Wednesday 10 October 2018

आप किसे वोट देंगे?

                           
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित हो चुका है। 12 नवंबर से 11 दिसंबर तक पूरा एक माह चुनाव संपन्न होने में जाएगा। आदर्श आचार संहिता तो खैर, 6 अक्टूबर के अपरान्ह से ही लागू हो गई है। हम जीत-हार के बारे में निरर्थक बहस करने के बजाय उन कुछ बिन्दुओं को रेखांकित करना चाहेंगे जो हमारी समझ में मतदाता के मन को याने चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। यह भी एक तरह की अटकलबाजी है, किन्तु हवा में न होकर कुछ आधारों पर टिकी है।
सबसे पहले समझ में आता है कि मतदाता ने पूर्व में वोट देकर जिसे सत्तासीन किया, उसी पार्टी से उसने कुछेक अपेक्षाएं भी की हैं। इन अपेक्षाओं के सामान्यत: तीन मुख्य आधार होते हैं-1) पार्टी विशेष से सैद्धांतिक लगाव, 2) प्रत्याशी व नेताओं के चुनावी वायदे और 3) चुनाव के समय जारी घोषणा पत्र। अभी जिन राज्यों में चुनाव होना हैं, उनमें तीन में भारतीय जनता पार्टी;  एक में तेलंगाना राष्ट्र समिति; और एक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्तमान में सत्तारूढ़ है।  मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा पिछले तीन चुनावों से लगातार जीतते आई है; राजस्थान में उसने पांच साल बाद वापिसी की; तेलंगाना में नया राज्य बनने के बाद पहिली बार चुनाव हुए; और मिज़ोरम में कांग्रेस विगत दस सालों से सत्ता पर काबिज़ है। इन सभी दलों को आत्मपरीक्षण करना होगा कि वे अपनी जीत वाले राज्य में जनता से किए गए वायदों पर कितना अमल कर पाए हैं। और क्या मतदाता उन पर एक और दांव लगाने के लिए तैयार है।
किसी दल के सामने एक असमंजस की स्थिति भी होती है कि चुनाव के समय वह पार्टी की आपसी कलह को कैसे शांत करे। यह परेशानी शासन करने वाली पार्टी के सामने विपक्ष के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है। सत्ता का स्वाद भला कौन नहीं चखना चाहता? पार्टी नेतृत्व अपनी ओर से संतुलन साधने की कोशिश अवश्य करता है; बाज वक्त अनुशासन का चाबुक भी लहराना पड़ता है, फिर भी संतुष्टों से कहीं बड़ी संख्या असंतुष्टों की होती है। कोई मुख्यमंत्री ही बनना चाहता है तो कोई किसी न किसी तरकीब से मलाई के छींके को हथिया लेना चाहता है। यह स्थिति आज से नहीं, बल्कि साठ साल से चली आ रही है, किंतु आज के हालात इस सीमा तक अलग हैं कि पहिले की तरह अब कोई नेता इतना सर्वमान्य नहीं होता कि उसका आदर कर बाकी सब चुप बैठ जाएं। इसके साथ-साथ यह सामान्य अनुभव है कि सत्ताधारी पार्टी के क्या नेता और क्या कार्यकर्ता, सब धीरे-धीरे आत्ममुग्धता व अहंकार का शिकार होने लगते हैं। वे मान बैठते हैं कि जनता की गरज़ थी जो उसने उन्हें चुना। अहंकार ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वे जनता से दूर होने लगते हैं। मैं प्रदेशों के राजनैतिक इतिहास पर नज़र डालता हूं तो देखता हूं कि पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु और केरल में सी.के. अच्युत मेनन के अपवादों को छोड़कर आज तक किसी अन्य मुख्यमंत्री ने स्वेच्छा से पदत्याग नहीं किया।
