छत्तीसगढ़ के बारे में मशहूर है कि यहां का बयालीस प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित है। इस आंकड़े पर हम अभी बहस नहीं करेंगे। यह भी सर्वविदित है कि यहां की लगभग बत्तीस प्रतिशत आबादी विभिन्न जनजातियों की है। उनमें विलुप्तप्राय जनजातियां यथा- बैगा, कमार, पहाड़ी कोरवा आदि भी हैं। नागर दृष्टि के लिए आदिवासी समाज कौतुक का विषय है या फिर हाल के वर्षों में भय का। एक समय था जब बस्तर या तो कालापानी था या आदिम वासना का उत्सव। प्रदेश का दक्षिणी भाग याने बस्तर अनेक कारणों से चर्चा में रहा है, लेकिन आदिवासी तो प्रदेश की चारों दिशाओं में बसे हुए हैं। उत्तर छत्तीसगढ़ अर्थात सरगुजा, जशपुर के आदिवासी जनजीवन पर जिज्ञासुओं का ध्यान बहुत अधिक नहीं गया है। यद्यपि राजनैतिक कारणों से उसके बारे में भी चर्चाएं होती रहती हैं।
साहित्य जगत में बस्तर को स्थापित करने में महती भूमिका निभाई सुप्रसिद्ध कथाकार शानी ने। वे बस्तर के ही रहने वाले थे। उनका लघु उपन्यास कस्तूरी 1961 में पॉकेट बुक की शक्ल में प्रकाशित हुआ था। बाद में किसी और शीर्षक से उसका नया संस्करण भी छपा। लेकिन कस्तूरी से ज्यादा, बल्कि उनकी कहानियों से ज्यादा शानी को जो ख्याति मिली वह उनके उपन्यास शाल वनों का द्वीप और काला जल के कारण। दूसरी ओर सरगुजा अंचल को केन्द्र में रखकर तेजिंदर ने अपना उपन्यास काला पादरी लिखा। इस उपन्यास की भी पर्याप्त चर्चा हुई। कुछ ही समय पहले तेजिंदर की असमय मृत्यु के बाद इस उपन्यास पर पाठकों का ध्यान फिर गया है। दिलचस्प तथ्य है कि शानी और तेजिंदर दोनों गैर-आदिवासी हैं। यह उनकी गहरी संवेदना और दृष्टि थी जिसने उन्हें अपने प्रदेश के आदिवासी समाज का अध्ययन करने प्रेरित किया।
यहीं आकर एक बड़ी कमी खटकती है कि क्या आदिवासी बहुल प्रदेश में एक भी आदिवासी लेखक नहीं हुआ! यह एक सच्चाई है। पड़ोसी आदिवासी प्रदेश झारखंड को देखते हैं तो यह कमी और शिद्दत से उभर कर सामने आती है। कहना शायद गलत नहीं होगा कि लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में न राजनीति, न अर्थचिंतन, न शिक्षा जगत, न पत्रकारिता और न साहित्य में ही आदिवासी समुदायों से कोई प्रखर प्रतिनिधि सामने आया। लेकिन स्थितियां बदल रही हैं। अन्य क्षेत्रों की चर्चा करना यहां शायद प्रासंगिक न हो, किन्तु यह देखकर प्रसन्नता होती है कि साहित्य के क्षेत्र में आदिवासी प्रतिभाएं अपनी पहचान कायम कर रही हैं। झारखंड में वंदना टेटे, निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन जैसे नाम विगत कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित और स्थापित हुए हैं। छत्तीसगढ़ में भी कम से कम दो नाम मेरे देखने-पढऩे में आए हैं।
अन्ना माधुरी तिर्की की कविताएं कविता छत्तीसगढ़ शीर्षक संग्रह में संकलित हैं। सतीश जायसवाल द्वारा संपादित यह संकलन 2011 में प्रकाशित हुआ था। इसमें सुश्री तिर्की की दस कविताएं ली गई हैं। यह स्वयं मेरे लिए अचरज का विषय है कि मैंने उनकी कोई कविता इस संकलन के आने के पहले नहीं पढ़ी थी। मैं उनके नाम से भी परिचित नहीं था। वे शायद लंबे समय से भोपाल निवासी हैं इसलिए भी उन्हें शायद कभी जानने का मौका नहीं मिला। उनकी कविताओं में मुझे अच्छी संभावनाएं दिखी थीं, लेकिन इसे मैं अपनी ही कमी मानूंगा कि इस संकलन के बाद उनकी कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई। बहरहाल सतीश जायसवाल ने हिन्दी जगत से उन्हें परिचित कराया; इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
