मानूंगा कि इस संकलन के बाद  उनकी कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई। बहरहाल सतीश जायसवाल ने हिन्दी जगत से उन्हें परिचित कराया; इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
इस बीच सरगुजा की विश्वासी एक्का का पहला कविता संकलन लछमनिया का चूल्हा इसी साल प्रकाशित हुआ है। इसमें साठ कविताएं हैं। विश्वासी कहानियां भी लिखती हैं और उनका कहानी संग्रह एक साल पहले ही प्रकाशित हुआ है। लछमनिया का चूल्हा  की कविताएं आदिवासी जीवन में आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर हो रहे जीवन संघर्ष को उद्घाटित करती हैं। आदिवासी समाज से उसके पारंपरिक अधिकार छीने गए हैं, उसकी परंपराओं का अनादर किया गया है, उसे एक कौतुहल की वस्तु के रूप में देखा गया है, अनेक प्रकारों से छला और वंचित किया गया है। नागर समाज ने वर्चस्ववादी शक्तियों में आदिवासी के साथ जो क्रूर बर्ताव किया है उसके प्रामाणिक ब्यौरे इन कविताओं में मिलते हैं और उसके बाह्य संघर्ष को सामने लाते हैं।
दूसरी ओर आदिवासी जनजीवन के जो अपने अंतर्विरोध हैं उन्हें चित्रित करने में भी कवयित्री ने कोई संकोच नहीं किया है। संकलन की पहली कविता बिरसो में ही यह अंतर्विरोध अंकित हुआ है। सामान्य समझ है कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता और परस्पर सम्मान का भाव है। इसे एक आदर्श उदाहरण के तौर पर संगोष्ठियों में रखा जाता है, लेकिन बिरसो में एक आजी है जो साही के कांटे से श्रृंगार करती हैं और जब आजा उसे मारने दौड़ते हैं तो आजी साही के कांटों को अपना अस्त्र बना लेती है। यहां एक मिथक के टूटने की हल्की सी ध्वनि सुनाई देती है। बदला  शीर्षक कविता में एक अन्य स्थिति का वर्णन है जहां आदिवासी फिल्म के परदे पर नायक से खलनायक को पिटते देख खुश होकर अपनी तकलीफ और बेबसी को भूल जाते हैं मानो वे किस्मत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। दो अन्य कविताएं मतवाले  तथा तकलीफ होती है मुझे भी, में पराजय स्वीकार कर लेना जैसा भाव प्रकट होता है।
इन कुछ कविताओं में विश्वासी एक्का ने अपने समाज की आंतरिक विसंगतियों का बेबाकी से लेकिन गहरी उदासी के साथ चित्रण किया है। संकलन की अन्य कविताएं तथाकथित सभ्य समाज द्वारा आदिवासी जनजीवन पर दिन-प्रतिदिन किए जा रहे चौतरफा हमलों के विरोध में लिखी गई हैं। सरगुजा, जशपुर के अंचल में ईब आदि नदियों में सोने के कण मिलते हैं जिन्हें हासिल कर कितने ही चतुर सुजान लखपति-करोड़पति बन गए हैं। विश्वासी की कविता की नायिका भी नदी की बालू को छानकर सोने के कण बीनना चाहती है, लेकिन उसकी नियति में तो गरीबी की फसल काटना लिखा है। उसके लिए खुशियां रूई के ढेर जैसी हैं कि वह हाथकरघे से बुनी एक पारंपरिक साड़ी खरीदने के लायक भी कमाई नहीं कर पाती।