हमें यहां राज्य की नौकरशाही की तरफ भी गौर करना चाहिए। मुझे उत्तर-नेहरू काल के बस दो-चार मुख्यमंत्रियों के ही नाम याद आते हैं जिनकी अपने प्रशासन तंत्र पर मजबूत पकड़ थी। अफसर उन्हें मूर्ख नहीं बना सकते थे;  मंत्री- मुख्यमंत्री को धोखे में रखकर कागज़ पर दस्तखत नहीं ले सकते थे। विगत पच्चीस वर्षों में इस मामले में चिंताजनक गिरावट देखने में आई है। नेतागण जनभावनाओं की तरंगों पर सवार होकर चुनाव तो जीत जाते हैं, लेकिन वे प्रशासनिक क्षमता के लिहाज से अक्सर कमज़ोर ही होते हैं। वे तब ऐसे अफसरों की तलाश करते हैं जो निर्णय  लेने में उनकी सहायता कर सकें। इन नौकरशाहों का आम जनता से कोई सीधा सरोकार नहीं होता और तब विकास के नाम पर, समृद्धि के नाम पर जो नीतियां एवं कार्यक्रम बनते हैं, वे कई बार जनाकांक्षाओं की पूर्ति करने के बजाय संकीर्ण स्वार्थ साधने का माध्यम बन जाते हैं।
आश्चर्य नहीं कि इस वृहत्तर दृश्य में अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों के साथ जनसंचार के माध्यमों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी हो। जब राजनीति व्यक्ति केंद्रित हो जाए तो विचारों की बलि अपने आप चढ़ जाती है। हमें चारों दिशाओं में एक भी ऐसा नेता दिखाई नहीं देता जो मीडिया को अपने अंगूठे के नीचे न रखना चाहता हो। आम जनता भले ही आज भी अखबार पर भरोसा करती हो, हकीकत यही है कि मीडिया को अब जनहित की परवाह नहीं है। राजनेता यह समझने में असमर्थ हैं कि इस नियंत्रण-नीति में उनका ही नुकसान है। उन तक सही सूचनाएं सही वक्त पर नहीं पहुंच पातीं। वे प्रचारतंत्र का शिकार हो जाते हैं। जनमत परखने के इस बहुमूल्य साधन की अवज्ञा या तिरस्कार का स्वाभाविक परिणाम होता है कि जो लोकहितकारी योजनाएं पूरे पांच साल समगति से जारी रहना चाहिए, वे चार साल ठंडे बस्ते में पड़ी रहती हैं और जब चुनाव सिर पर आते हैं तो उनका ढोल पीटा जाता है। इस बीच की अवधि में सत्तासीन दल दूसरी कलाबाजियों में व्यस्त रहा आता है। मतदाता यदि सचमुच इतना भोला है तो इससे प्रभावित हो सकता है। हां, यदि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे तो नीर-क्षीर विवेचन कर उचित निर्णय पर पहुंच सकता है। 
यह प्रश्न उठना भी लाज़मी है कि जो दल सत्ता में नहीं है याने प्रतिपक्ष की भूमिका में हैं, वे अपने समय, शक्ति और संसाधनों का उपयोग किस प्रकार करते हैं। सहज बुद्धि कहती है कि जब चुनी हुई सरकार अपेक्षाओं पर खरी न उतरे तो वे उसकी गलतियों व कमजोरियों को आम जनता के बीच लेकर आएं; सही और गलत का फर्क समझाएं और उन्हें अपने पाले में लाने की जुगत भिड़ाएं। यहां एक तरफ भारतीय जनता पार्टी और दूसरी तरफ कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों के बीच रणनीति और राजनीतिक कौशल का जो फर्क है, उसे समझने की कोशिश करना चाहिए। 2009 के लोकसभा चुनावों से लेकर अब तक भाजपा ने जो रणनीति अपनाई है, वह अद्भुत है। 2009 और 2014 के मध्य उसने केंद्र के कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के विरुद्ध साम-दाम-दंड-भेद, सभी तरह की युक्तियां अपनाईं। किसी भी तरह की सीमा तोड़ने में संकोच नहीं किया। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सत्ता में रहकर भी निरन्तर चुनावी मानसिकता से सक्रिय है। हमने पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था वाले किसी भी अन्य देश में सत्तारूढ़ पार्टी की ऐसी उग्रता आज तक नहीं देखी थी। देश का मतदाता इस अतिरेक को कितना पसंद करता है, यह देखने वाली बात होगी।
