भारत इस दौर में किन समस्याओं से जूझ रहा है, किस तरह की चुनौतियां सामने हैं, इसकी लिस्ट बनाई जाए तो काफी लंबी होगी। लिस्ट में सबसे ऊपर किस समस्या को रखा जाए और बाद का क्रम कैसे निर्धारित हो, इसको लेकर अलग-अलग मत हो सकते हैं। अधिकतर लोगों के मन में यह बात बैठ गई है या बैठा दी गई है कि भ्रष्टाचार हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है। वैसे तो यह रोग विश्व के अन्य समाजों की तरह भारत में भी अनादिकाल से रहा है, लेकिन आजादी मिलने के बाद से समय-समय पर भ्रष्टाचार को एक अस्त्र बनाकर सत्ताधारी दल को बेदखल करने के प्रयास किए गए हैं। राजीव गांधी के शासनकाल में इसका इस्तेमाल ब्रह्मास्त्र की तरह किया गया और 2010 से तो जो आग्नेय अस्त्र छोड़ने का सिलसिला प्रारंभ हुआ वह आज भी चला आ रहा है। मजे की बात यह कि आज सत्ता में बैठे लोग उन पर तीर चला रहे हैं जो सत्ता से बाहर हो चुके हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार एक बड़ी बीमारी है, किन्तु क्या उसे जड़ से समाप्त किया जा सकता है और क्या भ्रष्टाचार खत्म होने से बाकी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी? जिसका दावा हमारे आज के शासक कर रहे हैं। विगत तीस वर्षों में भ्रष्टाचार के जो बड़े प्रकरण सामने आए हैं उनको देखने से बात साफ हो सकती है। बोफोर्स कंपनी स्वीडन की है, अगुस्ता वेस्टलैंड इंग्लैंड और इटली की, राफेल और दसो (दसाल्ट) फ्रांस की, एनरॉन अमेरिका की; इनके अलावा विश्व में अन्यत्र जो महाघोटाले हुए हैं उनमें जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया से लेकर कनाडा और ब्राजील तक की कंपनियों के नाम शामिल रहे हैं। ये सारे देश तरक्की के रास्ते पर चल रहे हैं। हमारे यहां सरकार किसी की भी हो, इन देशों के साथ व्यापार की संभावनाएं तलाशते हैं, अनुबंधों पर हस्ताक्षर करते हैं तो फिर भ्रष्टाचार के कारण इन देशों की प्रगति क्यों नहीं रुक जाती? इस सवाल के जवाब अपने आप से पूछना चाहिए।
एक दूसरा बड़ा मुद्दा युवा वर्ग में बेचैनी, हताशा और अवसाद का है। एक तरफ भारत युवाओं का देश बन गया है याने आबादी में उनका प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। दूसरी ओर यही वर्ग टूटते सपनों के दौर से गुजर रहा है। इसका बड़ा कारण बेरोजगारी है। भ्रष्टाचार और बेरोजगारी में किसे पहले नंबर पर रखा जाए, इस बहस में हम नहीं पड़ना चाहते, किन्तु यह दारुण हकीकत सामने है कि युवा वर्ग के सामने संतोषदायक, आत्मविश्वास से भरपूर, सक्रिय जीवन जीने के अवसर बढ़ने के बजाय कम हो रहे हैं। इसके लिए कौन दोषी है? क्या आधुनिक तकनालॉजी पर दोष मढ़ा जा सकता है जिसके कारण रोजगार के अवसर कम हुए हैं; साथ ही सुरक्षित भविष्य होने का विश्वास भी घटा है। लेकिन फिर कौन है जो आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता? तो क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषी करार दिया जा सकता है जिसे आमूलचूल बदलने के लिए सरकार दिन-रात लगी हुई है।
शिक्षा प्रणाली में कब कैसे सुधार होंगे और क्या वे सचमुच बेहतरी की दिशा में होंगे, यह प्रश्न भविष्य के गर्भ में है। लेकिन नौजवानों को समझाने के लिए एक नई समस्या की तख्ती टांग दी गई है कि आरक्षण के चलते अवसर छिन रहे हैं। क्या सचमुच ऐसा है? अनुभवी सांसद, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की मानें तो शायद ऐसा ही है। उनकी पार्टी देश का संविधान ही बदल देना चाहती है। इस मंतव्य की घोषणा केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े कर चुके हैं। जिस दिन संविधान बदलेगा, बहुत सारे प्रावधानों के साथ आरक्षण भी समाप्त हो जाएगा। यहां हमें फिर देखना चाहिए कि आरक्षण तो अमेरिका और इंग्लैंड में भी चल रहा है, भले ही उसका नाम वहां कुछ और हो। पूंजीवादी जनतंत्र के देशों में यदि आरक्षण कायम है तो भारत में इसे खत्म करने की क्या जल्दी है? पूछिए कि जब सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म कर निजी क्षेत्र को हर तरह से प्रोत्साहित किया जा रहा है तो निजी क्षेत्र की कंपनियों में आरक्षण लागू करने से सरकार क्यों हिचकती है।
