छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री और वर्तमान में जोगी कांग्रेस के सुप्रीमो अजीत जोगी ने विधानसभा चुनावों के काफी पहले जोर-शोर से घोषणा की थी कि वे राजनांदगांव क्षेत्र से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि उन्होंने विधानसभा चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया। कारण यह बताया कि वे एक जगह बंधे रहने के बजाय पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर अपने उम्मीदवारों के लिए प्रचार करेंगे। इस दूसरी खबर की स्याही सूखी भी न थी कि उनके अपनी पुरानी सीट मरवाही से चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट प्रारंभ हो गई। अब एक दिलचस्प स्थिति सामने है। पत्नी श्रीमती रेणु जोगी कोटा क्षेत्र से कांग्रेस टिकट की आस लगाए बैठी हैं। पुत्र और डीफैक्टो सुप्रीमो अमित जोगी के मनेन्द्रगढ़ से लड़ने की अटकलें लग रही हैं और पुत्रवधु ऋचा जोगी के अकलतरा से बसपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा हो चुकी है।
मैंने पिछले सप्ताह छत्तीसगढ़ के चुनावी मैदान में जिस भारी कन्फ़्यूज़न का उल्लेख किया था वह इस प्रकरण से प्रमाणित हो रहा है। लेकिन यह कुहासा सिर्फ जोगीजी के कारण नहीं है और छत्तीसगढ़ तक सीमित भी नहीं है। छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस ने पहले चरण की बारह सीटों पर उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मीडिया के साथियों को लगा कि कांग्रेस ने बाजी मार ली है, किन्तु दो दिन बाद भारतीय जनता पार्टी ने एकमुश्त सतत्तर उम्मीदवार घोषित कर दिए तो क्या इसे भाजपा का बाजी मार लेना कहा जाएगा? क्योंकि कांग्रेस ने अभी तक दूसरे चरण के उम्मीदवारों की सूची प्रकट नहीं की है। यदि कांग्रेस ने पहले चरण में राजनांदगांव सीट पर ऐन मौके तक सस्पेंस बनाए रखा तो भाजपा के बारे में संशय बरकरार है कि बची बारह सीटों पर उसने अभी तक प्रत्याशियों के नाम रोककर क्यों रखे? कुल मिलाकर चुनावी विश्लेषकों के लिए भ्रम से भरपूर लेकिन रोचक स्थिति है।
खैर! जिन्हें दूर से बैठकर तमाशा देखना है उन्हें तो हर उथल-पुथल में मसाला मिल जाता है परन्तु जिनका राजनीतिक कॅरियर दांव पर लगा हो उनके लिए स्थितियां रोचक न होकर दुखदायी बन गई प्रतीत होती हैं। जैसे भाजपा के अधिकतर नेता और कार्यकर्ता अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं कि पार्टी ने प्रत्याशी चयन में अपेक्षित बेरहमी क्यों नहीं दिखाई या जुमलेबाजी का इस्तेमाल करूं तो सर्जिकल स्ट्राइक क्यों नहीं की? दो साल पहले दिल्ली के तीन नगर निगमों के चुनाव हुए थे तो भाजपा ने पूरे दो सौ सत्तर से अधिक उम्मीदवारों को बदल डाला था जिसका वांछित परिणाम भी विजय के रूप में उन्हें मिला। यही उम्मीद छत्तीसगढ़ में की जा रही थी, लेकिन ऐसा लगता है कि ऐन वक्त पर पार्टी नेतृत्व के हाथ-पैर कांप गए। उसे शायद लगा कि पुराने उम्मीदवारों पर भरोसा करना ही बेहतर होगा! कम से कम इससे पार्टी में बगावत नहीं होगी।
भाजपा छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में पन्द्रह साल से सत्तारूढ़ है। जहां गुड़ है वहां चींटे पहुंचेंगे ही। एक समय जो बात कांग्रेस के बारे में कही जाती थी वह अब भाजपा पर लागू हो रही है कि समर्पित कार्यकर्ता जीवनभर दरियां उठाते-बिछाते रहेंगे और चतुर लोग सेंधमारी कर खजाना पा जाएंगे। इधर राजनीतिक शब्दावली में एक नई संज्ञा प्रचलन में आ गई है। लोग विरोध जताने लगे हैं कि पैराशूट उम्मीदवार नहीं चलेगा। इन्हें पहले बाहर से थोपे हुए प्रत्याशी कहकर विरोध होता था। छत्तीसगढ़ भाजपा में फिलहाल ऐसे उम्मीदवारों को लेकर घमासान मचा है। साथ-साथ पार्टी के अनेक पुराने कार्यकर्ता भी जो आस लगाए बैठे थे अब कहीं दुख, तो कहीं क्रोध जाहिर कर रहे हैं। यह स्थिति मुझे भी अटपटी लगती है कि भाजपा अनेक सीटों पर जनता से खारिज किए गए, पिटे हुए मोहरों पर दांव क्यों लगा रही है। चुनाव न हुआ, कबड्डी का खेल हो गया कि जिसमें 'मरा' हुआ खिलाड़ी फिर जीवित हो जाता है।
छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की शेष बहत्तर सीटों पर प्रत्याशियों की सूची आना बाकी है। उसके आने के बाद ही पता लगेगा कि चुनावी मुकाबला क्या शक्ल लेता है। मैं समझता हूं कि असंतुष्टों की संख्या वहां भी कम नहीं होगी जिसकी कुछ-कुछ सुगबुगाहट अभी से सुनने मिल रही है। बस्तर में तो दंतेवाड़ा सीट पर मां देवती कर्मा के खिलाफ पुत्र छबिन्द्र कर्मा ताल ठोंक कर मैदान में आ गए हैं। इसे प्रदेश भाजपा के एक बड़े नेता ने कांग्रेस की संस्कारहीनता निरूपित किया है। इन नेताजी को याद कर लेना चाहिए कि भाजपा की राष्ट्रीय नेता श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के विरोध में उनके सुपुत्र माधवराव सिंधिया खुलकर मैदान में आ गए थे और आज बुजुर्ग यशवंत सिन्हा एक तरह से अपने पुत्र के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। यह मामला पारिवारिक संस्कारों का नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छा, अवसर और प्राथमिकता का है। वैसे इतिहास के पन्ने पलटें तो ज्ञात होता है कि मेवाड़ के राजा व कुंभलगढ़ के निर्माता राणा कुंभा की हत्या उनके ही बेटे उदय सिंह ने मंदिर में पूजा करते समय कर दी थी।
छत्तीसगढ़ के साथ-साथ थोड़ी बात मध्यप्रदेश की कर लें क्योंकि कन्फ़्यूज़न वहां भी कम नहीं है। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पिछले दिनों कार्यकर्ताओं के बीच खुली घोषणा की कि वे चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लेंगे क्योंकि उनके कारण कांग्रेस के वोट कटते हैं। इस कथन का क्या अर्थ निकाला जाए? मैंने एक बार पहले भी लिखा है कि दिग्विजय जो कहते हैं उसका अर्थ निकालना अक्सर संभव नहीं होता। वे इस बयान के माध्यम से एक सच को स्वीकार कर रहे थे, या अपनी पीड़ा को वाणी दे रहे थे कि उन्हें चुनाव प्रचार से दूर रखा गया है, या फिर चेतावनी दे रहे थे कि उनकी उपेक्षा हुई तो यह पार्टी के हित में नहीं होगा! उनके एक वाक्य के तीन अलग-अलग मतलब तो मैं निकाल रहा हूं। हो सकता है कि असली मंतव्य कुछ और हो। मुझे ध्यान आता है कि 1998 में दुबारा मुख्यमंत्री बने दिग्विजय सिंह स्वयं को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे थे। उनके बारे में मीडिया में तो कम से कम यही प्रचार होता था। उनके ताजा बयान को लेकर भी मीडिया का एक हिस्सा उनकी मदद के लिए सामने आ गया है। कहीं अखबार में, तो कहीं यू-ट्यूब पर विश्लेषण हो रहा है कि दरअसल राहुल गांधी ने ही उन्हें गुपचुप तरीके से कार्यकर्ताओं को संगठित करने और उनमें नए सिरे से उत्साह का संचार करने की जिम्मेदारी दी है। यह सच्चाई भी हो सकती है या शायद डेमेज कंट्रोल की कवायद भी। वैसे मध्यप्रदेश तो नहीं, छत्तीसगढ़ के अधिकतर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के अनुयायी हैं। राहुल गांधी ने उन्हें यहां का काम सौंपा होता तो उनके मार्गदर्शन में कांग्रेस को उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता। हो सकता है कि वे दूरसंचार से ही अपने साथियों का मनोबल बढ़ा रहे हों!
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ-साथ मिजोरम और तेलंगाना में भी चुनाव हो रहे हैं। यह दिलचस्प तथ्य है कि तेलंगाना में कांग्रेस, चन्द्राबाबू नायडू की टीडीपी और भाकपा याने सीपीआई ने संयुक्त मोर्चा बना लिया है। तेलंगाना में कभी केसीआर कांग्रेस के सहयोगी थे। राज्य बनने के बाद उम्मीद थी कि वे कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाएंगे, लेकिन वे तो देखते ही देखते कांग्रेस के दुश्मन बन गए। यह क्यों हुआ समझ नहीं पड़ता। यह अवश्य ध्यान आता है कि कांग्रेस द्वारा बनाए गए राज्यपाल ई.एस.एल. नरसिम्हन ऐसे अकेले राज्यपाल हैं जो मोदी सरकार में भी पिछले चार साल से बने हुए हैं। वे आज देश के सबसे वरिष्ठ राज्यपाल हैं। तेलंगाना जाने से पहले वे छत्तीसगढ़ में थे। यह भी ध्यान आता है कि आनंदीबेन पटेल मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ का प्रभार भी संभाल रही हैं। यह अनूठा संयोग है कि श्री नरसिम्हन आंध्र व तेलंगाना दोनों के राज्यपाल हैं और श्रीमती पटेल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की। इन दोनों प्रांतों में नए राज्यपाल क्यों नहीं नियुक्त हुए, इसका चुनाव से शायद कोई लेना-देना नहीं है!
देशबंधु में 25 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित
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