मंगरू की उलझन  कविता एक और मिथक को तोड़ती है। कुछ साल पहले तक माना जाता था कि आदिवासी पलायन नहीं करता, लेकिन स्थितियां बदल गई हैं। मंगरू का बेटा बंबई में समुद्र से रेत निकालने की मजदूरी कर रहा है जो शायद कोई पांच सितारा होटल खड़़ा करने में काम आएगी। लेकिन वह हमेशा अनाम रहा आएगा। बूढ़ा होता मंगरू हांफने लगता है और उसके हिलते हुए होंठों से शब्द नहीं फूटते। भूख कहां  कविता एक कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है। भूख से पीडि़त बुधना इस कविता का नायक है जो शेर की निगाह चुराकर उसका अधखाया शिकार अपने खाने के लिए उठा लाता है। गांव में उसकी बहादुरी के चर्चे हो रहे हैं, लेकिन बुधना गुमसुम हो गया है।
हम जानते हैं कि कर्ई वर्षों से विकास के नाम पर आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उत्खनन हो रहा है। झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाकों में इसका व्यापक असर पड़ा है। जिन जंगलों में हाथियों का प्राकृतिक वास था वे उनसे छिन गए हैं। हाथी जाएं तो कहां जाएं? वे कभी नेशनल हाईवे पर सड़क पार करते मारे जाते हैं, कभी रेल की पटरी पर कट जाते हैं। विगत बीस वर्षों में हाथियों ने छत्तीसगढ़ का रुख किया है जिसके चलते स्थानीय निवासियों, जिनमें आदिवासियों की बड़ी संख्या है, का जीना मुहाल हो गया है। वे खड़ी फसल उखाड़ देते हैं, सामने आए लोगों को कुचल देते हैं, सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ सी रही आती है। गजदल कविता बताती है कि गांव के लोग किस तरह हाथियों से खुद को बचाने के लिए क्या-क्या उपाय करते हैं, लेकिन कोई स्थायी हल अभी तक खोजा नहीं जा सका है। 
बंधी रह गई गठरी  दैनंदिन जीवन में आ रहे परिवर्तन पर एक उदास टिप्पणी है। गांव से आए चाचा अपनी बंधी गठरी लिए ही वापिस लौट जाते हैं। क्योंकि शहर में भतीजे के घर पर सब अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं और चाचा के संग बैठने बतियाने का मन किसी का नहीं है। फिर लूट जाएगा रोहिताश्वगढ़, साजिश, किस्मत का दरवाजा, घिन्न आती है मुझे, गोदना  आदि कविताओं में आदिवासी के अभिशप्त जीवन के चित्र हैं जो मर्मान्तक हैं। इन कविताओं में सतर्क रहने के लिए चेतावनी भी है। नदी और तुम  कविता नागर जीवन की कृत्रिमता पर कटाक्ष करती है। कुछ अन्य कविताओं में अपनी सहज, प्रकृत जीवन शैली को बचाए रखने की तड़प अभिव्यक्त हुई है।
लछमनिया का चूल्हा की लगभग हर कविता पाठक को ठिठक कर सोचने पर मजबूर करती है। आज का यह दौर, जिसमें पैसा और मुनाफा ही सर्वोपरि मूल्य हो गए हैं, इस तरह से जीवन की उदात्तता को नष्ट कर रहा है। विश्वासी एक्का की रचनाएं आदिवासी जनजीवन का एक प्रामाणिक  और विविधवर्णी चित्र बनाती है।  इनमें कहीं आक्रोश है तो कहीं हताशा; कहीं वर्चस्ववादी समाज से हार मान लेने की विवशता है, तो कहीं उसका भय; कहीं सावधान रहने की चेतावनी है तो कहीं सम्हल जाने की सीख। इन सारे मनोभावों के बीच कहीं-कहीं गीत-संगीत में रचे-बसे परिवेश में लौट जाने की अभीप्सा भी है। कवयित्री का पहला संकलन भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। 
अक्षर पर्व अक्टूबर 2018 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक का नाम- लछमनिया का चूल्हा
लेखिका- विश्वासी एक्का
प्रकाशक- प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन
चेेशायर होम रोड, बरियातु, रांची-834009
मूल्य- 120 रुपए

Wednesday, 10 October 2018

आप किसे वोट देंगे?