देश में पर्यावरण को लेकर भी काफी चिंता व्याप्त है। इसे हम शायद पहले स्थान पर नहीं रखेंगे लेकिन स्थिति गंभीर तो है। एक तरफ गंगा बचाने के नाम पर अरबों रुपया बहा दिए गए हैं, दूसरी तरफ कई हफ्तों से इसी के लिए अनशन पर बैठे प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल की जान की फिक्र किसी को नहीं है। प्रदूषित नदियां, कटे हुए जंगल, मौसम का बदलता मिजाज, वन्य पशुओं की घटती तादाद, वनस्पतियों का लुप्त होना- ये सब सिर्फ अकादमिक चर्चाओं में रह गए हैं। आम जनता गौवंश की सेवा करने में संतुष्ट है फिर भले ही उसके चलते सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों का आंकड़ा लगातार क्यों न बढ़ रहा हो। परन्तु इस बीच में क्या कभी यह सोचा गया कि देश की बढ़ती आबादी, बेरोजगारी, पारिस्थितिकी में असंतुलन- इन सबके बीच कोई संबंध है? संजय गांधी के एक अतिरेक ने एक दीर्घकालिक असंतुलन हमारे बौद्धिक विमर्श में पैदा कर दिया है।
हम इस तरह समस्याओं की एक सूची बनाते हुए आगे बढ़ सकते हैं। उन्हें एक श्रृंखला में भी देख सकते हैं कि कैसे एक समस्या से दूसरी समस्या उपजती है। इन सबके बीच हाल-हाल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ अहम फैसले सुनाए हैं जिनके दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना जतलाई गई है। उम्मीद की गई है कि ये फैसले देश के सामाजिक जीवन में व्याप्त बहुविध विसंगतियों को दूर कर पाएंगे किन्तु क्या ये उम्मीदें सफल होंगी? दो फैसले अनुसूचित जाति-जनजाति की स्थिति को लेकर है। एक में राज्यों पर जिम्मेदारी छोड़ दी गई है कि वे पदोन्नति में आरक्षण दें या न दें। दूसरा अजा-जजा अत्याचार निवारण अधिनियम के बारे में है। हम समझना चाहेंगे कि क्या वंचित समाज पर क्रीमीलेयर जैसी अवधारणा वाकई लागू हो सकती है? क्या आज का भारतीय समाज सदियों से चली आ रही सवर्ण मानसिकता और उसके पूर्वाग्रहों से मुक्त हो चुका है? इन दोनों फैसलों का इस पृष्ठभूमि में परीक्षण किए बिना बात कैसे बनेगी?
सर्वोच्च न्यायालय के तीन बड़े फैसले लैंगिक समानता को लेकर है। एक बड़े वर्ग ने इन फैसलों का स्वागत किया है। हम भी इनका स्वागत करते हैं। धारा-377 की बात पहले करें। हमारी समझ में इसका ताल्लुक व्यक्ति के निजी जीवन से है और इसे आपराधिक आचरण के दायरे से बाहर करना ठीक हुआ है। धारा-497 को भी समाप्त करना इसी तरह का दूसरा फैसला है। लेकिन इन दोनों के निर्णयों को दूसरी, तीसरी या चौथी आजादी मान लेना एक तरह से खुद को धोखा देना है। इनको लेकर मीडिया ने जिस तरह का वातावरण बनाया उसकी शायद कोई आवश्यकता नहीं थी। इन फैसलों के बारे में मैं विस्तार से लिखना चाहता हूं। फिलहाल शायद इतना कहना पर्याप्त होगा कि हमारा देश जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है; जिस तरह से अविश्वास, घृणा, हिंसा का वातावरण बनाया जा रहा है, जिस तरह से कारपोरेट पूंजी का तांडव हो रहा है; जिस तरह से अर्थव्यवस्था नहीं संभल पा रही है, उसमें ये निर्णय प्रभावित लोगों के लिए आवश्यक तो हैं, लेकिन वृहत्तर प्रश्नों के सामने ये उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि प्रचारित किया जा रहा है। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति भी सही दिशा में लिया गया निर्णय है, लेकिन वह स्त्रीमुक्ति का पर्याय नहीं है। हम कहेंगे कि आधार वाला फैसला भी आधा-अधूरा है। कुल मिलाकर हमारे सामाजिक विमर्श में जिन प्रश्नों को प्राथमिकता मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रही है और यह स्थिति पुरोगामी, प्रतिक्रियावादी ताकतों के लिए मुफीद है।
देशबंधु में 04 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित
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