इस बीच सरगुजा की विश्वासी एक्का का पहला कविता संकलन लछमनिया का चूल्हा इसी साल प्रकाशित हुआ है। इसमें साठ कविताएं हैं। विश्वासी कहानियां भी लिखती हैं और उनका कहानी संग्रह एक साल पहले ही प्रकाशित हुआ है। लछमनिया का चूल्हा की कविताएं आदिवासी जीवन में आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर हो रहे जीवन संघर्ष को उद्घाटित करती हैं। आदिवासी समाज से उसके पारंपरिक अधिकार छीने गए हैं, उसकी परंपराओं का अनादर किया गया है, उसे एक कौतुहल की वस्तु के रूप में देखा गया है, अनेक प्रकारों से छला और वंचित किया गया है। नागर समाज ने वर्चस्ववादी शक्तियों में आदिवासी के साथ जो क्रूर बर्ताव किया है उसके प्रामाणिक ब्यौरे इन कविताओं में मिलते हैं और उसके बाह्य संघर्ष को सामने लाते हैं।
दूसरी ओर आदिवासी जनजीवन के जो अपने अंतर्विरोध हैं उन्हें चित्रित करने में भी कवयित्री ने कोई संकोच नहीं किया है। संकलन की पहली कविता बिरसो में ही यह अंतर्विरोध अंकित हुआ है। सामान्य समझ है कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता और परस्पर सम्मान का भाव है। इसे एक आदर्श उदाहरण के तौर पर संगोष्ठियों में रखा जाता है, लेकिन बिरसो में एक आजी है जो साही के कांटे से श्रृंगार करती हैं और जब आजा उसे मारने दौड़ते हैं तो आजी साही के कांटों को अपना अस्त्र बना लेती है। यहां एक मिथक के टूटने की हल्की सी ध्वनि सुनाई देती है। बदला शीर्षक कविता में एक अन्य स्थिति का वर्णन है जहां आदिवासी फिल्म के परदे पर नायक से खलनायक को पिटते देख खुश होकर अपनी तकलीफ और बेबसी को भूल जाते हैं मानो वे किस्मत के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। दो अन्य कविताएं मतवाले तथा तकलीफ होती है मुझे भी, में पराजय स्वीकार कर लेना जैसा भाव प्रकट होता है।
इन कुछ कविताओं में विश्वासी एक्का ने अपने समाज की आंतरिक विसंगतियों का बेबाकी से लेकिन गहरी उदासी के साथ चित्रण किया है। संकलन की अन्य कविताएं तथाकथित सभ्य समाज द्वारा आदिवासी जनजीवन पर दिन-प्रतिदिन किए जा रहे चौतरफा हमलों के विरोध में लिखी गई हैं। सरगुजा, जशपुर के अंचल में ईब आदि नदियों में सोने के कण मिलते हैं जिन्हें हासिल कर कितने ही चतुर सुजान लखपति-करोड़पति बन गए हैं। विश्वासी की कविता की नायिका भी नदी की बालू को छानकर सोने के कण बीनना चाहती है, लेकिन उसकी नियति में तो गरीबी की फसल काटना लिखा है। उसके लिए खुशियां रूई के ढेर जैसी हैं कि वह हाथकरघे से बुनी एक पारंपरिक साड़ी खरीदने के लायक भी कमाई नहीं कर पाती।