                           
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित हो चुका है। 12 नवंबर से 11 दिसंबर तक पूरा एक माह चुनाव संपन्न होने में जाएगा। आदर्श आचार संहिता तो खैर, 6 अक्टूबर के अपरान्ह से ही लागू हो गई है। हम जीत-हार के बारे में निरर्थक बहस करने के बजाय उन कुछ बिन्दुओं को रेखांकित करना चाहेंगे जो हमारी समझ में मतदाता के मन को याने चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। यह भी एक तरह की अटकलबाजी है, किन्तु हवा में न होकर कुछ आधारों पर टिकी है।
सबसे पहले समझ में आता है कि मतदाता ने पूर्व में वोट देकर जिसे सत्तासीन किया, उसी पार्टी से उसने कुछेक अपेक्षाएं भी की हैं। इन अपेक्षाओं के सामान्यत: तीन मुख्य आधार होते हैं-1) पार्टी विशेष से सैद्धांतिक लगाव, 2) प्रत्याशी व नेताओं के चुनावी वायदे और 3) चुनाव के समय जारी घोषणा पत्र। अभी जिन राज्यों में चुनाव होना हैं, उनमें तीन में भारतीय जनता पार्टी;  एक में तेलंगाना राष्ट्र समिति; और एक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्तमान में सत्तारूढ़ है।  मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा पिछले तीन चुनावों से लगातार जीतते आई है; राजस्थान में उसने पांच साल बाद वापिसी की; तेलंगाना में नया राज्य बनने के बाद पहिली बार चुनाव हुए; और मिज़ोरम में कांग्रेस विगत दस सालों से सत्ता पर काबिज़ है। इन सभी दलों को आत्मपरीक्षण करना होगा कि वे अपनी जीत वाले राज्य में जनता से किए गए वायदों पर कितना अमल कर पाए हैं। और क्या मतदाता उन पर एक और दांव लगाने के लिए तैयार है।
किसी दल के सामने एक असमंजस की स्थिति भी होती है कि चुनाव के समय वह पार्टी की आपसी कलह को कैसे शांत करे। यह परेशानी शासन करने वाली पार्टी के सामने विपक्ष के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है। सत्ता का स्वाद भला कौन नहीं चखना चाहता? पार्टी नेतृत्व अपनी ओर से संतुलन साधने की कोशिश अवश्य करता है; बाज वक्त अनुशासन का चाबुक भी लहराना पड़ता है, फिर भी संतुष्टों से कहीं बड़ी संख्या असंतुष्टों की होती है। कोई मुख्यमंत्री ही बनना चाहता है तो कोई किसी न किसी तरकीब से मलाई के छींके को हथिया लेना चाहता है। यह स्थिति आज से नहीं, बल्कि साठ साल से चली आ रही है, किंतु आज के हालात इस सीमा तक अलग हैं कि पहिले की तरह अब कोई नेता इतना सर्वमान्य नहीं होता कि उसका आदर कर बाकी सब चुप बैठ जाएं। इसके साथ-साथ यह सामान्य अनुभव है कि सत्ताधारी पार्टी के क्या नेता और क्या कार्यकर्ता, सब धीरे-धीरे आत्ममुग्धता व अहंकार का शिकार होने लगते हैं। वे मान बैठते हैं कि जनता की गरज़ थी जो उसने उन्हें चुना। अहंकार ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वे जनता से दूर होने लगते हैं। मैं प्रदेशों के राजनैतिक इतिहास पर नज़र डालता हूं तो देखता हूं कि पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु और केरल में सी.के. अच्युत मेनन के अपवादों को छोड़कर आज तक किसी अन्य मुख्यमंत्री ने स्वेच्छा से पदत्याग नहीं किया।