प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस व अन्य पार्टियों की रीति-नीति इसके विपरीत है। कांग्रेस प्रारंभ से स्वयं को शासन चलाने की स्वाभाविक पार्टी के रूप में देखते आई थी। इस वजह से चुनाव हार जाने के बावजूद उसका अहंकार कम होने के बजाय दूसरे रूप में प्रकट होने लगता था। उसकी सोच होती थी कि मतदाता ने ही गलती की है और अगले चुनाव में वह कांग्रेस को वापिस सत्ता में ले आएगा। इसलिए उसने विपक्ष की चुनौती को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। कांग्रेस चूंकि कैडर-आधारित पार्टी नहीं है, इसलिए उसके क्षत्रप स्वेच्छाचारी भी हो जाते थे। अनुमान होता है कि यह शोचनीय स्थिति अब बदलने लगी है। कांग्रेस को समझ आ रहा है कि वह सत्ता से बाहर है और उसे सत्ता में लौटने के लिए नई युक्तियां अपनानी होंगी। जनतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण है कि कांग्रेस अपने मद और आलस्य से बाहर निकल कर जनता का विश्वास नए सिरे से जीतने के उद्यम में जुट गई है।
क्षेत्रीय दल एक दूसरे ही ध्रुव पर हैं। उनमें से कुछ कांग्रेस से टूटकर बने हैं; कुछ समाजवादी आंदोलन की देन हैं; और कुछ संकीर्ण क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता से उपजे हैं। ये बातें भले ही बड़ी-बड़ी करें, इनकी वैचारिक पूंजी शून्य है। इन सबकी नजर भी मलाई के छींके पर लगी है। छींके में रखी मटकी छीना-झपटी में टूट जाए तब भी कोई मलाल नहीं। जितना अंजुरी में समा जाए, उतने से फिलहाल संतुष्ट। छींके की डोर सर्वोच्च सत्ता के पास होती है। वह कभी डोर में ढील दे दे तो वे कृतार्थ और कृतज्ञ हो जाते हैं। यदि संतुष्ट न होकर विद्रोही तेवर दिखाए तो छींके की जगह चूहेदानी ले लेती है। कुल मिलाकर अपवाद स्वरूप ही इनमें से कोई साहस का परिचय देकर जोखिम उठाने तैयार रहता है। इन व्यक्तिपूजक दलों के नेता सुप्रीमो कहलाते हैं। उनमें से कोई-कोई राष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षा भी पाल लेते हैं, लेकिन दिल्ली इतनी नजदीक भी नहीं है। देश की तमाम राजनैतिक पार्टियों में कम्युनिस्टों की ढब अलग है। वे सैद्धांतिक विवेचना में अक्सर इतना डूब जाते हैं कि राजनीति के व्यवहारिक पक्ष का उन्हें ख्याल ही नहीं रहता। भाकपा हो या माकपा या माले- सभी कैडर आधारित दल हैं लेकिन उनमें आंतरिक जनतंत्र इतना अधिक है कि  एकमतेन चुनावी रणनीति बनाने में वे हार खा जाते हैं।
कुछ बिंदुओं पर हमने आज चर्चा की। बचे हुए मुद्दों पर आगे बात करेंगे। फिलहाल मेरा आपसे कहना है कि आपका वोट बहुत कीमती है। सोच समझ कर दीजिए।
 देशबंधु में 11 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित 

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