मंगरू की उलझन कविता एक और मिथक को तोड़ती है। कुछ साल पहले तक माना जाता था कि आदिवासी पलायन नहीं करता, लेकिन स्थितियां बदल गई हैं। मंगरू का बेटा बंबई में समुद्र से रेत निकालने की मजदूरी कर रहा है जो शायद कोई पांच सितारा होटल खड़़ा करने में काम आएगी। लेकिन वह हमेशा अनाम रहा आएगा। बूढ़ा होता मंगरू हांफने लगता है और उसके हिलते हुए होंठों से शब्द नहीं फूटते। भूख कहां कविता एक कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है। भूख से पीडि़त बुधना इस कविता का नायक है जो शेर की निगाह चुराकर उसका अधखाया शिकार अपने खाने के लिए उठा लाता है। गांव में उसकी बहादुरी के चर्चे हो रहे हैं, लेकिन बुधना गुमसुम हो गया है।
हम जानते हैं कि कर्ई वर्षों से विकास के नाम पर आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उत्खनन हो रहा है। झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाकों में इसका व्यापक असर पड़ा है। जिन जंगलों में हाथियों का प्राकृतिक वास था वे उनसे छिन गए हैं। हाथी जाएं तो कहां जाएं? वे कभी नेशनल हाईवे पर सड़क पार करते मारे जाते हैं, कभी रेल की पटरी पर कट जाते हैं। विगत बीस वर्षों में हाथियों ने छत्तीसगढ़ का रुख किया है जिसके चलते स्थानीय निवासियों, जिनमें आदिवासियों की बड़ी संख्या है, का जीना मुहाल हो गया है। वे खड़ी फसल उखाड़ देते हैं, सामने आए लोगों को कुचल देते हैं, सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ सी रही आती है। गजदल कविता बताती है कि गांव के लोग किस तरह हाथियों से खुद को बचाने के लिए क्या-क्या उपाय करते हैं, लेकिन कोई स्थायी हल अभी तक खोजा नहीं जा सका है।
बंधी रह गई गठरी दैनंदिन जीवन में आ रहे परिवर्तन पर एक उदास टिप्पणी है। गांव से आए चाचा अपनी बंधी गठरी लिए ही वापिस लौट जाते हैं। क्योंकि शहर में भतीजे के घर पर सब अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं और चाचा के संग बैठने बतियाने का मन किसी का नहीं है। फिर लूट जाएगा रोहिताश्वगढ़, साजिश, किस्मत का दरवाजा, घिन्न आती है मुझे, गोदना आदि कविताओं में आदिवासी के अभिशप्त जीवन के चित्र हैं जो मर्मान्तक हैं। इन कविताओं में सतर्क रहने के लिए चेतावनी भी है। नदी और तुम कविता नागर जीवन की कृत्रिमता पर कटाक्ष करती है। कुछ अन्य कविताओं में अपनी सहज, प्रकृत जीवन शैली को बचाए रखने की तड़प अभिव्यक्त हुई है।
लछमनिया का चूल्हा की लगभग हर कविता पाठक को ठिठक कर सोचने पर मजबूर करती है। आज का यह दौर, जिसमें पैसा और मुनाफा ही सर्वोपरि मूल्य हो गए हैं, इस तरह से जीवन की उदात्तता को नष्ट कर रहा है। विश्वासी एक्का की रचनाएं आदिवासी जनजीवन का एक प्रामाणिक और विविधवर्णी चित्र बनाती है। इनमें कहीं आक्रोश है तो कहीं हताशा; कहीं वर्चस्ववादी समाज से हार मान लेने की विवशता है, तो कहीं उसका भय; कहीं सावधान रहने की चेतावनी है तो कहीं सम्हल जाने की सीख। इन सारे मनोभावों के बीच कहीं-कहीं गीत-संगीत में रचे-बसे परिवेश में लौट जाने की अभीप्सा भी है। कवयित्री का पहला संकलन भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है।
अक्षर पर्व अक्टूबर 2018 अंक की प्रस्तावना
पुस्तक का नाम- लछमनिया का चूल्हा
लेखिका- विश्वासी एक्का
प्रकाशक- प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन
चेेशायर होम रोड, बरियातु, रांची-834009
मूल्य- 120 रुपए
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