हमें यहां राज्य की नौकरशाही की तरफ भी गौर करना चाहिए। मुझे उत्तर-नेहरू काल के बस दो-चार मुख्यमंत्रियों के ही नाम याद आते हैं जिनकी अपने प्रशासन तंत्र पर मजबूत पकड़ थी। अफसर उन्हें मूर्ख नहीं बना सकते थे;  मंत्री- मुख्यमंत्री को धोखे में रखकर कागज़ पर दस्तखत नहीं ले सकते थे। विगत पच्चीस वर्षों में इस मामले में चिंताजनक गिरावट देखने में आई है। नेतागण जनभावनाओं की तरंगों पर सवार होकर चुनाव तो जीत जाते हैं, लेकिन वे प्रशासनिक क्षमता के लिहाज से अक्सर कमज़ोर ही होते हैं। वे तब ऐसे अफसरों की तलाश करते हैं जो निर्णय  लेने में उनकी सहायता कर सकें। इन नौकरशाहों का आम जनता से कोई सीधा सरोकार नहीं होता और तब विकास के नाम पर, समृद्धि के नाम पर जो नीतियां एवं कार्यक्रम बनते हैं, वे कई बार जनाकांक्षाओं की पूर्ति करने के बजाय संकीर्ण स्वार्थ साधने का माध्यम बन जाते हैं।
आश्चर्य नहीं कि इस वृहत्तर दृश्य में अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों के साथ जनसंचार के माध्यमों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी हो। जब राजनीति व्यक्ति केंद्रित हो जाए तो विचारों की बलि अपने आप चढ़ जाती है। हमें चारों दिशाओं में एक भी ऐसा नेता दिखाई नहीं देता जो मीडिया को अपने अंगूठे के नीचे न रखना चाहता हो। आम जनता भले ही आज भी अखबार पर भरोसा करती हो, हकीकत यही है कि मीडिया को अब जनहित की परवाह नहीं है। राजनेता यह समझने में असमर्थ हैं कि इस नियंत्रण-नीति में उनका ही नुकसान है। उन तक सही सूचनाएं सही वक्त पर नहीं पहुंच पातीं। वे प्रचारतंत्र का शिकार हो जाते हैं। जनमत परखने के इस बहुमूल्य साधन की अवज्ञा या तिरस्कार का स्वाभाविक परिणाम होता है कि जो लोकहितकारी योजनाएं पूरे पांच साल समगति से जारी रहना चाहिए, वे चार साल ठंडे बस्ते में पड़ी रहती हैं और जब चुनाव सिर पर आते हैं तो उनका ढोल पीटा जाता है। इस बीच की अवधि में सत्तासीन दल दूसरी कलाबाजियों में व्यस्त रहा आता है। मतदाता यदि सचमुच इतना भोला है तो इससे प्रभावित हो सकता है। हां, यदि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे तो नीर-क्षीर विवेचन कर उचित निर्णय पर पहुंच सकता है। 
यह प्रश्न उठना भी लाज़मी है कि जो दल सत्ता में नहीं है याने प्रतिपक्ष की भूमिका में हैं, वे अपने समय, शक्ति और संसाधनों का उपयोग किस प्रकार करते हैं। सहज बुद्धि कहती है कि जब चुनी हुई सरकार अपेक्षाओं पर खरी न उतरे तो वे उसकी गलतियों व कमजोरियों को आम जनता के बीच लेकर आएं; सही और गलत का फर्क समझाएं और उन्हें अपने पाले में लाने की जुगत भिड़ाएं। यहां एक तरफ भारतीय जनता पार्टी और दूसरी तरफ कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों के बीच रणनीति और राजनीतिक कौशल का जो फर्क है, उसे समझने की कोशिश करना चाहिए। 2009 के लोकसभा चुनावों से लेकर अब तक भाजपा ने जो रणनीति अपनाई है, वह अद्भुत है। 2009 और 2014 के मध्य उसने केंद्र के कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के विरुद्ध साम-दाम-दंड-भेद, सभी तरह की युक्तियां अपनाईं। किसी भी तरह की सीमा तोड़ने में संकोच नहीं किया। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सत्ता में रहकर भी निरन्तर चुनावी मानसिकता से सक्रिय है। हमने पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था वाले किसी भी अन्य देश में सत्तारूढ़ पार्टी की ऐसी उग्रता आज तक नहीं देखी थी। देश का मतदाता इस अतिरेक को कितना पसंद करता है, यह देखने वाली बात होगी।
प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस व अन्य पार्टियों की रीति-नीति इसके विपरीत है। कांग्रेस प्रारंभ से स्वयं को शासन चलाने की स्वाभाविक पार्टी के रूप में देखते आई थी। इस वजह से चुनाव हार जाने के बावजूद उसका अहंकार कम होने के बजाय दूसरे रूप में प्रकट होने लगता था। उसकी सोच होती थी कि मतदाता ने ही गलती की है और अगले चुनाव में वह कांग्रेस को वापिस सत्ता में ले आएगा। इसलिए उसने विपक्ष की चुनौती को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। कांग्रेस चूंकि कैडर-आधारित पार्टी नहीं है, इसलिए उसके क्षत्रप स्वेच्छाचारी भी हो जाते थे। अनुमान होता है कि यह शोचनीय स्थिति अब बदलने लगी है। कांग्रेस को समझ आ रहा है कि वह सत्ता से बाहर है और उसे सत्ता में लौटने के लिए नई युक्तियां अपनानी होंगी। जनतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण है कि कांग्रेस अपने मद और आलस्य से बाहर निकल कर जनता का विश्वास नए सिरे से जीतने के उद्यम में जुट गई है।
क्षेत्रीय दल एक दूसरे ही ध्रुव पर हैं। उनमें से कुछ कांग्रेस से टूटकर बने हैं; कुछ समाजवादी आंदोलन की देन हैं; और कुछ संकीर्ण क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता से उपजे हैं। ये बातें भले ही बड़ी-बड़ी करें, इनकी वैचारिक पूंजी शून्य है। इन सबकी नजर भी मलाई के छींके पर लगी है। छींके में रखी मटकी छीना-झपटी में टूट जाए तब भी कोई मलाल नहीं। जितना अंजुरी में समा जाए, उतने से फिलहाल संतुष्ट। छींके की डोर सर्वोच्च सत्ता के पास होती है। वह कभी डोर में ढील दे दे तो वे कृतार्थ और कृतज्ञ हो जाते हैं। यदि संतुष्ट न होकर विद्रोही तेवर दिखाए तो छींके की जगह चूहेदानी ले लेती है। कुल मिलाकर अपवाद स्वरूप ही इनमें से कोई साहस का परिचय देकर जोखिम उठाने तैयार रहता है। इन व्यक्तिपूजक दलों के नेता सुप्रीमो कहलाते हैं। उनमें से कोई-कोई राष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षा भी पाल लेते हैं, लेकिन दिल्ली इतनी नजदीक भी नहीं है। देश की तमाम राजनैतिक पार्टियों में कम्युनिस्टों की ढब अलग है। वे सैद्धांतिक विवेचना में अक्सर इतना डूब जाते हैं कि राजनीति के व्यवहारिक पक्ष का उन्हें ख्याल ही नहीं रहता। भाकपा हो या माकपा या माले- सभी कैडर आधारित दल हैं लेकिन उनमें आंतरिक जनतंत्र इतना अधिक है कि  एकमतेन चुनावी रणनीति बनाने में वे हार खा जाते हैं।
कुछ बिंदुओं पर हमने आज चर्चा की। बचे हुए मुद्दों पर आगे बात करेंगे। फिलहाल मेरा आपसे कहना है कि आपका वोट बहुत कीमती है। सोच समझ कर दीजिए।
 देशबंधु में 11 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 3 October 2018

बुनियादी सवालों पर विमर्श क्यों नहीं?


भारत इस दौर में किन समस्याओं से जूझ रहा है, किस तरह की चुनौतियां सामने हैं, इसकी लिस्ट बनाई जाए तो काफी लंबी होगी। लिस्ट में सबसे ऊपर किस समस्या को रखा जाए और बाद का क्रम कैसे निर्धारित हो, इसको लेकर अलग-अलग मत हो सकते हैं। अधिकतर लोगों के मन में यह बात बैठ गई है या बैठा दी गई है कि भ्रष्टाचार हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है। वैसे तो यह रोग विश्व के अन्य समाजों की तरह भारत में भी अनादिकाल से रहा है, लेकिन आजादी मिलने के बाद से समय-समय पर भ्रष्टाचार को एक अस्त्र बनाकर सत्ताधारी दल को बेदखल करने के प्रयास किए गए हैं। राजीव गांधी के शासनकाल में इसका इस्तेमाल ब्रह्मास्त्र की तरह किया गया और 2010 से तो जो आग्नेय अस्त्र छोड़ने का सिलसिला प्रारंभ हुआ वह आज भी चला आ रहा है। मजे की बात यह कि आज सत्ता में बैठे लोग उन पर तीर चला रहे हैं जो सत्ता से बाहर हो चुके हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार एक बड़ी बीमारी है, किन्तु क्या उसे जड़ से समाप्त किया जा सकता है और क्या भ्रष्टाचार खत्म होने से बाकी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी? जिसका दावा हमारे आज के शासक कर रहे हैं। विगत तीस वर्षों में भ्रष्टाचार के जो बड़े प्रकरण सामने आए हैं उनको देखने से बात साफ हो सकती है। बोफोर्स कंपनी स्वीडन की है, अगुस्ता वेस्टलैंड इंग्लैंड और इटली की, राफेल और दसो (दसाल्ट)  फ्रांस की, एनरॉन अमेरिका की; इनके अलावा विश्व में अन्यत्र जो महाघोटाले हुए हैं उनमें जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया से लेकर कनाडा और ब्राजील तक की कंपनियों के नाम शामिल रहे हैं। ये सारे देश तरक्की के रास्ते पर चल रहे हैं। हमारे यहां सरकार किसी की भी हो, इन देशों के साथ व्यापार की संभावनाएं तलाशते हैं, अनुबंधों पर हस्ताक्षर करते हैं तो फिर भ्रष्टाचार के कारण इन देशों की प्रगति क्यों नहीं रुक  जाती?  इस सवाल के जवाब अपने आप से पूछना चाहिए।
एक दूसरा बड़ा मुद्दा युवा वर्ग में बेचैनी, हताशा और अवसाद का है। एक तरफ भारत युवाओं का देश बन गया है याने आबादी में उनका प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। दूसरी ओर यही वर्ग टूटते सपनों के दौर से गुजर रहा है। इसका बड़ा कारण बेरोजगारी है। भ्रष्टाचार और बेरोजगारी में किसे पहले नंबर पर रखा जाए, इस बहस में हम नहीं पड़ना चाहते, किन्तु यह दारुण हकीकत सामने है कि युवा वर्ग के सामने संतोषदायक, आत्मविश्वास से भरपूर, सक्रिय जीवन जीने के अवसर बढ़ने के बजाय कम हो रहे हैं। इसके लिए कौन दोषी है? क्या आधुनिक तकनालॉजी पर दोष मढ़ा जा सकता है जिसके कारण रोजगार के अवसर कम हुए हैं; साथ ही सुरक्षित भविष्य होने का विश्वास भी घटा है। लेकिन फिर कौन है जो आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता? तो क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषी करार दिया जा सकता है जिसे आमूलचूल बदलने के लिए सरकार दिन-रात लगी हुई है।
शिक्षा प्रणाली में कब कैसे सुधार होंगे और क्या वे सचमुच बेहतरी की दिशा में होंगे, यह प्रश्न भविष्य के गर्भ में है। लेकिन नौजवानों को समझाने के लिए एक नई समस्या की तख्ती टांग दी गई है कि आरक्षण के चलते अवसर छिन रहे हैं। क्या सचमुच ऐसा है? अनुभवी सांसद, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की मानें तो शायद ऐसा ही है। उनकी पार्टी देश का संविधान ही बदल देना चाहती है।  इस मंतव्य की घोषणा केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े कर चुके हैं। जिस दिन संविधान बदलेगा, बहुत सारे प्रावधानों के साथ आरक्षण भी समाप्त हो जाएगा। यहां हमें फिर देखना चाहिए कि आरक्षण तो अमेरिका और इंग्लैंड में भी चल रहा है, भले ही उसका नाम वहां कुछ और हो। पूंजीवादी जनतंत्र के देशों में यदि आरक्षण कायम है तो भारत में इसे खत्म करने की क्या जल्दी है? पूछिए कि जब सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म कर निजी क्षेत्र को हर तरह से प्रोत्साहित किया जा रहा है तो निजी क्षेत्र की कंपनियों में आरक्षण लागू करने से सरकार क्यों हिचकती है। 
देश में पर्यावरण को लेकर भी काफी चिंता व्याप्त है। इसे हम शायद पहले स्थान पर नहीं रखेंगे लेकिन स्थिति गंभीर तो है। एक तरफ गंगा बचाने के नाम पर अरबों रुपया बहा दिए गए हैं, दूसरी तरफ कई हफ्तों से इसी के लिए अनशन पर बैठे प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल की जान की फिक्र किसी को नहीं है। प्रदूषित नदियां, कटे हुए जंगल, मौसम का बदलता मिजाज, वन्य पशुओं की घटती तादाद, वनस्पतियों का लुप्त होना- ये सब सिर्फ अकादमिक चर्चाओं में रह गए हैं। आम जनता गौवंश की सेवा करने में संतुष्ट है फिर भले ही उसके चलते सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों का आंकड़ा लगातार क्यों न बढ़ रहा हो। परन्तु इस बीच में क्या कभी यह सोचा गया कि देश की बढ़ती आबादी, बेरोजगारी, पारिस्थितिकी में असंतुलन- इन सबके बीच कोई संबंध है? संजय गांधी के एक अतिरेक ने एक दीर्घकालिक असंतुलन हमारे बौद्धिक विमर्श में पैदा कर दिया है।
हम इस तरह समस्याओं की एक सूची बनाते हुए आगे बढ़ सकते हैं। उन्हें एक श्रृंखला में भी देख सकते हैं कि कैसे एक समस्या से दूसरी समस्या उपजती है। इन सबके बीच हाल-हाल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ अहम फैसले सुनाए हैं जिनके दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना जतलाई गई है। उम्मीद की गई है कि ये फैसले देश के सामाजिक जीवन में व्याप्त बहुविध विसंगतियों को दूर कर पाएंगे किन्तु क्या ये उम्मीदें सफल होंगी? दो फैसले अनुसूचित जाति-जनजाति की स्थिति को लेकर है। एक में राज्यों पर जिम्मेदारी छोड़ दी गई है कि वे पदोन्नति में आरक्षण दें या न दें। दूसरा अजा-जजा अत्याचार निवारण अधिनियम के बारे में है। हम समझना चाहेंगे कि क्या वंचित समाज पर क्रीमीलेयर जैसी अवधारणा वाकई लागू हो सकती है? क्या आज का भारतीय समाज सदियों से चली आ रही सवर्ण मानसिकता और उसके पूर्वाग्रहों से मुक्त हो चुका है? इन दोनों फैसलों का इस पृष्ठभूमि में परीक्षण किए बिना बात कैसे बनेगी?
सर्वोच्च न्यायालय के तीन बड़े फैसले लैंगिक समानता को लेकर है। एक बड़े वर्ग ने इन फैसलों का स्वागत किया है। हम भी इनका स्वागत करते हैं। धारा-377 की बात पहले करें। हमारी समझ में इसका ताल्लुक व्यक्ति के निजी जीवन से है और इसे आपराधिक आचरण के दायरे से बाहर करना ठीक हुआ है। धारा-497 को भी समाप्त करना इसी तरह का दूसरा फैसला है। लेकिन इन दोनों के निर्णयों को दूसरी, तीसरी या चौथी आजादी मान लेना एक तरह से खुद को धोखा देना है। इनको लेकर मीडिया ने जिस तरह का वातावरण बनाया उसकी शायद कोई आवश्यकता नहीं थी। इन फैसलों के बारे में मैं विस्तार से लिखना चाहता हूं। फिलहाल शायद इतना कहना पर्याप्त होगा कि हमारा देश जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है; जिस तरह से अविश्वास, घृणा, हिंसा का वातावरण बनाया जा रहा है, जिस तरह से कारपोरेट पूंजी का तांडव हो रहा है; जिस तरह से अर्थव्यवस्था नहीं संभल पा रही है, उसमें ये निर्णय प्रभावित लोगों के लिए आवश्यक तो हैं, लेकिन वृहत्तर प्रश्नों के सामने ये उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि प्रचारित किया जा रहा है। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति भी सही दिशा में लिया गया निर्णय है, लेकिन वह स्त्रीमुक्ति का पर्याय नहीं है। हम कहेंगे कि आधार वाला फैसला भी आधा-अधूरा है। कुल मिलाकर हमारे सामाजिक विमर्श में जिन प्रश्नों को प्राथमिकता मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रही है और यह स्थिति पुरोगामी, प्रतिक्रियावादी ताकतों के लिए मुफीद है।
देशबंधु में 04 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित